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कर्मकाण्ड

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गौरी व्रत

गौरी व्रत

गौरी व्रत मार्गशीर्ष मास में सबसे पहले स्त्रियों ने इसे किया था। यह पुरुषों को भी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष देने वाला तथा श्रीकृष्ण की भक्ति प्रदान करने वाला है। भिन्न-भिन्न देशों में इसकी प्रसिद्धि है। यह व्रत पूर्व परम्परा से पालित होने वाला माना गया है। पति की कामना रखने वाली स्त्रियों को उनकी इच्छा के अनुसार फल देने वाला है। इससे प्रियतम पति-निमित्तक फल की प्राप्ति होती है।

गौरी व्रत

गौरी व्रत का क्या विधान है?

गौरी व्रत का विधान

कुमारी कन्या को चाहिये कि वह पहले दिन उपवास करके अपने वस्त्र को धो डाले और संयमपूर्वक रहे। फिर मार्गशीर्ष मास की संक्रान्ति के दिन प्रातःकाल श्रद्धापूर्वक नदी के तट पर जाकर स्नान करके व दो धुले हुए वस्त्र (साड़ी और चोली) धारण करे। तत्पश्चात कलश में गणेश, सूर्य, अग्नि, विष्णु, शिव और दुर्गा (पार्वती)इन छः देवताओं का आवाहन करके नाना द्रव्यों द्वारा उनका पूजन करे। इन सबका पंचोपचार पूजन करके वह व्रत आरम्भ करे। कलश के सामने नीचे भूमि पर एक सुविस्तृत वेदी बनावे। वह वेदी चौकोर होनी चाहिये। चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और कुंकुम से उस वेदी का संस्कार करे (इन द्रव्यों से चौक पूरकर उसे सजा दे)। इसके बाद बालू की दशभुजा दुर्गामूर्ति बनावे। देवी के ललाट में सिन्दूर लगावे और नीचे के अंगों में चन्दन एवं कपूर अर्पित करे। तदनन्तर ध्यानपूर्वक देवी का आवाहन करे। उस समय हाथ जोड़कर निम्नांकित मन्त्र का पाठ करे। उसके बाद पूजा आरम्भ करनी चाहिये।

हे गौरि शंकरार्धाङ्गि यथा त्वं शंकरप्रिया ।

तथा मां कुरु कल्याणि कान्तकान्तां सुदुर्लभाम् ।।

भगवान शंकर की अर्धांगिनी कल्याणमयी गौरीदेवि! जैसे तुम शंकर जी को बहुत ही प्रिय हो, उसी प्रकार मुझे भी अपने प्रियतम पति की परम दुर्लभा प्राणवल्लभा बना दो।

इस मन्त्र को पढ़कर देवी जगदम्बा का ध्यान करे। उनका गूढ़ ध्यान सामवेद में वर्णित है, जो सम्पूर्ण कामनाओं को देने वाला है। वह ध्यान मुनीन्द्रों के लिये भी दुर्लभ है। इसके अनुसार सिद्ध पुरुष दुर्गतिनाशिनी दुर्गा का ध्यान करते हैं।

दुर्गा का ध्यान

शिवां शिवप्रियां शैवां शिववक्षःस्थलस्थिताम् ।

ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां सुप्रतिष्ठां सुलोचनाम् ।।

