कालिका पुराण अध्याय ४८
कालिका पुराण
अध्याय ४८ में काली के तारावती के रूप में जन्म और चन्द्रशेखर से उनके विवाह का
वर्णन किया गया है ।
कालिका पुराण अध्याय ४८
Kalika puran chapter 48
कालिकापुराणम् अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः चन्द्रशेखरविवाहवर्णनम्
अथ श्रीकालिका
पुराण अध्याय ४८
।। और्व उवाच
।।
अवतीर्णे
महादेवे पौष्यजायासुखेच्छया ।
मानुषेण
प्रमाणेन गते संवत्सरत्रये ।। १ ।।
गिरिजापि
ककुत्स्थस्य राज्ञो भार्यास्वजायत ।
मेनकायां
यथापूर्वं स्वेच्छया परमेश्वरी ॥२॥
और्व बोले-
राजा पौष्य की पत्नी के सुख की इच्छा से, महादेव शिव द्वारा अवतार लेने के पश्चात् मनुष्यमान से तीन
वर्ष व्यतीत हो जाने पर, पूर्वकाल में जैसे परमेश्वरी ने मेनका से जन्म लिया था,
गिरिजा (पार्वती) ने भी राजा ककुत्स्थ की पत्नी से वैसे ही
जन्म लिया ॥ १-२ ॥
अथार्यावर्तविषये
ब्रह्मण्यः शूरसत्तमः ।
इक्ष्वाकुवंशजो
राजा ककुत्स्थो नाम धार्मिकः ।।३।।
आर्यावर्त देश
में इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न, एक ककुत्स्थ नाम के राजा हुये । वे ब्राह्मणभक्त,
वीरों में श्रेष्ठ और धार्मिक थे॥३॥
भोगवत्याह्वयायां
तु पुर्यां रिपुनिषूदनः ।
सर्वलक्षणसम्पन्न
भूपालगुणसंयुतः ।।४।
वे भोगवती नाम
की पुरी में राज्य करते थे । वे शत्रुओं के दमन करने वाले,
सभी लक्षणों से सम्पन्न तथा राजोचित सभी गुणों से युक्त
राजा थे ॥४॥
तस्य भार्या
महाभागा भर्गदेवस्य पुत्रिका ।
सा मनोन्मथिनी
नाम्ना पूजिता पतिवल्लभा ॥५॥
उनकी एक
अत्यन्त सौभाग्यशालिनी पत्नी थी जो भर्गदेव की पुत्री थी। वह मनोन्मथिनी नाम से
पूजी जाती (सम्मानित की जाती) थी और अपने पति को अत्यंत प्रिय थी ॥ ५ ॥
तस्याः
पुत्रशतं यज्ञे देवगर्भाभमच्युतम् ।
बलवीर्यसमायुक्तं
ककुत्स्थनृपसत्तमात् ।। ६ ।।
पुत्री न
विद्यते तस्यास्तदर्थं सा गृहान्तरे ।
निभृतं
स्थण्डिलं कृत्वा चण्डिकां समपूजयत् ।।७।।
उस रानी के
गर्भ से,
राजा ककुत्स्थ के देवताओं के गर्भ के समान आभावाले श्रेष्ठ,
सौ पुत्र उत्पन्न हुये जो बल और वीर्य से भली-भाँति युक्त
थे किन्तु उसे कोई पुत्री नहीं थी, इसलिए उसने घर के भीतर एकान्तस्थान में वेदी बनाकर उस पर
चण्डिकादेवी की भली-भाँति पूजा की ।। ६-७।।
पूज्यमाना
महादेवी चण्डिका राजभार्यया ।
प्रसन्ना सा
त्रिभिर्वर्षैस्तां स्वप्ने चाब्रवीदिदम् ॥८॥
उस राजपत्नी
द्वारा तीन वर्षों तक पूजी जाती हुई महादेवी चण्डिका,
उस पर प्रसन्न हुईं तथा उन्होंने स्वप्न में उससे ये वचन
कहे ॥ ८ ॥
॥
चण्डिकोवाच ।।
योषिल्लक्षणसम्पन्ना
सार्वभौमस्य भामिनी ।
नक्षत्रमालया
युक्ता पुत्री तव भविष्यति ।।९।।
चण्डिका
बोलीं- हे सार्वभौम सम्राट् ककुत्स्थ की पत्नी! तुम्हें स्त्रियोचित सभी लक्षणों
