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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
कृष्ण उपनिषद
कृष्ण उपनिषद अथर्ववेदीय शाखा के
अन्तर्गत एक उपनिषद है। कृष्ण उपनिषद एक परवर्ती उपनिषद है। जिसमें कृष्ण का
दार्शनिक रूप व्याख्यात हुआ है। वैष्णव सम्प्रदाय में इसका विशेष आदर है। इसे श्रीकृष्णोपनिषत्
भी कहा जाता है। यह उपनिषद संस्कृत भाषा में लिखित है। इसके रचियता वैदिक काल के
ऋषियों को माना जाता है परन्तु मुख्यत वेदव्यास जी को कई उपनिषदों का लेखक माना
जाता है।
कृष्ण उपनिषद शान्तिपाठ
॥ ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्तुवाश्सस्तनूभिर्व्यशेम
देवहितं यदायुः ||
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इसका भावार्थ अथर्वशिर उपनिषद् में
देखें।
॥ श्रीकृष्णोपनिषत्॥
श्री कृष्ण उपनिषद
श्रीमहाविष्णुं सच्चिदानन्दलक्षणं रामचन्द्रं दृष्ट्वा सर्वाङ्गसुन्दरं मुनयो वनवासिनो विस्मिता बभूवुः ।
तं होचुर्नोऽवद्यमवतारान्वै गण्यन्ते आलिङ्गामो भवन्तमिति ।
भवान्तरे कष्णावतारे ययं गोपिका भत्व मामालिङ्गथ अन्ये येऽवतारास्ते हि गोपा न स्त्रीश्च नो कुरु ।
अन्योन्यविग्रहं धार्यं तवाङ्गस्पर्शनादिह । शाश्वतस्पर्शयितास्माकं गृण्हीमोऽवतारान्वयम्
॥१॥
रुद्रादीनां वचः शृत्वा प्रोवाच
भगवान्स्वयम् । अङ्गयङ्गं करिष्यामि भवद्वाक्यं करोम्यहम् ॥२॥
सर्वांग सुन्दर,
सच्चिदानन्द स्वरूप, महाविष्णु (के अवतारी) श्री रामचन्द्र जी को देखकर वनवासी मुनिगण बड़े आश्चर्यचकित
हुए। (उन्हें धरती पर अवतरित होने के लिए ब्रह्मा जी का आदेश होने पर) ऋषियों ने
उनसे (राम से) कहा- हम सब (धरती पर) अवतरित होने को अच्छा नहीं मानते हैं। हम आपका
आलिंगन (अत्यधिक निकटता) चाहते हैं। (भगवान् ने कहा-हमारे) अन्य अवतार कृष्णावतार
में तुम सभी गोपिका बनकर मेरा आलिंगन (अतिसंन्निकटता)
प्राप्त करो। (ऋषियों ने पुन: कहा- हमारे) जो अन्य अवतार हों, (उनमें) हमें गोप-गोपिका बना दें। आपका सान्निध्य प्राप्त करने की स्थिति
में हमें ऐसा शरीर (गोपिका आदि) धारण करना स्वीकार्य है, जो
आपको स्पर्श सुख प्रदान कर सके। रुद्र आदि सभी देवों की यह स्नेहयुक्त प्रार्थना
सुनकर स्वयं आदि पुरुष भगवान ने कहा- हे देवों ! मैं अपने अंग-अवयवों के स्पर्श का
अवसर तुम्हे निश्चित रूप से प्रदान करता रहूँगा। मैं तुम्हारी इच्छा को अवश्य
पूर्ण करूंगा॥१-२॥
मोदितास्ते सुरा सर्वे
कृतकृत्याधुना वयम् । यो नन्दः परमानन्दो यशोदो मुक्तिगेहिनी ॥३॥
माया सा त्रिविधा प्रोक्ता
सत्त्वराजसतामसी । प्रोक्ता च सात्त्विकी रुद्रे भक्ते ब्रह्मणि राजसी ॥ ४॥
तामसी दैत्यपक्षेष माया त्रेधा
हयुदाहृता । अजेया वैष्णवी माया जप्येन च सुता पुरा ॥ ५॥
देवकी ब्रह्मपुत्र सा या
वेदैरुपगीयते । निगमो वसुदेवो यो वेदार्थः कृष्णरामयोः ॥ ६॥
स्तुवते सततं यस्तु सोऽवतीर्णो
महीतले । वने वृन्दावने क्रीडङ्गोपगोपीसुरैः सह ॥ ७॥
गोप्यो गाव ऋचस्तस्य यष्टिका
