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कर्मकाण्ड

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वामन स्तवन

वामन स्तवन

भगवान् वामन का यह स्तवन परम मङ्गलकारी, कल्याणकारी और दुःख का नाश करनेवाले है। इसके नित्य पाठ करने से मन की सारी अभिलाषाएँ परिपूर्ण होकर सारे पाप नष्ट होता तथा स्वर्ग और मोक्ष के फल के देनेवाले है।

वामन स्तवन

वामन स्तवन श्रीवामनपुराणान्तर्गत्

अदितिरुवाच

नमः कृत्यार्तिनाशाय नमः पुष्करमालिने ।

नमः परमकल्याण कल्याणायादिवेधसे ॥१७ ॥

अदिति बोली- कृत्या से उत्पन्न दुःख का नाश करनेवाले प्रभु को नमस्कार है। कमल की माला को धारण करनेवाले पुष्करमाली भगवान्को नमस्कार है। परम मङ्गलकारी, कल्याणस्वरूप आदिविधाता प्रभो! आपको नमस्कार है।

नमः पङ्कजनेत्राय नमः पङ्कजनाभये ।

नमः पङ्कजसंभूतिसंभवायात्मयोनये ॥१८ ॥

कमलनयन! आपको नमस्कार है। पद्मनाभ! आपको नमस्कार है। ब्रह्मा की उत्पत्ति के स्थान, आत्मजन्मा! आपको नमस्कार है।

श्रियः कान्ताय दान्ताय दान्तदृश्याय चक्रिणे ।

नमः पद्मासिहस्ताय नमः कनकरेतसे ॥१९ ॥

प्रभो! आप लक्ष्मीपति, इन्द्रियों का दमन करनेवाले, संयमियों के द्वारा दर्शन पाने योग्य, हाथ में सुदर्शन चक्र धारण करनेवाले एवं खङ्ग (तलवार) धारण करते हैं; आपको नमस्कार है।

तथात्मज्ञानयज्ञाय योगिचिन्त्याय योगिने ।

निर्गुणाय विशेषाय हरये ब्रह्मरूपिणे ॥ २० ॥

स्वामिन् ! आत्मज्ञान के द्वारा यज्ञ करनेवाले, योगियों के द्वारा ध्यान करने योग्य, योग को साधना करनेवाले योगी, सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण से रहित किंतु (दयादि) विशिष्ट गुणों से युक्त ब्रह्मरूपी श्रीहरि भगवान्को नमस्कार है।

जगच्च तिष्ठते यत्र जगतो यो न दृश्यते ।

नमः स्थूलातिसूक्ष्माय तस्मै देवाय शार्ङ्गिणे ॥२१ ॥

जिन आप परमेश्वर में सारा संसार स्थित है, किंतु जो संसार से दृश्य नहीं हैं, ऐसे स्थूल तथा अतिसूक्ष्म आप शार्ङ्गधारी देव को नमस्कार है।

यं न पश्यन्ति पश्यन्तो जगदप्यखिलं नराः ।

अपश्यद्धिर्जगद्यश्च दृश्यते हृदि संस्थितः ।। २२ ॥

सम्पूर्ण जगत्की अपेक्षा करनेवाले प्राणी जिन आपके दर्शन से वशित रहते हैं, आपका वे दर्शन नहीं कर पाते, परंतु जिन्होंने जगत्की अपेक्षा नहीं की, उन्हें आप उनके हृदय में स्थित दीखते हैं।

बहिर्कोतिरलक्ष्यो यो लक्ष्यते ज्योतिषः परः ।

यस्मिन्नेव यतश्चैव यस्यैतदखिलं जगत् ॥ २३ ॥

तस्मै समस्तजगताममराय नमो नमः ।

आद्यः प्रजापतिः सोऽपि पितृणां परमं पतिः ।

पतिः सुराणां यस्तस्मै नमः कृष्णाय वेधसे ।।२४ ॥

आपकी ज्योति बाहर है एवं अलक्ष्य है, सर्वोत्तम ज्योति है; यह सारा जगत् आप में स्थित है, आपसे उत्पन्न होता है और आपका ही है, जगत्के देवता उन आपको नमस्कार है। जो आप सबके आदि में प्रजापति रहे हैं एवं पितरों के श्रेष्ठ स्वामी हैं, देवताओं के स्वामी हैं; उन आप श्रीकृष्ण को बार-बार नमस्कार है।   

यः प्रवृत्तैर्निवृत्तैश्च कर्मभिस्तु विरज्यते ।

स्वर्गापवर्गफलदो नमस्तस्मै गदाभृते ॥ २५ ॥

जो प्रवृत्त एवं निवृत्त कर्मों से विरक्त तथा स्वर्ग और मोक्ष के फल के देनेवाले हैं, उन गदा धारण करनेवाले भगवान्को नमस्कार है।

