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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
रुद्राष्टाध्यायी
वेद शिव के ही अंश है वेद: शिव:
शिवो वेद:। अर्थात् वेद ही शिव है तथा शिव ही वेद हैं,
वेद का प्रादुर्भाव शिव से ही हुआ है। वेदों को ही सर्वोत्तम ग्रंथ
बताया गया है और रुद्राष्टाध्यायी यजुर्वेद का अंग है । अतः इसे शुक्लयजुर्वेदीय
रुद्राष्टाध्यायी भी कहते हैं। रुद्राष्टाध्यायी अत्यंत ही मूल्यवान है, न ही इससे बिना रुद्राभिषेक ही संभव है और न ही इसके बिना शिव पूजन ही
किया जा सकता है।
रुद्राष्टाध्यायी
रुद्राष्टाध्यायी दो शब्द रुद्र
अर्थात् शिव और अष्टाध्यायी अर्थात् आठ अध्यायों वाला,
इन आठ अध्यायों में शिव समाए हैं। इसमें मुख्यत: आठ अध्याय हैं पर
अंतिम में शान्त्यध्याय: नामक(२४ श्लोक) नवम तथा स्वस्तिप्रार्थनामन्त्राध्याय:
नामक(१३ श्लोक) दशम अध्याय भी हैं। इसके प्रथम अध्याय में कुल १० श्लोक है तथा सर्वप्रथम गणेशावाहन मंत्र है,
प्रथम अध्याय में शिवसंकल्पसुक्त है। द्वितीय अध्याय में कुल
२२ श्लोक हैं जिनमें पुरुसुक्त
(मुख्यत: १६ श्लोक) है। इसी प्रकार
तृतीय अध्याय में कुल १७ श्लोक हैं
जिनमें आदित्य सुक्त तथा चतुर्थ अध्याय में कुल १७ श्लोक हैं जिनमें वज्र सुक्त सम्मिलित हैं।
पंचम अध्याय में परम लाभदायक रुद्रसुक्त है, इसमें कुल
६६ श्लोक हैं। छठें अध्याय में कुल ८ श्लोक हैं जिनमें पंचम श्लोक के रूप में महान
महामृत्युंजय श्लोक है। सप्तम अध्याय में ७
श्लोकों की अरण्यक श्रुति है प्रायश्चित्त हवन आदि में इसका उपयोग होता है।
अष्टम अध्याय को नमक-चमक भी कहते हैं जिसमें २४ श्लोक हैं।
रुद्राष्टाध्यायी की महिमा
रुद्राष्टाध्यायी में गृहस्थ धर्म,
राजधर्म, ज्ञान-वैराज्ञ, शांति, ईश्वर स्तुति आदि अनेक सर्वोत्तम विषयों का
वर्णन है। मनुष्य का मन विषयलोलुप होकर अधोगति को प्राप्त न हो और व्यक्ति अपनी
चित्तवृत्तियों को स्वच्छ रख सके इसके निमित्त रुद्र का अनुष्ठान करना मुख्य और
उत्कृष्ट साधन है। यह रुद्रानुष्ठान प्रवृत्ति मार्ग से निवृत्ति मार्ग को प्राप्त
करने में समर्थ है। इसमें ब्रह्म (शिव) के निर्गुण और सगुण दोनो रूपों का वर्णन
हुआ है। जहाँ लोक में इसके जप, पाठ तथा अभिषेक आदि साधनों से
भगवद्भक्ति, शांति, पुत्र पौत्रादि
वृद्धि, धन धान्य की सम्पन्नता और स्वस्थ जीवन की प्राप्ति
होती है; वहीं परलोक में सद्गति एवं मोक्ष भी प्राप्त होता
है। वेद के ब्राह्मण ग्रंथों में, उपनिषद, स्मृति तथा कई पुराणों में रुद्राष्टाध्यायी तथा रुद्राभिषेक की महिमा का
वर्णन है।
रुद्राष्टाध्यायी
॥अथ श्रीशुक्लयजुर्वेदीय
रुद्राष्टाध्यायी ॥
मङ्गलाचरणम्
वन्दे सिद्धिप्रदं देवं गणेशं
प्रियपालकम् ।
विश्वगर्भं च विघ्नेशं अनादिं
मङ्गलं विभूम् ॥
अथ ध्यानम् -
ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं
चारु चन्द्रवतंसम् ।
रत्नाकल्पोज्ज्वलाङ्गं परशुमृगवराभीतिहस्तं
प्रसन्नम् ॥ १॥
पद्मासीनं
समन्तात्स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृतिं वसानम् ।
विश्वाद्यं विश्ववन्द्यं निखिलभयहरं
पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम् ॥ २॥
अथ श्रीशुक्लयजुर्वेदीय
रुद्राष्टाध्यायी प्रथमोऽध्यायः
हरिः ॐ॥
गणानां त्वा गणपतिঌ हवामहे
प्रियाणां त्वा प्रियपतिঌ हवामहे
निधीनां त्वा निधिपतिঌ हवामहे
वसो मम ।
आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम् ॥
१॥
गायत्री त्रिष्टुब् जगत्य नुष्टुप्
पङ्क्त्या सह ।
बृहत् युष्णिहा ककुप् सूचीभिः
शम्यन् तुत्वा ॥ २॥
द्विपदा याश्चतुष्पदास् त्रिपदायाश्च
षट्पदाः ।
विच् छन्दा याश्च सच् छन्दाः
सूचीभिः शम्यन् तुत्वा ॥ ३॥
सहस्तोमाः सहच्छन्दस आवृतः सहप्रमा
ऋषयः सप्त दैव्याः ।
पूर्वेषां पन्थामनुदृश्य धीरा
अन्वालेभिरे रथ्यो न रश्मीन् ॥ ४॥
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु
सुप्तस्य तथैवैति ।
दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं
तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ५॥
येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे
कृण्वन्ति विदथेषु धीराः ।
यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे
मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ६॥
यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च
यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु ।
यस्मान्नऽऋते किं चन कर्म क्रियते
तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ७॥
येनेदं भूतं भुवनं
भविष्यत्परिगृहीतममृतेन सर्वम् ।
येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः
शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ८॥
यस्मिन्नृचः साम यजूঌषि यस्मिन्
प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः ।
यस् मिंश् चित्तঌ सर्वमोतं
प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ९॥
सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन
