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महच्छिर सूक्त
महच्छिर सूक्त-
रुद्राष्टाध्यायी (रुद्री) के अध्याय ६ में कुल ८ श्लोक है।
महच्छिर सूक्तम्
षष्ठाध्याय को
'महच्छिर' के रूप में जाना जाता है। प्रथम मन्त्र में सोम देवता का
वर्णन है। सुप्रसिद्ध महामृत्युञ्जय मन्त्र इसी अध्याय में संनिविष्ट है-
ॐ त्र्यम्बकं
यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ।
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम् । उर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीय मामुतः ॥
प्रस्तुत
मन्त्र में भगवान् त्र्यम्बक शिवजी से प्रार्थना है कि जिस प्रकार ककड़ी का
परिपक्व फल वृन्त से मुक्त हो जाता है, उसी प्रकार हमें आप जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त करें,
हम आपका यजन करते हैं।
रुद्राष्टाध्यायी षष्ठोऽध्यायः महच्छिर
Rudrashtadhyayi chapter 6-Mahachchhir sukta
रुद्राष्टाध्यायी
अध्याय ६
॥ श्रीहरिः ॥
॥ श्रीगणेशाय
नमः ॥
रुद्राष्टाध्यायी – छठवाँ अध्याय
अथ श्रीशुक्लयजुर्वेदीय
रुद्राष्टाध्यायी भावार्थ सहित
अथ
श्रीशुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी षष्ठोऽध्यायः
वय ঙसोमव्रते तव मनस्तनूषु बिभ्रतः ॥
प्रजावन्तः
सचेमहि ॥ १॥
हे सोमदेव !
पुत्र –
पौत्रादि से संपन्न हम यजमान यज्ञ और व्रतों में आपके
स्वरुप में चित्त लगाकर सेवनीय वस्तुओं का सेवन करें।
एष ते
रुद्रभागः सहस्व स्राम्बिकया तं जुषस्व स्वाहैषते रुद्र भाग आखुस्ते पशुः ॥ २॥
हे रुद्र !
हमारे द्वारा दिया हुआ यह पुरोडाश आपका भाग है, आप अपनी भगिनी अम्बिका के साथ इसका सेवन कीजिए, यह प्रदत्त हवि सुहुत रहे। हमारे द्वारा
अवकीर्ण किया गया यह पुरोडाश आपका भाग है, आपके द्वारा इसका सेवन किया जाए। हमने इस मूषकसंज्ञक पशु को
आपके लिए अर्पित किया है।
अवरुद्र मदी मह्यव
देवं त्र्यम्बकम् ॥
यथानो वस्य सस्करद्यथा
नः श्रेयसस्करद्यथा नो व्यवसाययात् ॥ ३॥
चित्त में
रुद्र और त्र्यम्बक का ध्यान करके (अथवा अन्य देवताओं से पृथक करके) हम रुद्र को
अन्न खिलाते हैं। वे रुद्र हमें निवसनशील और ज्ञाति में श्रेष्ठ कर दें तथा वे
हमें समस्त कार्यों में शीघ्र निर्णय लेने की शक्ति प्रदान करें,
इसके लिए हम उनका जप करते हैं।
भेषज मसि
भेषजं गवेऽश्वाय पुरुषाय भेषजम् ।
सुखं मेषाय
मेष्यै ॥ ४॥
हे रुद्र ! आप
औषधि के तुल्य समस्त उपद्रवों के निवारक हैं, अत: हमारे गाय, अश्व और भृत्य आदि को सर्वव्याधि निवारक औषधि दीजिए और
हमारे मेष तथा मेषी को सुख प्रदान कीजिए।
त्र्यम्बकं
यजामहे सुगन्धिं पुष्टि वर्धनम् ।
उर्वारुकमिव
बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ।
त्र्यम्बकं
यजामहे सुगन्धिं पति वेदनम् ।
उर्वारुक मिव
बन्धनादितो मुक्षीय मामुतः ॥ ५॥
दिव्य गन्ध
