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रुद्रयामल तंत्र पटल ५ में में मन्त्र
संस्कार के किए महा अकथह चक्र की रचनाविधि वर्णित है । तत्स्थान स्थित वर्णों का
फल,
प्राणायामादि सिद्धि, वाक्सिद्धि और शिवसायुज्य
प्राप्ति आदि विषय वर्णित है।
रुद्रयामल तंत्र पटल ५
रुद्रयामल पञ्चम: पटलः
रुद्रयामल पांचवा पटल -
मन्त्रसंस्कार महा-अकथहचक्र
तंत्र
शास्त्ररूद्रयामल
पञ्चम पटल - मन्त्रसंस्कारार्थे
महा-अकथहचक्रम्
मन्त्रादिदोषादिनिर्णयः
मन्त्रसंस्कारार्थे महा-अकथहचक्रम्
महाकथहचक्रार्थं
सर्वचक्रोत्तमोत्तमम् ।
यस्य विचारमात्रेण कामरुपी भवेन्नरः
॥१॥
महा अकथह
नामक यह चक्र सभी उत्तम चक्रों की अपेक्षा श्रेष्ठ है,
जिसका विचार करने मात्र से मनुष्य इच्छानुसार रुप धारण कर सकता है
॥१॥
मन्त्रसंस्कारार्थे महा-अकथहचक्रम्
ततः प्रकारं वीराणां नाथः त्वं
क्रमशः श्रृणु ।
चतुरस्त्रे लिखेत् वर्णांश्चतुःकोष्ठसमन्विते
॥२॥
चतुःकोष्ठे चतुःकोष्ठे
चतुश्चतुर्गृहान्वितम् ।
मन्दिरं षोडशं प्रोक्तं
सर्वकामार्थसिद्धिदम् ॥३॥
आप वीरों के नाथ हैं । उस अकथह
चक्र के रचना की विधि सुनिए - पहले चतुष्कोष्ठ, फिर उसमें भी चतुः कोष्ठ, फिर उसमें पुनः चतुः कोष्ठ,
फिर उसमें भी चार गृह बनावे । इस प्रकार कुल १६ गृह का निर्माण काम
और अर्थ की सिद्धि देने वाला कहा गया है ॥२ - ३॥
चतुरस्त्र लिखेत्कोष्ठं
चतुःकोष्ठसमन्वितम् ।
पुनश्चतुष्कं तत्रापि लिखेद्धीमान्
क्रमेण तु ॥४॥
सर्वेषु गृहमध्येषु
प्रादक्षिण्यक्रमेण तु ।
अकारदिक्षकारान्तं लिखित्वा
गणयेत्ततः ॥५॥
चार कोष्ठक से युक्त प्रथम चतुर्भुज,
फिर द्वितीय चतुःकोष्ठ समन्वित चतुर्भुज में धीमान् पुरुष क्रम से
प्रदक्षिण क्रमपूर्वक सभी घरों में अकारादि क्षकारान्त वर्णों को लिखकर तदनन्तर
गणना करे ॥४ - ५॥
चन्द्रमग्निं रुद्रवर्णं नवमं युगलं
तथा ।
वेदमर्कं दशरसं वसुं षोडशमेव च ॥६॥
चतुर्दशं भौतिकञ्च सप्तपञ्चदशेति च
।
वहनीन्दुकोष्ठगं वर्णं सङ्केताङ्कैः
मयोदितम् ॥७॥
एतदङ्कस्थितं वर्णं गणयेत्तदन्तरम्
।
नामाद्यक्षरमारभ्य
यावन्मन्त्रदिमाक्षरम् ॥८॥
१ , ३ , ११ , ९ , २ , ४ , १२ , १० , ६ , ८ , १६ , १४ , ५ , ७ , १५ , तथा १३ वें अङ्क वाले
कोष्ठकों में क्रमशः अकारादि वर्णों को लिखे । यहाँ कोष्ठकों का सङ्केत अङ्कों से
किया गया है । क्रमशः इन अङ्कों में वर्णों को लिख कर तदनन्तर नामाक्षर के आदि
