स्वप्न फलादेश-अशुभ स्वप्न
इससे पूर्व स्वप्न फलादेश के विषय
श्रीब्रह्मवैवर्तपुराण से पहले शुभस्वप्न(सुस्वप्न) दर्शन के फल का विचार पहले
दिया । अब यहाँ इसी पुराण से अशुभ या दुःस्वप्न, उनके फल तथा उनकी शांति के उपाय का वर्णन दिया जा रहा है।
स्वप्न फलादेश-अशुभ स्वप्न
नन्द जी बोले- जगन्नाथ श्रीकृष्ण!
मैंने अच्छे स्वप्नों का वर्णन सुना। वेदों का सारभाग तथा लौकिक-वैदिक नीति का
सारतत्त्व है। वत्स! अब मैं उन स्वप्नों को सुनना चाहता हूँ,
जिन्हें देखने से पाप होता है, उसका वर्णन
करो।
श्रीभगवान बोले- तात! सिद्धियों का
साधन करने वाला सिद्ध उन सिद्धियों के ही भेद से बाईस प्रकार का होता है। मेरे मुख
से उसका परिचय सुनो और सिद्धमंत्र ग्रहण करो। अणिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य,
महिमा, ईशित्व, वशित्व,
कामावसायिता, दूरश्रवण, परकायप्रवेश,
मनोयायित्व, सर्वज्ञत्वव, अभीष्ट सिद्धि, अग्निस्तम्भ, जलस्तम्भ,
चिरजीवित्व, वायुस्तम्भ, क्षुत्पिपासानिद्रास्तम्भन (भूख-प्यास तता नींद का स्तम्भन), वाक् सिद्धि, इच्छानुसार मृत प्राणी को बुला लेना,
सृष्टिकरण और प्राणों का आकर्षण- ये बाईस प्रकार की सिद्धियाँ हैं।
सिद्धमंत्र इस प्रकार है- ‘ऊँ सर्वेश्वरेश्वराय सर्वविघ्नविनाशिने मधुसूदनाय स्वाहा’।
यह मंत्र अत्यंत गूढ़ है और सबकी
मनोवाञ्छा पूर्ण करने के लिए कल्पवृक्ष के समान है। सामवेद मे इसका वर्णन है। यह
सिद्धों की संपूर्ण सिद्धियों को देने वाला है। इस मंत्र के जप से योगी,
मुनीन्द्र और देवता सिद्ध होते हैं। सत्पुरुषों को एक लाख जप करने
से ही यह मंत्र सिद्ध हो जाता है। यदि नारायण क्षेत्र में हविष्यान्नभोजी होकर
इसका जप किया जाय तो शीघ्र सिद्ध प्राप्त होती है। तात! तुम काशी के मणिकर्णिका
तीर्थ में जाकर इसका जप करो। गंगा के जलप्रवाह से चार हाथ तक की भूमि को ‘नारायणक्षेत्र’ कहा है। उसके नारायण ही स्वामी हैं;
दूसरा कोई कदापि नहीं है। वहाँ मनुष्य की मृत्यु होने पर उसे ज्ञान
एवं मुक्ति की प्राप्ति होती है। वहाँ व्रत के बिना भी मंत्र-जप करने से मनुष्य
जीवन्मुक्त हो जाता है; इसमें संशय नहीं है।
तात! जिनके दर्शन से पाप होता है;
उन्हें बताता हूँ, सुनो। दुःस्वप्न केवल पाप
का बीज और विघ्न का कारण होता है। गौ और ब्राह्मण की हत्या करने वाले कृतघ्न,
कुटिल, देवमूर्तिनाशक, माता-पिता
के हत्यारे, पापी विश्वासघाती, झूठी