इव ।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे
मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ १०॥
इति: शिवसङ्कल्पनाम रुद्री
प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥
रुद्राष्टाध्यायी के इस अध्याय १ का
हिन्दी भावार्थ पढ़ें।
अथ श्रीरुद्राष्टाध्यायी द्वितीयोऽध्यायः
।
हरिः ॐ॥
सहस्रशीर्षा पुरुषः
सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
स भूमिঌसर्वतः
स्पृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥ १॥
पुरुष एवेदঌ सर्वं
यद्भूतं यच्च भाव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति
॥ २॥
एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च
पूरुषः ।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि
त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥ ३॥
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः
पादोऽस्येहाभवत्पुनः ।
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशने
अभि ॥ ४॥
ततो विराडजायत विराजो अधि पूरुषः ।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो
पुरः ॥ ५॥
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं
पृषदाज्यम् ।
पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या
ग्राम्याश्च ये ॥ ६॥
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि
जज्ञिरे ।
छन्दाঌसि जज्ञिरे
तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ॥ ७॥
तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः
।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता
अजावयः ॥ ८॥
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन्पुरुषं
जातमग्रतः ।
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये ॥
९॥
यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्
।
मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरु
पादा उच्येते ॥ १०॥
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू
राजन्यः कृतः ।
ऊरु तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याঌ शूद्रो
अजायत ॥ ११॥
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो
अजायत ।
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत
॥ १२॥
नाभ्या आसीदन्तरिक्षঌ शीर्ष्णो
द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा
लोकाँ२ ॥ अकल्पयन् ॥ १३॥
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।
वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः
शरद्धविः ॥ १४॥
सप्तास्यासन्परिधयस्त्रिःसप्त समिधः
कृताः ।
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन्
पुरुषं पशुम् ॥ १५॥
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि
धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र
पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥ १६॥
अद्भ्यः सम्भृतः पृथिव्यै रसाच्च
विश्वकर्मणः समवर्तताग्रे ।
तस्य त्वष्टा विदधद्रूपमेति तन्मर्त्यस्य
देवत्वमाजानमग्रे ॥ १७॥
वेदाहमेतं पुरुषं
महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वाऽति मृत्युमेति नान्यः
पन्था विद्यतेऽयनाय ॥ १८॥
प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो
बहुधा वि जायते ।
तस्य योनिं परिपश्यन्ति
धीरास्तस्मिन्ह तस्थुर्भुवनानि विश्वा ॥ १९॥
यो देवेभ्य आतपति यो देवानां
पुरोहितः ।
पूर्वो यो देवेभ्यो जातो नमो रुचाय
ब्राह्मये ॥ २०॥
रुचं ब्राह्म्यं जनयन्तो देवा अग्रे
तदब्रुवन् ।
यस्त्वैवं ब्राह्मणो विद्यात्तस्य
देवा असन्वशे ॥ २१॥
श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च
पत्न्यावहोरात्रे पार्श्वे नक्षत्राणि रूपमश्विनौ व्यात्तम् ।
इष्णन्निषाणामुं म इषाण सर्वलोकं म
इषाण ॥ २२॥
ॐ तच्छं योरावृणीमहे । गातुं यज्ञाय
। गातुं यज्ञपतये । दैवीस्स्वस्तिरस्तुनः ।
स्वस्तिर्मानुषेभ्यः । ऊर्ध्वं
जिगातु भेषजम् । शन्नो अस्तु द्विपदे । शं चतुष्पदे ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।
इति श्रीशुक्लयजुर्वेदीय
पुरुषं च नारायणसूक्तम् नामरुद्री
द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥
रुद्राष्टाध्यायी के इस अध्याय २ का
हिन्दी भावार्थ पढ़ें।
अथ रुद्राष्टाध्यायी तृतीयोऽध्यायः
।
हरिः ॐ॥
आशुः शिशानो वृषभो न भीमो घनाघनः
क्षोभणश्चर्षणीनाम् ।
संक्रन्दनोऽनिमिष एकवीरः शतঌ सेना
अजयत्साकमिन्द्रः ॥ १॥
संक्रन्दनेनाऽनिमिषेण जिष्णुना
युत्कारेण दुश्च्यवनेन धृष्णुना ।
तदिन्द्रेण जयत तत्सहध्वं युधो नर
इषुहस्तेन वृष्णा ॥ २॥
स इषुहस्तैः स निषङ्गिभिर्वशी सঌस्रष्टा स युध
इन्द्रो गणेन ।
सঌसृष्टजित्सोमपा
बाहुशर्ध्युग्रधन्वा प्रतिहिताभिरस्ता ॥ ३॥
बृहस्पते परिदीया रथेन रक्षोहाऽमित्राँ२
अपबाधमानः ।
प्रभञ्जन्त्सेनाः प्रमृणो युधा
जयन्नस्माकमेध्यविता रथानाम् ॥ ४॥
बलविज्ञायः स्थविरः प्रवीरः
सहस्वान्वाजी सहमान उग्रः ।
अभिवीरो अभिसत्वा सहोजा
जैत्रमिन्द्र रथमातिष्ठ गोवित् ॥ ५॥
गोत्रभिदं गोविदं वज्रबाहुं
जयन्तमज्म प्रमृणन्तमोजसा ।