कमलासनः । वंशस्तु भगवान् रुद्रः शृङ्गमिन्द्रः सगोसुरः ॥ ८॥
गोकुलं वनवैकुण्ठं तापसास्तत्र ते
द्रुमाः । लोभक्रोधादयो दैत्याः कलिकालस्तिरस्कृतः ॥९॥
परम पुरुष भगवान् का यह आश्वासन
प्राप्त करके वे सभी देवगण अत्यधिक आनन्दित होते हुए बोले कि 'अब हम कृतार्थ हो गये। तदनन्तर वे समस्त देवगण भगवान की सेवा हेतु प्रकट
हुए। भगवान् का परम आनन्दमय स्वरूप ही अंशरूप में नन्दराय जी के रूप में उत्पन्न
हुआ। स्वयं साक्षात् मुक्तिदेवी नन्दरानी यशोदा जी के रूप में अवतरित हुईं।
सुप्रसिद्ध माया तीन प्रकार की कही गयी है, जिनमें से प्रथम
सात्त्विकी, द्वितीय राजसी और तृतीय तामसी । भगवान् के भक्त
श्रीरुद्र देव में सात्त्विकी माया विद्यमान है, ब्रह्मा जी
में राजसी माया है और असुरों में तामसी माया का प्राकट्य हुआ है। इस कारण से यह
तीन प्रकार की बतलायी गयी है। इसके अतिरिक्त जो वैष्णवीमाया है, उसको जीतना हर किसी के लिए असंभव है। इस माया को प्राचीन काल में ब्रह्मा
जी भी पराजित नहीं कर सके। देवता भी सदा जिस वैष्णवी माया की स्तुति करते हैं,वही ब्रह्म विद्यामयी वैष्णवी माया ही देवकी के रूप में प्रादुर्भूत हुई।
निगम अर्थात् वेद ही वसुदेव हैं, जो निरन्तर मुझ पूर्ण पुरुष
नारायण के विराट् स्वरूप की स्तुति करते हैं। वेदों का तात्पर्यभूत ब्रह्म ही श्री
बलराम एवं श्रीकृष्ण के रूप में इस पृथ्वी पर अवतरित हुआ। वह मूर्तिमय वेदार्थ ही
वृन्दावन में विद्यमान गोप एवं गोपियों के साथ क्रीड़ा करता है। वेदों की ऋचाएँ उन
भगवान् श्रीकृष्ण की गौएँ एवं गोपियाँ हैं। ब्रह्माजी ने लकुटी का रूप धारण किया
है तथा भगवान् रुद्र वंश(वंशी)बने हुए हैं। सगोसुर इन्द्र (अर्थात् वज्रधारी देव
इन्द्र-यहाँ गो का अर्थ वज्र तथा सुर का अर्थ देव लिया गया है।) श्रृंग (सींग का
बना वाद्ययंत्र) का रूप धारण किए हुए हैं। गोकुल के नाम से प्रसिद्ध वन के रूप में
जहाँ स्वयं साक्षात वैकुण्ठ प्रतिष्ठित है, वहाँ पर द्रुमों
(वृक्षों) के रूप में तप में रत महात्मा स्थित हैं। लोभ-क्रोधादि षड़ विकारों ने
महान दैत्य-असुरों का रूप धारण कर लिया है, जो कलियुग में
(केवल भगवान् श्रीकृष्ण के नाम जप मात्र से ही) विनष्ट हो जाते हैं॥३-९॥
गोपरूपो हरिः
साक्षान्मायाविग्रहधारणः । दुर्बोधं कुहकं तस्य मायया मोहितं जगत् ॥१०॥
दुर्जया सा सुरैः सर्वैधृष्टिरूपो
भवेद्विजः । रुद्रो येन कृतो वंशस्तस्य माया जगत्कथम् ॥११॥
बलं ज्ञानं सुराणां वै तेषां ज्ञानं
हृतं क्षणात् । शेशनागो भवेद्रामः कृष्णो ब्रह्मैव शाश्वतम् ॥ १२॥
अष्टावष्टसहस्रे द्वे शताधिक्यः
स्त्रियस्तथा । ऋचोपनिषदस्ता वै ब्रह्मरूपा ऋचः स्त्रियाः ॥१३॥
द्वेषाश्चाणूरमल्लोऽयं मत्सरो
मुष्टिको जयः । दर्पः कुवलयापीडो गर्वो रक्षः खगो बकः ॥ १४॥
दया सा रोहिणी माता सत्यभामा धरेति
वै । अघासुरो माहाव्याधिः कलिः कंसः स भूपतिः ॥ १५॥
शमो मित्रः सुदामा च सत्याक्रोद्धवो