गवाही देने वाले, अतिथि के साथ छल करने वाले, ग्राम-पुरोहित, देवता तथा ब्राह्मण के धन का अपहरण
करने वाले, पीपल का पेड़ काटने वाले, दुष्ट,
शिव और विष्णु की निन्दा करने वाले, दीक्षारहित,
आचारहीन, संध्यारहित द्विज, देवता के चढ़ावे पर गुजारा करने वाले और बैल जोतने वाले ब्राह्मण को देखने
से पाप लगता है। पति-पुत्र से रहित, कटी नाकवाली, देवता और ब्राह्मण की निन्दा करने वाली, पति
भक्तिहीनता, विष्णुभक्ति शून्या तथा व्यभिचारिणी स्त्री के
दर्शन से भी पाप होता है। सदा क्रोधी, जारज, चोर, मिथ्यावादी, शरणागत को
यातना देने वाले, मांस चुराने वाले, शूद्रजातीय
स्त्री से संबंध रखने वाले ब्राह्मण, ब्राह्मणीगामी शूद्र,
सूदखोर द्विज और अगम्या स्त्री के साथ समागम करने वाले दुष्ट नराधम
को भी देखने से पाप लगता है।
माता, सौतेली माँ, सास, बहिन,
गुरुपत्नी, पुत्रवधू, भाई
की पत्नी, मौसी, बूआ, भाँजे की स्त्री, मामी, परायी
नवोढा, चाची, रजस्वला, पितामही और नानी- ये सामवेद में अगम्या बतायी गयी हैं। सत्पुरुषों को इन
सबकी रक्षा करनी चाहिए। कामभाव से इनका दर्शन और स्पर्श करने पर मनुष्य
ब्रह्महत्या का भागी होता है; अतः दैववश यदि इनकी ओर दृष्टि
चली जाय तो सूर्यदेव का दर्शन करके श्रीहरि का स्मरण करे। जो कामनापूर्वक इन पर
कुदृष्टि डालते हैं, वे निन्दनीय होते हैं। व्रजेश्वर! इसलिए
शाप से डरे हुए साधु पुरुष इनकी ओर कुदृष्टि नहीं डालते।
विद्वान पुरुष ग्रहण के समय सूर्य
और चंद्रमा को नहीं देखते। प्रथम, अष्टम,
सप्तम, द्वादश, नवम और दशम
स्थान में सूर्य हों तो सूर्य का तथा जन्म-नक्षत्र में और अष्टम एवं चतुर्थ स्थान
में चंद्रमा हों तो चंद्रमा का दर्शन नहीं करना चाहिए। भाद्रपद मास के शुक्ल और
कृष्णपक्ष की चतुर्थी को उदित हुए चंद्रमा को नष्टचंद्र कहा गया है; अतः उसका दर्शन नहीं करना चाहिए। मनीषी पुरुषों ने ऐसे चंद्रमा का
परित्याग किया है। तात! यदि कोई उस दिन-बूझकर चंद्रमा को देखता है तो वह उसे
अत्यंत दुष्कर कलंक देता है। यदि कोई मनुष्य अनिच्छा से उक्त चतुर्थी के चंद्रमा
को देख ले तो उसे मंत्र से पवित्र किया हुआ जल पीना चाहिए। ऐसा करने से वह तत्काल
शुद्ध हो भूतल पर निष्कलंक बना रहता है। जल को पवित्र करने का मंत्र इस प्रकार है-
सिंहः प्रसेनमवधीत् सिंहो जाम्बवता
हतः।
सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष
स्यमन्तकः।।