इमঌ सजाता
अनु वीरयध्वमिन्द्रঌ सखायो
अनु सঌरभध्वम्
॥ ६॥
अभि गोत्राणि सहसा गाहमानोऽदयो वीरः
शतमन्युरिन्द्रः ।
दुश्च्यवनः पृतनाषाडयुध्योऽस्माकঌ सेना
अवतु प्र युत्सु ॥ ७॥
इन्द्र आसां नेता बृहस्पतिर्दक्षिणा
यज्ञः पुर एतु सोमः ।
देवसेनानामभिभञ्जतीनां जयन्तीनां
मरुतो यन्त्वग्रम् ॥ ८॥
इन्द्रस्य वृष्णो वरुणस्य राज्ञ
आदित्यानां मरुताঌ
शर्ध उग्रम् ।
महामनसां भुवनच्यवानां घोषो देवानां
जयतामुदस्थात् ॥ ९॥
उद्धर्षय मघवन्नायुधान्युत्सत्वनां
मामकानां मनाঌसि
।
उद्वृत्रहन्वाजिनां वाजिनान्युद्रथानां
जयतां यन्तु घोषाः ॥ १०॥
अस्माकमिन्द्रः समृतेषु
ध्वजेष्वस्माकं या इषवस्ता जयन्तु ।
अस्माकं वीरा उत्तरे भवन्त्वस्माँ२
उ देवा अवता हवेषु ॥ ११॥
अमीषां चित्तं प्रतिलोभयन्ती
गृहाणाङ्गान्यप्वे परेहि ।
अभि प्रेहि निर्दह हृत्सु शोकैरन्धेनामित्रास्तमसा
सचन्ताम् ॥ १२॥
अवसृष्टा परापत शरव्ये ब्रह्मसঌशिते ।
गच्छामित्रान्प्रपद्यस्व
मामीषाङ्कञ्चनोच्छिषः ॥ १३॥
प्रेता जयता नर इन्द्रो वः शर्म
यच्छतु ।
उग्रा वः सन्तु बाहवोऽनाधृष्या
यथासथ ॥ १४॥
असौ या सेना मरुतः परेषामभ्यैति न
ओजसा स्पर्धमाना ।
तां गूहत तमसाऽपव्रतेन यथामी अन्यो
अन्यं न जानन् ॥ १५॥
यत्र बाणाः सम्पतन्ति कुमारा विशिखा
इव ।
तन्न इन्द्रो बृहस्पतिरदितिः शर्म
यच्छतु विश्वाहा शर्म यच्छतु ॥ १६॥
मर्माणि ते वर्मणा छादयामि
सोमस्त्वा राजाऽमृतेनानुवस्ताम् ।
उरोर्वरीयो वरुणस्ते कृणोतु जयन्तं
त्वानु देवा मदन्तु ॥ १७॥
इति: अप्रतिरथसूक्तम् नामरुद्री
तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
रुद्राष्टाध्यायी के इस अध्याय ३ का
हिन्दी भावार्थ पढ़ें।
अथ श्रीशुक्लयजुर्वेदीय
श्रीरुद्राष्टाध्यायी चतुर्थोऽध्यायः ।
हरिः ॐ॥
विभ्राड्बृहत्पिबतु सोम्यं मध्वायुर्दधद्यज्ञपतावविह्रुतम्
।
वातजूतो यो अभिरक्षति त्मना प्रजाः
पुपोष पुरुधा वि राजति ॥ १॥
उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति
केतवः ।
दृशे विश्वाय सूर्यम् ॥ २॥
येना पावक चक्षसा भुरण्यन्तं जनाँ२
॥ अनु ।
त्वं वरुण पश्यसि ॥ ३॥
दैव्यावध्वर्यू आगतঌ रथेन
सूर्यत्वचा ।
मध्वा यज्ञঌ समञ्जाथे
तं प्रत्नथाऽयं वेनश्चित्रं देवानाम् ॥ ४॥
तं प्रत्नथा पूर्वथा विश्वथेमथा
ज्येष्ठतातिं बर्हिषदঌस्वर्विदम् ।
प्रतीचीनं वृजनं दोहसे धुनिमाशुं
जयन्तमनु यासु वर्धसे ॥ ५॥
अयं वेनश्चोदयत्पृश्निगर्भा
ज्योतिर्जरायू रजसो विमाने ।
इमम पाঌसङ्गमे सूर्यस्य
शिशुंन विप्रा मतिभी रिहन्ति ॥ ६॥
चित्रं देवानामुदगादनीकं
चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः ।
आ प्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्षঌ सूर्य
आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥ ७॥
आ न इडाभिर्विदथे सुशस्ति विश्वानरः
सविता देव एतु ।
अपि यथा युवानो मत्सथा नो विश्वं जगदभिपित्वे
मनीषा ॥ ८॥
यदद्य कच्च वृत्रहन्नुदगा अभि सूर्य
।
सर्वं तदिन्द्र ते वशे ॥ ९॥
तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कृदसि
सूर्य ।
विश्वमा भासि रोचनम् ॥ १०॥
तत्सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं
मध्या कर्तोर्विततঌ सं
जभार ।
यदेदयुक्त हरितः सधस्थादाद्रात्री
वासस्तनुते सिमस्मै ॥ ११॥
तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्यो
रूपं कृणुते द्योरुपस्थे ।
अनन्तमन्यद्रुशदस्य पाजः
कृष्णमन्यद्धरितः सं भरन्ति ॥ १२॥
वण्महाँ असि सूर्य बडादित्य महाँ असि
।
महस्ते सतो महिमा पनस्यतेऽद्धा देव
महाँ असि ॥ १३॥
बट् सूर्य श्रवसा महाँ असि सत्रा
देव महाँ असि ।
मह्ना देवानामसुर्यः पुरोहितो विभु
ज्योतिरदाभ्यम् ॥ १४॥
श्रायन्त इव सूर्यं
विश्वेदिन्द्रस्य भक्षत ।
वसूनि जाते जनमान ओजसा प्रति भागं न
दीधिम ॥ १५॥
अद्या देवा उदिता सूर्यस्य निरঌहसः पिपृता
निरवद्यात् ।
तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः
सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥ १६॥
आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो
निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च ।
हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति
भुवनानि पश्यन् ॥ १७॥
इति: सौरसूक्तम् / सूर्यसूक्तम् /
मित्रसूक्तम् / मैत्रसूक्तम् नामरुद्री चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
रुद्राष्टाध्यायी के इस अध्याय ४ का हिन्दी भावार्थ पढ़ें।
अथ श्रीरुद्राष्टाध्यायी पञ्चमोऽध्यायः
।
हरिः ॐ॥ भूर्भुव: स्वः ॥
नमस्ते रुद्र मन्यव उतो त इषवे नमः
।
बाहुभ्यामुत ते नमः ॥ १॥
या ते रुद्र शिवा
तनूरघोराऽपापकाशिनी ।
तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्ताभि
चाकशीहि ॥ २॥
यामिषुं गिरिशन्त हस्ते
बिभर्ष्यस्तवे ।
शिवां गिरित्र तां कुरु मा हिঌसीः पुरुषं जगत् ॥
३॥
शिवेन वचसा त्वा गिरिशाऽच्छावदामसि
।
यथा नः सर्वमिज्जगदयक्ष्मঌ सुमना
असत् ॥ ४॥
अध्यवोचदधिवक्ता प्रथमो दैव्यो
भिषक् ।
अहीঁश्च
सर्वाञ्जम्भयन्त्सर्वाश्च यातुधान्योऽधराचीः परासुव ॥ ५॥
असौ यस्ताम्रो अरुण उत बभ्रुः
सुमङ्गलः ।
ये चैनঌ रुद्रा