नवयौवनसंपन्नां रत्नाभरणभूषिताम् ।

रत्नकङ्कणकेयूररत्ननूपुरभूषिताम् ।।

रत्नकुण्डलयुग्मेन गण्डस्थलविराजिताम् ।

मालती माल्यसंसक्तकबरभ्रमरान्विताम् ।।

सिन्दूरतिलकं चारुकस्तूरीबिन्दुना सह ।

वह्निशुद्धांशुकां रत्नकिरीटां सुमनोहराम् ।।

मणीन्द्रसारसंसक्तरत्नमालासमुज्ज्वलाम् ।

पारिजातप्रसूनानां मालाजालानुलम्बिताम् ।।

सुपीनकठिनश्रोणीं बिभ्रतीं च स्तनानताम् ।

नवयौवनभारौघादीषन्नम्रां मनोहराम् ।।

ब्रह्मादिभिः स्तूयमानां सूर्यकोटिसमप्रभाम् ।

पक्वबिम्बाधरोष्ठीं च चारुचम्पकसन्निभाम् ।।

मुक्तापङ्क्तिविनिन्द्यैकदन्तराजिविराजिताम् ।

मुक्तिकामप्रदां देवीं शरच्चन्द्रमुखीं भजे ।।

भगवती दुर्गा शिवा (कल्याणस्वरूपा), शिवप्रिया, शैवी (शिव से प्रगाढ़ सम्बन्ध रखने वाली) तथा शिव के वक्षःस्थल पर विराजमान होने वाली हैं। उनके प्रसन्न मुख पर मन्द मुस्कान की प्रभा फैली रहती है। उनकी बड़ी प्रतिष्ठा है। उनके नेत्र मनोहर हैं। वे नित्य नूतन यौवन से सम्पन्न हैं और रत्नमय आभूषण धारण करती हैं। उनकी भुजाएँ रत्नमय केयूर तथा कंकणों से और दोनों चरण रत्ननिर्मित नूपुरों से विभूषित हैं। रत्नों के बने हुए दो कुण्डल उनके दोनों कपोलों की शोभा बढ़ाते हैं। उनकी वेणी में मालती की माला लगी हुई है, जिस पर भ्रमर मँड़राते रहते हैं। भालदेश में कस्तूरी की बेंदी के साथ सिन्दूर का सुन्दर तिलक शोभा पाता है। उनके दिव्य वस्त्र अग्नि की ज्वाला से शुद्ध किये गये हैं। वे मस्तक पर रत्नमय मुकुट धारण करती हैं। उनकी आकृति बड़ी मनोहर है। श्रेष्ठ मणियों के सारतत्त्व से जटित रत्नमयी माला उनके कण्ठ एवं वक्षःस्थल को उद्भासित किये रहती है। पारिजात के फूलों की मालाएँ गले से लेकर घुटनों तक लटकी रहती हैं। उनकी कठ का निम्नभाग अत्यन्त स्थूल और कठोर है। वे स्तनों और नूतन यौवन के भार से कुछ-कुछ झुकी-सी रहती है। उनकी झाँकी मन को मोह लेने वाली है। ब्रह्मा आदि देवता निरन्तर उनकी स्तुति करते हैं। उनके श्रीअंगों की प्रभा करोड़ों सूर्यों को लज्जित करती है। नीचे-ऊपर के ओठ पके बिम्बफल के सदृश लाल हैं। अंगकान्ति सुन्दर चम्पा के समान है। मोती की लड़ियों को भी लजाने वाली दन्तावली उनके मुख की शोभा बढ़ाती है। वे मोक्ष और मनोवांछित कामनाओं को देने वाली हैं। शरत्काल के पूर्ण चन्द्र को भी तिरस्कृत करने वाली चन्द्रमुखी देवी पार्वती का मैं भजन करता हूँ।

इस प्रकार ध्यान करके मस्तक पर फूल रखकर व्रती पुरुष प्रसन्नतापूर्वक हाथ में पुष्प ले पुनः भक्तिभाव से ध्यान करके पूजन आरम्भ करे। पूर्वोक्त मन्त्र से ही प्रतिदिन हर्षपूर्वक षोडशोपचार चढ़ावे। फिर व्रती भक्ति और प्रसन्नता के साथ पूर्वकथित स्तोत्र द्वारा ही देवी की स्तुति करके उन्हें प्रणाम करे। प्रणाम के पश्चात भक्तिभाव से मन को एकाग्र करके गौरी-व्रत की कथा सुने।

गौरी-व्रत कथा

कुशध्वज की पुत्री सती वेदवती ने महान तीर्थ पुष्कर में पहले-पहल देवी पार्वती की स्तुति करके और इस व्रत का अनुष्ठान किया था। व्रत की समाप्ति के दिन कोटि सूर्यों के समान प्रकाशमान भगवती जगदम्बा ने उसे साक्षात दर्शन दिया। देवी के साथ लाख योगिनियाँ भी थीं। वे परमेश्वरी सुवर्णनिर्मित रथ पर बैठी थीं और उनके प्रसन्नमुख पर मुस्कराहट फैल रही थी। उन्होंने संयमशीला वेदवती से कहा।

पार्वती बोलींवेदवती! तुम्हारा कल्याण हो। तुम इच्छानुसार वर माँगो। तुम्हारे इस व्रत से मैं संतुष्ट हूँ; अतः तुम्हें मनोवांछित वर दूँगी।

पार्वती की बात सुनकर साध्वा वेदवती ने उन प्रसन्नहृदया देवी की ओर देखा और दोनों हाथ जोड़ उन्हें प्रणाम करके वह बोली।

वेदवती ने कहादेवि! मैंने नारायण को मन से चाहा है; अतः वे ही मेरे प्राणवल्लभ पति होंयह वर मुझे दीजिये। दूसरे किसी वर को लेने की मुझे इच्छा नहीं है। आप उनके चरणों में सुदृढ़ भक्ति प्रदान कीजिये। वेदवती की बात सुनकर जगदम्बा पार्वती हँस पड़ीं और तुरंत रथ से उतरकर उस हरिवल्लभा से बोलीं।

पार्वती ने कहाजगदम्ब! मैंने सब जान लिया। तुम साक्षात सती लक्ष्मी हो और भारतवर्ष को अपनी पदधूलि से पवित्र करने के लिये यहाँ आयी हो। साध्वि! परमेश्वरि! करने के लिये यहाँ आयी हो। साध्वि! परमेश्वरि! तुम्हारी चरणरज से यह पृथ्वी तथा यहाँ के सम्पूर्ण तीर्थ तत्काल पवित्र हो गये हैं। तपस्विनि! तुम्हारा यह व्रत लोकशिक्षा के लिये है। तुम तपस्या करो। देवि! तुम साक्षात नारायण की वल्लभा हो और जन्म-जन्म में उनकी प्रिया रहोगी। भविष्य में भूतल का भार उतारने के लिये तथा यहाँ के दस्युभूत राक्षसों का नाश करने के लिये पूर्ण परमात्मा विष्णु दशरथनन्दन श्रीराम के रूप में वसुधा पर पधारेंगे। उनके दो भक्त जय और विजय ब्राह्मणों के शाप के कारण वैकुण्ठधाम से नीचे गिर गये हैं। उनका उद्धार करने के लिये त्रेतायुग में अयोध्यापुरी के भीतर श्रीहरि का आविर्भाव होगा। तुम भी शिशुरूप धारण करके मिथिला को जाओ। वहाँ राजा जनक अयोनिजा कन्या के रूप में तुम्हें पाकर यत्नपूर्वक तुम्हारा लालन-पालन करेंगे। वहाँ तुम्हारा नाम सीता होगा। श्रीराम भी मिथिला में जाकर तुम्हारे साथ विवाह करेंगे। तुम प्रत्येक कल्प में नारायण की ही प्राणवल्लभा होओगी।