‘सुन्दर सलोने कुमार! इस मणि के
लिए सिंह ने प्रसेन को मारा है और जाम्बवान ने उस सिंह का संहार किया है; अतः तुम रोओ मत। अब इस स्यमन्तकमणि पर तुम्हारा ही अधिकार है।’ इस मंत्र से पवित्र किया हुआ उत्तम जल अवश्य पीना चाहिए।
तात! ये सारी बातें तुम्हें बतायी
गयीं। अब दुःस्वप्न, उनके फल तथा उनकी
शान्ति के उपाय का वर्णन सुनो।
स्वप्न फलादेश-अशुभ स्वप्न(दुःस्वप्न),
उनके फल तथा उनकी शांति के उपाय का वर्णन
श्रीभगवानुवाच
स्वप्ने हसति यो हर्षाद्विवाहं यदि
पश्यति ।
नर्तनं गीतमिष्टं च विपत्तिस्तस्य
निश्चितम् ।।
श्रीभगवान बोले- नन्द जी! जो स्वप्न
में हर्षातिरेक से अट्टहास करता है अथवा यदि विवाह और मनोऽनुकूल नाच-गान देखता है
तो उसके लिए विपत्ति निश्चित है।
दन्ता यस्य विबीड्यन्ते विचरन्तं च
पश्यति ।
धनहानिर्भवेत्तस्य पीडा चापि शरीरजा
।।
स्वप्न में जिसके दाँत तोड़े जाते
हैं और वह उन्हें गिरते हुए देखता है तो उसके धन की हानि होती है और उसे शारीरिक
कष्ट भोगना पड़ता है।
अम्यङ्गितस्तु तैलेन यो
गच्छेद्दक्षिणां दिशम् ।
खरोष्ट्रमहिषारूढो मृत्युस्तस्य न
संशयः ।।
जो तेल से स्नान करके गदहे,
ऊँट और भैंसे पर सवार हो दक्षिण दिशा की ओर जाता है; निःसंदेह उसकी मृत्यु हो जाती है।
स्वपने कर्णे जपापुष्पमशोकं
करवीरकम् ।
विपत्तिस्तस्य तैलं च लवणं यदि
पश्यति ।।
यदि स्वप्न में कान में लगे हुए
अङहुल,
अशोक और करवीर के पुष्प को तथा तेल और नमक को देखता है तो उसे विपत्ति
का सामना करना पड़ता है।
नग्नां कृष्णां छिन्ननासां शूद्रस्य
विधवां तथा ।
कपर्दकं तालफलं दृष्ट्वा
शोकमवाप्नुयात् ।।
नंगी, काली, नक-कटी, शूद्र-विधवा तथा
जटा और ताड़ के फल को देखकर मनुष्य को शोक को प्राप्त होता है।
स्वप्ने रुष्टं ब्राह्मणं च ब्राह्मणीं
कोपसंयुताम् ।
विपत्तिश्च भवेत्तस्य लक्ष्मीर्याति
गृहाद्ध्रुवम् ।।
स्वप्न कुपित हुए ब्राह्मण तथा
क्रुद्ध हुई ब्राह्मणी को देखने वाले मनुष्य पर निश्चय ही विपत्ति आती है और
लक्ष्मी उसके घर से चली जाती है।
वनपुष्पं रक्तपुष्पं पलाशं च
सुपुष्पितम् ।
कार्पासं शुक्लवस्त्रं च दृष्ट्वा
दुःखमवाप्नुयात् ।।
जंगली पुष्प,
लाल फूल, भलीभाँति पुष्पों से लदा पलाश,
कपास और सफेद वस्त्र को देखकर मनुष्य दुःख का भागी होता है।
गायन्तीं च हसन्तीं च
कृष्णाम्बरधरां स्त्रियम् ।
दृष्ट्वा कृष्णां च विधवां नरो
मृत्युमवाप्नुयात् ।।
काला वस्त्र धारण करने वाली काले
