शिव स्तोत्र हिमालयकृत

शिव स्तोत्र हिमालयकृत  

भगवान चन्द्रशेखर गंगा जी के रमणीय तट से ऊपर को आ रहे थे। उनके मुख पर मन्द मुस्कान की प्रभा फैल रही थी। वे संस्कारयुक्त माला धारण किये श्रीहरि के नाम का जप कर रहे थे। उनके सिर पर सुनहरी प्रभा से युक्त जटाराशि विराजमान थी। वे वृषभ की पीठ पर बैठकर हाथ में त्रिशूल लिये सब प्रकार के आभूषणों से सुशोभित थे। सर्प का ही यज्ञोपवीत पहने सर्पमय आभूषणों से विभूषित थे। उनकी अंगकान्ति शुद्ध स्फटिक के समान उज्ज्वल थी, वे वस्त्र के स्थान में व्याघ्रचर्म धारण किये, हड्डियों की माला पहने तथा अंगों में विभूति रमाये बड़ी शोभा पाते थे। दिगम्बर वेष, पाँच मुख और प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र थे। उनके श्रीअंगों से करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाश फैल रहा था। हिमवान ने उनके चारों ओर एकादश रुद्रों को देखा, जो ब्रह्मतेज से प्रकाशमान थे। शिव के वामभाग में महाकाल और दाहिने भाग में नन्दिकेश्वर खड़े थे। भूत, प्रेत, पिशाच, कूष्माण्ड, ब्रह्मराक्षस, बेताल, क्षेत्रपाल, भयानक पराक्रमी भैरव, सनक, सनन्दन, सनत्कुमार, सनातन, जैगीषव्य, कात्यायन, दुर्वासा और अष्टावक्र आदि ऋषिसब उनके सामने खड़े थे। हिमालय ने इन सबको मस्तक झुकाकर भगवान शिव को प्रणाम किया और पृथ्वी पर माथा टेक दण्ड की भाँति पकड़कर दोनों हाथ जोड़ लिये। इसके बाद बड़ी भक्ति-भावना से शिव के चरणकमल पकड़कर पर्वतराज ने नमस्कार किया और नेत्रों से आँसू बहाते पुलकित-शरीर को धर्म के दिये हुए स्तोत्र से परमेश्वर शिव की स्तुति आरम्भ की।

शिव स्तोत्रम्  हिमालयकृतं

शिव स्तोत्रम् हिमालयकृतं

हिमालय उवाच ।।

त्वं ब्रह्मा सृष्टिकर्ता च त्वं विष्णुः परिपालकः ।

त्वं शिवः शिवदोऽनन्तः सर्वसंहारकारकः ।

त्वमीश्वरो गुणातीतो ज्योतीरूपः सनातनः ।। 1 ।।

प्रकृतः प्रकृतीशश्च प्राकृतः प्रकृतेः परः ।

नानारूपविधाता त्वं भक्तानां ध्यानहेतवे ।

येषु रूपेषु यत्प्रीतिस्तत्तद्रूपं बिभर्षि च ।।2।।

सूर्यस्त्वं सृष्टिजनक आधारः सर्वतेजसाम् ।

सोमस्त्वं सस्यपाता च सततं शीतरश्मिना ।।3।।

वायुस्त्वं वरुणस्त्वं च त्वमग्निः सर्वदाहकः ।

इन्द्रस्त्वं देवराजश्च कालो मृत्युर्यमस्तथा ।। 4।।

मृत्युञ्जयो मृत्युमृत्युः कालकालो यमान्तकः ।। 5 ।।

वेदस्त्वं वेदकर्ता च वेदवेदाङ्गपारगः ।

विदुषां जनकस्त्वं च विद्वांश्च विदुषां गुरुः ।।6।।

मन्त्रस्त्वं हि जपस्त्वं हि तपस्त्वं तत्फलप्रदः ।

वाक् त्वं वागधिदेवी त्वं तत्कर्ता तद्गुरुः स्वयम् ।।7।।

अहो सरस्वतीबीजं कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वरः ।

इत्येवमुक्त्वा शैलेन्द्रस्तस्थौ धृत्वा पदाम्बुजम् ।।8।।

तत्रोवास तमाबोध्य चावरुह्य वृषाच्छिवः ।

स्तोत्रमेतन्महापुण्यं त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः ।। 9 ।।

मुच्यते सर्वपापेभ्यो भयेभ्यश्च भवार्णवे ।

अपुत्रो लभते पुत्रं मासमेकं पठेद्यदि ।।10।।

भार्याहीनो लभेद्भार्यां सुशीलां सुमनोहराम् ।

चिरकालगतं वस्तु लभते सहसा ध्रुवम् ।। 11।।

राज्यभ्रष्टो लभेद्राज्यं शंकरस्य प्रसादतः ।

कारागारे श्मशाने च शत्रुग्रस्तेऽतिसंकटे ।।12।।

गभीरेऽतिजलाकीर्णे भग्नपोते विषादने ।

रणमध्ये महाभीते हिंस्रजन्तुसमन्विते ।। 13 ।।

सर्वतो मुच्यते स्तुत्वा शंकरस्य प्रसादतः ।। 14 ।।

इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे शिव स्तोत्रम् हिमालयकृतं सम्पूर्ण: ।। ३८ ।।