यों कह पार्वती वेदवती को हृदय से लगाकर अपने निवास-स्थान को लौट गयीं। साध्वी वेदवती मिथिला में जाकर माया से हल द्वारा भूमि पर की गयी रेखा (हराई)में सुखपूर्वक स्थित हो गयीं। उस समय राजा जनक ने देखा, एक नग्न बालिका आँख बंद किये भूमि पर पड़ी है। उसकी अंगकान्ति तपाये हुए सुवर्ण के समान उद्दीप्त है तथा वह तेजस्विनी बालिका रो रही है। उसे देखते ही राजा ने उठाकर गोद में चिपका लिया। जब वे घर को लौटने लगे, उस समय वहीं उनके प्रति आकाशवाणी हुई– ‘राजन! यह अयोनिजा कन्या साक्षात लक्ष्मी है; इसे ग्रहण करो। स्वयं भगवान नारायण तुम्हारे दामाद होंगे।यह आकाशवाणी सुन कन्या को गोद में लिये राजर्षि जनक घर को गये और प्रसन्नतापूर्वक उन्होंने लालन-पालन के लिये उसे अपनी प्यारी रानी के हाथ में दे दिया।

युवती होने पर सती सीता ने इस व्रत के प्रभाव से त्रिलोकीनाथ विष्णु के अवताररूप दशरथनन्दन श्रीराम को प्रियतम पति के रूप में प्राप्त कर लिया। महर्षि वसिष्ठ ने इस व्रत को पृथ्वी पर प्रकाशित किया तथा श्रीराधा को प्राणवल्लभ के रूप में प्राप्त किया। अन्यान्य गोपकुमारियों ने इस व्रत के प्रभाव से उनको पाया। जो कुमारी भारतवर्ष में इस गौरी व्रत का पालन करती है, उसे श्रीकृष्ण-तुल्य पति की प्राप्ति होती है, इसमें संशय नहीं है।

गोपियों द्वारा गौरी व्रत की कथा

गौरी व्रत के सन्दर्भ में श्रीकृष्ण-लीला, जिसमें गोपियों के चीर का अपहरण हुआ और उन्हें मनोवांछित वरदान दिया गया,की कथा आता है । हेमन्त के प्रथम मास-मार्गशीर्ष में गोपांगनाएँ प्रेम के वशीभूत हो प्रतिदिन केवल एक बार हविष्यान्न ग्रहण करके पूर्णतः संयमशील हो पूरे महीने भर भक्तिभाव से व्रत करती रहीं। वे नहाकर यमुना के तट पर पार्वती की बालुकामयी मूर्ति बना उसमें देवी का आवाहन करके मन्त्रोच्चारणपूर्वक नित्यप्रति पूजा किया करती थीं। मुने! गोपियाँ चन्दन, अगुरु, कस्तूरी, कुंकुम, नाना प्रकार के मनोहर पुष्प, भाँति-भाँति के पुष्पहार, धूप, दीप, नैवेद्य, वस्त्र, अनेकानेक फल, मणि, मोती और मूँगे चढ़ाकर तथा अनेक प्रकार के बाजे बजाकर प्रतिदिन देवी की पूजा सम्पन्न करती थीं।

हे देवि जगतां मातः सृष्टिस्थित्यन्तकारिणि।

नन्दगोपसुतं कान्तमस्मभ्यं देहि सुव्रते।।

उत्तम व्रत का पालन करने वाली हे देवि! हे जगदम्ब! तुम्हीं जगत की सृष्टि, पालन और संहार करने वाली हो; तुम हमें नन्दगोप-नन्दन श्यामसुन्दर को ही प्राणवल्लभ पति के रूप में प्रदान करो।

इस मन्त्र से देवेश्वरी दुर्गा की मूर्ति बनाकर संकल्प करके मूलमन्त्र से उनका पूजन करे। सामवेदोक्त मूलमन्त्र बीजमन्त्र सहित इस प्रकार है

ॐ श्रीदुर्गायै सर्वविघ्नविनाशिन्यै नमः ।।

इसी मन्त्र से सब गोपकुमारियाँ भक्तिभाव और प्रसन्नता के साथ देवी को फूल, माला, नैवेद्य, धूप, दीप और वस्त्र चढ़ाती थीं। मूँगे की माला से भक्तिपूर्वक इस मन्त्र का एक सहस्र जप और स्तुति करके वे धरती पर माथा टेककर देवी को प्रणाम करती थीं। उस समय कहतीं कि-

सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये सर्वकामप्रदे शिवे ।

देहि मे वाञ्छितं देवि नमस्ते शंकरप्रिये ।।

समस्त मंगलों का भी मंगल करने वाली और सम्पूर्ण कामनाओं को देने वाली शंकरप्रिये देवि शिवे! तुम्हें नमस्कार है। तुम मुझे मनोवांछित वस्तु दो।

यों कह नमस्कार करके दक्षिणा दे सारे नैवेद्य ब्राह्मणों को अर्पित करके वे घर को चली जाती थीं।

गोपकिशोरियों द्वारा किया गया पार्वतीजी का स्वतन देवी स्तवराज पढ़ें ।

इस स्तवराज के द्वारा व्रजांगनाओं एक मास तक प्रतिदिन बड़ी भक्ति के साथ ईश्वरी का स्तवन एवं नमन किया। जब मास पूरा हुआ तो व्रत की समाप्ति के दिन वे गोपियाँ अपने वस्त्रों को तट पर रखकर यमुना जी में स्नान के लिये उतरीं। नारद! रत्नों के मोल पर मिलने वाले नाना प्रकार के द्रव्य, लाल, पीले, सफेद और मिश्रित रंग वाले मनोहर वस्त्र यमुना जी के तट पर छा रहे थे। उनकी गणना नहीं की जा सकती थी। उन सबके द्वारा यमुना जी के उस तट की बड़ी शोभा हो रही थी। चन्दन, अगुरु और कस्तूरी की वायु से सारा तट-प्रान्त सुरभित था। भाँति-भाँति के नैवेद्य, देश-काल के अनुसार प्राप्त होने वाले फल, धूप, दीप, सिन्दूर और कुंकुम यमुना के उस तट को सुशोभित कर रहे थे। जल में उतरने पर गोपियाँ कौतूहलवश क्रीड़ा के लिये उन्मुख हुईं। उनका मन श्रीकृष्ण को समर्पित था। वे अपने नग्न शरीर से जल-क्रीड़ा में आसक्त हो गयीं। श्रीकृष्ण ने तट पर रखे हुए भाँति-भाँति के द्रव्यों और वस्त्रों को देखा। देखकर वे ग्वाल-बालों के साथ वहाँ गये और सारे वस्त्र लेकर वहाँ रखी हुई खाद्य वस्तुओं को सखाओं के साथ खाने लगे। फिर कुछ वस्त्र लेकर बड़े हर्ष के साथ उनका गट्टर बाँधा और कदम्ब की ऊँची डाल पर चढ़ाकर गोविन्द ने गोपिकाओं से इस प्रकार कहा।

श्रीकृष्ण बोलेगोपियो! तुम सब-की-सब इस व्रत कर्म में असफल हो गयीं। पहले मेरी बात सुनकर विधि-विधान का पालन करो। उसके बाद इच्छानुसार जलक्रीड़ा करना। जो मास व्रत करने के योग्य है; जिसमें मंगलकर्म के अनुष्ठान का संकल्प किया गया है; उसी मास में तुम लोग जल के भीतर घुसकर नंगी नहा रही हो; ऐसा क्यों किया? इस कर्म के द्वारा तुम अपने व्रत को अंगहीन करके उसमें हानि पहुँचा रही हो। तुम्हारे पहनने के वस्त्र, पुष्पहार तथा व्रत के योग्य वस्तुएँ, जो यहाँ रखी गयी थीं, किसने चुरा लीं? जो स्त्री व्रतकाल में नंगी स्नान करती है, उसके ऊपर स्वयं वरुणदेव रुष्ट हो जाते हैं। जान पड़ता है, वरुण के अनुचर तुम्हारे वस्त्र उठा ले गये। अब तुम नंगी होकर घर को कैसे जाओगी? तुम्हारे इस व्रत का क्या होगा? व्रत के द्वारा जिस देवी की आराधना की जा रही थी, वह कैसी है? तुम्हारी वस्तुओं की रक्षा क्यों नहीं कर रही है? श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर व्रजांगनाओं को बड़ी चिन्ता हुई। उन्होंने देखा, यमुना जी के तट पर न तो हमारे वस्त्र हैं और न वस्तुएँ ही। वे जल में नंगी खड़ी हो विषाद करने लगीं। जोर-जोर से रोने लगीं और बोलीं– ‘यहाँ रखे हुए हमारे वस्त्र कहाँ गये और पूजा की वस्तुएँ भी कहाँ हैं? इस प्रकार विषाद करके वे सब गोपकन्याएँ दोनों हाथ जोड़ भक्ति और विनय के साथ हाथ जोड़कर वहीं श्यामसुन्दर से बोलीं।

गोपिकाओं ने कहागोविन्द! तुम्हीं हम दासियों के श्रेष्ठ स्वामी हो; अतः हमारे पहनने योग्य वस्त्रों को तुम अपनी ही वस्तु समझो। उन्हें लेने या स्पर्श करने का तुम्हें पूरा अधिकार है; परंतु व्रत के उपयोग में आने वाली जो दूसरी वस्तुएँ हैं, वे इस समय आराध्य देवता की सम्पत्ति हैं; उन्हें दिये बिना उन वस्तुओं को ले लेना तुम्हारे लिये कदापि उचित नहीं है। हमारी साड़ियाँ दे दो; उन्हें पहनकर हम व्रत की पूर्ति करेंगी। श्यामसुन्दर! इस समय उनके अतिरिक्त अन्य वस्तुओं को ही अपना आहार बनाओ।