से सम्पन्न, नक्षत्रसमूह से सुशोभित, एक उत्तम पुत्री उत्पन्न होगी ।। ९ ।।
।। और्व उवाच
।।
सापि स्वप्ने
वरं प्राप्य मुदिताभून्नृपाङ्गना ।
पार्वत्यपि
स्वयं तस्या गर्भे काले विवेश ह ।।१०।।
और्व बोले- वह
राजरानी भी स्वप्न में देवी द्वारा उपर्युक्त वर प्राप्त कर प्रसन्न हुई,
तथा समय आने पर स्वयं पार्वती ने ही उसके गर्भ में प्रवेश
किया ॥ १० ॥
सा मनोन्मथिनी
देवी प्रवृत्ते ऋतुसङ्गमे ।
गर्भं दधौ
महासत्त्वं चन्द्रिकेवामृतोत्करम् ।। ११ ।।
जिस प्रकार
चन्द्रिका, अमृत किरणों वाले चन्द्रमा के गर्भ को धारण करती है,
उसी प्रकार मनोन्मथिनी देवी ने ऋतुकालान्तर सङ्गम में
प्रवृत्त हो, उस महाबलशाली के गर्भ को धारण किया ।। ११ ।
सम्पूर्णे तु
ततः काले प्राप्ते नक्षत्रमालिनीम् ।
सा मनोन्मथिनी
देवी सुषुवे तनयां शुभाम् ।।१२।।
तब गर्भ-काल
पूर्ण होने के पश्चात् उचित समय पर उस मनोन्मथिनी देवी ने नक्षत्र-मालाओं से युक्त,
शुभ लक्षणों वाली, एक पुत्री को जन्म दिया ॥१२॥
तां दृष्ट्वा
हारसंयुक्तां शरज्ज्योत्स्नोपमां शुभाम् ।
ककुत्स्थो
भार्यया सार्द्धम् अत्यर्थमुदितोऽभवत् ।। १३ ।।
नक्षत्रों के
हार से युक्त शरदऋतु की चाँदनी के समान सुन्दर, शुभलक्षण- सम्पन्न उस कन्या को देखकर,
अपनी पत्नी के सहित राजा ककुत्स्थ भी बहुत अधिक प्रसन्न
हुये ॥ १३ ॥
सहजेनाथ हारेण
भूषिता तु ककुत्स्थजा ।
ववृधे मन्दिरे
तस्य वर्षास्विव सुरापगा ।। १४ ॥
वह राजा
ककुत्स्थ की पुत्री जो स्वाभाविकरूप से (जन्म से ही ) नक्षत्रहार से सुशोभित थी,
वर्षा ऋतु में जिस प्रकार गङ्गा बढ़ती हैं,
उस राजा के महल में उसी प्रकार बढ़ने लगी ॥ १४ ॥
तेनैव
हारचिह्नेन तस्यास्तारावतीति वै ।
नामाकरोत्
पिता काले यथोक्ते नृपसत्तम ।। १५ ।।
हे नृपसत्तम !
उस हार के चिन्ह के कारण ही उचित समय पर उसके पिता ने राजकुमारी का 'तारावती' नामकरण किया ।। १५ ।।
कालक्रमेण सा
बाल्यं व्यतीता वरवर्णिनी ।
मञ्जुलं
यौवनोद्भेदं प्राप श्रीरिव माधवे ।। १६ ।।
कालक्रम से उस
सुन्दरी ने बाल्यावस्था व्यतीत कर लिया और वसन्तऋतु की शोभा की भाँति उसमें
युवावस्था के सुन्दर अंकुर फूटने लगे ॥ १६ ॥
सा श्रिया
श्रियमन्वेति शौचेनाथ सती शुभा ।
सुशीलां
शीलचरितैः स्वरूपेण च पार्वतीम् ।। १७ ।।
वह शोभा में
लक्ष्मी की, पवित्रता में कल्याणकारिणी सती की, शील- सदाचार में सुशीला की तथा स्वरूप में पार्वती की समता
करती थी॥ १७॥
तस्यास्तु
यौवनोद्भेदं दृष्ट्वा राजा सुतैः सह ।
ककुत्स्थः
कारयामास समयेऽथ स्वयंवरम् ।। १८ ।।
अपने पुत्रों
सहित राजा ककुत्स्थ ने उसके युवावस्था के आरम्भ को देखकर, समय आने पर स्वयंवर का आयोजन किया ।। १८ ।।
माधवे मासि
सम्प्राप्ते चन्द्रवृद्धौ शुभे दिने ।
