श्रीकृष्ण स्तोत्र दुर्गा कृतम्
श्रीकृष्णस्तोत्रं ब्रह्मवैवर्तपुराणे
लक्ष्मी दुर्गा कृतम् - नैमिषारण्य में आये हुए सौतिजी शौनक जी को ब्रह्म वैवर्त
पुराण के ब्रह्म खण्ड अध्याय-३ में श्रीकृष्ण से सृष्टि का आरम्भ की कथा सुनाते
हैं कि –
श्रीकृष्ण के अंगों से भगवान नारायण, भगवान शिव, ब्रह्माजी, धर्म, मूर्ति और सरस्वती प्रकट हुए। सौति कहते हैं – तत्पश्चात्
परमात्मा श्रीकृष्ण के मन से एक गौरवर्णा देवी प्रकट हुईं, जो
रत्नमय अलंकारों से अलंकृत थीं। उनके श्रीअंगों पर पीताम्बर की साड़ी शोभा पा रही
थी। मुख पर मन्द हास्य की छटा छा रही थी। वे नवयौवना देवी सम्पूर्ण ऐश्वर्यों की
अधिष्ठात्री थीं। वे ही फलरूप से सम्पूर्ण सम्पत्तियाँ प्रदान करती हैं। स्वर्गलोक
में उन्हीं को स्वर्ग लक्ष्मी कहते हैं तथा राजाओं के यहाँ वे ही राजलक्ष्मी
कहलाती हैं। श्रीहरि के सामने खड़ी होकर उन साध्वी लक्ष्मी ने उन्हें हाथ जोड़कर
प्रणाम किया। उनकी ग्रीवा भक्ति भाव से झुक गयी और उन्होंने उन परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण का स्तवन किया।
श्रीकृष्णस्तोत्रं ब्रह्मवैवर्तपुराणे लक्ष्मी दुर्गा कृतम्
महालक्ष्मीरुवाच ।।
सत्यस्वरूपं सत्येशं सत्यबीजं
सनातनम् ।।
सत्याधारं च सत्यज्ञं सत्यमूलं
नमाम्यहम् ।। ६८ ।।
महालक्ष्मी बोलीं - ‘जो सत्यस्वरूप, सत्य के स्वामी और सत्य के बीज हैं,
सत्य के आधार, सत्य के ज्ञाता तथा सत्य के मूल
हैं, उन सनातन देव श्रीकृष्ण को मैं प्रणाम करती हूँ।
यों कह श्रीहरि को मस्तक नवाकर
तपाये हुए सुवर्ण की-सी कान्तिवाली लक्ष्मी-देवी दसों दिशाओं को प्रकाशित करती हुई
सुखासन पर बैठ गयीं।
तदनन्तर परमात्मा श्रीकृष्ण की
बुद्धि से सबकी अधिष्ठात्री देवी ईश्वरी मूल प्रकृति का प्रादुर्भाव हुआ। सुतप्त
कांचन की सी कान्ति वाली वे देवी अपनी प्रभा से करोड़ों सूर्यों का तिरस्कार कर
रही थीं। उनका मुख मन्द-मन्द मुस्कराहट से प्रसन्न दिखायी देता था। नेत्र शरत्काल
के प्रफुल्ल कमलों की शोभा को मानो छीन लेते थे। उनके श्रीअंगों पर लाल रंग की साड़ी
शोभा पाती थी। वे रत्नमय आभरणों से विभूषित थीं। निद्रा,
तृष्णा, क्षुधा, पिपासा,
दया, श्रद्धा और क्षमा आदि जो देवियाँ हैं,
उन सबकी तथा समस्त शक्तियों की वे ईश्वरी और अधिष्ठात्री देवी हैं।
उनके सौ भुजाएँ हैं। वे दर्शन मात्र से भय उत्पन्न करती हैं। उन्हीं को
दुर्गतिनाशिनी दुर्गा कहा गया है। वे परमात्मा श्रीकृष्ण की शक्तिरूपा तथा तीनों
लोकों की परा जननी हैं। त्रिशूल, शक्ति, शांर्गधनुष, खडग, बाण, शंख, चक्र, गदा, पद्म, अक्षमाला, कमण्डलु,
वज्र, अंकुश, पाश,
भुशुण्डि, दण्ड, तोमर,
नारायणास्त्र, ब्रह्मास्त्र, रौद्रास्त्र, पाशुपतास्त्र, पार्जन्यास्त्र,
वारुणास्त्र, आग्नेयास्त्र तथा गान्धर्वास्त्र
- इन सबको हाथों में धारण किये श्रीकृष्ण के सामने खड़ी हो, प्रकृति
देवी ने प्रसन्नतापूर्वक उनका स्तवन किया।
श्रीकृष्णस्तोत्रं ब्रह्मवैवर्तपुराणे दुर्गा कृतम्
प्रकृतिरुवाच।।
अहं प्रकृतिरीशाना सर्वेशा
सर्वरूपिणी ।।
सर्वशक्तिस्वरूपा च मया च
शक्तिमज्जगत् ।। ७७ ।।
प्रकृति बोलीं–
प्रभो! मैं प्रकृति, ईश्वरी, सर्वेश्वरी, सर्वरूपिणी और सर्वशक्तिस्वरूपा कहलाती
हूँ। मेरी शक्ति से ही यह जगत शक्तिमान है।
त्वया सृष्टा न स्वतन्त्रा त्वमेव
जगतां पतिः ।।
गतिश्च पाता स्रष्टा च संहर्त्ता च
पुनर्विधिः ।। ७८ ।।
तथापि मैं स्वतन्त्र नहीं हूँ;
क्योंकि आपने मेरी सृष्टि की है, अतः आप ही
तीनों लोकों के पति, गति, पालक,
स्रष्टा, संहारक तथा पुनः सृष्टि करने वाले
हैं।
स्रष्टुं स्रष्टा च संहर्तुं
संहर्ता वेधसा विधिः ।।
परमानन्दरूपं त्वां वन्दे चानन्दपूर्वकम्
।।
चक्षुर्निमेषकाले च ब्रह्मणः पतनं
भवेत् ।। ७९ ।।
परमानन्द ही आपका स्वरूप है। मैं
सानन्द आपकी वन्दना करती हूँ। प्रभो! आप चाहें तो पलक मारते-मारते ब्रह्मा का भी
पतन हो सकता है।
तस्य प्रभावमतुलं वर्णितुं कः क्षमो
विभो ।।
भ्रूभङ्गलीलामात्रेण विष्णुकोटिं
सृजेत्तु यः ।। 1.3.८० ।।
जो भ्रूभंग की लीला मात्र से
करोड़ों विष्णुओं की सृष्टि कर सकता है, ऐसे
आपके अनुपम प्रभाव का वर्णन करने में कौन समर्थ है?