यह सुनकर श्रीकृष्ण ने कहातुम लोग आकर अपने-अपने वस्त्र ले जाओ। यह सुनकर श्रीराधा के अंगों में रोमांच हो आया। वे श्रीहरि के निकट वस्त्र लेने के लिये नहीं गयीं। उन्होंने जल में योगासन लगाकर श्रीहरि के उन चरणकमलों का चिन्तन किया, जो ब्रह्मा, शिव अनन्त (शेषनाग) तथा धर्म के भी वन्दनीय एवं मनोवांछित वस्तु देने वाले हैं। उन चरणकमलों का चिन्तन करते-करते उनके नेत्रों में प्रेम के आँसू उमड़ आये और वे भावातिरेक से उन गुणातीत प्राणेश्वर की स्तुति करने लगीं।

जल में स्थित हुई राधिका ने श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों का ध्यान एवं स्तुति करने के पश्चात जब आँखें खोलकर देखा तो उन्हें सारा जगत श्रीकृष्णमय दिखायी दिया। मुने! तदनन्तर उन्होंने यमुनातट को वस्त्रों और द्रव्यों से सम्पन्न देखा। देखकर राधा ने इसे तन्द्रा अथवा स्वप्न का विकार माना। जिस स्थान पर और जिस आधार में जो द्रव्य पहले रखा गया था, वस्त्रोंसहित वह सब द्रव्य गोपकन्याओं को उसी रूप में प्राप्त हुआ। फिर तो वे सब-की-सब देवियाँ जल से निकलकर व्रत पूर्ण करके मनोवांछित वर पाकर अपने-अपने घर को चली गयीं।

भगवान नारायण कहते हैंइस प्रकार उन गोपकुमारियों ने एक मास तक व्रत किया। वे पूर्वोक्त स्तोत्र से प्रतिदिन देवी की स्तुति करती थीं। समाप्ति के दिन व्रत पूर्ण करके गोपियों को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने काण्व-शाखा में वर्णित उस स्तोत्र द्वारा परमेश्वरी पार्वती का स्तवन किया, जिसके द्वारा स्तुति करके सत्यपरायणा सीता ने शीघ्र ही कमल-नयन श्रीराम को प्रियतम पति के रूप में प्राप्त किया था।

समाप्ति के दिन गोपियों सहित श्रीराधा ने देवी की वन्दना और स्तुति करके गौरीव्रत को पूर्ण किया। एक ब्राह्मण को प्रसन्नतापूर्वक एक सहस्र गौएँ तथा सौ सुवर्णुमुद्राएँ दक्षिणा के रूप में देकर वे घर जाने को उद्यत हुईं। उन्होंने आदरपूर्वक एक हजार ब्राह्मणों को भोजन कराया, बाजे बजवाये और भिखमंगों को धन बाँटा। इसी समय दुर्गतिनाशिनी दुर्गा वहाँ आकाश से प्रकट हुईं, जो ब्रह्मतेज से प्रकाशित हो रही थीं। उनके प्रसन्न मुख पर मन्द हास्य की प्रभाव फैल रही थी। वे सौ योगिनियों के साथ थीं। सिंह से जुते हुए रथ पर बैठी तथा रत्नमय अलंकारों से विभूषित थीं। उनके दस भुजाएँ थीं। उन्होंने रत्नसारमय उपकरणों से युक्त सुवर्णनिर्मित दिव्य रथ से उतरकर तुरंत ही श्रीराधा को हृदय से लगा लिया। देवी दुर्गा को देखकर अन्य गोप कुमारियों ने भी प्रसन्नतापूर्वक प्रणाम किया। दुर्गा ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा– ‘तुम सबका मनोरथ सिद्ध होगा।इस प्रकार गोपिकाओं को वर दे उनसे सादर सम्भाषण कर देवी ने मुस्कराते हुए मुखारविन्द से राधिका को सम्बोधित करके उनके स्वरूप का वर्णन कहा।

मुने! ऐसा कहकर पार्वती देवी तत्काल वहीं अन्तर्हित हो गयीं। फिर गोपकुमारियों के साथ श्री राधिका भी घर जाने को उद्यत हुईं। इतने में ही श्रीकृष्ण राधिका के सामने उपस्थित हो गये। राधा ने किशोर-अवस्था वाले श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण को देखा। 