स्वयंवरसभां
चक्रे तारावत्याः पिता सुतैः ।।१९।।
वैशाख महीने
के चन्द्रवृद्धि (शुक्ल पक्ष) में शुभ दिन आने पर राजकुमारी तारावती के पिता और
उनके पुत्रों द्वारा स्वयंवर सभा का आयोजन किया गया ।। १९।।
वार्तिकांस्तु
बहून् राजा वडवाभिः क्रमेलकैः ।
तूर्णं
प्रस्थापयामास नानादेशनृपान् प्रति ।। २० ।।
इस हेतु राजा
ककुत्स्थ ने बहुत से दूतों को घोड़ियों और ऊटों से शीघ्रतापूर्वक अनेक देशों के
राजाओं के पास भेजा ।। २० ।।
ते राजानस्तदा
श्रुत्वा वार्तां वै वार्तिकाननात् ।
तूर्णमेव
समाजग्मुस्तारावत्याः स्वयंवरम् ।। २१ ।।
दूतों के मुख
से उस सन्देश को सुनकर, वे राजागण तब शीघ्र ही राजकुमारी तारावती के स्वयंवर में आ
पहुँचे ।। २१ ।।
तं श्रुत्वा
पौष्यतनयश्चतुरङ्गबलैर्युतः ।
स्वयंवरं
जगामाशु दिव्यालङ्कारसंयुतः ।। २२ ।।
उस समाचार को ही
सुनकर पौष्य के पुत्र चन्द्रशेखर भी दिव्य आभूषणों से युक्त हो,
चतुरङ्गिणी सेना सहित, उस स्वयंवर में शीघ्र ही पहुँच गये।।२२॥
तत्र गत्वा
नृपश्रेष्ठाः ककुत्स्थेन विनिर्मिते ।
स्वयंवरसभामध्ये
यथायोग्यमुपस्थिताः ।। २३ ।।
वहाँ ककुत्स्थ
द्वारा विशेषरूप से बनवाये गये स्वयंवर सभा में जाकर वे श्रेष्ठ राजागण,
यथायोग्यरूप से उपस्थित हुये ।। २३ ।।
आसीनेष्वथ
भूपेषु ककुत्स्थस्तनयां स्वकाम् ।
शुभे मुहूर्ते
सम्प्राप्ते सभां नेतुं मनोऽकरोत् ।। २४ ।।
उन राजाओं के
यथास्थान बैठ जाने तथा शुभमुहूर्त प्राप्त होने पर राजा ककुत्स्थ ने अपनी पुत्री
को सभा में लाने का मन बनाया ॥२४॥
एतस्मिन्नन्तरे
राज्ञः कुमारी वरवर्णिनी ।
वृद्धां
धात्रीं निजां सम्यक् सम्पूर्णज्ञानशालिनीम् ।। २५ ।।
स्वयंवरसभां
द्रष्टुं प्राहिणोत् सदसं प्रति ।
उवाच च तदा
धात्रीं राजपुत्री सुमङ्गलाम् ।। २६ ।।
इस बीच उत्तम रङ्गरूपवाली
राजकुमारी ने भली प्रकार के और सम्पूर्ण ज्ञान से युक्त सुमङ्गला नामक अपनी बूढ़ी
धाय को,
स्वयंवर सभा के सदस्यों को देखने के लिए भेजा तथा उस समय
राजपुत्री ने उससे कहा - ।। २५-२६।।
।। राजपुत्री
उवाच ।।
स्यंवरसभां
गत्वा चारुरूपं सुलक्षणम् ।
नृपं निरूप्य
भो धात्रि समक्षं मे निवेदय ।। २७ ।।
राजपुत्री
बोली- हे धात्री ! आप स्वयंवर सभा में जाकर, सुन्दररूप तथा सुन्दर लक्षणों से युक्त राजा का निर्धारण,
कर मेरे सम्मुख बताओ ॥२७॥
त्वं मातर्मम
कल्याणं सौभाग्यमपि वाञ्छसि ।
यथा सौभाग्यदः
स्वामी मम स्यात् त्वं तथाकुरु ।। २८ ।।
आप मेरी माता
के समान हो। आप मेरा कल्याण और सौभाग्य भी चाहती हो, जिससे मुझे सौभाग्यदायक स्वामी प्राप्त हो,
आप ऐसा ही करो ॥ २८ ॥
।। और्व उवाच
॥
एवं तां
प्रेषयित्वाथ धात्रीं तां नृपपुत्रिका ।
सा मनोन्मथिनी
यत्र प्राराधयत चण्डिकाम् ।
तत्र
प्रायान्- महाभागा शुभा तारावती तदा ।। २९ ।।