रंग की विधवा स्त्री को हँसती और गाती हुई देखकर मनुष्य मृत्यु को प्राप्त हो जाता
है।
देवता यत्र नृत्यन्ति गायन्ति च
हसन्ति च ।
आस्फोटयन्ति धावन्ति तस्य देहो
मरिष्यति ।।
जिसे स्वप्न में देवगण नाचते,
गाते, हँसते, ताल ठोंकते
और दौड़ते हुए दीख पड़ते हैं; उसका शरीर मृत्यु का शिकार हो
जाएगा।
कृष्णाम्बरधरां नारीं
कृष्णमाल्यानुलेपनाम् ।
उपगूहति यः स्वप्ने तस्य
मृत्युर्भविष्यति ।।
मृतवत्सं च मुण्डं च मृगस्य च नरस्य
च ।
यः प्राप्तोत्यस्थिमालां च
विपत्तिस्तस्य निश्चितम् ।।
जो स्वप्न में काले पुष्पों की माला
और कृष्णांगराग से सुशोभित एवं काला वस्त्र धारण करने वाली स्त्री का आलिंगन करता
है;
उसकी मृत्यु हो जाएगी। जो स्वप्न में मृग का मरा हुआ छौना, मनुष्य का मस्तक और हड्डियों की माला पाता है; उसके
लिए विपत्ति निश्चित है।
रथं खरोष्ट्रसंयुक्तमेकाकी
योऽधिरोहयेत् ।
तत्रस्थोऽपि च जागर्ति मृत्युरेव न
संशयः ।।
जो ऐसे रथ पर,
जिसमें गदहे और ऊँट जुते हुए हों, अकेले सवार
होता है और उस पर बैठकर फिर जागता है तो निःसंदेह वह मौत का ग्रास बन जाता है।
अम्यङ्गिस्तु हविषा क्षीरेण
मधुनाऽपि च ।
तक्रेणापि गुडेनैव पीडा तस्य
विनिश्चितम् ।।
जो अपने को हवि,
दूध, मधु, मट्ठा और गुड़
से सराबोर देखता है; वह निश्चय ही पीड़ित होता है।
रक्ताम्बरधरां नारीं
रक्तमाल्यानुलेपराम् ।
उपगूहति यः स्वप्ने तस्य
व्याधिर्विनिश्चितम् ।।
जो स्वप्न में लाल पुष्पों की माला
एवं लाल अंगराग से युक्त तथा लाल वस्त्र धारण करने वाली स्त्री का आलिंगन करता है;
वह रोगग्रस्त हो जाता है, यह निश्चित है।
पतितान्नखरेशांश्च निर्वाणाङ्गारमेव
च ।
भस्मबूर्णां चितां दृष्ट्वा लभते
मृत्युमेव च ।।
गिरे हुए नख और केश,
बुझा हुआ अंगार और भस्मपूर्ण चिता को देखकर मनुष्य अवश्य ही मृत्यु
का शिकार बन जाता है।
श्मशानं शुष्ककाष्ठं च तृणानि
लोहमेव च ।
शमीं च किं चित्कृष्णाश्वं दृष्ट्वा
दुःखं लभेद्ध्रुवम् ।।
श्मशान,
काष्ठ, सूखा घास-फूस, लोहा,
काली स्याही और कुछ-कुछ काले रंगवाले घोड़े को देखने से अवश्यमेव
दुःख की प्राप्ति होती है।
पादुकां फलकं रक्तं पुष्पमाल्यं
भयानकम् ।
माषं मसूरं मुद्गं वा दृष्ट्वा
सद्यो व्रणं लभेत् ।।
पादुका,
ललाट की हड्डी, लाल पुष्पों की भयावनी माला,
उड़द, मसूर और मूँग देखने से तुरंत शरीर में
घाव या फोड़ा हो जाता है।
कटकं सरठं काकं भल्लूकं वानरं गवम्
।
पूयं गात्रमलं स्वप्ने केवलं