यस्तु संचिन्त्यमानोऽपि सर्वं पापं व्यपोहति ।

नमस्तस्मै विशुद्धाय परस्मै हरिमेधसे ॥ २६ ॥

जो स्मरण करनेवाले के सारे पाप नष्ट कर देते हैं, उन विशुद्ध हरिमेधा को मेरा नमस्कार है।

ये पश्यन्त्यखिलाधारमीशानमजमव्ययम् ।

न पुनर्जन्ममरणं प्राप्नुवन्ति नमामि तम् ॥ २७ ॥

जो प्राणी अविनाशी भगवान्को अखिलाधार, ईशान एवं अज के रूप में देखते हैं, वे कभी भी जन्म-मरण को नहीं प्राप्त होते। प्रभो!  मैं आपको प्रणाम करती हूँ। 

यो यज्ञो यज्ञपरमैरिज्यते यज्ञसंस्थितः ।

तं यज्ञपुरुषं विष्णुं नमामि प्रभुमीश्वरम् ॥ २८ ॥

आपकी आराधना यज्ञों द्वारा होती है, आप यज्ञ की मूर्ति हैं, यज्ञ में आपकी स्थिति हैयज्ञपुरुष! आप ईश्वर, प्रभु विष्णु को मैं नमस्कार करती हूँ।

गीयते सर्ववेदेषु वेदविद्धिर्विदां गतिः ।

यस्तस्मै वेदवेद्याय नित्याय विष्णवे नमः ॥ २९॥

वेदों में आपका गुणगान हुआ है-इसे वेदज्ञ गाते हैं। आप विद्वज्जनों के आश्रय हैं, वेदों से जानने योग्य एवं नित्यस्वरूप हैं; आप विष्णु को मेरा नमस्कार है।

यतो विश्वं समुद्भूतं यस्मिन् प्रलयमेष्यति ।

विश्वोद्भवप्रतिष्ठाय नमस्तस्मै महात्मने ॥३०॥

विश्व जिनसे समुद्भूत हुआ है और जिनमें विलीन होगा तथा जो विश्व के उद्भव एवं प्रतिष्ठा के स्वरूप हैं, उन महान् आत्मा (परमात्मा)-को मेरा 'नमस्कार है।

आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं व्याप्तं येन चराचरम् ।

मायाजालसमुन्नद्धं तमुपेन्द्रं नमाम्यहम् ॥ ३१॥

जिनके द्वारा मायाजाल से बँधा हुआ ब्रह्मा से लेकर चराचर (विश्व) व्याप्त है, उन उपेन्द्र भगवान्को मैं नमस्कार करती हूँ।

योऽत्र तोयस्वरूपस्थो बिभर्त्यखिलमीश्वरः ।

विश्वं विश्वपतिं विष्णुं तं नमामि प्रजापतिम् ॥ ३२ ॥

जो ईश्वर जलस्वरूप में स्थित होकर अखिल विश्व का भरण करते हैं, उन विश्वपति एवं प्रजापति विष्णु को मैं नमस्कार करती हूँ।

मूर्त तमोऽसुरमयं तद्विधो विनिहन्ति यः ।

रात्रिजं सूर्यरूपी च तमुपेन्द्रं नमाम्यहम् ॥३३ ॥

जो सूर्यरूपी उपेन्द्र असुरमय रात्रि से उत्पन्न, रूपधारी तम का विनाश करते हैं, मैं उनको प्रणाम करती हूँ।

यस्याक्षिणी चन्द्रसूर्यौ सर्वलोकशुभाशुभम् ।

पश्यतः कर्म सततं तमुपेन्द्रं नमाम्यहम् ॥ ३४ ॥

जिनकी सूर्य तथा चन्द्रमा-रूप दोनों आँखें समस्त लोकों के शुभा-शुभ कर्मो को सतत देखती रहती हैं, उन उपेन्द्र को मैं नमस्कार करती हूँ।

यस्मिन् सर्वेश्वरे सर्वं सत्यमेतन्मयोदितम् ।

नानृतं तमजं विष्णुं नमामि प्रभवाव्ययम् ॥ ३५॥

जिन सर्वेश्वर के विषय में मेरा यह समस्त उद्गार सत्य है-असत्य नहीं है, उन अजन्मा, अव्यय एवं स्रष्टा विष्णु को मैं नमस्कार करती हूँ।

यद्येतत्सत्यमुक्तं मे भूयश्चातो जनार्दन ।

सत्येन तेन सकला: पूर्यन्तां मे मनोरथाः ॥ ३६॥

हे जनार्दन ! यदि मैंने यह सत्य कहा है तो उस सत्य के प्रभाव से मेरे मन की सारी अभिलाषाएँ परिपूर्ण हो ।

इति श्रीवामनपुराणे सरोमाहात्म्ये वामन स्तवन नाम सप्तविंशतितमोऽध्यायः॥२७॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराण में वामन स्तवन नामक सत्ताईसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥२७॥

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