दुर्गास्तोत्र शिवकृत
भगवान शिवजी द्वारा कृत इस अनुपम
दुर्गास्तोत्र का यह स्तवराज, जो विघ्नों, विघ्नकर्ताओं और शत्रुओं का संहारक, परमैश्वर्य का
उत्पादक, सुखद, परम शुभ, निर्वाण-मोक्ष का दाता, हरि भक्तिप्रद, गोलोक का वास प्रदान करने वाला, सर्वसिद्धिप्रद और श्रेष्ठ
है। उस स्तवराज का पाठ करने से पार्वती सदा प्रसन्न रहती हैं। वह मनुष्यों के लोभ,
मोह, काम, क्रोध और कर्म
के मूल का उच्छेदक, बल-बुद्धि कारक, जन्म-मृत्यु
का विनाशक, धन, पुत्र, स्त्री, भूमि आदि समस्त संपत्तियों का प्रदाता,
शोक-दुःख का हरण करने वाला, संपूर्ण सिद्धियों
का दाता तथा सर्वोत्तम है। इस स्तोत्रराज के पाठ से महावन्ध्या भी प्रसविनी हो
जाती है, बँधा हुआ बन्धनमुक्त हो जाता है, दुःखी निश्चय ही भय से छूट जाता है, रोगी का रोग
नष्ट हो जाता है, दरिद्र धनी हो जाता है तथा महासागर में नाव
के डूब जाने पर एवं दावाग्नि के बीच घिर जाने पर भी उस मनुष्य की मृत्यु नहीं
होती। इस दुर्गा स्तोत्र के प्रभाव से मनुष्य डाकुओं, शत्रुओं
तथा हिंसक जन्तुओं से घिर जाने पर भी कल्याण का भागी होता है। यदि गोलोक की
प्राप्ति के लिए आप नित्य इस स्तोत्र का पाठ करेंगे तो यहाँ ही आपको उन पार्वती के
साक्षात दर्शन होंगे।
पूर्वकाल में नारायण के उपदेश तथा
ब्रह्मा की प्रेरणा से युद्ध से भयभीत हुए भगवान शंकर ने जिसके द्वारा स्तवन किया
था और जो मोह-पाश को काटने वाला है । नारायण ने शिव को शत्रु के चंगुल में फँसा
देखकर यह स्तोत्र ब्रह्मा को बतलाया; तब
ब्रह्मा ने रणक्षेत्र में रथ पर पड़े हुए शिव को बतलाते हुए कहा- ‘शंकर! शूरवीरों द्वारा प्राप्त हुए संकट की शान्ति के लिए तुम उन
दुर्गतिनाशिनी दुर्गा का- जो आद्या, मूलप्रकृति और
ब्रह्मस्वरूपिणी हैं- स्तवन करो। सुरेश्वर! यह मैं तुमसे श्रीहरि की प्रेरणा से कह
रहा हूँ; क्योंकि शक्ति की सहायता के बिना कौन किसको जीत
सकता है?’ ब्रह्मा की बात सुनकर शंकर के स्नान करके धुले हुए
वस्त्र धारण किये, फिर चरणों को धोकर हाथ में कुश ले आचमन
किया। इस प्रकार पवित्र हो भक्तिपूर्वक सिर झुकाकर और अंजलि बाँधकर वे विष्णु का ध्यान
करते हुए दुर्गा का स्मरण करने लगे।
दुर्गास्तोत्रं श्रीशिवकृतम्
महादेव उवाच
रक्ष रक्ष महादेवि दुर्गे
दुर्गतिनाशिनि ।
मां भक्तमनुरक्तं च शत्रुग्रस्तं
कृपामयि ॥ १॥
श्री महादेव जी ने कहा- दुर्गति का
विनाश करने वाली महादेवि दुर्गे! मैं शत्रु के चंगुल में फँस गया हूँ;
अतः कृपामयि! मुझ अनुरक्त भक्त की रक्षा करो, रक्षा
करो।
विष्णुमाये महाभागे नारायणि सनातनि
।
ब्रह्मस्वरूपे परमे
नित्यानन्दस्वरूपिणी ॥ २॥