व्याधिकारणम् ।।
स्वप्न में सेना,
गिरिगट, कौआ, भालू,
वानर, नीलगाय, पीब और
शरीर के मल का देखा जाना केवल व्याधि का कारण होता है।
भग्नभाण्डं क्षतं शूद्रं गलत्कुष्ठं
च रोगिणम् ।
रक्ताम्बरं च जटिलं सूकरं महिषं
खरम् ।।
अन्धकारं महाघोरं मृतजीवं भयंकरम् ।
दृष्ट्वा स्वप्ने योनिलिङ्ग
विपत्तिं लभतेध्रुवम् ।।
स्वप्न में फूटा बर्तन,
घाव, शूद्र, गलत्कुष्ठी,
रोगी, लाल वस्त्र, जटाधारी,
सूअर, भैंसा, गदहा,
महाघोर अंधकार, मरा हुआ भयंकर जीव और
योनि-चिह्न देखकर मनुष्य निश्चय ही विपत्ति में फँस जाता है।
कुवेषरुपं मलेच्छं च यमदूतं भयंकरम्
।
पाशहस्तं पाशशस्त्रं दृष्ट्वा
मृत्युं लभेन्नरः ।।
कुवेषधारी म्लेच्छ और पाश ही जिसका
शस्त्र है, ऐसे पाशधारी भयंकर यमदूत को
देखकर मनुष्य मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।
ब्रह्मणो ब्राह्मणी बाला बालको वा
सुतः सुता ।
विलापं कुरुते कोपाद्दृष्ट्वा
दुःखमवाप्नुयात् ।।
ब्राह्मण,
ब्राह्मणी, छोटी कन्या और बालक-पुत्र-क्रोधवश
विलाप करते हों तो उन्हें देखकर दुःख की प्राप्ति होती है।
कृष्णं पुष्पं च तन्माल्यं सस्यं
शस्त्रास्त्रधारिणम् ।
म्लेच्छां च विकृताकारं दृष्ट्वा
मृत्युंलभेद्ध्रुवम् ।।
काला फूल,
काले फूलों की माला, शस्त्रास्त्रधारी सेना और
विकृत आकारवाली म्लेच्छवर्ण की स्त्री को देखने से निस्संदेह मृत्यु गले लग जाती
है।
त्यक्तप्राणं मृतं दृष्ट्वा मृत्युं
च लभते ध्रुवम् ।
मत्स्यादि धारयेद्यो हि
तद्भ्रातुर्मरणं ध्रुवम् ।।
वाद्यं च नर्तनं गीतं गायनं
रक्तवाससम् ।
मृदङ्गवाद्यमानं तं दृष्ट्वा दुःखं
लभेद्ध्रुवम् ।।
बाजा, नाच, गान, गवैया, लाल वस्त्र, बजाया जाता हुआ मृदंग- इन्हें देखकर
अवश्यमेव दुःख मिलता है। प्राणरहित (मुर्दे)- को देखकर निश्चय ही मृत्यु होती है
और जो मत्स्य आदि को धारण करता है, उसके भाई का मरण ध्रुव
है।
छिन्नं वाऽपि कबन्धं वा विकृतं
मुक्तकेशिनम् ।
क्षिपं नृत्यं च कुर्वन्तं दृष्ट्वा
मृत्युं लभेन्नरः ।।
घायल अथवा बिना सिर का धड़ अथवा
मुण्डित सिर वाले एवं शीघ्रतापूर्वक नाचते हुए बेडौल प्राणी को देखकर मनुष्य मौत
का भागी हो जाता है।
मृतो वाऽपि मृता वाऽपि कृष्णा
म्लेच्छा भयानका ।
उपगूहति यं स्वप्ने तस्य
मृत्युर्विनिश्चितम् ।।
मरा हुआ पुरुष अथवा मरी हुई काले
रंग की भयानक म्लेच्छनारी जिसका स्वप्न में आलिंगन करती है;
उसका मर जाना निश्चित है।
