विष्णु
विष्णु पुराण १/२२/३६ अनुसार भगवान विष्णु निराकार परब्रह्म जिनको वेदों में ईश्वर कहा है चतुर्भुज विष्णु को सबसे निकटतम मूर्त एवं मूर्त ब्रह्म कहा गया है।
विष्णु की परिभाषा
'विष्णु' शब्द की व्युत्पत्ति मुख्यतः 'विष्' धातु से ही मानी गयी है। निरुक्त (12.18) में मुख्य रूप से 'विष्' धातु को ही 'व्याप्ति'
के अर्थ में लेते हुए उससे 'विष्णु' शब्द को निष्पन्न बताया है। वैकल्पिक रूप से 'विश्'
धातु को भी 'प्रवेश' के
अर्थ में लिया गया है, 'क्योंकि वह विभु होने से सर्वत्र
प्रवेश किया हुआ होता है। आदि शंकराचार्य ने भी अपने विष्णुसहस्रनाम-भाष्य में 'विष्णु' शब्द का अर्थ मुख्यतः व्यापक (व्यापनशील) ही
माना है, तथा उसकी व्युत्पत्ति के रूप में स्पष्टतः लिखा है
कि "व्याप्ति अर्थ के वाचक नुक् प्रत्ययान्त 'विष्'
धातु का रूप 'विष्णु' बनता
है"। 'विश्' धातु को उन्होंने भी
विकल्प से ही लिया है और लिखा है कि "अथवा नुक् प्रत्ययान्त 'विश्' धातु का रूप विष्णु है; जैसा
कि विष्णुपुराण में कहा है-- 'उस महात्मा की शक्ति इस
सम्पूर्ण विश्व में प्रवेश किये हुए हैं; इसलिए वह विष्णु
कहलाता है, क्योंकि 'विश्' धातु का अर्थ प्रवेश करना है"।
विष्णुजी
विष्णु पार्थिव लोकों का निर्माण और
परम विस्तृत अन्तरिक्ष आदि लोकों का प्रस्थापन करने वाले हैं। वे स्वनिर्मित लोकों
में तीन प्रकार की गति करने वाले हैं। उनकी ये तीन गतियाँ उद्भव,
स्थिति और विलय की प्रतीक हैं। इस प्रकार जड़-जंगम सभी के वे
निर्माता भी हैं, पालक भी और विनाशक भी। वे 'लोकत्रय का अकेला धारक' हैं। वे अपने तीन
पाद-प्रक्षेपों से अकेले ही तीनों लोकों को नाप लेते हैं। लोकत्रय को नाप लेने से
भी यह फलित होता है कि लोकत्रय अर्थात् वहाँ के समग्र प्राणी उनके पूर्ण नियंत्रण
में हैं। पुराणों ने इस जगत के मूल में वर्तमान, नित्य,
अजन्मा, अक्षय, अव्यय,
एकरस तथा हेय के अभाव से निर्मल परब्रह्म को ही विष्णु संज्ञा दी
है। वे (विष्णु) 'परानां परः' (प्रकृति
से भी श्रेष्ठ), अन्तरात्मा में अवस्थित परमात्मा, परम श्रेष्ठ तथा रूप, वर्ण आदि निर्देशों तथा विशेषण
से रहित (परे) हैं। वे जन्म, वृद्धि, परिणाम,
क्षय और नाश -- इन छह विकारों से रहित हैं। वे सर्वत्र व्याप्त हैं
और समस्त विश्व का उन्हीं में वास है; इसीलिए विद्वान्
उन्हें 'वासुदेव' कहते हैं। जिस समय
दिन, रात, आकाश, पृथ्वी,
अन्धकार, प्रकाश तथा इनके अतिरिक्त भी कुछ
नहीं था, उस समय एकमात्र वही प्रधान पुरुष परम ब्रह्म
विद्यमान थे, जो कि इन्द्रियों और बुद्धि के विषय (ज्ञातव्य)
नहीं हैं। माना गया है कि विष्णु के दो रूप हुए। प्रथम रूप-- प्रधान पुरुष और
दूसरा रूप 'काल' है। ये ही दोनों
सृष्टि और प्रलय को अथवा प्रकृति और पुरुष को संयुक्त और वियुक्त करते हैं। यह काल
रूप भगवान् अनादि तथा अनन्त हैं; इसलिए संसार की उत्पत्ति,
स्थिति और प्रलय भी कभी नहीं रुकते।
भागवत महापुराण में सृष्टि की
उत्पत्ति के प्रसंग में कहा गया है कि सृष्टि करने की इच्छा होने पर एकार्णव में
सोये (एकमात्र) विष्णु की नाभि से कमल का प्रादुर्भाव हुआ और उसमें समस्त गुणों को
आभासित करने वाले स्वयं विष्णु के ही अन्तर्यामी रूप से प्रविष्ट होने से स्वतः
वेदमय ब्रह्मा का प्रादुर्भाव हुआ। विष्णु का सम्पूर्ण स्वरूप ज्ञानात्मक है।
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं
सुरेशम् ।
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघ वर्णं
शुभांगम् ।।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं
योगिभिर्ध्यानगम्यम् ।
वन्दे विष्णुं भवभयहरं
सर्वलोकैकनाथम् ।।
भावार्थ - जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शैया पर शयन किए हुए हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो देवताओं के भी ईश्वर और संपूर्ण जगत के आधार हैं, जो आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं, नीलमेघ के समान जिनका वर्ण है, अतिशय सुंदर जिनके संपूर्ण अंग हैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किए जाते हैं, जो संपूर्ण लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरण रूप भय का नाश करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपति, कमलनेत्र भगवान श्रीविष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ।
विष्णुजी
Vishnu
मत्स्य स्तुति कालिका पुराण
हरिस्तोत्र
गरुड़ध्वज स्तवन
मत्स्य स्तुति अग्निपुराण
नारायण स्तुति
वशिष्ठकृत श्रीहरि विष्णु स्तवन
भगवच्छरण स्तोत्र
विष्णु स्तुति
विष्णु स्तुति इन्द्रद्युम्नकृत
प्रह्लादकृत नरसिंहस्तुति
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