और्व बोले- तब
इस प्रकार से उस धात्री को विदाकर, महाभाग्यवती, सुन्दरी राजकुमारी, तारावती वहाँ गई जहाँ वे महारानी मनोन्मथिनी,
चण्डिका देवी की आराधना कर रही थीं ॥ २९ ॥
तत्र गत्वा
महादेवीं प्रणम्य कालिकाह्वयाम् ।। ३० ।।
मानुषेणाथ
भावेन तां ज्ञात्वात्मानमात्मना ।
प्रणनाम
महाशक्त्या वाक्यं चैतदुवाच ह ।।३१।।
उसने वहाँ
जाकर,
कालिका नामक महादेवी को प्रणाम किया। उनको अपना ही स्वरूप
जान,
स्वयं अपने आप को मनुष्यभाव से प्रणाम किया और उन महाशक्ति से
इन वाक्यों को कहा- ॥३०-३१॥
।।
तारावत्युवाच ॥
प्रणमामि
महामायां योगनिद्रां जगन्मयीम् ।
सा मे
प्रसीदतां गौरी चण्डिका भक्तवत्सला ।। ३२ ।।
तारावती
बोलीं- मैं महामाया, जगन्मयी, योगानिद्रा को प्रणाम करती हूँ । वे भक्तों से प्रेमकरने
वाली,
गौरी, चण्डिका देवी, मुझ पर प्रसन्न हों ॥ ३२ ॥
यदि सत्यं
जनन्या मे मदर्थे त्वं प्रपूजिता ।
तेन सत्येन
सुभगः पतिर्मम नृपोत्तमः ।
स्वयंवरेऽद्य
भवतु प्रसीद हरवल्लभे ।।३३।।
हरप्रिये !
यदि यह सत्य है कि मेरी माता ने मेरे ही लिए आपकी पूजा की है तो उसके फल-स्वरूप,
आज के स्वयंवर में उत्तम राजा ही मेरा पति हो। आप मुझ पर
प्रसन्न हों ।। ३३ ।
।। और्व उवाच
।।
इति तस्या वचः
श्रुत्वा चण्डिका हरमोहिनी ।। ३४ ।।
मोहयन्ती
नृपसुतां यथात्मानं न वेत्ति च ।
तथा
प्राहादृश्यमूर्तिरिदं सा सूनृतं वचः ।। ३५ ।।
और्वमुनि
बोले- उसके इस प्रकार के वचन को सुनकर शिव को मोहित करने वाली चण्डिका देवी ने,
राजकुमारी को मोहित करते हुए, जिससे वह अपने 'आप को न पहचान सके, अदृश्यरूप से ये सत्य वचन कहे ।। ३४-३५ ॥
।। देव्युवाच
।।
पौष्यस्य तनयो
योऽसौ नाम्नाभूच्चन्द्रशेखरः ।
स
मनोहररूपस्ते प्रियः स्वामीभविष्यति ।। ३६।।
देवी बोलीं-
राजा पौष्य के जो चन्द्रशेखर नामक पुत्र उत्पन्न हुए हैं। सुन्दररूप वाले वही,
तुम्हारे प्रिय स्वामी होंगे॥३६॥
तमिन्दुकलया
शीर्षे चिह्नितं नृपसत्तमम् ।
वरयस्व वरारोहे
पार्वतीव वृषध्वजम् ।। ३७।।
हे
श्रेष्ठजाँघोंवाली! मस्तक पर चन्द्रकला से सुशोभित, उस उत्तम राजा का तुम उसी प्रकार वरण करो जैसा कि पार्वती
ने वृषध्वज शिव का वरण किया था ।। ३७।।
।। और्व उवाच
॥
इत्युक्त्वा
विररामाशु पार्वती नृपपुत्रिकाम् ।
सापि नत्वा
तथादृश्यां हर्षोत्फुल्लविलोचना ।
जगाम
मङ्गलगृहं जनन्या यत्र वासिता ॥३८॥
और्व बोले-
राजपुत्री से ऐसा कह कर पार्वती स्वयं चुप हो गई। वह राजकुमारी भी अदृश्यरूप में
ही उन्हें नमस्कार कर, हर्ष से खिले हुए नेत्रों से युक्त हो,
जहाँ उसकी माता निवास कर रही थीं,
उस मङ्गलगृह में चली गई ॥३८॥
अथाजगाम सा
धात्री निरूप्य सदृशं पतिम् ।
तारावत्यास्तदाचष्ट
रहस्यं नृपसत्तम ।। ३९ ।।
हे नृपसत्तम !