अभितो दिक्षु श्रिताः सहस्रशोऽवैषाঌ हेड
ईमहे ॥ ६॥
असौ योऽवसर्पति नीलग्रीवो विलोहितः
।
उतैनं गोपा
अदृश्रन्नदृश्रन्नुदहार्यः स दृष्टो मृडयाति नः ॥ ७॥
नमोऽस्तु नीलग्रीवाय सहस्राक्षाय
मीढुषे ।
अथो ये अस्य सत्वानोऽहं तेभ्योऽकरं
नमः ॥ ८॥
प्रमुञ्च
धन्वनस्त्वमुभयोरार्त्न्योर्ज्याम् ।
याश्च ते हस्त इषवः परा ता भगवो वप
॥ ९॥
विज्यं धनुः कपर्दिनो विशल्यो
बाणवाँ उत ।
अनेशन्नस्य या इषव आभुरस्य
निषङ्गधिः ॥ १०॥
या ते हेतिर्मीढुष्टम हस्ते बभूव ते
धनुः ।
तयास्मान्विश्वतस्त्वमयक्ष्मया
परिभुज ॥ ११॥
परि ते धन्वनो हेतिरस्मान्वृणक्तु
विश्वतः ।
अथो य इषुधिस्तवारे अस्मन्निधेहि
तम् ॥ १२॥
अवतत्य धनुष्ट्वঌ सहस्राक्ष
शतेषुधे ।
निशीर्य शल्यानां मुखा शिवो नः
सुमना भव ॥ १३॥
नमस्त आयुधायानातताय धृष्णवे ।
उभाभ्यामुत ते नमो बाहुभ्यां तव
धन्वने ॥ १४॥
मा नो महान्तमुत मा नो अर्भकं मा न
उक्षन्तमुत मा न उक्षितम् ।
मा नो वधीः पितरं मोत मातरं मा नः
प्रियास्तन्वो रुद्र रीरिषः ॥ १५॥
मा नस्तोके तनये मा न आयुषि मा नो
गोषु मा नो अश्वेषु रीरिषः ।
मा नो वीरान् रुद्र भामिनो
वधीर्हविष्मन्तः सदमित्त्वा हवामहे ॥ १६॥
नमो हिरण्यबाहवे सेनान्ये दिशां च
पतये नमो
नमो वृक्षेभ्यो हरिकेशेभ्यः पशूनां
पतये नमो
नमः शष्पिञ्जराय त्विषीमते पथीनां
पतये नमो
नमो हरिकेशायोपवीतिने पुष्टानां
पतये नमः ॥ १७॥
नमो बभ्लुशाय व्याधिनेऽन्नानां पतये
नमो
नमो भवस्य हेत्यै जगतां पतये नमो
नमो रुद्रायाततायिने क्षेत्राणां
पतये नमो
नमः सूतायाहन्त्यै वनानां पतये नमः
॥ १८॥
नमो रोहिताय स्थपतये वृक्षाणां पतये
नमो
नमो भुवन्तये वारिवस्कृतायौषधीनां
पतये नमो
नमो मन्त्रिणे वाणिजाय कक्षाणां
पतये नमो
नम उच्चैर्घोषायाक्रन्दयते पत्तीनां
पतये नमः ॥ १९॥
नमः कृत्स्नायतया धावते सत्वनां
पतये नमो
नमः सहमानाय निव्याधिन आव्याधिनीनां
पतये नमो
नमो निषङ्गिणे ककुभाय स्तेनानां
पतये नमो
नमो निचेरवे परिचरायारण्यानां पतये
नमः ॥ २०॥
नमो वञ्चते परिवञ्चते स्तायूनां
पतये नमो
नमो निषङ्गिण इषुधिमते तस्कराणां
पतये नमो
नमः सृकायिभ्यो जिघाঌसद्भ्यो मुष्णतां
पतये नमो
नमोऽसिमद्भ्यो नक्तञ्चरद्भ्यो
विकृन्तानां पतये नमः ॥ २१॥
नम उष्णीषिणे गिरिचराय कुलुञ्चानां
पतये नमो
नम इषुमद्भ्यो धन्वायिभ्यश्च वो नमो
नम आतन्वानेभ्यः प्रतिदधानेभ्यश्च
वो नमो
नम आयच्छद्भ्योऽस्यद्भ्यश्च वो नमः
॥ २२॥
नमो विसृजद्भ्यो विध्यद्भ्यश्च वो
नमो
नमः स्वपद्भ्यो जाग्रद्भ्यश्च वो
नमो
नमः शयानेभ्य आसीनेभ्यश्च वो नमो
नमस्तिष्ठद्भ्यो धावद्भ्यश्च वो नमः
॥ २३॥
नमः सभाभ्यः सभापतिभ्यश्च वो नमो
नमोऽश्वेभ्योऽश्वपतिभ्यश्च वो नमो
नम आव्याधिनीभ्यो विविध्यन्तीभ्यश्च
वो नमो
नम उगणाभ्यस्तृঌहतीभ्यश्च वो नमः
॥ २४॥
नमो गणेभ्यो गणपतिभ्यश्च वो नमो
नमो व्रातेभ्यो व्रातपतिभ्यश्च वो
नमो
नमो गृत्सेभ्यो गृत्सपतिभ्यश्च वो
नमो
नमो विरूपेभ्यो विश्वरूपेभ्यश्च वो
नमः ॥ २५॥
नमः सेनाभ्यः सेनानिभ्यश्च वो नमो
नमो रथिभ्यो अरथेभ्यश्च वो नमो
नमः क्षत्तृभ्यः संग्रहीतृभ्यश्च वो
नमो
नमो महद्भ्यो अर्भकेभ्यश्च वो नमः ॥
२६॥
नमस्तक्षभ्यो रथकारेभ्यश्च वो नमो
नमः कुलालेभ्यः कर्मारेभ्यश्च वो
नमो
नमो निषादेभ्यः पुञ्जिष्टेभ्यश्च वो
नमो
नमः श्वनिभ्यो मृगयुभ्यश्च वो नमः ॥
२७॥
नमः श्वभ्यः श्वपतिभ्यश्च वो नमो
नमो भवाय च रुद्राय च
नमः शर्वाय च पशुपतये च
नमो नीलग्रीवाय च शितिकण्ठाय च ॥
२८॥
नमः कपर्दिने च व्युप्तकेशाय च
नमः सहस्राक्षाय च शतधन्वने च
नमो गिरिशयाय च शिपिविष्टाय च
नमो मीढुष्टमाय चेषुमते च ॥ २९॥
नमो ह्रस्वाय च वामनाय च
नमो बृहते च वर्षीयसे च
नमो वृद्धाय च सवृधे च
नमोऽग्र्याय च प्रथमाय च ॥ ३०॥
नम आशवे चाजिराय च
नमः शीघ्र्याय च शीभ्याय च
नम ऊर्म्याय चावस्वन्याय च
नमो नादेयाय च द्वीप्याय च ॥ ३१॥
नमो ज्येष्ठाय च कनिष्ठाय च
नमः पूर्वजाय चापरजाय च
नमो मध्यमाय चापगल्भाय च
नमो जघन्याय च बुध्न्याय च ॥ ३२॥
नमः सोभ्याय च प्रतिसर्याय च
नमो याम्याय च क्षेम्याय च
नमः श्लोक्याय चावसान्याय च
नम उर्वर्याय च खल्याय च ॥ ३३॥
नमो वन्याय च कक्ष्याय च
नमः श्रवाय च प्रतिश्रवाय च
नम आशुषेणाय चाशुरथाय च
नमः शूराय चावभेदिने च ॥ ३४॥
नमो बिल्मिने च कवचिने च
नमो वर्मिणे च वरूथिने च
नमः श्रुताय च श्रुतसेनाय च
नमो दुन्दुभ्याय चाहनन्याय च ॥ ३५॥
नमो धृष्णवे च प्रमृशाय च
नमो निषङ्गिणे चेषुधिमते च
नमस्तीक्ष्णेषवे चायुधिने च
नमः स्वायुधाय च सुधन्वने च ॥ ३६॥
नमः स्रुत्याय च पथ्याय च
नमः काट्याय च नीप्याय च
नमः कुल्याय च सरस्याय च
नमो नादेयाय च वैशन्ताय च ॥ ३७॥
नमः कूप्याय चावट्याय च
नमो वीध्र्याय चातप्याय च
नमो मेघ्याय च विद्युत्याय च
नमो वर्ष्याय चावर्ष्याय च ॥ ३८॥
नमो वात्याय च रेष्म्याय च
नमो वास्तव्याय च वास्तुपाय च
नमः सोमाय च रुद्राय च
नमस्ताम्राय चारुणाय च ॥ ३९॥
नमः शङ्गवे च पशुपतये च
नम उग्राय च भीमाय च
नमोऽग्रेवधाय च दूरेवधाय च
नमो हन्त्रे च हनीयसे च
नमो वृक्षेभ्यो हरिकेशेभ्यो
नमस्ताराय ॥ ४०॥
नमः शम्भवाय च मयोभवाय च
नमः शङ्कराय च मयस्कराय च
नमः शिवाय च शिवतराय च ॥ ४१॥