महाभागे जगदम्बिके! विष्णुमाया,
नारायणी, सनातनी, ब्रह्मस्वरूपा,
परमा और नित्यानन्दस्वरूपिणी- ये तुम्हारे ही नाम हैं।
त्वं च ब्रह्मादिदेवानामम्बिके
जगदम्बिके ।
त्वं साकारे च गुणतो निराकारे च
निर्गुणात् ॥ ३॥
तुम ब्रह्मा आदि देवताओं की जननी
हो। तुम्हीं सगुण रूप से साकार और निर्गुण रूप से निराकार हो।
मायया पुरुषस्त्वं च मायया प्रकृतिः
स्वयम् ।
तयोः परं ब्रह्म परं त्वं बिभर्षि
सनातनि ॥ ४॥
सनातनि! तुम्हीं माया के वशीभूत हो
पुरुष और माया से स्वयं प्रकृति बन जाती हो तथा जो इन पुरुष प्रकृति से परे हैं;
उस परब्रह्म को तुम धारण करती हो।
वेदानां जननी त्वं च सावित्री च
परात्परा ।
वैकुण्ठे च महालक्ष्मीः
सर्वसम्पत्स्वरूपिणी ॥ ५॥
मर्त्यलक्ष्मीश्च क्षीरोदे कामिनी
शेषशायिनः ।
स्वर्गेषु स्वर्गलक्ष्मीस्त्वं
राजलक्ष्मीश्च भूतले ॥ ६॥
तुम वेदों की माता परात्परा सावित्री हो। वैकुण्ठ में समस्त संपत्तियों की स्वरूपभूता महालक्ष्मी, क्षीरसागर में शेषशायी नारायण की प्रियतमा मर्त्यलक्ष्मी, स्वर्ग में स्वर्गलक्ष्मी और भूतल पर राजलक्ष्मी तुम्हीं हो।
नागादिलक्ष्मीः पाताले गृहेषु
गृहदेवता ।
सर्वसस्यस्वरूपा त्वं
सर्वैश्वर्यविधायिनी ॥ ७॥
तुम पाताल में नागादिलक्ष्मी,
घरों में गृहदेवता, सर्वशस्यस्वरूपा तथा
संपूर्ण ऐश्वर्यों का विधान करने वाली हो।
रागाधिष्ठातृदेवी त्वं ब्रह्मणश्च
सरस्वती ।
प्राणानामधिदेवी त्वं कृष्णस्य
परमात्मनः ॥ ८॥
तुम्हीं ब्रह्मा की रागाधिष्ठात्री
देवी सरस्वती हो और परमात्मा श्रीकृष्ण के प्राणों की अधिदेवी भी तुम्हीं हो।
गोलोके च स्वयं राधा श्रीकृष्णस्यैव
वक्षसि ।
गोलोकाधिष्ठाता देवी वृन्दावनवने
वने ॥ ९॥
श्रीरासमण्डले रम्या
वृन्दावनविनोदिनी ।
शतशृङ्गाधिदेवी त्वं नाम्ना
चित्रावलीति च ॥ १०॥
तुम गोलोक में श्रीकृष्ण के वक्षः
स्थल पर शोभा पाने वाली गोलोक की अधिष्ठात्री देवी स्वयं राधा,
वृन्दावन में होने वाली रासमण्डल में सौंदर्यशालिनी
वृन्दावनविनोदिनी तथा चित्रावली नाम से प्रसिद्ध शतश्रृंग पर्वत की अधिदेवी हो।
दक्षकन्या कुत्र कल्पे कुत्रकल्पे च
शैलजा ।
देवमाता दितिस्त्वं च सर्वाधारा
वसुन्धरा ॥ ११॥
तुम किसी कल्प में दक्ष की कन्या और
किसी कल्प में हिमालय की पुत्री हो जाती हो। देवमाता अदिति और सबकी आधार स्वरूपा
पृथ्वी तुम्हीं हो।
त्वमेव गङ्गा तुलसी त्वं च स्वाहा
स्वधा सती ।
त्वदंशांशांशकलया सर्वदेवादियोषितः
॥ १२॥
तुम्हीं गंगा,
तुलसी, स्वाहा, स्वधा और
सती हो। समस्त देवांगनाएँ तुम्हारे अंशांश की अंश कला से उत्पन्न हुई हैं।
स्त्रीरूपं चापि पुरुषं देवि त्वं च
नपुंसकम् ।
वृक्षाणां वृक्षरूपा त्वं सृष्टौ