दमः । यः शङ्खः स स्वयं विष्णुर्लक्ष्मीरुपो व्यवस्थितः ॥१६॥
दुग्धसिन्धौ समुत्पन्नो मेघघोषस्तु
संस्मृतः । दुग्दोदधिः कृतस्तेन भग्नभाण्डो दधिगृहे ॥ १७ ॥
क्रीडते बालको भूत्वा
पूर्ववत्सुमहोदधौ । संहारार्थं च शत्रूणां रक्षणाय च संस्थितः ॥१८॥
कृपार्थे सर्वभूतानां गोप्तारं
धर्ममात्मजम् । यत्स्रष्टुमीश्वरेणासीतच्चक्रं ब्रह्मरूपदृक् ॥ १९॥
स्वयं साक्षात् भगवान् श्रीहरि ही
गोपरूप में लीला-विग्रह का रूप धारण किये हुए हैं। यह नश्वर जगत् माया से ग्रसित
है,
इस कारण उसके लिए भगवान् श्रीकृष्ण की माया का रहस्य जानना बहुत ही
दुष्कर है। वह प्रभु की माया सभी देवताओं के लिए भी दुर्जय है। जिन भगवान् की माया
के वश में होकर ब्रह्मा जी लकुटी का रूप धारण किए हुए हैं तथा जिन्होंने भगवान्
शिव को वंशी बनने के लिए विवश कर रखा है, उन प्रभु की माया
को सामान्य जगत् किस प्रकार जान सकता है? निश्चित रूप से
देवों का जो ज्ञान युक्त बल है, उसे भगवान् की माया ने क्षण
भर में हरण कर लिया है। श्रीशेषनाग जी श्री बलराम के रूप में जन्मे और सनातन
ब्रह्म ही भगवान श्रीकृष्ण के रूप में अवतीर्ण हुए। भगवान् श्रीकृष्ण की रुक्मिणी
आदि सोलह हजार एक सौ आठ रानियाँ ही वेदों की ऋचाएँ एवं उपनिषद् हैं,इनके अतिरिक्त वेदों की जो ब्रह्म स्वरूपा ऋचाएँ हैं, वे सभी ब्रजभूमि में गोपिकाओं के रूप में अवतरित हुईं। द्वेष ही चाणूर
मल्ल के रूप में है, मत्सर ही दुर्जय मुष्टिक रूप में तथा
दर्प ही कुवलयापीड़ हाथी के रूप में प्रकट हुआ है। गर्व ही आकाश में गमन करने वाले
बकासुर राक्षस के रूप में अवतरित हुआ। माता रोहिणी के रूप में दया का प्राकट्य हुआ
है और माँ पृथ्वी ही सत्यभामा के रूप में अवतरित हुई हैं। अघासुर के रूप में
महाव्याधि और स्वयं साक्षात् कलि ही राजा कंस के रूप में प्रकट हुआ। श्रीकृष्ण के
मित्र सुदामा जी ही 'शम' हैं, सत्य के रूप में अक्रूर जी और दम के रूप में उद्धवजी उत्पन्न हुए। शंख
स्वयं विष्णुरूप है और लक्ष्मी का भ्राता होने के कारण वह लक्ष्मी रूप भी है,
उसका प्राकट्य क्षीरसागर से हुआ है। मेघ के सदृश उसका गम्भीर घोष
नाद है। भगवान् ने दूध दही के भण्डार से युक्त जो मटके फोड़े तथा उन मटकों से जो
दूध दही प्रवाहित हुआ, उसके रूप में भगवान् ने स्वयं
साक्षात् क्षीरसागर को ही प्रादुर्भूत किया है और वे (भगवान् श्रीकृष्ण) उस
महासागर में बालक रूप में अवस्थित हो पूर्ववत् क्रीड़ा कर रहे हैं। शत्रुओं के शमन
एवं साधुजनों के संरक्षण में वे पूर्णरूपेण तत्पर रहते हैं। समस्त भूत-प्राणियों
पर अहैतुकी कृपा करने के लिए एवं अपने आत्मज स्वरूप धर्म के अभ्युदय हेतु ही
भगवान् श्रीकृष्ण का प्रादुर्भाव हुआ है, ऐसा ही जानना
चाहिए। भगवान् महाकाल (शिव) ने श्रीहरि को समर्पित करने के लिए जिस चक्र को
उत्पन्न किया था, भगवान् (श्री कृष्ण) के हाथ में शोभायमान
वह चक्र भी ब्रह्ममय ही है॥१०-१९॥
जयन्तीसंभवो वायुश्चमरो
धर्मसंज्ञितः । यस्यासौ ज्वलनाभासः खड्गरूपो महेश्वरः ॥ २०॥