नमः पार्याय चावार्याय च
नमः प्रतरणाय चोत्तरणाय च
नमस्तीर्थ्याय च कूल्याय च
नमः शष्प्याय च फेन्याय च ॥ ४२॥
नमः सिकत्याय च प्रवाह्याय च
नमः किঌशिलाय च क्षयणाय च
नमः कपर्दिने च पुलस्तये च
नम इरिण्याय च प्रपथ्याय च ॥ ४३॥
नमो व्रज्याय च गोष्ठ्याय च
नमस्तल्प्याय च गेह्याय च
नमो हृदय्याय च निवेष्प्याय च
नमः काट्याय च गह्वरेष्ठाय च ॥ ४४॥
नमः शुष्क्याय च हरित्याय च
नमः पाঌसव्याय च रजस्याय
च
नमो लोप्याय चोलप्याय च
नम ऊर्व्याय च सूर्व्याय च ॥ ४५॥
नमः पर्णाय च पर्णशदाय च
नम उद्गुरमाणाय चाभिघ्नते च
नम आखिदते च प्रखिदते च
नमः इषुकृद्भ्यो धनुष्कृद्भ्यश्च वो
नमो
नमो वः किरिकेभ्यो देवानाঌ हृदयेभ्यो
नमो
विचिन्वत्केभ्यो नमो
विक्षिणत्केभ्यो नम आनिर्हतेभ्यः ॥ ४६॥
द्रापे अन्धसस्पते दरिद्रं नीललोहित
।
आसां प्रजानामेषां पशूनां मा भेर्मा
रोङ्भो च नः किञ्चनाममत् ॥ ४७॥
इमा रुद्राय तवसे कपर्दिने
क्षयद्वीराय प्रभरामहे मतीः ।
यथा शमसद्द्विपदे चतुष्पदे विश्वं
पुष्टं ग्रामे अस्मिन्ननातुरम् ॥ ४८॥
या ते रुद्र शिवा तनूः शिवा
विश्वाहा भेषजी ।
शिवा रुतस्य भेषजी तया नो मृड जीवसे
॥ ४९॥
परि नो रुद्रस्य हेतिर्वृणक्तु परि
त्वेषस्य दुर्मतिरघायोः ।
अव स्थिरा मघवद्भ्यस्तनुष्व
मीढ्वस्तोकाय तनयाय मृड ॥ ५०॥
मीढुष्टम शिवतम शिवो नः सुमना भव ।
परमे वृक्ष आयुधं निधाय कृत्तिं
वसान आचर पिनाकं बिभ्रदागहि ॥ ५१॥
विकिरिद्र विलोहित नमस्ते अस्तु
भगवः ।
यास्ते सहस्रঌ हेतयोऽन्यमस्मन्निवपन्तु
ताः ॥ ५२॥
सहस्राणि सहस्रशो बाह्वोस्तव हेतयः
।
तासामीशानो भगवः पराचीना मुखा कृधि
॥ ५३॥
असंख्याता सहस्राणि ये रुद्रा अधि
भूम्याम् ।
तेषाঌ सहस्रयोजनेऽव
धन्वानि तन्मसि ॥ ५४॥
अस्मिन्महत्यर्णवेऽन्तरिक्षे भवा
अधि ।
तेषाঌ सहस्रयोजनेऽव
धन्वानि तन्मसि ॥ ५५॥
नीलग्रीवाः शितिकण्ठा दिवঌ रुद्रा
उपश्रिताः ।
तेषाঌ सहस्रयोजनेऽव
धन्वानि तन्मसि ॥ ५६॥
नीलग्रीवाः शितिकण्ठाः शर्वा अधः
क्षमाचराः ।
तेषाঌ सहस्रयोजनेऽव
धन्वानि तन्मसि ॥ ५७॥
ये वृक्षेषु शष्पिञ्जरा नीलग्रीवा
विलोहिताः ।
तेषाঌ सहस्रयोजनेऽव
धन्वानि तन्मसि ॥ ५८॥
ये भूतानामधिपतयो विशिखासः कपर्दिनः
।
तेषाঌ सहस्रयोजनेऽव
धन्वानि तन्मसि ॥ ५९॥
ये पथां पथिरक्षय ऐलबृदा आयुर्युधः
।
तेषाঌ सहस्रयोजनेऽव
धन्वानि तन्मसि ॥ ६०॥
ये तीर्थानि प्रचरन्ति सृकाहस्ता
निषङ्गिणः ।
तेषाঌ सहस्रयोजनेऽव
धन्वानि तन्मसि ॥ ६१॥
येऽन्नेषु विविध्यन्ति पात्रेषु
पिबतो जनान् ।
तेषाঌ सहस्रयोजनेऽव
धन्वानि तन्मसि ॥ ६२॥
य एतावन्तश्च भूयाঌसश्च दिशो रुद्रा वितस्थिरे
।
तेषाঌ सहस्रयोजनेऽव
धन्वानि तन्मसि ॥ ६३॥
नमोऽस्तु रुद्रेभ्यो ये दिवि येषां
वर्षमिषवस्तेभ्यो
दश प्राचीर्दश दक्षिणा दश
प्रतीचीर्दशोदीचीर्दशोर्ध्वास्तेभ्यो
नमो अस्तु ते नोऽवन्तु ते नो
मृडयन्तु ते यं
द्विष्मो यश्च नो द्वेष्टि तमेषां
जम्भे दध्मः ॥ ६४॥
नमोऽस्तु रुद्रेभ्यो येऽन्तरिक्षे
येषां वात इषवस्तेभ्यो
दश प्राचीर्दश दक्षिणा दश
प्रतीचीर्दशोदीचीर्दशोर्ध्वास्तेभ्यो
नमो अस्तु ते नोऽवन्तु ते नो
मृडयन्तु ते यं
द्विष्मो यश्च नो द्वेष्टि तमेषां
जम्भे दध्मः ॥ ६५॥
नमोऽस्तु रुद्रेभ्यो ये पृथिव्यां येषामन्नमिषवस्तेभ्यो
दश प्राचीर्दश दक्षिणा दश
प्रतीचीर्दशोदीचीर्दशोर्ध्वास्तेभ्यो
नमो अस्तु ते नोऽवन्तु ते नो
मृडयन्तु ते यं
द्विष्मो यश्च नो द्वेष्टि तमेषां
जम्भे दध्मः ॥ ६६॥
इति: रुद्रसूक्तम् / नीलसूक्तम् नामरुद्री
पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५॥
रुद्राष्टाध्यायी के इस अध्याय ५ का हिन्दी भावार्थ पढ़ें।
अथ श्रीशुक्लयजुर्वेदीय
श्रीरुद्राष्टाध्यायी षष्ठोऽध्यायः ।
हरिः ॐ॥
वयঌसोम व्रते तव
मनस्तनूषु बिभ्रतः ।
प्रजावन्तः सचेमहि ॥ १॥
एष ते रुद्र भागः सह
स्वस्राऽम्बिकया तं
जुषस्व स्वाहैष ते रुद्र भाग
आखुस्ते पशुः ॥ २॥
अव रुद्रमदीमह्यव देवं त्र्यम्बकम्
।
यथा नो वस्यसस्करद्यथा नः
श्रेयसस्करद्यथा नो व्यवसाययात् ॥ ३॥
भेषजमसि भेषजं गवेऽश्वाय पुरुषाय
भेषजम् ।
सुखं मेषाय मेष्यै ॥ ४॥
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं
पुष्टिवर्धनम् ।
उर्वारुकमिव
बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् ।
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं
पतिवेदनम् ।
उर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीय
मामुतः ॥ ५॥
एतत्ते रुद्रावसं तेन परो
मूजवतोऽतीहि ।
अवततधन्वा पिनाकावसः कृत्तिवासा अहिঌसन्नः शिवोऽतीहि ॥
६॥
त्र्यायुषं जमदग्नेः कश्यपस्य
त्र्यायुषम् ।
यद्देवेषु त्र्यायुषं तन्नो अस्तु त्र्यायुषम्
॥ ७॥
शिवो नामासि स्वधितिस्ते पिता
नमस्ते अस्तु मा मा हिঌसीः ।
निवर्तयाम्यायुषेऽन्नाद्याय
प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय ॥ ८॥
इति: महच्छिर / सोमस्तवन /
त्र्यम्बक यजनम् नामरुद्री षष्ठोऽध्यायः ॥
६॥
रुद्राष्टाध्यायी के इस अध्याय ६ का
हिन्दी भावार्थ पढ़ें।
अथ श्रीरुद्राष्टाध्यायी सप्तमोऽध्यायः
।
हरिः ॐ॥
उग्रश्च भीमश्च ध्वान्तश्च धुनिश्च
।
सासह्वांश्चाभियुग्वा च विक्षिपः
स्वाहा ॥ १॥
अग्निঌ हृदयेनाशनिঌ हृदयाग्रेण