चाङ्कुररूपिणी ॥ १३॥
देवि! स्त्री,
पुरुष और नपुंसक तुम्हारे ही रूप हैं। तुम वृक्षों में वृक्षरूपा हो
और अंकुर रुप से तुम्हारा सृजन हुआ है।
वह्नौ च दाहिका शक्तिर्जले
शैत्यस्वरूपिणी ।
सूर्ये तेजस्वरूपा च प्रभारूपा च
सन्ततम् ॥ १४॥
गन्धरूपा च भूमौ च आकाशे शब्दरूपिणी
।
शोभास्वरूपा चन्द्रे च पद्मसङ्घे च
निश्चितम् ॥ १५॥
सृष्टौ सृष्टिस्वरूपा च पालने
परिपालिका ।
महामारी च संहारे जले च जलरूपिणी ॥
१६॥
तुम अग्नि में दाहिका शक्ति,
जल में शीतलता, सूर्य में सदा तेज स्वरूप तथा
कान्तिरूप, पृथ्वी में गंधरूप, आकाश
में शब्दरूप, चंद्रमा और कमल समूह में सदा शोभारूप, सृष्टि में सृष्टिस्वरूप, पालन-कार्य में भलीभाँति
पालन करने वाली, संहारकाल में महामारी और जल में जलरूप से
वर्तमान रहती हो।
क्षुत् त्वं दया त्वं निद्रा त्वं
तृष्णा त्वं बुद्धिरूपिणी ।
तुष्टिस्त्वं चपि पुष्टिस्त्वं
श्रद्धा त्वं च क्षमा स्वयम् ॥ १७॥
तुम्हीं क्षुधा,
तुम्हीं दया, तुम्हीं निद्रा, तुम्हीं तृष्णा, तुम्हीं बुद्धिरूपिणी, तुम्हीं तुष्टि, तुम्हीं पुष्टि, तुम्हीं श्रद्धा और तुम्हीं स्वयं क्षमा हो।
शान्तिस्त्वं च स्वयं भ्रान्तिः
कान्तिस्त्वं कीर्तिरेव च ।
लज्जा त्वं च तथा माया
भुक्तिमुक्तिस्वरूपिणी ॥ १८॥
तुम स्वयं शान्ति,
भ्रान्ति और कान्ति हो तथा कीर्ति भी तुम्हीं हो। तुम लज्जा तथा
भोग-मोक्ष-स्वरूपिणी माया हो।
सर्वशक्तिस्वरूपा त्वं
सर्वसम्पत्प्रदायिनी ।
वेदेऽनिर्वचनीया त्वं त्वां न
जानाति कश्चन ॥ १९॥
तुम सर्वशक्ति स्वरूपा और संपूर्ण
संपत्ति प्रदान करने वाली हो। वेद में भी तुम अनिर्वचनीय हो,
अतः कोई भी तुम्हें यथार्थरूप से नहीं जानता।
सहस्रवक्त्रस्त्वां स्तोतुं न शक्तः
सुरेश्वरि ।
वेदाः न शक्ताः को विद्वान् न च
शक्ता सरस्वती ॥ २०॥
सुरेश्वरि! न तो सहस्र मुखवाले शेष
तुम्हारा स्तवन करने में समर्थ हैं न वेदों में वर्णन करने की शक्ति है और न
सरस्वती ही तुम्हारा बखान कर सकती है; फिर
कोई विद्वान कैसे कर सकता है?
स्वयं विधाता शक्तो न न च विष्णुः
सनातनः ।
किं स्तौमि पञ्चवक्त्रेण रणत्रस्तो
महेश्वरि ।
कृपां कुरु
महामाये मम शत्रुक्षयं कुरु ॥ २१॥
महेश्वरी! जिसका स्तवन स्वयं
ब्रह्मा और सनातन भगवान विष्णु नहीं कर सकते, उसकी
स्तुति युद्ध से भयभीत हुआ मैं अपने पाँच मुखों द्वारा कैसे कर सकता हूँ? अतः महामाये! तुम मुझ पर कृपा करके मेरे शत्रु का विनाश कर दो।
इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे श्रीकृष्मजन्मखण्डे उत्तरार्द्धे श्रीशिवकृतम् दुर्गास्तोत्रं सम्पूर्ण:।। ८८ ।।
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