पीतवस्त्रपरीधानं नानालंकारभूषितम् ।

आजानुमालतीमालावनमालाविभूषितम् ।।

ईषद्धास्यप्रसन्नास्यं भक्तानुग्रहकातरम् ।

चन्दनोक्षितसर्वाङ्गं शरत्पङ्कजलोचनम् ।।

शरत्पार्वणचन्द्रास्यं सद्रत्नमुकुटोज्ज्वलम् ।

पक्वदाडिमबीजाभदशनं सुमनोहरम् ।।

विनोदमुरलीहस्तन्यस्तलीलासरोरुहम् ।

कोटिकन्दर्पलावण्यं लीलाधाममनोहरम् ।।

गुणातीतं स्तूयमानं ब्रह्मानन्तशिवादिभिः।

ब्रह्मस्वरूपं ब्रह्मण्यं श्रुतिभिश्चानिरूपितम् ।।

अव्यक्तमक्षराव्यक्तं ज्योतीरूपं सनातनम् ।

माङ्गल्यं मङ्गलाधारं मङ्गलं मङ्गलप्रदम् ।।

उनके श्री अंगों पर पीताम्बर शोभा पा रहा था। वे नाना प्रकार के आभूषणों से विभूषित थे। घुटनों तक लटकती हुई मालती-माला एवं वनमाला उनकी शोभा बढ़ा रही थी। उनका प्रसन्न मुख मन्द हास्य से शोभायमान था। वे भक्तजनों पर अनुग्रह करने के लिये कातर जान पड़ते थे। उनके सम्पूर्ण अंग चन्दन से चर्चित थे। नेत्र शरद ऋतु के प्रफुल्ल कमलों को लज्जित कर रहे थे। मुख शरद ऋतु की पूर्णिमा के चन्द्रमा की भाँति मनोहर था, मस्तक पर श्रेष्ठ रत्नमय मुकुट अपनी उज्ज्वल आभा बिखेर रहा था। दाँत पके हुए अनार के दाने-जैसे स्वच्छ दिखायी देते थे। आकृति बड़ी मनोहर थी। उन्होंने विनोद के लिये एक हाथ में मुरली और दूसरे हाथ में लीला कमल ले रखा था। वे करोड़ों कन्दर्पों की लावण्य-लीला के मनोहर धाम थे। उन गुणातीत परमेश्वर की ब्रह्मा, शेषनाग और शिव आदि निरन्तर स्तुति करते हैं। वे ब्रह्मस्वरूप तथा ब्राह्मणहितैषी हैं। श्रुतियों ने उनके ब्रह्मरूप का निरूपण किया है। वे अव्यक्त और व्यक्त हैं। अविनाशी एवं सनातन ज्योतिःस्वरूप हैं। मंगलकारी, मंगल के आधार, मंगलमय तथा मंगलदाता हैं। 

श्यामसुन्दर के उस अद्भुत रूप को देखकर राधा ने वेगपूर्वक आगे बढ़कर उन्हें प्रणाम किया। उन्हें अच्छी तरह देखकर प्रेम के वशीभूत हो वे सुध-बुध खो बैठीं। प्रियतम के मुखारविन्द की बाँकी चितवन से देखते-देखते उनके अधरों पर मुस्कराहट दौड़ गयी और उन्होंने लज्जावश अंचल से अपना मुख ढँक लिया। उनकी बारंबार ऐसी अवस्था हुई। श्रीराधा को देखकर श्यामसुन्दर के मुख और नेत्र प्रसन्नता से खिल उठे। समस्त गोपिकाओं के सामने खड़े हुए वे भगवान श्रीराधा से बोले।

श्रीकृष्ण ने कहाप्राणाधिके राधिके! तुम मनोवांछित वर माँगो। हे गोपकिशोरियो! तुम सब लोग भी अपनी इच्छा के अनुसार वर माँगो। श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर श्रीराधिका तथा अन्य सब गोपकन्याओं ने बड़े हर्ष के साथ उन भक्तवांछाकल्पतरु प्रभु से वर माँगा।

राधिका बोलींप्रभो! मेरा चित्तरूपी चञ्चरीक आपके चरणकमलों में सदा रमता रहे। जैसे मधुप कमल में स्थित हो उसके मकरन्द का पान करता है; उसी प्रकार मेरा मनरूपी भ्रमर भी आपके चरणारविन्दों में स्थित हो भक्तिरस का निरन्तर आस्वादन करता रहे। आप जन्म-जन्म में मेरे प्राणनाथ हों और अपने चरणकमलों की परम दुर्लभ भक्ति मुझे दें। मेरा चित्त सोते-जागते, दिन-रात आपके स्वरूप तथा गुणों के चिन्तन में सतत निमग्न रहे। यही मेरी मनोवांछा है।

गोपियाँ बोलींप्राणबन्धो! आप जन्म-जन्म में हमारे प्राणनाथ हो और श्रीराधा की ही भाँति हम सबको भी सदा अपने साथ रखें। गोपियों का यह वचन सुनकर प्रसन्न मुख वाले श्रीमान यशोदानन्दन ने कहा– ‘तथास्तु’ (ऐसा ही हो)। तत्पश्चात उन जगदीश्वर ने श्रीराधिका को प्रेमपूर्वक सहस्रदलों से युक्त क्रीड़ाकमल तथा मालती की मनोहर माला दी। साथ ही अन्य गोपियों को भी उन गोपीवल्लभ ने हँसकर प्रसादस्वरूप पुष्प तथा मालाएँ भेंट कीं।