अक्षर से आरम्भ कर मन्त्र के आदि अक्षर तक गणना करे ॥६ - ८॥
चतुर्भिः कोष्ठैरेकैकमिति
कोष्ठचतुष्टयम् ।
पुनः कोष्ठागकोष्ठेषु सत्यतो नाम्न
आदितः ॥९॥
सिद्धः साध्यः सुसिद्धोऽरिः क्रमशो
गणयेत्सुधीः ।
सिद्धः सिद्धयति कालेन साध्यस्तु
जपहोमतः ॥१०॥
चार कोष्ठों द्वारा एक-एक नाम,
इस प्रकार चार कोष्ठक में आदि से लेकर पुनः एक-एक कोष्ठ से दूसरे कोष्ठ
में नाम की गणना करे । प्रथम कोष्ठ सिद्ध, दूसरा साध्य,
तीसरा सुसिद्ध और चौथा अरि इस क्रम से विद्वान् साधक गणना करे ।
सिद्ध मन्त्र समय से सिद्ध हो जाता है और साध्य मन्त्र जप होम से सिद्ध हो जाता है
॥९ - १०॥
सुसिद्धोऽग्रहाज्ज्ञानी
शत्रुर्हन्ति स्वमानुषम् ।
सिद्धार्णो बान्धवः प्रोक्तः साध्यः
सेवक उच्यते ॥११॥
सिद्धकोष्ठस्थिता वर्णा बान्धवाः
सर्वकामदाः ।
जपेन बहुसिद्धिः स्यात्
सेवकोऽधिकसेवया ॥१२॥
सुसिद्ध मन्त्र दीक्षा ग्रहण मात्र
से ज्ञान करा देता है । किन्तु शत्रु मन्त्र साधक का आयुष्य समाप्त कर देता है ।
सिद्ध मन्त्र बान्धव कहा गया है और साध्य मन्त्र सेवक कहा जाता है ।
सिद्ध कोष्ठक में रहने वाले सभी वर्ण बान्धव कहे जाते हैं ;
जो सारी कामनाओं की पूर्ति करते हैं । उसके जप मात्र से सिद्धि लाभ
हो जाता है । किन्तु सेवक वर्ण बहुत सेवा से सिद्धि प्रदान करते हैं ॥११ - १२॥
पुष्णाति पोषकोऽभीष्टो घातको
नाशयेद् ध्रुवम् ।
सिद्धः सिद्धो यथोक्तेन द्विगुणः
सिद्धसाधकः ॥१३॥
सिद्धः सुसिद्धोद्र्ध्वजपात्
सिद्धारिर्हन्ति बान्ध्वान् ।
साध्यः सिद्धो द्वगुनकः साध्ये
साध्यो निरर्थकः ॥१४॥
सुसिद्ध वर्ण पोषक हैं,
अभीष्ट हैं और साधक का पोषण करते हैं । अरि वर्ण घातक हैं निश्चय ही
वे साधक का वध कर देते हैं ।
अब पुनः उसके चार भेद कहते
हैं - १ सिद्धासिद्ध वर्ण तो उक्त प्रकार से सिद्ध हो जाते हैं ,
२ सिद्ध - साध्य द्विगुणित जप से सिद्ध होता है । ३ . सिद्ध -
सुसिद्ध जप के अनन्तर सिद्ध होता है, किन्तु ४ . सिद्धारि
समस्त बान्धवों का विनाश कर देता है । इस प्रकार साध्य सिद्ध तो दूने जप से सिद्ध
होता है, किन्तु साध्य-साध्य निरर्थक है ॥१३ - १४॥
तत्सुसिद्धो द्विगुणजपात्
साध्यारिर्हन्ति गोत्रजान् ।
सुसिद्धसिद्धोद्र्ध्वजपात्तत्साध्यो
द्विगुणाधिकात् ॥१५॥
निष्कर्षतः साध्य सुसिद्ध दूने जप
से सिद्ध होता है किन्तु साध्य अरि बान्धवों का विनाश करता है । सुसिद्ध सिद्ध जप