येषां दन्ताश्च भग्नाश्च केशाश्चापि
पतन्ति हि ।
धनहानिर्भवेत्तस्य पीडा वा
तच्छरीरजा ।।
स्वप्न में जिनके दाँत टूट जाएँ और
बाल गिर रहे हों तो उसके धन की हानि होती है अथवा वह शारीरिक पीड़ा से दुःखी होता
है।
उपद्रवन्ति यं स्वप्ने श्रृङ्गिणो
दंष्ट्रिणोऽपि वा ।
बालका मानवाश्चैव तस्य
राजकुलाद्भयम् ।।
स्वप्न में जिसके ऊपर सींगधारी अथवा
दंष्ट्रावाले जीव तथा बालक और मनुष्य टूटे पड़ते हों;
उसे राजा की ओर से भय प्राप्त होता है।
छिन्नवृङं पतन्तं च शिलावृष्टिं
तुषंक्षुरम् ।
रक्ताङ्गारं भस्मवृष्टिं दृष्ट्वा
दुःखमावाप्नुयात् ।।
गिरता हुआ कटा वृक्ष,
शिलावृष्टि, भूसी, छूरा,
लाल अंगारा और राख की वर्षा देखने से दुःख की प्राप्ति होती है।
गृहं पतन्तं शैलं वा धूमकेतुं
भयानकम् ।
भग्नस्कन्धं तरोर्वाऽपि दृष्ट्वा
दुःखमवाप्नुयात् ।।
गिरते हुए ग्रह अथवा पर्वत,
भयानक धूमकेतु अथवा टूटे हुए कंधेवाले मनुष्य को देखकर
स्वप्नद्रष्टा दुःख का भागी होता है।
रथगेहशैलवृक्षगोहस्तितुरगाम्बरात् ।
भूमौ पतति यः स्वप्ने विपत्तिस्तस्य
निश्चितम् ।।
जो स्वप्न में रथ,
घर, पर्वत, वृक्ष,
गौ, हाथी और घोड़ा आकाश से भूतल पर गिरता
देखता है; उसके लिए विपत्ति निश्चित है।
उच्चैः पतन्ति गर्तेषु
भस्माङ्गारयुतेषु च ।
क्षारकुण्डेषु चूर्णेषु
मृत्युस्तेषां न संशयः ।।
जो भस्म और अंगारयुक्त गड्ढों में,
क्षारकुण्डों में तथा धूलि की राशि पर ऊँचाई से गिरते हैं; निस्संदेह उनकी मृत्यु होती है।
बलाद्गृह्णाति दुष्टश्चच्छत्रं च
यस्य मस्तकात् ।
पितुर्नाशो भवेत्तस्य गुरोर्वाऽपि
नृपस्य वा ।।
जिसके मस्तक पर से कोई दुष्ट
बलपूर्वक छत्र खींच लेता है; उसके पिता,
गुरु अथवा राजा का नाश हो जाता है।
सुरभिर्यस्य गेहाच्च याति त्रस्ता
सवत्मिका ।
प्रयाति पापिनस्तस्य लक्ष्मीरपि
वसुंधरा ।।
जिसके घर से भयभीत हुई गौ बछड़े
सहित चली जाती है; उस पापी की लक्ष्मी
और पृथ्वी भी नष्ट हो जाती है।
पाशेन कृत्वा बद्वं च यं गृहीत्वा
प्रयान्ति च ।
यमदूताश्च ये म्लेच्छास्तस्य
मृत्युर्विनिश्चितम् ।।
म्लेच्छ यमदूत जिसे पाश से बाँधकर
ले जाते हैं; उसकी मृत्यु निश्चित है।
गणको ब्राह्मणो वाऽपि ब्राह्मणी वा
गुरुस्तथा ।
परिरुष्टः शपति यं विपत्तिस्तस्य
निश्चितम् ।।
जिसे ज्योतिषी ब्राह्मण,
ब्राह्मणी तथा गुरु रुष्ट होकर शाप देते हैं; उसे
निश्चय ही विपत्ति भोगनी पड़ती है।
विरोधिनश्य काकाश्च कुक्कुटा
भल्लुकास्तथा ।