गौरी व्रत की कथा

गौरी व्रत जिसे की कात्यायनी व्रत भी कहा जाता है। इस व्रत के सन्दर्भ में श्रीमद्भागवतमहापुराण के दशम स्कन्ध पूर्वार्ध अध्याय २२ में इस प्रकार कथा आती है-

अब हेमन्त ऋतु आयी । उसके पहले ही महीने में अर्थात् मार्गशीर्ष में नन्दबाबा के व्रज की कुमारियाँ कात्यायनी देवी की पूजा और व्रत करने लगीं । वे केवल हविष्यान्न ही खाती थीं।  वे कुमारी कन्याएँ पूर्व दिशा का क्षितिज लाल होते-होते यमुनाजल में स्नान कर लेतीं और तट पर ही देवी की बालुकामयी मूर्ति बनाकर सुगन्धित चन्दन, फूलों के हार, भाँति-भाँति के नैवेद्य, धूप-दीप, छोटी-बड़ी भेंट की सामग्री, पल्लव, फल और चावल आदि से उनकी पूजा करतीं । साथ ही

कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि ।

नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः । 

 ‘हे कात्यायनी ! हे महामाये ! हे महायोगिनीं ! हे सबकी एकमात्र स्वामिनी ! आप नन्दनन्दन श्रीकृष्ण को हमारा पति बना दीजिये । देवि ! हम आपके चरणों में नमस्कार करती हैं ।

इस मन्त्र का जप करती हुए वे कुमारियाँ देवी की आराधना करतीं । इस प्रकार उन कुमारियों ने, जिनका मन श्रीकृष्ण पर निछावर हो चुका था, इस सङ्कल्प के साथ एक महीने तक भद्रकाली की भलीभाँति पूजा की कि नन्दनन्दन श्यामसुन्दर ही हमारे पति हों। वे प्रतिदिन उषाकाल में ही नाम ले-लेकर एक-दूसरी सखी को पुकार लेतीं और परस्पर हाथ-में-हाथ डालकर ऊँचे स्वर से भगवान् श्रीकृष्ण की लीला तथा नाम का गान करती हुई यमुनाजल में स्नान करने के लिये जातीं । एक दिन सब कुमारियों ने प्रतिदिन की भाँति यमुनाजी के तट पर जाकर अपने-अपने वस्त्र उतार दिये और भगवान् श्रीकृष्ण के गुणों का गान करती हुई बड़े आनन्द से जल क्रीडा करने लगीं ।  भगवान् श्रीकृष्ण सनकादि योगियों और शङ्कर आदि योगेश्वरों के भी ईश्वर हैं । उनसे गोपियों की अभिलाषा छिपी न रहीं । वे उनका अभिप्राय जानकर अपने सखा ग्वालबालों के साथ उन कुमारियों की साधना सफल करने के लिये यमुना तट पर गये । उन्होंने अकेले ही उन गोपियों के सारे वस्त्र उठा लिये और बड़ी फुर्ती से वे एक कदम्ब के वृक्ष पर चढ़ गये । साथी ग्वालबाल ठठा-ठठाकर हँसने लगे और स्वयं श्रीकृष्ण भी हँसते हुए गोपियों से हँसी की बात कहने लगे

अरी कुमारियो ! तुम यहाँ आकर इच्छा हो, तो अपने-अपने वस्त्र ले जाओ । मैं तुम लोगों से सच-सच कहता हूँ । हँसी बिल्कुल नहीं करता । तुमलोग व्रत करते-करते दुबली हो गयी हो । ये मेरे सखा ग्वालबाल जानते हैं कि मैंने कभी कोई झूठी बात नहीं कही है । सुन्दरियो ! तुम्हारी इच्छा हो तो अलग-अलग आकर अपने-अपने वस्त्र ले लो, या सब एक साथ ही आओ । मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं हैं। भगवान् की यह हँसी-मसखरी देखकर गोपियों का हृदय प्रेम से सराबोर हो गया । वे तनिक सकुचाकर एक दुसरी की ओर देखने और मुसकराने लगीं । जल से बाहर नहीं निकलीं । जब भगवान् ने हँसी-हँसी में यह बात कही, तब उनके विनोद से कुमारियों का चित्त और भी उनकी ओर खिंच गया । वे ठंडे पानी में कण्ठ तक डूबी हुई थी और उनका शरीर थर-थर काँप रहा था । उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा

प्यारे श्रीकृष्ण ! तुम ऐसी अनीति मत करो । हम जानती हैं कि तुम नन्दबाबा के लाड़ले लाल हो । हमारे प्यारे हो । सारे ब्रजवासी तुम्हारी सराहना करते रहते हैं । देखो, हम जाड़े के मारे ठिठुर रही हैं । तुम हमें हमारे वस्त्र दे दो । प्यारे श्यामसुन्दर ! हम तुम्हारी दासी है । तुम जो कुछ कहोगे, उसे हम करने को तैयार हैं । तुम तो धर्म का मर्म भलीभाँति जानते हो । हमें कष्ट मत दो । हमारे वस्त्र हमें दे दो, नहीं तो हम जाकर नन्दबाबा से कह देंगी। भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा

कुमारियो ! तुम्हारी मुस्कान पवित्रता और प्रेम से भरी है । देखो, जब तुम अपने को मेरी दासी स्वीकार करती हो और मेरी आज्ञा का पालन करना चाहती हो तो यहाँ आकर अपने-अपने वस्त्र ले लो ।

वे कुमारियाँ ठंड से ठिठुर रही थीं काँप रही थीं । भगवान् की ऐसी बात सुनकर वे अपने दोनों हाथों से गुप्त अङ्गों को छिपाकर यमुनाजी से बाहर निकलीं । उस समय ठंड उन्हें बहुत ही सता रही थी। उनके इस शुद्ध भाव से भगवान् बहुत ही प्रसन्न हुए । उनको अपने पास आयी देखकर उन्होंने गोपियों के वस्त्र अपने कंधे पर रख लिये और बड़ी प्रसन्नता से मुसकराते हुए बोले

अरी गोपियो ! तुमने जो ब्रत लिया था, उसे अच्छी तरह निभाया है इसमें सन्देह नहीं । परन्तु इस अवस्था में वस्त्रहीन होकर तुमने जल में स्नान किया है, इससे तो जल के अधिष्ठातृ-देवता वरुण का तथा यमुनाजी का अपराध हुआ है । अतः अब इस दोष की शान्ति के लिये तुम अपने हाथ जोड़कर सिर से लगाओ और उन्हें झुककर प्रणाम करो, तदनन्तर अपने-अपने वस्त्र ले जाओ ।

भगवान् श्रीकृष्णकी बात सुनकर उन व्रजकुमारियों ने ऐसा ही समझा कि वास्तव में वस्त्रहीन होकर स्नान करने से हमारे व्रत में त्रुटि आ गयी । अतः उसकी निर्विघ्न पूर्ति के लिये उन्होंने समस्त कर्मों के साक्षी श्रीकृष्ण को नमस्कार किया । क्योंकि उन्हें नमस्कार करने से ही सारी त्रुटियों और अपराधों का मार्जन हो जाता है । जब यशोदानन्दन भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि सब-की-सब कुमारियाँ मेरी आज्ञा के अनुसार प्रणाम कर रही हैं, तब वे बहुत ही प्रसन्न हुए । उनके हृदय में करुणा उमड़ आयी और उन्होंने उनके वस्त्र दे दिये ।

श्रीकृष्ण ने कुमारियों से छलभरी बातें की, उनका लज्जा-सङ्कोच छुड़ाया, हँसी की और उन्हें कठपुतलियों के समान नचाया; यहाँ तक कि उनके वस्त्र तक हर लिये । फिर भी वे उनसे रुष्ट नहीं हुई, उनकी इन चेष्टाओं को दोष नहीं माना, बल्कि अपने प्रियतम के सङ्ग से वे और भी प्रसन्न हुई। गोपियों ने अपने-अपने वस्त्र पहन लिये । परन्तु श्रीकृष्ण ने उनके चित्त को इस प्रकार अपने वश में कर रक्खा था कि वे वहाँ से एक पग भी न चल सकीं । अपने प्रियतम के समागम के लिये सजकर वे उन्हीं की ओर लजीली चितवन से निहारती रहीं।

भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि उन कुमारियों ने उनके चरणकमलों के स्पर्श की कामना से ही व्रत धारण किया है । और उनके जीवन का यही एकमात्र सङ्कल्प है । तब गोपियों के प्रेम के अधीन होकर ऊखल तक में बँध जानेवाले भगवान् ने उनसे कहा

मेरी परम प्रेयसी कुमारियो ! मैं तुम्हारा यह सङ्कल्प जानता हूँ कि तुम मेरी पूजा करना चाहती हो । मैं तुम्हारी इस अभिलाषा का अनुमोदन करता हूँ, तुम्हारा यह सङ्कल्प सत्य होगा । तुम मेरी पूजा कर सकोगी । जिन्होंने अपना मन और प्राण मुझे समर्पित कर रक्खा हैं, उनकी कामनाएँ उन्हें सांसारिक भोगों की ओर ले जाने में समर्थ नहीं होतीं, ठीक वैसे ही, जैसे भुने या उबाले हुए बीज फिर अङ्कुर के रूप में उगने के योग्य नहीं रह जाते। इसलिये कुमारियो ! अब तुम अपने-अपने घर लौट जाओ । तुम्हारी साधना सिद्ध हो गयी है। तुम आनेवाली शरद् ऋतु की रात्रियों में मेरे साथ विहार करोगी । सतियो ! इसी उद्देश्य से तो तुमलोगों ने यह व्रत और कात्यायनी देवी की पूजा की थी। भगवान् की यह आज्ञा पाकर वे कुमारियाँ भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों का ध्यान करती हुई जाने की इच्छा न होने पर भी बड़े कष्ट से व्रज में गयीं । अब उनकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो चुकी थीं ।

इस प्रकार ब्रह्मवैवर्तपुराण खण्ड ४ (श्रीकृष्णजन्मखण्ड) अध्याय २७ में तथा श्रीमद्भागवतमहापुराण के दशम स्कन्ध पूर्वार्ध अध्याय २२ में गौरी व्रत अथवा कात्यायनी व्रत का यह सारा मंगलमय चरित्र कथा सुखदासुखदायिनी है।

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