पशुपतिं कृत्स्नहृदयेन भवं यक्ना ।
शर्वं मतस्नाभ्यामीशानं मन्युना
महादेवमन्तः पर्शव्येनोग्रं
देवं वनिष्ठुना वसिष्ठहनुः शिङ्गीनि
कोश्याभ्याम् ॥ २॥
उग्रं ल्लोहितेन मित्रঌ सौव्रत्येन
रुद्रं दौर्व्रत्येनेन्द्रं प्रक्रीडेन मरुतो बलेन साध्यान्प्रमुदा ।
भवस्य कण्ठ्यঌ रुद्रस्यान्तः
पार्श्व्यं महादेवस्य यकृच्छर्वस्य वनिष्ठुः पशुपतेः पुरीतत् ॥ ३॥
लोमभ्यः स्वाहा लोमभ्यः स्वाहा
त्वचे स्वाहा त्वचे स्वाहा
लोहिताय स्वाहा लोहिताय स्वाहा
मेदोभ्यः स्वाहा मेदोभ्यः स्वाहा ।
माঌसेभ्यः स्वाहा माঌसेभ्यः स्वाहा
स्नावभ्यः स्वाहा स्नावभ्यः स्वाहा
अस्थभ्यः स्वाहा अस्थभ्यः स्वाहा
मज्जभ्यः स्वाहा मज्जभ्यः स्वाहा ।
रेतसे स्वाहा पायवे स्वाहा ॥ ४॥
आयासाय स्वाहा प्रायासाय स्वाहा
संयासाय स्वाहा वियासाय स्वाहोद्यासाय स्वाहा ।
शुचे स्वाहा शोचते स्वाहा शोचमानाय
स्वाहा शोकाय स्वाहा ॥ ५॥
तपसे स्वाहा तप्यते स्वाहा
तप्यमानाय स्वाहा तप्ताय स्वाहा घर्माय स्वाहा ।
निष्कृत्यै स्वाहा प्रायश्चित्त्यै
स्वाहा भेषजाय स्वाहा ॥ ६॥
यमाय स्वाहान्तकाय स्वाहा मृत्यवे
स्वाहा ब्रह्मणे स्वाहा ब्रह्महत्यायै स्वाहा ।
विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा
द्यावापृथिवीभ्याঌ
स्वाहा ॥ ७॥
इति: जटाऽध्याय नामरुद्री सप्तम: ॥ ७॥
रुद्राष्टाध्यायी के इस अध्याय ७ का
हिन्दी भावार्थ पढ़ें।
अथ श्रीशुक्लयजुर्वेदीय अष्टमोऽध्यायः
।
हरिः ॐ॥
वाजश्च मे प्रसवश्च मे प्रयतिश्च मे
प्रसितिश्च मे
धीतिश्च मे क्रतुश्च मे स्वरश्च मे
श्लोकश्च मे
श्रवश्च मे श्रुतिश्च मे ज्योतिश्च
मे स्वश्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १॥
प्राणश्च मेऽपानश्च मे व्यानश्च
मेऽसुश्च मे
चित्तं च म आधीतं च मे वाक् च मे
मनश्च मे
चक्षुश्च मे श्रोत्रं च मे दक्षश्च
मे बलं च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २॥
ओजश्च मे सहश्च म आत्मा च मे तनूश्च
मे
शर्म च मे वर्म च मेऽङ्गानि च
मेऽस्थीनि च मे
परू ঌषि च मे शरीराणि च
म आयुश्च मे जरा च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ३॥
ज्यैष्ठ्यं च म आधिपत्यं च मे
मन्युश्च मे भामश्च मेऽमश्च मेऽम्भश्च मे
जेमा च मे महिमा च मे वरिमा च मे
प्रथिमा च मे
वर्षिमा च मे द्राघिमा च मे वृद्धं
च मे वृद्धिश्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ४॥
सत्यं च मे श्रद्धा च मे जगच्च मे
धनं च मे
विश्वं च मे महश्च मे क्रीडा च मे
मोदश्च मे
जातं च मे जनिष्यमाणं च मे सूक्तं च
मे सुकृतं च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ५॥
ऋतं च मेऽमृतं च मेऽयक्ष्मं च
मेऽनामयच्च मे
जीवातुश्च मे दीर्घायुत्वं च
मेऽनमित्रं च मेऽभयं च मे
सुखं च मे शयनं च मे सूषाश्च मे
सुदिनं च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ६॥
यन्ता च मे धर्ता च मे क्षेमश्च मे
धृतिश्च मे
विश्वं च मे महश्च मे संविच्च मे
ज्ञात्रं च मे
सूश्च मे प्रसूशच मे सीरं च मे
लयश्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ७॥
शं च मे मयश्च मे प्रियं च
मेऽनुकामश्च मे
कामश्च मे सौमनसश्च मे भगश्च मे
द्रविणं च मे
भद्रं च मे श्रेयश्च मे वसीयश्च मे
यशश्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ८॥
ऊर्क्च मे सूनृता च मे पयश्च मे
रसश्च मे
घृतं च मे मधु च मे सग्धिश्च मे
सपीतिश्च मे
कृषिश्च मे वृष्टिश्च मे जैत्रं च म
औद्भिद्यं च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ९॥
रयिश्च मे रायश्च मे पुष्टं च मे
पुष्टिश्च मे
विभु च मे प्रभु च मे पूर्णं च मे
पूर्णतरं च मे
कुयवं च मेऽक्षितं च मेऽन्नं च
मेऽक्षुच्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १०॥
वित्तं च मे वेद्यं च मे भूतं च मे
भविष्यच्च मे
सुगं च मे सुपथ्यं च म ऋद्धं च म
ऋद्धिश्च मे
क्लृप्तं च मे क्लृप्तिश्च मे
मतिश्च मे सुमतिश्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ११॥
व्रीहयश्च मे यवाश्च मे माषाश्च मे
तिलाश्च मे
मुद्राश्च मे खल्वाश्च मे
प्रियङ्गवश्च मेऽणवश्च मे
श्यामाकाश्च मे नीवाराश्च मे
गोधूमाश्च मे मसूराश्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १२॥
अश्मा च मे मृत्तिका च मे गिरयश्च
मे पर्वताश्च मे
सिकताश्च मे वनस्पतयश्च मे हिरण्यं
च मेऽयश्च मे
श्यामं च मे लोहं च मे सीसं च मे
त्रपु च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १३॥
अग्निश्च म आपश्च मे वीरुधश्च म
ओषधयश्च मे
कृष्टपच्याश्च मेऽकृष्टपच्याश्च मे
ग्राम्याश्च मे पशव आरण्याश्च मे
वित्तं च मे वित्तिश्च मे भूतं च मे
भूतिश्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १४॥
वसु च मे वसतिश्च मे कर्म च मे
शक्तिश्च मेऽर्थश्च म एमश्च म इत्या
च मे गतिश्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १५॥
अग्निश्च म इन्द्रश्च मे सोमश्च म
इन्द्रश्च मे
सविता च म इन्द्रश्च मे सरस्वती च म
इन्द्रश्च मे
पूषा च म इन्द्रश्च मे बृहस्पतिश्च
म इन्द्रश्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १६॥