तत्पश्चात् वह धात्री भी, उसके लिए उचित पति का निरूपण कर,
वहाँ ही पहुँच गई तथा तारावती ने उससे रहस्य को पूछा ॥३९॥
दृष्ट्वा
तामग्रतो धात्रीं प्रहृष्टां नृपतेः सुता ।
पप्रच्छ
निभृतं कीदृक् को वा दृष्टस्त्वया नृपः ।। ४० ।।
उस प्रसन्न धात्री
को सामने देखकर उस राजकुमारी तारावती ने एकान्त में पूछा कि उसने किस प्रकार के या
किस राजा को देखा था ॥४०॥
सा प्राह
धात्री वचनात् तव भूपा विलोकिताः । । ४१ ।।
चारुरूपाः
कुलीनाश्च शास्त्रे शस्त्रे च पारगाः ।
तेषामहं न
शक्नोमि प्रवक्तुं सुबहून् गुणान् ।। ४२ ।।
उस धात्री ने
कहा- हे राजकुमारी ! आपकी आज्ञा से मैंने राजाओं को देखा है । वे सभी
सुन्दररूपवाले, कुलीन, शस्त्र और शास्त्र में पारङ्गत हैं। उनके बहुत से गुणों का मैं वर्णन नहीं कर
सकती हूँ ।।४१-४२ ।।
येषु मे रोचते
तांस्तु कथयामि शुभप्रभे ।
चारुरूपा मया
तेषु चत्वारः पुरुषाः शुभे ।। ४३ ।।
हे
शुभप्रभावाली, हे शुभस्वरूपा ! उनमें भी जो विशेष अच्छे लगे, उनमें चार पुरुषों के विषय में तुमसे कहती हूँ ।।४३।।
दृष्टास्तत्रापि
नासत्यौ देवौ द्वावपरौ नरौ ।
देवयोः कथने
कृत्यं किञ्चिन्नापि न विद्यते ।। ४४ ।।
उन चारों में
मैंने दो देवों, अश्विनीकुमारों और दो अन्य मनुष्यों को देखा । देवताओं के विषय में तो आपसे
कहने योग्य कुछ भी नहीं है ॥ ४४ ॥
यौ पुनः
पृथिवीपालौ तयोरेकः सदारकः ।
नाम्ना
सर्वाङ्गकल्याणोऽथापरश्चन्द्रशेखरः ।। ४५ ।।
अब पुनः जो दो
राजा देखे गये, उनमें एक पत्नी के सहित अर्थात् विवाहित है और उसका नाम सर्वाङ्गकल्याण तथा
दूसरे का नाम चन्द्रशेखर है ।। ४५ ।।
नासत्ययोरेतयोस्तु
विशेषो नास्ति कश्चन ।
रूपे
शरीरसौभाग्ये सर्वे चातिमनोहराः ।। ४६ ।।
नृपौ
पुनर्महासत्त्वौ सिंहस्कन्धौ महाभुजौ ।
आरक्तपाणिनयनमुखपादकरोद्भवौ
।। ४७ ।।
पीनोरस्कौ
विशालाक्षौ लग्नभूयुगलावुभौ ।
सर्वलक्षणसम्पूण
देवालङ्कारमण्डितौ ।।४८।।
अश्विनी
कुमारों की कोई ऐसी विशेषता नहीं है जो उन दोनों में न हो । रूप,
शरीर की सुन्दरता में सभी अति सुन्दर हैं किन्तु वे दोनों
विशेष रूप से महान् बलशाली, सिंह के समान कन्धेवाले, विशाल भुजाओं वाले हैं। उनके मुख,
नेत्र, हाथ, हाथ की अंगुलियाँ और पैर लाल हैं। वक्षस्थल पुष्ट,
उनके नेत्र विशाल हैं तथा उनकी दोनों भौंहें परस्पर मिली
हुई हैं। वे देवताओं के अलङ्कार से सुशोभित हैं एवं सभी लक्षणों से परिपूर्ण हैं ।
४६- ४८ ॥
तयोरपि
वयःस्थत्वात् प्रशस्तश्चन्द्रशेखरः ।
सुशीलः
सूनृतवचाः शास्त्रे शस्त्रे च सम्मतः ।। ४९ ।।
उनमें भी वय
के कारण चन्द्रशेखर प्रशंसनीय हैं। वे सुशील, सत्यवादी और शस्त्र तथा शास्त्र में समान बुद्धि रखने वाले
हैं ॥ ४९ ॥
ईषदुद्भिन्नरोम्णा
तु नीलेन चारु निर्मलम् ।
राजते वदनं
तस्य लक्ष्मणेव निशाकरः ॥५०॥
निर्मल तथा
सुन्दर कालेवर्ण की थोड़ी उगी हुई मूछों के कारण उनका मुख- मण्डल,
लक्ष्म (दाग) से युक्त चन्द्रमा की भाँति शोभायमान हो रहा
है ॥ ५० ॥
दीप्तिमत्यापि
कलया राजते स निशापतेः ।
सहजेन
शिरस्थेन साक्षात् स चन्द्रशेखरः ।। ५१ ।।
वे अपने मस्तक
पर चमकती हुई चन्द्रकला के कारण, जो स्वाभाविकरूप से उनके सिर पर स्थित है,
दूसरे शिव के समान शोभायमान हो रहे हैं ॥ ५१ ॥
स एव ते
पतिर्योग्यश्चिह्नेनानेन सुन्दरि ।
तं त्वं वरय
राजानं तव योग्यं शुभोदयम् ।।५२ ।।
हे सुन्दरी !
