स्वस्ति प्रार्थना
स्वस्ति प्रार्थना
Swasti prarthana
रुद्राष्टाध्यायी
के अन्त में 'स्वस्ति न इन्द्रो' इत्यादि १२ मन्त्र स्वस्ति-प्रार्थना के रूप में ख्यात हैं।
स्वस्ति-प्रार्थना
के निम्न मन्त्र में देवों का सामञ्जस्य सुचारुरूप में वर्णित है। 'एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति' यह उपनिषद् - वाक्य यहाँ चरितार्थ होता है-
ॐ
अग्निर्देवता वातो देवता सूर्यो देवता चन्द्रमा देवता वसवो देवता रुद्रा देवता
ऽऽदित्या देवता मरुतो देवता विश्वे देवा देवता बृहस्पतिर्देवतेन्द्रो देवता वरुणो
देवता ॥
रुद्राष्टाध्यायी दशमोऽध्यायः स्वस्तिप्रार्थनामन्त्राध्यायः
Rudrashtadhyayi chapter 10- Swasti prarthana
रुद्राष्टाध्यायी
अध्याय १०
॥ श्रीहरिः ॥
॥ श्रीगणेशाय
नमः ॥
रुद्राष्टाध्यायी – दसवाँ अध्याय स्वस्ति प्रार्थना
अथ
श्रीशुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी भावार्थ सहित
अथ
श्रीशुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी दशमोऽध्यायः
ॐ स्वस्ति न
इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥
स्वस्ति
नस्तार्क्ष्योऽरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥ १॥
महती कीर्ति
वाले ऎश्वर्यशाली इन्द्र हमारा कल्याण करें, सर्वज्ञ तथा सबके पोषणकर्ता पूषादेव (सूर्य) हमारे लिए मंगल
का विधान करें। चक्रधारा के समान जिनकी गति को कोई रोक नहीं सकता,
वे तार्क्ष्यदेव हमारा कल्याण करें और वेदवाणी के स्वामी
बृहस्पति हमारे लिए कल्याण का विधान करें।
पयः पृथिव्यां
पय ओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः ।
पयस्वतीः
प्रदिशः सन्तु मह्यम् ॥ २॥
हे अग्निदेव !
आप हमारे लिए पृथ्वी पर रस धारण कीजिए, औषधियों में रस डालिए, स्वर्गलोक तथा अन्तरिक्ष में रस स्थापित कीजिए,
आहुति देने से सारी दिशाएँ और विदिशाएँ मेरे लिए रस से
परिपूर्ण हो जाएँ।
विष्णो
रराटमसि विष्णोः श्नप्त्रेस्थो विष्ष्णोः स्यूरसि विष्णोर्धुवोऽसि ॥
वैष्णवमसि
विष्णवे त्वा ॥ ३॥
हे
दर्भमालाधार वंश ! तुम यज्ञरूप विष्णु के ललाटस्थानीय हो. हे ललाट के प्रान्तद्वय
! तुम दोनों यज्ञरूप विष्णु के ओष्ठसन्धिरूप हो। हे बृहत-सूची ! तुम यज्ञीय मण्डप
की सूची हो। हे ग्रंथि ! तुम यज्ञीय विष्णुरुप मण्डप की मजबूत गाँठ हो। हे
हविर्धान ! तुम विष्णुसंबंधी हो, इस कारण विष्णु की प्रीति के लिए तुम्हारा स्पर्श करता हूँ।
दोनों हविर्धानों (शकटों) को दक्षिणोत्तर स्थापित करके उनके ढक्कनों का मण्डप
बनाएँ। हविर्धान-मण्डप के पूर्वद्वारवर्ती स्तम्भ के मध्य में कुशों की माला
गूँथे।
अग्निर्देवता
वातौ देवता सूर्यो देवता चन्द्रमा देवता वसवो देवता
रुद्रा
देवताऽऽदित्या देवता मरुतो देवता विश्वेदेवा देवता
बृहस्पतिर्देवतेन्द्रो
देवता वरुणो देवता ॥ ४॥
अग्नि देवता,
वायु देवता, सूर्य देवता, चन्द्र देवता, वसु देवता, रुद्र देवता, आदित्य देवता, मरुत् – देवता, विश्वेदेव देवता, बृहस्पति देवता, इन्द्र देवता और वरुण देवता का स्मरण करके मैं इस इष्टका को
स्थापित करता हूँ।
सद्योजातं
प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमो नमः ॥
भवे भवे
नातिभवे भवस्व मां भवोद्भवाय नमः ॥ ५॥
मैं “सद्योजात” नामक परमेश्वर की शरण लेता हूँ। पश्चिमाभिमुख भगवान
सद्योजात के लिए प्रणाम हैं। हे रुद्रदेव ! अनेक बार जन्म लेने हेतु मुझे प्रेरित
मत कीजिए,
किंतु जन्म से दूर करने के निमित्त मुझे तत्त्वज्ञान के लिए