पतन्त्यागत्य यद्गात्रे तस्य
मृत्युर्न संशयः ।।
महिषा भल्लुका उष्ट्रा सूकरा
गर्दभास्तथा ।
रुष्टा धावन्ति यं स्वप्ने स रोगी
निश्चितं भवेत् ।।
जिसके शरीर पर शत्रुदल,
कौए, मुर्गे और रीछ आकर टूट पड़ते हैं;
उसकी अवश्य मृत्यु हो जाती है और स्वप्न में जिसके ऊपर भैंसे,
भालू, ऊँट, सूअर और गदहे
क्रुद्ध होकर धावा करते हैं; वह निश्चय ही रोगी हो जाता है।
रक्तचन्दनकाष्ठानि घृताक्तानि
जुहोति यः ।
गायत्र्याश्च महस्रेण तेन शान्तिर्विधीयते
।।
सहस्रधा चपेद्यो हि भक्त्यैनं
मधुसूदनम् ।
निष्पाणो हि भवेत्सोऽपि दुःस्वप्नः
सुस्वप्नो भवेत् ।।
जो लाल चंदन की लकड़ी को घी में
डुबोकर एक सहस्र गायत्री-मन्त्र द्वारा अग्नि में हवन करता है;
उसका दुःस्वप्नजनित दोष शान्त हो जाता है। जो भक्तिपूर्वक इन
मधुसूदन का एक हजार जप करता है; वह निष्पाप हो जाता है और
उसका दुःस्वप्न भी सुखदायक हो जाता है।
अच्युतं केशवं विष्णुं हरिं सत्यं
जनार्दनम् ।
हंसं नारायणं चैव ह्येतन्नामाष्टकं
शुभम् ।।
शुचिः पूर्वमुखः प्राज्ञो
दशकृत्वश्च यो जपेत् ।
निष्पापोऽपि भवेत्सोऽपि दुःस्वप्नः
शुभवान्भवेत् ।।
जो विद्वान पवित्र हो पूर्व की ओर
मुख करके अच्युत, केशव, विष्णु, हरि, सत्य, जनार्दन, हंस, नारायण- इन आठ
शुभ नामों का दस बार जप करता है, उसका पाप नष्ट हो जाता है
तथा दुःस्वप्न भी शुभकारक हो जाता है।
विष्णुं नारायणं कृष्णं माधवं
मधुमूदनम् ।
हरिं नरहरिं रामं गोविन्दं
दधिवामनम् ।।
भक्त्या चेमानि नामानि दश भद्राणियो
जपेत् ।
शतकृत्यो भक्तियुक्तो जप्त्वा
नीरोगतां व्रजेत् ।।
लक्षधा हि जपेद्यो हि
बन्धनान्मुच्यते ध्रुवम् ।
जप्त्वा च दशलक्षं च महावन्ध्या
प्रसूयते ।।
हविष्याशी यतः शुद्धो दरिद्रो
धनवान्भवेत् ।
शतलक्षं च जप्त्वा च जीवन्मुक्तो
भवेन्नरः ।।
जो भक्त भक्तिपूर्वक विष्णु,
नारायण, कृष्ण, माधव,
मधुसूदन, हरि, नरहरि,
राम, गोविन्द, दधिवामन-
इन दस मांगलिक नामों को जपता है; वह सौ बार जप करके नीरोग हो
जाता है। जो एक लाख जप करता है; वह निश्चय ही बन्धन से मुक्त
हो जाता है। दस लाख जप करके महावन्ध्या पुत्र को जन्म देती है। शुद्ध एवं हविष्य
का भोजन करके जपने वाला दरिद्र इनके जप से धनी हो जाता है। एक करोड़ जप करके
मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है। नारायणक्षेत्र में शुद्धतापूर्वक जप करने वाले
मनुष्य को सारी सिद्धियाँ सुलभ हो जाती हैं।
ओं नमः शिवं दुर्गां गणपतिं