इन लक्षणों के कारण वे ही तुम्हारे योग्य पति हैं। शुभ लक्षणों से युक्त,
उन्हीं योग्य राजा का तुम वरण करो ।। ५२ ।।
धात्र्याश्चैवं
वचः श्रुत्वा राजपुत्री जगाद ताम् ।
मत्पार्श्वचारिणी
भूत्वा निदेशय नृपोत्तमम् ।
धात्रि
स्वयंवरसभाप्रवेशसमये मम ।। ५३ ।।
धात्री के
उपर्युक्त वचनों को सुनकर, राजपुत्री तारावती ने उससे कहा-हे धात्री ! तुम मेरे सभा
में प्रवेश के समय, मेरे पार्श्वभाग में चलती हुई,
उत्तम राजा चन्द्रशेखर को बताओ ॥ ५३ ॥
तयोरायात्तदा
राजा त्वन्योन्यं भाषमाणयोः ।। ५४ ।।
सुतां
स्वयंवरसभां नेतुं काले शुभोदये ।
स्वयं तदा
ककुत्स्थस्तु सुताया मङ्गलालये ।। ५५ ।।
वे दोनों जिस
समय परस्पर उपर्युक्त वार्तालाप कर रही थीं। उसी समय राजा ककुत्स्थ शुभ बेला में
अपनी पुत्री को स्वयंवर सभा में ले जाने के लिए मङ्गलभवन में,
स्वयं आ गये ।। ५४-५५ ॥
आसाद्य
पुत्रीं दयितां योषिद्भिः कृतमङ्गलाम ।
माल्यं
सुगन्धिपुष्पाणां करेणादाय तत्करे ।
दत्त्वा
चेदमुवाचाशु प्रापयन् मङ्गलालयात् ।। ५६ ।।
स्त्रियों
द्वारा मङ्गलाचार की जाती हुई अपनी पुत्री तारावती एवं पत्नी के समीप पहुँचकर,
पत्नी के हाथ से सुगन्धित पुष्पों से बनी वरमाला लेकर,
उन्होंने पुत्री के हाथ में दे दिया और उस मङ्गलभवन से
शीघ्र प्रस्थान करते हुए कहा - ॥५६॥
।। राजोवाच ।।
प्रविश्य समितौ
मातुर्माल्येनान्येन सत्तमम् ।
यं त्वमिच्छसि
राजानं द्विजं वा त्वं वरिष्यसि ।। ५७ ।।
राजा बोले-
जिस उत्तम राजकुमार या द्विजवर्य को तुम चाहती हो, सभा में प्रवेश कर, माता द्वारा प्रदत्त इस माला से तुम उसका वरण करोगी ॥ ५७ ॥
।। और्व उवाच
।।
एवमुक्त्वा शिविकया
स्वाप्तैर्वृद्धैश्च पुरुषैः ।
प्रवेशयामास
सुतां ककुत्स्थः समिति मुदा ।। ५८ ।।
और्व बोले-
ऐसा कहकर,
राजा ककुत्स्थ ने अपनी पुत्री को शिविका में सवार कराकर तथा
अपने प्रतिष्ठित, वृद्ध पुरुषों के सहित स्वयंवर सभा में प्रवेश कराया ।। ५८
।।
तामागतां सभां
दृष्ट्वा शक्राद्यास्त्रिदशास्तदा ।
अन्ये
दिक्पतयश्चापि सभां तत्क्षणमागताः ।। ५९ ।।
उस समय उस
राजकुमारी को सभा में आयी हुई देखकर इन्द्रादि देवतागण तथा अन्य दिग्पाल तत्काल उस
सभा में उपस्थित हो गये ।। ५९ ।।
सावतीर्य
तदावाप्य यानात् तारावती मुदा ।
धात्र्या
चानुगया युक्ता व्यचरत् सदसोऽन्तरे ।। ६० ।।
तब वह
राजकुमारी तारावती, यान (शिविका) से उतर कर, धात्री द्वारा अनुगमन की जाती हुई,
सभा के मध्य प्रसन्नतापूर्वक विचरण करने लगी ।। ६० ।।
सभामध्ये चिरं
सा तु विहृत्य वरवर्णिनी ।
भावित्वान्नियतेर्योगाच्चण्डिकायाः
प्रसादतः ।। ६१ ।।
तयोः