से,
सुसिद्ध- साध्य दुगुने से भी अधिक जप से सिद्ध होता है ॥१५॥
तत्सुसिद्धो ग्रहादेव सुसिद्धारिः
स्वगोत्रहा ।
अरिः सिद्धः सुतान्
हन्यादरिसाध्यस्तु कन्यकाः ॥१६॥
तत्सुसिद्धिस्तु
पत्नीघ्नस्तदरिर्हन्ति गोत्रजान् ।
सुसिद्ध --- सिद्ध ग्रहण मात्र से
सिद्ध हो जाता है, किन्तु सुसिद्धारि
साधक के गोत्र का वध कर देता है, अरि - सिद्ध साधक के
पुत्रों का तथा अरि- साध्य मन्त्र तो साधक के कन्या का विनाश करता है । अरि -
सुसिद्ध पत्नीहन्ता होता है । अरि - अरि वर्ण बान्धवों ( गोत्रजों ) का विनाश करता
है ॥१६ - १७॥
विमर्श
- मन्त्रमहोदधि २४ . १ - २० में इसका विस्तृत विवेचन है ।
यदि वैरिमनोर्हस्तस्थितः स्यात्
साधको भुवि ॥१७॥
तदन्ते रक्षणार्थं हि कुर्यादेवं
क्रियादिकम् ।
अरिमन्त्र से रक्षा के उपाय
- यदि कदाचित् साधक को शत्रु मन्त्र दीक्षा द्वारा प्राप्त हो गया हो तो उससे
अपनी रक्षा के लिए इस प्रकार की क्रिया करनी चाहिए ॥१७ - १८॥
तत्प्रकारं महावीर श्रृणुष्व
गिरिजापते ॥१८॥
वटपत्रे लिखित्वारिमन्त्रं
स्त्रोतसि निक्षिपेत् ।
एवं मन्त्रविमुक्तः स्यान्नमाज्ञावशहेतुना
॥१९॥
हे गिरिजापते ! हे महावीर ! अब अरिमन्त्र
से छुटकारा पाने के विधान सुनिए । ( १ ) अरिमन्त्र को वटपत्र पर लिख कर नदी के
प्रवाह में छोड़ देना चाहिए । इस प्रकार से साधक को शत्रु मन्त्र से छुटकारा मिल
जाता है । उसमें मेरी आज्ञा ही हेतु है ॥१८ - १९॥
पुनः प्रकारं विप्रस्तु गवां क्षीरे
मुदान्वितः ।
द्रोणमिते
जपेन्मन्त्रमष्टोत्तरसमन्वितम् ॥२०॥
पीत्वा क्षीरं मनोमध्ये ध्यात्वा
मन्त्रं समुच्चरन् ।
सत्न्यजन्नीरमध्ये तु
वैरिमन्त्रप्रमुक्तये ॥२१॥
( २ ) अब इसके अतिरिक्त उस मन्त्र
से छुटकारा पाने का दूसरा उपाय यह है कि द्रोण परिमाण वाले गौ के दूध में
१०८ बार मन्त्र का जाप कर उस दूध को पीते हुये मध्य में मन्त्र का ध्यान कर फिर उस
का उच्चारण करते हुये वैरि मन्त्र से विमुक्ति के लिए पानी में कुल्ला करते हुये
छोड़ देवे ॥२० - २१॥
पुनः प्रकारं वक्ष्यामि त्रिरात्रमेकवासरम्
।
उपोष्य विधिनानेन पूजां कृत्वा शनौ
कुजे ॥२२॥
सहस्त्रं वा शतं वापि
अष्टोत्तरसमन्वितम् ।
जपित्वा सन्त्यजेन्मन्त्रं
क्षीरसागरमण्डले ॥२३॥
अथवा तद्गुरोः स्थाने चान्यस्थाने
च वा पुनः ।
विचार्य मन्त्रवर्णञ्च गृहीत्वा
मोक्षमाप्नुयात् ॥२४॥
( ३ ) इसके अतिरिक्त अब तीसरा