हिमालयकृत शिव स्तोत्र भावार्थ सहित

हिमालय उवाच ।।

त्वं ब्रह्मा सृष्टिकर्ता च त्वं विष्णुः परिपालकः ।

त्वं शिवः शिवदोऽनन्तः सर्वसंहारकारकः ।

त्वमीश्वरो गुणातीतो ज्योतीरूपः सनातनः ।।

हिमालय बोलेभगवन! आप ही सृष्टिकर्ता ब्रह्मा हैं। आप ही जगत्पालक विष्णु हैं। आप ही सबका संहार करने वाले अनन्त हैं और आप ही कल्याणदाता शिव हैं। आप गुणातीत ईश्वर, सनातन ज्योतिःस्वरूप हैं।

प्रकृतः प्रकृतीशश्च प्राकृतः प्रकृतेः परः ।

नानारूपविधाता त्वं भक्तानां ध्यानहेतवे ।

येषु रूपेषु यत्प्रीतिस्तत्तद्रूपं बिभर्षि च ।।

प्रकृति और उसके ईश्वर हैं। प्राकृत पदार्थरूप होते हुए भी प्रकृति से परे हैं। भक्तों के ध्यान करने के लिये आप अनेक रूप धारण करते हैं। जिन रूपों में जिसकी प्रीति है, उसके लिये आप वे ही रूप धारण करते हैं।

सूर्यस्त्वं सृष्टिजनक आधारः सर्वतेजसाम् ।

सोमस्त्वं सस्यपाता च सततं शीतरश्मिना ।।

आप ही सृष्टि के जन्मदाता सूर्य हैं। समस्त तेजों के आधार हैं। आप ही शीतल किरणों से सदा शस्यों का पालन करने वाले सोम हैं।

वायुस्त्वं वरुणस्त्वं च त्वमग्निः सर्वदाहकः ।

इन्द्रस्त्वं देवराजश्च कालो मृत्युर्यमस्तथा ।

मृत्युञ्जयो मृत्युमृत्युः कालकालो यमान्तकः ।।

आप ही वायु, वरुण और सर्वदाहक अग्नि हैं। आप ही देवराज इन्द्र, काल, मृत्यु तथा यम हैं। मृत्युंजय होने के कारण मृत्यु की भी मृत्यु, काल के भी काल तथा यम के भी यम हैं। 

वेदस्त्वं वेदकर्ता च वेदवेदाङ्गपारगः ।

विदुषां जनकस्त्वं च विद्वांश्च विदुषां गुरुः ।।

वेद, वेदकर्ता तथा वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान भी आप ही हैं। आप ही विद्वानों के जनक, विद्वान तथा विद्वानों के गुरु हैं।

मन्त्रस्त्वं हि जपस्त्वं हि तपस्त्वं तत्फलप्रदः ।

वाक् त्वं वागधिदेवी त्वं तत्कर्ता तद्गुरुः स्वयम् ।।

आप ही मन्त्र, जप, तप और उनके फलदाता हैं। आप ही वाक और आप ही वाणी की अधिष्ठात्री देवी हैं। आप ही उसके स्रष्टा और गुरु हैं।

अहो सरस्वतीबीजं कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वरः ।

इत्येवमुक्त्वा शैलेन्द्रस्तस्थौ धृत्वा पदाम्बुजम् ।।

अहो! सरस्वती का बीज अद्भुत है। यहाँ कौन आपकी स्तुति कर सकता है? ऐसा कहकर गिरिराज हिमालय उनके चरणकमलों को धारण करके खड़े रहे।

तत्रोवास तमाबोध्य चावरुह्य वृषाच्छिवः ।

स्तोत्रमेतन्महापुण्यं त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः ।।

भगवान शिव वृषभ पर बैठे हुए शैलराज को प्रबोध देते रहे। जो मनुष्य तीनों संध्याओं के समय इस परम पुण्यमय स्तोत्र का पाठ करता है।

मुच्यते सर्वपापेभ्यो भयेभ्यश्च भवार्णवे ।

अपुत्रो लभते पुत्रं मासमेकं पठेद्यदि ।।

वह भवसागर में रहकर भी समस्त पापों तथा भयों से मुक्त हो जाता है। पुत्रहीन मनुष्य यदि एक मास तक इसका पाठ करे तो पुत्र पाता है।

भार्याहीनो लभेद्भार्यां सुशीलां सुमनोहराम् ।

चिरकालगतं वस्तु लभते सहसा ध्रुवम् ।।

भार्याहीन को सुशीला तथा परम मनोहारिणी भार्या प्राप्त होती है। वह चिरकाल से खोयी हुई वस्तु को सहसा तथा अवश्य पा लेता है।

राज्यभ्रष्टो लभेद्राज्यं शंकरस्य प्रसादतः ।

कारागारे श्मशाने च शत्रुग्रस्तेऽतिसंकटे ।।

गभीरेऽतिजलाकीर्णे भग्नपोते विषादने ।

रणमध्ये महाभीते हिंस्रजन्तुसमन्विते ।।

सर्वतो मुच्यते स्तुत्वा शंकरस्य प्रसादतः ।।

राज्यभ्रष्ट पुरुष भगवान शंकर के प्रसाद से पुनः राज्य को प्राप्त कर लेता है। कारागार, श्मशान और शत्रु-संकट में पड़ने पर तथा अत्यन्त जल से भरे गम्भीर जलाशय में नाव टूट जाने पर, विष खा लेने पर, महाभयंकर संग्राम के बीच फँस जाने पर तथा हिंसक जन्तुओं से घिर जाने पर इस स्तुति का पाठ करके मनुष्य भगवान शंकर की कृपा से समस्त भयों से मुक्त हो जाता है।

इस प्रकार श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड से हिमालयकृत शिव स्तोत्र सम्पूर्ण हुआ ।। ३८ ।।

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