समत्वादेकत्वात्तया धात्र्या विबोधिता ।
गतिस्वेदजघर्माम्भः
कणिकानिचितानना।।६२।।
पतिं पूर्वतरं
पुत्री राज्ञस्तारावती सती ।
स्वयं स
पार्वती देवी वव्रे च चन्द्रशेखरम् ।। ६३ ।।
सभा में बहुत
समय तक विहार कर, पूर्वकाल में जैसे पार्वती देवी ने चन्द्रशेखर शिव का वरण
किया था,
उस वरान्वेषिणी, राजपुत्री, सती, तारावती ने उसी प्रकार भावीवश,
नियति के योग और चण्डिका देवी की कृपा से,
उस धात्री द्वारा बताये जाने पर,
उन दोनों की समानता में से भी एक,
पहले के पति,चन्द्रशेखर का वरण कर लिया। उस समय चलने से उनके मुख पर आयी
पसीने की बूँदै, उनके मुखमण्डल की शोभा बढ़ा रही थीं ।। ६१-६३।।
वृतं दृष्ट्वा
तदा तन्तु ब्राह्मणाः सामगीतिभिः ।
तयोर्वैवाहिकञ्चक्रुर्मङ्गलं
यतमानसाः ।। ६४ ।।
तब उनको वरा
गया देखकर ब्राह्मणों ने नियतमन से, सामगान द्वारा उन दोनों के वैवाहिकमङ्गल का कार्य सम्पन्न
किया ।। ६४ ।।
वैतालिका
गायकाश्च तथा तौर्यत्रिका नृप ।
प्रशंसन्ति
स्म गायन्ति वादयन्ति च कौतुकात् ।। ६५ ।।
हे राजा ! उस
समय चारण,
गायक तथा तौर्यत्रिक (नाचगान और वादन के समेकित रुप सम्पन्न
करने वाले), उत्सुकता से क्रमश: प्रशंसा कर रहे थे, गा रहे थे तथा बाजे बजा रहे थे ।।६५।।
सर्वे च त्रिदशा
मोदमवापुश्चन्द्रशेखरे ।
तारावत्या
वृते चाथ ककुत्स्थोऽप्यतिहर्षितः ।। ६६ ।।
उस समय
तारावती के द्वारा चन्द्रशेखर का वरण किये जाने पर सभी देवताओं ने प्रसन्नता का
अनुभव किया तथा राजा ककुत्स्थ भी अत्यधिक प्रसन्न हुए ॥६६॥
वृत्तान्तं
वीक्ष्य ये भूपाः सुबाहुप्रमुखाः परे ।
रुष्टास्तान्
वारयामास समितौ चन्द्रशेखरः ।। ६७ ।।
उस वृतान्त को
देखकर सुबाहु आदि जो अन्य रुष्ट राजागण, उस सभा में उपस्थित थे, उन सबको चन्द्रशेखर ने रोका ॥६७॥
ततो यातेषु
देवेषु त्रिदिवं प्रति स्वेच्छया ।। ६८ ।।
भूपेषु च
प्रयातेषु ककुत्स्थेनार्चितेषु च ।
वैवाहिकेन
विधिना स राजा चन्द्रशेखरः ।। ६९ ।।
तारावतीं तदा
भार्यां ककुत्स्थानुमते पुनः ।
संस्कृत्य
ज्ञापयामास देवेभ्यो वैदिकैर्मखैः ।। ७० ।।
तब ककुत्स्थ
द्वारा पूजित हो स्वेच्छापूर्वक देवों के स्वर्ग तथा राजाओं के अपने-अपने स्थान को
चले जाने पर, उस राजा चन्द्रशेखर ने वैवाहिक विधि के अनुसार, राजा ककुत्स्थ की अनुमति से वैदिक याज्ञिक ब्राह्मणों तथा
देवताओं द्वारा संस्कारित कर, तारावती को अपनी पत्नी घोषित किया ।। ६८-७० ।।
पाणिग्रहणसंस्कारान्
कृत्वा तां सहचारिणीम् ।
करवीरपुरायाशु
प्रययौ चन्द्रशेखरः ।। ७१ ।।
तब चन्द्रशेखर
ने उस तारावती का पाणिग्रहण संस्कार करके उसे अपनी सहचारिणी बनाकर,