कश्यपोलूखलः ख्यातो
रज्जुर्माताऽदितिस्तथा । चक्रं शङ्ख च संसिद्धिं बिन्दुं च सर्वमूर्धनि ॥ २१॥
यावन्ति देवरूपाणि वदन्ति विभुधा
जनाः । नमन्ति देवरूपेभ्य एवमादि न संशयः ॥ २२॥
गदा च काळिका
साक्षात्सर्वशत्रुनिबर्हिणी । धनुः शार्ङ्ग स्वमायाच शरत्कालः सुभोजनः ॥२३॥
अब्जकाण्डं जगत्बीजं धृतं पाणौ
स्वलीलया । गरुडो वटभाण्डीरः सुदामा नारदो मुनिः ॥ २४॥
वृन्दा भक्तिः क्रिया बुद्धीः
सर्वजन्तुप्रकाशिनी ।
तस्मान्न भिन्नं
नाभिन्नमाभिर्भिन्नो न वै विभुः । भूमावुत्तारितं सर्वं वैकुण्ठं स्वर्गवासिनाम् ॥
२५॥
तदेतद्वेदानां रहस्यं तदेतदुपनिषदां
रहस्यम्
एतदधीयानः सर्वत्रतुफलं लभते
शान्तिमेति मनःशुद्धिमेति सर्वतीर्थफलं लभते
य एवं वेद देहबन्धाद्विमुच्यते
इत्युपनिषत् ॥ ॥ २६॥
धर्म ने चँवर का रूप धारण किया है,
वायुदेव वैजयन्ती माला के रूप में उत्पन्न हुए हैं और महेश्वर ने
अग्नि की भाँति चमकते हुए खड्ग का रूप स्वीकार किया है। नन्द जी के घर में कश्यप
ऋषि ऊखल के रूप में प्रतिष्ठित हैं तथा माता अदिति रस्सी के रूप में प्रकट हुई
हैं। जिस प्रकार समस्त अक्षरों के ऊपर अनुस्वार सुशोभित होता है, वैसे ही सभी के ऊपर जो शोभायमान आकाश है, उसको ही
भगवान् श्रीकृष्ण को छत्र समझना चाहिए। व्यास, वाल्मीकि आदि
ज्ञानी महात्माजन देवों के जितने रूपों का वर्णन करते हैं और जिन जिन को लोग
देवरूप में समझ कर नमन-वंदन करते हैं, वे समस्त देवगण भगवान
श्रीकृष्ण का ही एक मात्र अवलम्बन प्राप्त करते हैं। भगवान् के हाथ की गदा
सम्पूर्ण शत्रुओं को विनष्ट करने वाली साक्षात् कालिका है। शार्ङ्गधनुष के रूप में
स्वयं वैष्णवी माया ही उपस्थित है तथा प्राणों का संहार करने वाला काल ही भगवान्
का बाण है। इस विश्व-वसुधा के बीज स्वरूप कमल को भगवान् ने लीलापूर्वक हाथ में
ग्रहण किया है। भाण्डीर वट का रूप गरुड़ ने धारण कर रखा है और देवर्षि नारद उनके
सुदामा नामक सखा के रूप में अवतरित हुए हैं। भक्ति ने वृन्दा का रूप धारण किया है।
समस्त भूत-प्राणियों को प्रकाश प्रदान करने वाली जो बुद्धि है, वही भगवान् की क्रियाशक्ति है। इस कारण ये गोप एवं गोपिकाएँ आदि सभी
भगवान् श्रीकृष्ण से अलग नहीं हैं तथा विभु-परमात्मा श्रीकृष्ण भी इन सभी से अलग
नहीं हैं। उन भगवान् श्रीकृष्ण ने स्वर्गवासियों को एवं समस्त वैकुण्ठ धाम को
पृथिवी तल पर अवतरित कर लिया है, जो भी मनुष्य इस तरह से उन
भगवान् को जानता है, वह समस्त तीर्थों के फल को प्राप्त कर
लेता है और शारीरिक-बन्धनों से मुक्त हो जाता है, ऐसी ही यह
उपनिषद् है॥२०-२६॥
कृष्ण उपनिषद
शान्तिपाठ
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्तुवाश्सस्तनूभिर्व्यशेम
देवहितं यदायुः ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इसका भावार्थ शरभोपनिषत् में देखें।
॥ इति श्रीकृष्णोपनिषत्॥
॥ कृष्ण उपनिषद् समाप्त ॥
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