एक प्रकार और कहता हूँ । तीन रात अथवा एक रात उपवास करे । फिर शनिवार अथवा मङ्गल
के दिन पूजा कर १००८ अथवा १०८ की संख्या में अरिमन्त्र का जप कर उस मन्त्र को
क्षीर सागर के मण्डल में छोड़ देवे । अथवा उस मन्त्र के देने वाले गुरु के
घर अथवा किसी अन्य स्थान पर उस मन्त्र को छोड़ देवे । फिर चक्र पर विचारे हुये
मन्त्र को ग्रहण करने से साधक दोष विमुक्त हो जाता है ॥२२ - २४॥
स्वप्ने यदि महामन्त्रं प्राप्नोति
साधकोत्तमः ।
तदा सिद्धिवाप्नोति सत्यं सत्यं
कुलेश्वर ॥२५॥
तन्मन्त्रं कौलिके नाथ गुरोर्यत्नेन
सङ्ग्रही ।
यदा भवति सिद्धिः
स्यात्तत्क्षणान्नात्र संशयः ॥२६॥
यदि किसी उत्तम साधक को स्वप्न में
किसी महामन्त्र की प्राप्ति हो जावें तो उस मन्त्र से उसको अवश्य सिद्धि लाभ हो
जाता है । हे कुलेश्वर ! यह सत्य है, यह
सत्य है । इसमें संशय नहीं । हे नाथ ! गुरो ! किसी कुलिक (शाक्त) से यदि
यत्नपूर्वक मन्त्र लिया जाय तो जब लिया जाता है उसी समय सिद्धि हो जाती है,
इसमें संशय नहीं ॥२५ - २६॥
अरिं वा देवदेवेश यदि
विग्राहयेन्मनुम् ।
अन्यमन्त्रं विचार्यैव विष्णोश्चैव
शिवस्य च ॥२७॥
शक्तिमन्त्रं यदि रिपुं तदा एवं
प्रकारम् ।
आदावन्ते च मध्ये च ॐ वौषट्
स्वाहयान्वितम् ॥२८॥
हे देवदेवेश ! शत्रु मन्त्र,
विग्रह कराने वाला मन्त्र, विष्णु का मन्त्र, शिव का
मन्त्र अथवा अन्य मन्त्र विचार कर ग्रहण करना चाहिए । शाक्त मन्त्र यदि चक्र पर
परीक्षा करने से शत्रु का फल देने वाला हो तो उसका विचार इस प्रकार करना चाहिए ।
उस शाक्त मन्त्र के आदि में ॐ मध्य ’ वौषट् ’ तथा अन्त में ’ स्वाहा ’ से
युक्त करे ॥२७ - २८॥
कृत्वा जप्त्वा महासिद्धि
कामरुपस्थितमिव ।
प्राप्नोति नात्र सन्देहो ममाज्ञा
वरवर्णिनी ॥२९॥
शिव जी
कहते है,
तदनन्तर हे वरवर्णिनि ! ऐसा कर जप करने से साधक इच्छानुसार रूप धारण
करते हुये महासिद्धि को प्राप्त कर लेता है, इसमें संदेह
नहीं ऐसी मेरी आज्ञा है ॥२९॥
रूद्रयामल पञ्चम पटल - चक्रफलकथन
रूद्रयामल तंत्र पञ्चमः पटलः -
चक्रफलकथनम्
श्रृणु चक्रफलं नाथ विचाराचारमङलम्
।
प्रासादञ्च महामन्त्रं सद्गुरोर्मुखपङ्कजात्
॥३०॥
लभ्यते यदि भाग्येन सिद्धिरेव न
संशयः ।
तदभावे सिद्धिमन्त्रं
दृष्टादृष्टफलोन्मुखम् ॥३१॥
चक्रों के फल
--- हे नाथ ! अब विचार और आचार से मङ्गल रुप वाले चक्र फलों को सुनिए । सदगुरु के