शीघ्र ही करवीरपुर के लिए प्रस्थान कर दिया ॥ ७१ ॥
द्वाविंशत् तु
सहस्राणि दासीनां प्रददौ पुनः ।
ककुत्स्थाख्यो
विश्पतये तस्मिन्नुद्वाहकर्मणि ।। ७२ ।।
उस विवाहकर्म
में,
ककुत्स्थ नामक उस राजा ने, राजा चन्द्रशेखर को बाईस हजार दासियाँ प्रदान की ॥७२॥
गवां
षष्टिसहस्राणि सौरभीणां तथैव च ।
दुहित्रे
प्रददौ दायं दासान् दासीः प्रमाणतः ।। ७३ ।।
साठ हजार
सुरभि वंश की उत्तम गायें तथा दासियों की संख्या से (बाईस हजार) दास भी उस
ककुत्स्थ नाम के राजा ने अपनी कन्या को दहेजरूप में दिया ॥७३॥
अपरा या निजा
पुत्री ककुत्स्थाख्यस्य भूपतेः ।
नाम्ना
चित्राङ्गदा ख्याता रूपैस्तारावती समा ।।७४ ।।
दासीनामधिपा
भूत्वा स्वयं चानुययौ तदा ।
तारावतीं
भूपसुतां ज्येष्ठां स्वां भगिनीं शुभाम् ।। ७५ ।।
उस ककुत्स्थ
नामक राजा की अपनी चित्राङ्गदा नामक जो दूसरी पुत्री थी,
जो रूप तथा युवावस्था में तारावती के ही समान थी,
उन दासियों की स्वामिनी बनकर, अपनी बड़ी बहन राजकुमारी तारावती की अनुगामिनी हो गई ।।
७४-७५॥
तान् दासान्
सुसमादाय ककुत्स्थतनयो महान् ।
ज्येष्ठो
विश्वावसुर्नाम गच्छन्तं चन्द्रशेखरम् ।। ७६ ।।
तारावत्या च
सहितं स्यन्दनेनाशुगामिना ।
धीमाननुययौ
पश्चात् करवीरपुरं प्रति ।। ७७ ।।
विश्वावसु नाम
के ककुत्स्थ के ज्येष्ठ, बुद्धिमान् एवं महान् पुत्र ने उन दहेज में दिये गये दासों
को भली भाँति लेकर तीव्रगामी रथ से बाद में तारावती के साथ करवीरपुर को जाते हुए
राजा चन्द्रशेखर का अनुगमन किया।।७६-७७॥
तारावत्या समं
राजा पौष्यजश्चन्द्रशेखरः ।
करवीरपुरे
रम्ये रेमे नृपतिशेखरः ।।७८ ।।
राजाओं में
श्रेष्ठ पौष्य-पुत्र, राजा चन्द्रशेखर ने तारावती के साथ,
सुन्दर करवीरपुर में रमण किया ।। ७८ ।।
इति स्वयं
महादेवो मानुषीं योनिमाश्रितः ।
पार्वती च
स्वयं जाता नारयोनिमनिन्दिता ।। ७९ ।।
इस प्रकार से
स्वयं महादेव (शिव) ने मनुष्ययोनि का आश्रय लिया तथा अनिन्दिता पार्वती ने
मनुष्ययोनि में जन्म लिया ॥ ७९ ॥
यथा भृङ्गी
महाकाल एतयोरभवत् सुतः ।
तथा त्वं शृणु
राजेन्द्र कथयामि समुद्भवम् ॥८०॥
हे राजेन्द्र
! अब उस मनुष्ययोनि में जिस प्रकार भृङ्गी एवं महाकाल,
उनके पुत्ररूप में उत्पन्न हुए,
उसे मैं तुमसे कहता हूँ। तुम उसे सुनो ॥ ८० ॥
॥ इति
श्रीकालिकापुराणे चन्द्रशेखरविवाहवर्णनोनाम अष्टचत्वारिंशोध्यायः ॥ ४८ ॥
॥
श्रीकालिकापुराण में चन्द्रशेखर - विवाहवर्णननामक अड़तालिसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ
॥ ४८॥
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 49
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