कार्तिकेयं दिनेश्वनम् ।
धर्मं गङ्गां च तुलसीं राधां
लक्ष्मीं सरस्वतीम् ।।
नामान्येतानि भद्राणि जले स्नात्वा
च यो जपेत् ।
वाञ्छितं च लभेत्सोऽपि दुःस्वप्नः
शुभवान्भवेत् ।।
जो जल में स्नान करके ‘ऊँ नमः’ के साथ शिव, दुर्गा,
गणपति, कार्तिकेय, दिनेश्वर,
धर्म, गंगा, तुलसी,
राधा, लक्ष्मी, सरस्वती-
इन मंगल नामों का जप करता है; उसका मनोरथ सिद्ध हो जाता है
और दुःस्वप्न भी शुभदायक हो जाता है।
ओं ह्रीं क्लीं
पूर्वदूर्गतिनाशिन्यै महामायायै स्वाहा ।
कल्पवृक्षो हि लोकानां सन्त्रः
सप्तदशाक्षरः ।।
शुचिश्च दशधा जप्त्वा दुःस्वप्नः
सुखवान्भवेत् ।
शतलक्षजपेनैव
मन्त्रसिद्धिर्भवेन्नृणाम् ।
सिद्धमन्त्रस्तु लभते सर्वसिद्धिं च
वाञ्छितम् ।।
‘ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं
दुर्गतिनाशिन्यै महामायायै स्वाहा’- यह सप्तदशाक्षर- मंत्र
लोगों के लिए कल्पवृक्ष के समान है। इसका पवित्रतापूर्वक दस बार जप करने से
दुःस्वप्न सुखदायक हो जाता है। एक करोड़ जप करने से मनुष्यों को मंत्र सिद्ध हो
जाता है और सिद्धमंत्र वाला मनुष्य अपनी सारी अभीष्ट सिद्धियों को पा लेता है।
ओं नमो मृत्युंजयायेति स्वाहान्तं
लक्षधा जपेत् ।
दृष्ट्वा च मरणं स्वप्ने शतायुश्च
भवेन्नरः ।।
जो मनुष्य ‘ऊँ नमो मृत्युञ्जयाय स्वाहा’- इस मंत्र का एक लाख जप
करता है, वह स्वप्न में मरण को देखकर भी सौ वर्ष की आयु वाला
हो जाता है।
पूर्वोत्तर मुख होकर किसी विद्वान
से ही अपने स्वप्न को कहना चाहिए; किंतु जो
शराबी, दुर्गतिप्राप्त, नीच, देवता और ब्राह्मण की निन्दा करने वाला, मूर्ख और
(स्वप्न के शुभाशुभ फलका) अनभिज्ञ हो; उसके सामने स्वप्न को
नहीं प्रकट करना चाहिए। पीपल का वृक्ष, ज्योतिषी, ब्राह्मण, पितृस्थान, देवस्थान,
आर्यपुरुष वैष्णव और मित्र के सामने दिन में देखा हुआ स्वप्न
प्रकाशित करना चाहिए। इस प्रकार मैंने आपसे इस पवित्र प्रसंग का वर्णन कर दिया;
यह पापनाशक, धन की वृद्धि करने वाला, यशोवर्धक और आयु बढ़ाने वाला है।
इस प्रकार श्रीब्रह्मवैवर्त पुराण
के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध)में वर्णित स्वप्न फलादेश-शुभ और अशुभ
स्वप्न(दुःस्वप्न), उनके फल तथा उनकी
शांति के उपाय का वर्णन सम्पूर्ण हुआ।
इति श्रीब्रह्मo महाo श्रीकृष्णजन्मखo उत्तo नारदनाo भगवन्नन्दसंoद्व्यशीतितमोऽध्यायः ।। ८२ ।।
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