मुखपङ्कज से निकला हुआ प्रसाद रुप महामन्त्र यदि भाग्यवश मिल जावे तो सिद्धि अवश्य
होती है इसमें संशय नहीं । उसके अभाव में सिद्धि का मन्त्र दृष्ट फल और अदृष्ट फल
प्रदान करने के लिए उन्मुख करता करता है ॥३० - ३१॥
महाचमत्कारकरं
ह्रदयोल्लास्वर्द्धनम् ।
स्वप्ने वा सद्गुरोः स्थाने
प्राप्तिमात्रेण मुक्तिदम् ॥३२॥
यदि महागुरु के स्थान पर स्वप्न में
कोई मन्त्र प्राप्त हो जावे तो वह महान् चमत्कारी होता है ह्रदय में प्रसन्नता को
बढा़ता है । किं बहुना, प्राप्त होने मात्र
से वह साधक को मुक्ति प्रदान करता है ॥३२॥
तन्मंन्त्र वर्जयित्वा च
घोरान्धकारौरवे ।
वसन्ति सर्वकालं च ममाज्ञावशभागिनी
॥३३॥
स्वप्न लब्ध मन्त्र का जो परित्याग
करता है,
वह मेरी आज्ञा का वशवर्ती न हो कर घोरान्धकार युक्त रौरव नरक
में निवास करता है ॥३३॥
तत्रैव चक्रसारादि विचारं
व्यर्थभाषणम् ।
अरिमन्त्रं महापुण्य़ं
सर्वमन्त्रोत्तमोत्तमम् ॥३४॥
उस मन्त्र मे विषय में चक्र सारादि
का विचार व्यर्थ भाषण के सदृश है । स्वप्नलब्ध चाहे अरि मन्त्र ही क्यों न हो महा
पुण्यदायक होता है और वह सभी उत्तमोत्तम मन्त्रों से भी श्रेष्ठ है ॥३४॥
कोटिजन्मर्जितैः
पुण्यैर्महाविद्याश्रयी भवेत् ।
स्वप्ने कोटिकुलोत्पनैः
पुण्यकोटिफलैरपि ॥३५॥
प्राप्नोति साधको मन्त्रं भुक्तये
मुक्तये ध्रुवम् ।
ततश्चक्रं न विचार्यं विचार्य मरणं
भवेत् ॥३६॥
करोड़ों जन्मों में किए गये पुण्य के
प्रभाव से मनुष्य को महाविद्या का आश्रय प्राप्त होता है और करोड़ों कुलों में
उत्पन्न होकर करोड़ों पुण्यों के फल से साधक को स्वप्न में मन्त्र की
प्राप्ति होती है, जो निश्चय ही
भुक्ति और मुक्ति के लिए होती है । इसलिए स्वप्नलब्ध मन्त्र का चक्र पर विचार नहीं
करना चाहिए । यदि चक्र पर विचार करे तो निश्चय ही मरण होता है ॥३५ - ३६॥
किन्तु चक्राविचारञ्च यदि स्वप्ने
चमत्कृतम् ।
एतेषां चक्रवर्णानां
विचारादष्टासिद्धिदम् ॥३७॥
यदि स्वप्न में कोई चमक्तार युक्त
मन्त्र का दर्शन हो तो ऊपर कहे गये चक्रों द्वारा विचार किया जा सकता है । क्योंकि
इस (
अकथह ) चक्र में विचारे गये वर्ण आठों प्रकार की सिद्धियाँ प्रदान
करते हैं ॥३७॥
वायुं मुक्तिं धनं योगसिद्धिमृद्धिं
धनं शुभम् ।
धर्मदेहपवित्रञ्च अकाले
मृत्युनाशनम् ॥३८॥
वाञ्चाफलप्रदं
गौरीचरणाम्भोजेदर्शनम् ।
भुक्ति मुक्तिं हरस्थानं प्राप्नोति