गन्ध से युक्त, मृत्युरहित, धन-धान्यवर्धक, त्रिनेत्र रुद्र की हम पूजा करते हैं। वे रुद्र हमें
अपमृत्यु और संसाररूप मृत्यु से मुक्त करें। जिस प्रकार ककड़ी का फल अत्यधिक पक
जाने पर अपने वृन्त (डंठल) से मुक्त हो जाता है, उसी प्रकार हम भी मृत्यु से छूट जाएँ,
किन्तु अभ्युदय और नि:श्रेयसरूप अमृत से हमारा संबंध न
छूटने पाए। (अग्रिम वाक्य कुमारिकाओं का है) पति की प्राप्ति कराने वाले,
सुगन्ध विशिष्ट त्रिनेत्र शिव की हम पूजा करती है। ककड़ी का
फल परिपक्व होने पर जैसे अपने डंठल से छूट जाता है, उसी प्रकार हम कुमारियाँ माता,
पिता, भाई आदि बन्धुजनों से तथा उस कुल से छूट जाएँ,
किंतु त्र्यम्बक के प्रसाद से हम अपने पति से न छूटें
अर्थात् पिता का गोत्र तथा घर छोड़कर पति के गोत्र तथा घर में सर्वदा रहें।
एतत्ते
रुद्रावसं तेन परो मूजवतोऽतीहि ॥
अव तत धन्वा
पिनाकवस: कृत्तिवासा अहि ঙसन्नः
शिवोऽतीहि ॥ ६॥
हे रुद्र !
आपका यह “अवस” (अवस का अर्थ है – प्रवास में किसी सरोवर के समीप विश्राम करने पर भक्षण योग्य
ओदन विशेष अर्थात् खाने की कोई वस्तु) संज्ञक हवि:शेष भोज्य है,
उसके सहित आप अपने धनुष की प्रत्यंचा को हटाकर मूजवान पर्वत
के उस पार जाइए। (मूजवान पर्वत पर रुद्र निवास करते हैं) प्रवास करते समय आप अपने “पिनाक” नामक धनुष को सब ओर से आच्छादित कर लें,
जिससे कोई भी प्राणी आपके धनुष को देखकर भयभीत न हो। हे
रुद्र ! आप चर्माम्बर धारण करके हिंसा न करते हुए हमारी पूजा से संतुष्ट होकर
मूजवान पर्वत को लाँघ जाइए।
त्र्यायुषं
जमदग्ने: कश्यपस्य त्र्यायुषम् ॥
यद्देवेषु
त्र्यायुषं तन्नोऽस्तु त्र्यायुषम् ॥ ७॥
जमदग्नि ऋषि
की बाल्य-यौवन-वृद्धावस्था के जो उत्तम चरित्र हैं, कश्यप प्रजापति की तीनों अवस्थाओं के जो उत्तम चरित्र हैं
तथा देवगणों में भी उनकी तीनों अवस्थाओं के जो प्रशंसनीय चरित्र विद्यमन हैं,
तीनों अवस्थाओं से संबंधित वैसा ही चरित्र हम यजमानों का भी
हो।
शिवो नामासि
स्वधि तिस्ते पिता नमस्तेऽस्तु मा माहि ঙसीः ॥
निवर्त्तयाम्या
युषेऽन्नाद्याय प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय ॥ ८॥
हे क्षुर !
आपका नाम “शान्त” है, वज्र आपके पिता हैं,
मैं आपके लिए नमस्कार करता हूँ। आप मेरी हिंसा मत कीजिए। हे
यजमान ! बहुत दिनों तक जीवित रहने के लिए, अन्न-भक्षण करने के लिए, संतति के लिए, द्रव्य-वृद्धि के लिए, योग्य संतान उत्पन्न होने के लिए तथा उत्तम सामर्थ्य की
प्राप्ति के लिए मैं आपका मुण्डन करता हूँ।
इति रुद्राष्टाध्यायी महच्छिर सूक्तनाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ।।
॥ इस प्रकार
रुद्रपाठ (रुद्राष्टाध्यायी) का छठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६ ॥
आगे जारी.......... रुद्राष्टाध्यायी अध्याय 7- जटासूक्त
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