प्रेरणा प्रदान कीजिए। संसार के उद्धारकर्ता सद्योजात के लिए नमस्कार है।
वामदेवाय नमो
ज्येष्ठाय नमः श्रेष्ठाय नमो
रुद्राय नमः
कालाय नमः कलविकरणाय नमो
बल विकरणाय
नमो बलाय नमो बलप्रमथनाय नमः
सर्वभूतदमनाय
नमो मनोन्मनाय नमः ॥ ६॥
उत्तराभिमुख
वामदेव के लिए नमस्कार है। उन्हीं के विग्रहस्वरुप ज्येष्ठ,
श्रेष्ठ, रुद्र, काल, कलविकरण, बलविकरण, बल, बलप्रमथन, सर्वभूतदमन तथा मनोन्मन – इन महादेव की पीठाधिष्ठित शक्तियों के स्वामियों को नमस्कार
है।
अघोरेभ्योऽथ
घोरेभ्यो धोरघोरतरेभ्यः ।
सर्वेभ्यः
सर्वशर्वेभ्यो नमस्तेऽस्तु रुद्ररूपेभ्यः ॥ ७॥
दक्षिणाभिमुख
सत्त्वगुणयुक्त “अघोर” नामक रुद्रदेव के लिए प्रणाम है। इसी प्रकार राजसगुणयुक्त “घोर” तथा तामसगुणयुक्त “घोरतर” नामक रुद्र के लिए प्रणाम है। हे शर्व ! आपके रुद्र आदि सभी
रूपों के लिए नमस्कार है।
तत्पुरुषाय
विद्महे महादेवाय धीमहि ।
तन्नो रुद्रः
प्रचोदयात् ॥ ८॥
हम लोग उस
पूर्वाभिमुख “तत्पुरुष” महादेव को गुरु तथा शास्त्रमुख से जानते हैं, ऎसा जानकर हम उन महादेव का ध्यान करते हैं,
इसलिए वे रुद्र हमको ज्ञान-ध्यान के लिए प्रेरित करें।
ईशानः
सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानाम् ।
ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणोऽधिपतिर्ब्रह्मा
शिवो मेऽस्तु सदाशिवोऽम् ॥ ९॥
उन ऊर्ध्वमुखी
भगवान “ईशान” के लिए प्रणाम है जो वेदशास्त्रादि विद्या और चौंसठ कलाओं
के नियामक, समस्त प्राणियों के स्वामी, वेद के अधिपति एवं हिरण्यगर्भ के स्वामी हैं। वे साक्षात
ब्रह्मस्वरुप परमात्मा शिव हमारे लिए कल्याणकारी हों (अथवा उनकी कृपा से मैं भी
सदाशिवस्वरुप हो जाऊँ) ।
शिवोनामासि
स्वधितिस्ते पिता नमस्तेऽस्तु मा मा हि ঌ सीः ॥
निवर्तयाम्यायुषेऽन्नाद्याय
प्रजननाय रायस्पोपाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय ॥ १०॥
हे क्षुर !
आपका नाम “शान्त” है। आपके पिता वज्र हैं। मैं आपके लिए नमस्कार करता हूँ। आप मुझे किसी प्रकार
की क्षति मत पहुँचाइए। हे यजमान ! आपके बहुत दिनों तक जीवित रहने के लिए,
अन्न भक्षण करने के लिए, संतति के लिए, द्रव्यवृद्धि के लिए तथा उत्तम अपत्य उत्पन्न होने के लिए
और उत्तम सामर्थ्य की प्राप्ति के लिए मैं आपका वपन (मुण्डन) करता हूँ।
विश्वानि देव
सवितर्दुरितानि परासुव ॥
यद्भद्रं तन्न
आसुव ॥ ११॥
हे सूर्यदेव !
आप मेरे सभी पापों को दूर कीजिए और जो कुछ भी मेरे लिए कल्याणकारी हो,
उसे मुझे प्राप्त कराइए।
ॐ द्यौः
शान्तिरन्तरिक्ष ঌ शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधय शान्तिः ।
वनस्पतयः
शान्ति र्विश्वेदेवाः शान्ति र्ब्रह्मशान्तिः सर्व ঌ शान्तिः
शान्तिरेव
शान्तिः सामाशान्तिरेधि ॥ १२॥
द्युलोकरूप
शान्ति,
अन्तरिक्षरुप शान्ति, भूलोकरूप शान्ति, जलरुप शान्ति, औषधिरुप शान्ति, वनस्पतिरुप शान्ति, सर्वदेवरुप शान्ति, ब्रह्मरुप शान्ति, सर्वजगत्-रूप शान्ति और संसार में स्वभावत: जो शान्ति रहती
है,
वह शान्ति मुझे परमात्मा की कृपा से प्राप्त हो।
ॐ सर्वेषां वा
एष वेदाना ঌ रसो यत्साम ।
सर्वेषा मेवैन
मेतद् वेदाना ঌ रसेनाभिषिञ्चति ॥ १३॥
ॐशान्तिः
शान्तिः शान्तिः ॥
सभी वेदों का
तत्त्वस्वरुप रस, जो सामवेद अथवा भगवान साम (भगवान विष्णु या कृष्ण –
“वेदानां सामवेदोsस्मि”) हैं, वे अपने उसी सामरस से समस्त वेदों का अभिसिंचन करते हैं।
इति
रुद्राष्टाध्यायी दशमोऽध्यायः स्वस्तिप्रार्थनामन्त्राध्यायः ॥
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