मित्रश्च म इन्द्रश्च मे वरुणश्च म
इन्द्रश्च मे
धाता च म इन्द्रश्च मे त्वष्टा च म
इन्द्रश्च मे
मरुतश्च म इन्द्रश्च मे विश्वे च मे
देवा इन्द्रश्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १७॥
पृथिवी च म इन्द्रश्च मेऽन्तरिक्षं
च म इन्द्रश्च मे
द्यौश्च म इन्द्रश्च मे समाश्च म
इन्द्रश्च मे
नक्षत्राणि च म इन्द्रश्च मे दिशश्च
म इन्द्रश्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १८॥
अঌशुश्च मे रश्मिश्च
मेऽदाभ्यश्च मेऽधिपतिश्च म उपाঌशुश्च मेऽन्तर्यामश्च म
ऐन्द्रवायवश्च मे
मैत्रावरुणश्च म आश्विनश्च मे
प्रतिप्रस्थानश्च मे शुक्रश्च मे मन्थी च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १९॥
आग्रयाणश्च मे वैश्वदेवश्च मे
ध्रुवश्च मे
वैश्वानरश्च म ऐन्द्राग्नश्च मे
महावैश्वदेश्च मे मरुत्वतीयाश्च मे
निष्केवल्यश्च मे
सावित्रश्च मे सारस्वतश्च मे पात्नीवतश्च
मे हारियोजनश्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २०॥
स्रुचश्च मे चमसाश्च मे वायव्यानि च
मे द्रोणकलशश्च मे
ग्रावाणश्च मेऽधिषवणे च मे पूतभृच्च
म आधवनीयश्च मे
वेदिश्च मे बर्हिश्च मेऽवभृतश्च मे
स्वगाकारश्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २१॥
अग्निश्च मे घर्मश्च मेऽर्कश्च मे
सूर्यश्च मे
प्राणश्च मेऽश्वमेधश्च मे पृथिवी च
मेऽदितिश्च मे
दितिश्च मे द्यौश्च मेऽङ्गुलय:
शक्वरयो दिशश्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २२॥
व्रतं च म ऋतवश्च मे तपश्च मे
संवत्सरश्च मे
अहोरात्रे ऊर्वष्ठीवे बृहद्रथन्तरे
च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २३॥
एका च मे तिस्रश्च मे तिस्रश्च मे
पञ्च च मे पञ्च च मे
सप्त च मे सप्त च मे नव च मे नव च म
एकादश च म एकादश च मे
त्रयोदश च मे त्रयोदश च मे पञ्चदश च
मे पञ्चदश च मे सप्तदश च मे सप्तदश च मे
नवदश च मे नवदश च म एकविঌशतिश्च म एकविঌशतिश्च मे
त्रयोविঌशतिश्च मे त्रयोविঌशतिश्च मे पञ्चविঌशतिश्च मे पञ्चविঌशतिश्च मे
सप्तविঌशतिश्च मे सप्तविঌशतिश्च मे नवविঌशतिश्च मे नवविঌशतिश्च म
एकत्रिঌशच्च म एकत्रिঌशच्च मे
त्रयस्त्रिঌशच्च
मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २४॥
चतस्रश्च मेऽष्टौ च मेऽष्टौ च मे
द्वादश च मे द्वादश च मे
षोडश च मे षोडश च मे विঌशतिश्च मे विঌशतिश्च मे
चतुर्विঌशतिश्च मे चतुर्विঌशतिश्च मेऽष्टाविঌशतिश्च मेऽष्टाविঌशतिश्च मे
द्वात्रिঌशच्च मे द्वात्रिঌशच्च मे षट्त्रिঌशच्च मे षट्त्रिঌशच्च मे
चत्वारिঌशच्च मे चत्वारिঌशच्च मे
चतुश्चत्वारिঌशच्च
मे
चतुश्चत्वारिঌशच्च
मेऽष्टाचत्वारिঌशच्च
मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २५॥
त्र्यविश्च मे त्र्यवी च मे
दित्यवाट् च मे दित्यौही च मे
पञ्चाविश्च मे पञ्चावी च मे
त्रिवत्सश्च मे त्रिवत्सा च मे
तुर्यवाट् च मे तुर्यौही च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २६॥
पष्ठवाट् च मे पष्ठौही च म उक्षा च
मे वशा च म ऋषभश्च मे
वेहच्च मेऽनड्वांश्च मे धेनुश्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २७॥
वाजाय स्वाहा प्रसवाय स्वाहाऽपिजाय
स्वाहा क्रतवे स्वाहा वसवे स्वाहाऽहर्पतये स्वाहाह्ने
मुग्धाय स्वाहा मुग्धाय वैनঌशिनाय स्वाहा
विनशिन आन्त्यायनाय स्वाहान्त्याय
भौवनाय स्वाहा भुवनस्य पतये
स्वाहाधिपतये स्वाहा प्रजापतये स्वाहा ।
इयं ते राण्मित्राय यन्ताऽसि यमन
ऊर्जे त्वा वृष्ट्यै त्वा प्रजानां त्वाधिपत्याय ॥ २८॥
आयुर्यज्ञेन कल्पतां प्राणो यज्ञेन
कल्पतां चक्षुर्यज्ञेन कल्पताঌश्रोत्रं यज्ञेन कल्पतां
वाग्यज्ञेन कल्पतां मनो यज्ञेन
कल्पतामात्मा यज्ञेन कल्पतां ब्रह्मा यज्ञेन कल्पतां
ज्योतिर्यज्ञेन कल्पतां स्वर्यज्ञेन
कल्पतां पृष्ठं यज्ञेन कल्पतां यज्ञो यज्ञेन कल्पताम् ।
स्तोमश्च यजुश्च ऋक् च साम च बृहच्च
रथन्तरं च ।
स्वर्देवा अगन्मामृता अभूम
प्रजापतेः प्रजा अभूम वेट् स्वाहा ॥ २९॥
इति: चमकप्रश्नः नामरुद्रीऽष्टमोऽध्यायः
॥ ८॥
रुद्राष्टाध्यायी के इस अध्याय ८ का
हिन्दी भावार्थ पढ़ें।
अथ श्रीरुद्राष्टाध्यायी नवमोऽध्यायः
।
हरिः ॐ॥
ऋचं वाचं प्रपद्ये मनो यजुः
प्रपद्ये साम प्राणं प्रपद्ये चक्षुः श्रोत्रं प्रपद्ये ।
वागोजः सहौजो मयि प्राणापानौ ॥ १॥
यन्मे छिद्रं चक्षुषो हृदयस्य मनसो
वातितृण्णं बृहस्पतिर्मे तद्दधातु ।
शं नो भवतु भुवनस्य यस्पतिः ॥ २॥
भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं
भर्गो देवस्य धीमहि ।
धियो यो नः प्रचोदयात् ॥ ३॥
कया नश्चित्र आभुवदूती सदावृधः सखा
।
कया शचिष्ठया वृता ॥ ४॥
कस्त्वा सत्यो मदानां मঌहिष्ठो मत्सदन्धसः
।
दृढा चिदारुजे वसु ॥ ५॥
अभी षु णः सखीनामविता जरितॄणाम् ।
शतं भवास्यूतिभिः ॥ ६॥
कया त्वं न ऊत्याभि प्रमन्दसे वृषन्
।
कया स्तोतृभ्य आभर ॥ ७॥
इन्द्रो विश्वस्य राजति ।
शं नो अस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे ॥
८॥
शं नो मित्र: शं वरुणः शं नो
भवत्वर्यमा ।
शं न इन्द्रो बृहस्पतिः शं नो
विष्णुरुरुक्रमः ॥ ९॥
शं नो वातः पवताঌ शं
नस्तपतु सूर्यः ।
शं नः कनिक्रदद्देवः पर्जन्यो