चराचरांश्च विश्वेषु
देवान्ब्रह्मपुरोगमान् ।।
मद्विधाः कति वा देवीः स्रष्टुं शक्तश्च
लीलया ।। ८१ ।।
आप तीनों लोकों के चराचर प्राणियों,
ब्रह्मा आदि देवताओं तथा मुझ-जैसी कितनी ही देवियों की खेल-खेल में
ही सृष्टि कर सकते हैं।
परिपूर्णतमं स्वीड्यं वन्दे
चानन्दपूर्वकम् ।।
महान्विराड् यत्कलांशो
विश्वसंख्याश्रयो विभो ।।
वन्दे चानन्दपूर्वं तं
परमात्मानमीश्वरम् ।। ८२ ।।
आप परिपूर्णतम परमात्मा हैं।
भलीभाँति स्तुति के योग्य हैं। विभो! मैं आपकी सानन्द वन्दना करती हूँ। असंख्य
विश्व का आश्रयभूत महान विराट पुरुष जिनकी कला का अंशमात्र है,
उन परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण को मैं आनन्द पूर्वक प्रणाम करती हूँ।
यं च स्तोतुमशक्ताश्च
ब्रह्मविष्णुशिवादयः ।।
वेदा अहं च वाणी च वन्दे तं
प्रकृतेः परम् ।। ८३ ।।
ब्रह्मा,
विष्णु और शिव आदि देवता, सम्पूर्ण वेद,
मैं और सरस्वती- ये सब जिनकी स्तुति करने में असमर्थ हैं तथा जो
प्रकृति से परे हैं, उन आप परमेश्वर को मैं नमस्कार करती
हूँ।
वेदाश्च विदुषां श्रेष्ठाः स्तोतुं
शक्ताश्च न क्षमाः ।।
निर्लक्ष्यं कः क्षमः स्तोतुं तं
निरीहं नमाम्यहम् ।। ८४ ।।
वेद तथा श्रेष्ठ विद्वान लक्षण
बताते हुए आपकी स्तुति करने में समर्थ नहीं हैं। भला जो निर्लक्ष्य हैं उनकी
स्तुति कौन कर सकता है? ऐसे आप निरीह
परमात्मा को मैं प्रणाम करती हूँ।
इत्येवमुक्त्वा सा दुर्गा
रत्नसिंहासने वरे ।।
उवास नत्वा श्रीकृष्णं
तुष्टुवुस्तां सुरेश्वराः ।।८५।।
ऐसा कहकर दुर्गा देवी श्रीकृष्ण को
प्रणाम करके उनकी आज्ञा से श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर बैठ गयीं।
इति दुर्गाकृतं स्तोत्रं कृष्णस्य
परमात्मनः ।।
यः पठेदर्च्चनाकाले स जयी सर्वतः
सुखी।। ८६ ।।
जो पूजाकाल में दुर्गा द्वारा किये
गये परमात्मा श्रीकृष्ण के इस स्तोत्र का पाठ करता है,
वह सर्वत्र विजयी और सुखी होता है।
दुर्गा तस्य गृहं त्यक्त्वा नैव
याति कदाचन ।।
भवाब्धौ यशसा भाति यात्यन्ते
श्रीहरेः पुरम् ।। ६७ ।।
दुर्गा देवी उसका घर छोड़कर कभी
नहीं जाती हैं। वह भवसागर में रहकर भी अपने सुयश से प्रकाशित होता रहता है और अन्त
में श्रीहरि के परम धाम को जाता है।
इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे
ब्रह्मखण्डे सौतिशौनकसंवादे सृष्टिनिरूपणे श्रीकृष्णस्तोत्रं लक्ष्मी दुर्गा कृतम्
नाम तृतीयोऽध्यायः ।। ३ ।।
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