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कर्मकाण्ड

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नारायण सूक्त

नारायण सूक्त

नारायण सूक्त के ऋषि नारायण, देवता आदित्य-पुरुष और  छन्द भूरिगार्षी त्रिष्टुपु, निच्यदार्षी त्रिष्टुप् एवं आष्- र्यनुष्टुप् है। इस सूक्त में सृष्टि के विकास और व्यक्ति के कर्तव्य का बोध होता है। इसमें आदि पुरुष (महाविष्णु, विराट पुरुष) की महिमा की अभिव्यक्ती है। इस मंत्र की सिद्धि से सभी देवता जातक के पक्ष में हो जाते हैं। क्योंकि शुक्ल यजुर्वेद में पुरुष सूक्त के सोलह मंत्रो के अनंतर नारायण सूक्त के छः मन्त्र भी प्राप्त होते हैं। अतः इस सूक्त को उत्तर नारायण सूक्त भी कहा जाता है ।

नारायण सूक्त

नारायण सूक्त

रुद्राष्टाध्यायी (रुद्री) के अध्याय २ में कुल २२ श्लोक है।

द्वितीय अध्याय के प्रारम्भ से १६ मन्त्रों को पुरुषसूक्त कहते हैं, यह पुरुषसूक्त रुद्र का द्वितीय सिररूपी अङ्ग है। इसी द्वितीय अध्याय के अन्तिम छः मन्त्रों को उत्तरनारायणसूक्त कहते हैं। यह शिखास्थानीय रुद्र का तीसरा अङ्ग है।

द्वितीयाध्याय के १७वें मन्त्र 'अद्भ्यः सम्भृतः ' से 'श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च' अन्तिम मन्त्रपर्यन्त - ये ६ मन्त्र उत्तरनारायण सूक्त के रूप में प्रसिद्ध हैं।' श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च' यह मन्त्र श्रीलक्ष्मीदेवी के पूजन में प्रयुक्त होता है। द्वितीयाध्याय भगवान् विष्णु का माना जाता है।

रुद्राष्टाध्यायी दूसरा अध्याय

रुद्राष्टाध्यायी अध्याय २- उत्तरनारायणसूक्त

Rudrashtadhyayi chapter 2- Narayan sukta

रुद्राष्टाध्यायी द्वितीयोऽध्यायः उत्तरनारायणसूक्तम्

अथ श्रीशुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी भावार्थ सहित

अद्भ्य: सम्भूतः पृथिव्यै रसाच्च विश्व कर्मणः समवर्तताग्रे ।

तस्य त्वष्टा विदधद्रूप मेति तन् मर्त्यस्य देवत्व माजानमग्रे ॥ १७॥

उस महानारायण की उपासना के और भी प्रकार हैं पृथिवी और जल के रस से अर्थात पाँच महाभूतों के रस से पुष्ट, सारे विश्व का निर्माण करने वाले, उस विराट स्वरूप से भी पहले जिसकी स्थिति थी, उस रस के रूप को धारण करने वाला वह महानारायण पुरुष पहले आदित्य के रूप में उदित होता है। प्रथम मनुष्य रूप उस पुरुष मेधयाजी का यह आदित्य रूप में अवतरित ब्रह्म ही मुख्य आराध्य देवता बनता है।

वेदाह मेतं पुरुषं महान्त मादित्य वर्णम् तमसः परस्तात् ।

तमेव विदित्वाति मृत्युमत्येति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥ १८॥

आदित्यस्वरूप, अविद्या के लवलेश से भी रहित तथा ज्ञानस्वरूप परम पुरुष उस महानारायण को मैं जानता हूँ। कोई भी प्राणी उस आदित्यरूप महानारायण पुरुष को जान लेने के उपरान्त ही मृत्यु का अतिक्रमण कर अमृतत्व को प्राप्त करता है। परम आश्रय के निमित्त अर्थात अमृतत्व की प्राप्ति के लिए इससे भिन्न कोई दूसरा उपाय नहीं है।

प्रजापतिश्चरति गर्भे॑ अन्तर जायमानो बहुधा विजायते ।

तस्य योनिम् परिपश्यन्ति धीरास् तस्मिन् ह तस्थु र्भुवनानि विश्वा ॥ १९॥

सर्वात्मा प्रजापति अन्तर्यामी रूप से गर्भ के मध्य में प्रकट होता है। जन्म न लेता हुआ भी वह देवता, तिर्यक, मनुष्य आदि योनियों में नाना रूपों में प्रकट होता है। ब्रह्मज्ञानी ब्रह्मा के उत्पत्ति स्थान उस महानारायण पुरुष को सब ओर से देखते हैं, जिसमें सभी लोक स्थित हैं।

यो देवेभ्य आ तपति यो देवानां पु॒रोहि॑तः ।

पूर्वो यो देवेभ्यो जातो नमो रुचाय ब्राह्मये ॥ २०॥

जो आदित्यस्वरूप प्रजापति सभी देवताओं को शक्ति प्रदान करने के लिए सदा प्रकाशित रहता है, जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवताओं का बहुत पूर्वकाल से हित करता आया है, जो इन सबका पूज्य है, जो इन सब देवताओं से पहले प्रादुर्भूत हुआ है, उस ब्रह्मज्योतिस्वरूप परम पुरुष को हम प्रणाम करते हैं।

रुचं ब्राह्मं जनयन्तो देवा अग्रे तदब्रुवन् ।

यस्त्वैवं ब्राह्मणो विद्यात्तस्य देवा असन् वशे ॥ २१॥

इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवताओं ने शोभन ब्रह्मज्योतिरूप आदित्य देव को प्रकट करते हुए सर्वप्रथम यह कहा कि हे आदित्य ! जो ब्राह्मण आपके इस अजर-अमर स्वरूप को जानता है, समस्त देवगण उस उपासक के वश में रहते हैं।

श्रीश्चते लक्ष्मीश्च पत्न्या वहो रात्रे पार्श्वे नक्षत्राणि रूप मश्विनौ व्यात्तम् ।

इष्णन्निषाणामुं म इषाण सर्व लोकं म इषाण ॥ २२॥

हे महानारायण आदित्य ! श्री और लक्ष्मी आपकी पत्नियाँ हैं, ब्रह्मा के दिन-रात पार्श्वस्वरुप हैं, आकाश में स्थित नक्षत्र आपके स्वरूप हैं। द्यावापृथिवी आपके विकसित मुख हैं। प्रयत्नपूर्वक आप सदा मेरे कल्याण की इच्छा करें। मुझे आप अपना कल्याणमय लोक प्राप्त करावें और सारे योगैश्वर्य मुझे प्रदान करें।

इति रुद्राष्टाध्यायी नारायण सूक्तनाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ।।

आगे जारी.......... रुद्राष्टाध्यायी अध्याय अप्रतिरथसूक्त

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