अभिवर्षतु ॥ १०॥
अहानि शं भवन्तु नः शঌ रात्रीः
प्रतिधीयताम् ।
शं न इन्द्राग्नी भवतामवोभिः शं न
इन्द्रावरुणा रातहव्या ।
शं न इन्द्रापूषणा वाजसातौ शमिन्द्रासोमा
सुविताय शं योः ॥ ११॥
शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये
।
शं योरभिस्रवन्तु नः ॥ १२॥
स्योना पृथिवि नो भवानृक्षरा
निवेशनी ।
यच्छा नः शर्म सप्रथाः ॥ १३॥
आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे
दधातन ।
महे रणाय चक्षसे ॥ १४॥
यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः ।
उशतीरिव मातरः ॥ १५॥
तस्मा अरं गमाम वो यस्य क्षयाय
जिन्वथ ।
आपो जनयथा च नः ॥ १६॥
द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षঌ शान्तिः
पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः ।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः
शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्वঌ शान्तिः
शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि
॥ १७॥
दृते दृঌह मा मित्रस्य मा
चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम् ।
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि
समीक्षे ।
मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ॥ १८॥
दृते दृঌह मा मित्रस्य मा
चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम् ।
ज्योक्ते सन्दृशि जीव्यासं ज्योक्ते
सन्दृशि जीव्यासम् ॥ १९॥
नमस्ते हरसे शोचिषे नमस्ते
अस्त्वर्चिषे ।
अन्याँस्ते अस्मत्तपन्तु हेतयः
पावको अस्मभ्यঌ
शिवो भव ॥ २०॥
नमस्ते अस्तु विद्युते नमस्ते
स्तनयित्नवे ।
नमस्ते भगवन्नस्तु यतः स्वः समीहसे
॥ २१॥
यतो यतः समीहसे ततो नो अभयं कुरु ।
शं नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः
पशुभ्यः ॥ २२॥
सुमित्रिया न आप ओषधयः सन्तु
दुर्मित्रियास्तस्मै
सन्तुयोऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं
द्विष्मः ॥ २३॥
तच्चक्षुर्देवहितं
पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत् ।
पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतঌ शृणुयाम
शरदः शतं
प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः
शतं भूयश्च शरदः शतात् ॥ २४॥
इति: शान्त्यध्यायः नामरुद्री नवम: ॥ ९॥
रुद्राष्टाध्यायी के इस अध्याय ९ का
हिन्दी भावार्थ पढ़ें।
अथ श्रीशुक्लयजुर्वेदीय
श्रीरुद्राष्टाध्यायी दसमोऽध्यायः।
हरिः ॐ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ।
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः
।
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥ १॥
पयः पृथिव्यां पय ओषधीषु पयो
दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः ।
पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम् ॥ २॥
विष्णो रराटमसि विष्णोः श्नप्त्रे
स्थो विष्णोः स्यूरसि विष्णोर्ध्रुवोऽसि ।
वैष्णवमसि विष्णवे त्वा ॥ ३॥
अग्निर्देवता वातो देवता सूर्यो
देवता चन्द्रमा देवता वसवो देवता
रुद्रा देवतादित्या देवता मरुतो
देवता विश्वेदेवा देवता
बृहस्पतिर्देवतेन्द्रो देवता वरुणो
देवता ॥ ४॥
ॐ सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय
वै नमो नमः ।
भवे भवे नातिभवे भवस्व माम् ।
भवोद्भवाय नमः ॥ ५॥
वामदेवाय नमो ज्येष्ठाय नमः
श्रेष्ठाय नमो रुद्राय नमः
कालाय नमः कलविकरणाय नमो बलविकरणाय
नमो
बलाय नमो बलप्रमथनाय नमः
सर्वभूतदमनाय नमो
मनोन्मनाय नमः ॥ ६॥
अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यः
।
सर्वेभ्यः सर्व शर्वेभ्यो
नमस्तेऽस्तु रुद्ररूपेभ्यः ॥ ७॥
तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि
।
तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ॥ ८॥
ईशानस्सर्वविद्यानामीश्वरः
सर्वभूतानाम् ।
ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणोऽधिपतिर्ब्रह्मा
शिवो मेऽस्तु सदाशिवोम् ॥ ९॥
ॐशिवो नामासि स्वधितिस्ते पिता
नमस्ते अस्तु मा मा हिঌसीः ।
निवर्तयाम्यायुषेऽन्नाद्याय
प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय ॥ १०॥
ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि
परासुव ।
यद्भद्रं तन्न आसुव ॥ ११॥
ॐद्यौः शान्तिरन्तरिक्षঌ शान्तिः
पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः ।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः
शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्वঌ शान्तिः
शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि ॥ १२॥
ॐ सर्वेषां वा एष वेदानाঌरसो यत्सामः ।
सर्वेषामेवैनमेतद् वेदानाঌ रसेनाभिषिञ्चति
॥ १३॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति: स्वस्तिप्रार्थनामन्त्रः नामरुद्री
दसमोऽध्यायः ॥ १०॥
रुद्राष्टाध्यायी के इस अध्याय १०
का हिन्दी भावार्थ पढ़ें।
अनेन श्री रुद्राभिषेककर्मणा श्री
भवानीशङ्कर महारुद्राः प्रीयतां न मम ।
इति श्रीशुक्लयजुर्वेदीय
रुद्राष्टाध्यायी समाप्ता ।
॥ ॐ साम्ब सदाशिवार्पणमस्तु ॥
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