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कर्मकाण्ड

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जटासूक्त

जटासूक्त

जटासूक्त- रुद्राष्टाध्यायी (रुद्री) के अध्याय ७ में कुल ७  श्लोक है।'उग्रश्च० ' इत्यादि सप्त- मन्त्रात्मक सप्तम अध्याय 'जटा' नाम से विख्यात है।

जटासूक्त

जटासूक्तम्

Jata sukta

सप्तमाध्याय को 'जटा' कहा जाता है। 'उग्रश्चभीमश्च' मन्त्र में मरुत् देवता का वर्णन है। इस अध्याय के 'लोमभ्यः स्वाहा' से 'यमाय स्वाहा' तक के मन्त्र कई विद्वान् अभिषेक में ग्रहण करते हैं और कई विद्वान् इनको अस्वीकार करते हैं; क्योंकि अन्त्येष्टि-संस्कार में चिताहोम में इन मन्त्रों से आहुतियाँ दी जाती हैं।

रुद्राष्टाध्यायी सप्तमोऽध्यायः जटासूक्तम्   

Rudrashtadhyayi chapter 7- Jata suktam

रुद्राष्टाध्यायी अध्याय ७  

॥ श्रीहरिः ॥

॥ श्रीगणेशाय नमः ॥

रुद्राष्टाध्यायी सातवाँ अध्याय जटा सूक्त

अथ श्रीशुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी भावार्थ सहित

अथ श्रीशुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी सप्तमोऽध्यायः

उग्नश्च भीमश्च ध्वान्तश्च धुनिश्च ।

सा सहवांश्चाभि युग्वा च विक्षिपः स्वाहा ॥ १॥

उग्र (उत्कट क्रोध स्वभाव वाले), भीम (भयानक), ध्वान्त (तीव्र ध्वनि करने वाले), धुनि (शत्रुओं को कम्पित करने वाले), सासह्वान (शत्रुओं को तिरस्कृत करने में समर्थ), अभियुग्वा (हमारे सम्मुख योग प्राप्त करने वाले) और विक्षिप (वृक्ष-शाखादि का क्षेपण करने वाले) नाम वाले जो सात मरुत् हैं, उन्हें मैं यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित करता हूँ।

अग्नि हृदयेना शनि हृदयाग्रेण पशुपतिं कृत्स्न हृदयेन भवं यक्ना ॥

शर्वम् मतस्नाभ्या मीशानं मन्युना महादेवमन्तःपर्श व्येनोग्रं देवं वनिष्ठुना

वसिष्ठ हनुः शिङ्गीनि कोश्याभ्याम् ॥ २॥

मैं अग्नि को हृदय के द्वारा, अशनिदेव को हृदयाग्र से, पशुपति को सारे हृदय से, भव को यकृत से, शर्व को मतस्ना नामक हृदय स्थल से, ईशान देवता को क्रोध से, महादेव को पसलियों के अन्तर्भाग से, उग्र देवता को बड़ी आँत से और शिंगी नामक देवताओं को हृदयकोष स्थित पिण्डों से प्रसन्न करता हूँ।

उग्रँ लोहितेन मित्र सौव्रत्येनन्द्रं दौव्रत्येन प्रक्रीडेन मरुतो बलेन साध्यान्प्रमुदा ।

भवस्य कण्ठ्य रुद्रस्यान्तः पार्श्व् यम् महादेवस्य यकृच्छर्वस्य वनिष्ठुः पशुपतेः पुरीतत् ॥ ३॥

उग्र देवता को रुधिर से, मित्र देवता को शुभ कर्मों के अनुष्ठान से, रुद्र देवता को अशोभन कर्मों से, इन्द्र देवता को प्रकृष्ट क्रीडाओं से, मरुत् देवताओं को बल से, साध्य देवताओं को हर्ष से, भव देवताओं को कण्ठ भाग से, रुद्र देवता को पसलियों के अन्तर्भाग से, महादेव को यकृत से, शर्व देवता को बड़ी आँत से और पशुपति देवता को पुरीतत् (हृदयाच्छादक भाग विशेष) से संतुष्ट करता हूँ।

लोमभ्यः स्वाहा लोमभ्यः स्वाहा त्वचे स्वाहा त्वचे स्वाहा लोहिताय स्वाहा लोहिताय स्वाहा

मेदोभ्यः स्वाहा मेदोभ्यः स्वाहा ॥

मा सेभ्यः स्वाहा मा सेभ्यः स्वाहा स्नावभ्यः स्वाहा स्नावभ्यः स्वाहा

अस्थभ्यः स्वाहा अस्थभ्यः स्वाहा मज्जभ्यः स्वाहा मज्जभ्यः स्वाहा ॥

रेतसे स्वाहा पायवे स्वाहा ॥ ४॥

समष्टि लोमों के लिए यह श्रेष्ठ आहुति देता हूँ, व्यष्टि लोमों के लिए यह श्रेष्ठ आहुति देता हूँ, समष्टि त्वचा के लिए, व्यष्टि त्वचा के लिए, समष्टि रुधिर के लिए, व्यष्टि रुधिर के लिए, समष्टि मेदा के लिए, व्यष्टि मेदा के लिए, समष्टि मांस के लिए, व्यष्टि मांस के लिए, समष्टि नसों के लिए, व्यष्टि नसों के लिए, समष्टि अस्थियों के लिए, व्यष्टि अस्थियों के लिए, समष्टि मज्जा के लिए, व्यष्टि मज्जा के लिए, वीर्य के लिए और पायु इन्द्रिय के लिए मैं यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित करता हूँ।

आयासाय स्वाहा प्रायासाय स्वाहा संयासाय स्वाहा वियासाय स्वाहोद्यासाय स्वाहा ॥

शुचे स्वाहा शोचते स्वाहा शोचमानाय स्वाहा शोकाय स्वाहा ॥ ५॥

आयास देवता के लिए, प्रायास देवता के लिए, संयास देवता के लिए, वियास देवता के लिए और उद्यास देवता के लिए, शुचि के लिए, शोचत् के लिए, शोचमान के लिए और शोक के लिए मैं यह श्रेष्ठ आहुति प्रदान करता हूँ।

तपसे स्वाहा तप्यते स्वाहा तप्यमानाय स्वाहा तप्ताय स्वाहा घर्माय स्वाहा ॥

निष्कृत्यै स्वाहा प्रायश्चित्यै स्वाहा भेषजाय स्वाहा ॥ ६॥

तप के लिए, तपकर्ता के लिए, तप्यमान के लिए, तप्त के लिए, घर्म के लिए, निष्कृति के लिए, प्रायश्चित के लिए और औषध के लिए मैं यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित करता हूँ।

यमाय स्वाहा अन्तकाय स्वाहा मृत्यवे स्वाहा ॥

ब्रह्मणे स्वाहा ब्रह्महत्यायै स्वाहा विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा द्यावापृथिवीभ्या स्वाहा ॥ ७॥

यम के लिए, अन्तक के लिए, मृत्यु के लिए, ब्रह्मा के लिए, ब्रह्महत्या के लिए, विश्वेदेवों के लिए, द्युलोक के लिए तथा पृथ्वीलोक के लिए मैं यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित करता हूँ।

इति रुद्राष्टाध्यायी जटासूक्तनाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ।।

॥ इस प्रकार रुद्रपाठ (रुद्राष्टाध्यायी) का सातवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७ ॥

आगे जारी.......... रुद्राष्टाध्यायी अध्याय 8- चमक

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