नात्र संशयः ॥३९॥
वायु, मुक्ति धन, योगसिद्धि ऋद्धि, धन,
शुभ, धर्म और देह की पवित्रता, अकाल में होने वाली मृत्यु से मुक्ति और अभीष्ट सिद्धि, गौरीचरणाम्भोज के दर्शन, भुक्ति, मुक्ति और शिव सायुज्य इतने फल चक्र से विचार किए गए वर्ण से प्राप्त होते
हैं, इसमें संशय नहीं ॥३८ - ३९॥
एषां चक्रादिकालञ्च क्रमशो गणितं
फलम् ।
यदि सर्वविचारञ्च करोति साधकोत्तमः
॥४०॥
तदा सर्वफल नित्यं प्राप्नोति नात्र
संशयः ।
यदि साधकोत्तम दीक्षा के समय सभी
प्रकार का विचार करे तो इन चक्रादिकाल का गणना से फल होता है । गणना करने करने से
अच्छे बुरे सभी प्रकार के फल की प्राप्ति होती है, इसमें संशय नहीं ॥४० - ४१॥
महाव्रतं विवेकञ्च विचाराल्लभते
ध्रुवम् ॥४१॥
अक्स्मात् सिद्धिमाप्नोति चक्रराजं
विचारतः ।
सर्वे देवाः प्रशंसन्ति
चक्रमन्त्राश्रितं जलम् ॥४२॥
वाक्यसिद्धिर्भवेत् क्षिप्रं
प्राणयामादिसिद्धिभाक् ।
सर्वेषां प्रणमेद् भूमौ विचरेत्
साधको बली ॥४३॥
निश्चय ही चक्रराज के विचार से
अकस्मात् सिद्धि महान् व्रत और विवेक की प्राप्ति होती है । सभी देवता गण
चक्रमन्त्र से अभिमन्त्रित जल की प्रशंसा करते हैं । साधक को वाक्य की सिद्धि होती
है । वह प्राणायामादि के द्वारा समस्त सिद्धीयाँ प्राप्त कर लेता है । सब लोग उसे
प्रणाम करते हैं और वह सभी से बलवान होकर पृथ्वी पर विचरण करता है ॥४१ -
४३॥
इति ते कथितं नाथ चक्रं षोडशमङुलम्
।
चक्राणां लोकनादेव
सायुज्यपदमाप्नुयात् ॥४४॥
अतो विचारं सर्वत्र
सर्वचक्रदिमङुलम् ॥४५॥
हे नाथ ! इस प्रकार मङ्ग देने वाले
षोडश चक्रों का वर्णन हमने किया । इन चक्रों के विषय में बहुत क्या कहें इनके
दर्शन मात्र से सायुज्य पदवीं प्राप्त होती हैं । इसलिए सभी मन्त्र ग्रहण काल में
सर्व चक्रादि से मङ्गलकारी मन्त्र का विचार करना चाहिए ॥४४ - ४५॥
॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे
महातन्त्रोद्दीपने सर्वचक्रानुष्ठाने सिद्धितन्त्रप्रकरणे पञ्चम पटलः ॥५॥
॥ इस प्रकार श्रीरुद्रयामल के उत्तरतंत्र
में महातंत्रोद्दीपन में सर्वचक्रानुष्ठान में सिद्धमन्त्र प्रकरण में भाव निर्णय
में भैरव-भैरवी संवाद में पांचवा पटल की डॅा० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या
पूर्णं हुई ॥ ५ ॥
शेष जारी............रूद्रयामल तन्त्र षष्ट पटल
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