अग्निपुराण अध्याय २५२

अग्निपुराण अध्याय २५२                                   

अग्निपुराण अध्याय २५२ में तलवार के बत्तीस हाथ, पाश, चक्र, शूल, तोमर, गदा, परशु, मुद्गर, भिन्दिपाल, वज्र, कृपाण, क्षेपणी, गदायुद्ध तथा मल्लयुद्ध के दाँव और पैंतरों का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय २५२

अग्निपुराणम् अध्यायः २५२                                  

अग्निपुराणम् द्विपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः

Agni puran chapter 252                   

अग्निपुराण दो सौ बावनवाँ अध्याय

अग्निपुराणम् अध्यायः २५२  

अग्निपुराणम् अध्यायः २५२धनुर्वेदकथनम्

अथ द्विपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः

अग्निरुवाच

भ्रान्तमुद् भ्रान्तमाविद्धमाप्लुतं विप्लुतं सृतं ।

सम्पातं समुदीशञ्च श्येनपातमथाकुलं ।। १ ।।

उद्‌धूतमवधूतञ्च सव्यं दक्षिणमेव च ।

अनालक्षितविस्फोटौ करालेन्द्रमहासखौ ।। २ ।।

विकरालनिपातौ च विभीषणभयानकौ ।

समग्रार्द्धतीयांशपादपादार्द्धवारिजाः ।। ३ ।।

प्रात्यालीढमथालीढं वराहं लुलितन्तथा ।

इति द्वात्रिंशतो ज्ञेयाः खड्गचर्मविधौ रणे ।। ४ ।।

अग्निदेव कहते हैंब्रह्मन् ! भ्रान्त, उद्भ्रान्त, आविद्ध, आप्लुत, विप्लुत, प्लुत (या सृत), सम्पात, समुदीर्ण, श्येनपात, आकुल, उद्भूत, अवधूत, सव्य, दक्षिण, अनालक्षित, विस्फोट, करालेन्द्र, महासख, विकराल, निपात, विभीषण, भयानक, समग्र, अर्ध तृतीयांश, पाद पादार्थ, वारिज, प्रत्यालीढ़, आलीढ़, वराह और लुलित-ये रणभूमि में दिखाये जानेवाले ढाल-तलवार के बत्तीस हाथ (या चलाने के ढंग) हैं; इन्हें जानना चाहिये ॥ १-४ ॥

परवृत्तमपावृत्तं गृहीतं लघुसञ्ज्ञितं ।

ऊद्‌र्ध्वात् क्षइप्तमधः क्षिप्तं सन्धारितविधारितं ।। ५ ।।

श्येनपातं गजपानं ग्राहग्राह्यन्तथैव च ।

एवमेकादशविधा ज्ञेयाः पाशविधा रणाः ।। ६ ।।

परावृत्त, अपावृत्त, गृहीत, लघु, ऊर्ध्वक्षिप्त, अधः क्षिप्त, संधारित, विधारित, श्येनपात, गजपात और ग्राह- ग्राह्य ये युद्ध में 'पाश' फेंकने के ग्यारह प्रकार हैं ॥ ५-६ ॥

ऋज्वायतं विशालञ्च तिर्य्यग्‌भ्रामितमेव च ।

पञ्चकर्म विनिर्द्दिष्टं व्यस्ते पाशे महात्मभिः ।। ७ ।।

ऋजु, आयत, विशाल, तिर्यक् और भ्रामित- ये पाँच कर्म 'व्यस्तपाश' के लिये महात्माओं ने बताये हैं ॥ ७ ॥

छेदनं भेदनं पातो भ्रमणं शयनं तथा ।

विकर्त्तनं कर्त्तऩञ्च चक्रकर्मेदमेव च ।। ८ ।।

छेदन, भेदन, पात, भ्रमण, शमन, विकर्तन तथा कर्तन- ये सात कर्म चक्र के हैं ॥ ८ ॥

आस्फोटः क्ष्वेडनं भेदस्त्रासान्दोलितकौ तथा ।

शूलकर्माणि जानीहि षष्ठमाघातसञ्ज्ञितं ।। ९ ।।

आस्फोट, क्ष्वेडन, भेद, त्रास, आन्दोलितक और आघात - ये छ: 'शूल के कर्म जानो ॥ ९ ॥

दृष्टिघातं भुजाघातं पार्श्वघातं द्विजोत्तम ।

ऋजुपक्षेषुणा पातं तोमरस्य प्रकीर्त्तितं ।। १० ।।

द्विजोत्तम! दृष्टिघात, भुजाघात, पार्श्वघात, ऋजुपात, पक्षपात और इषुपात ये 'तोमर के कार्य कहे गये हैं ॥ १० ॥

आहतं विप्र गोमूत्रप्रभूतङ्कमलासनं ।

ततोर्द्धगात्रं नमितं वामदक्षिणमेव च ।। ११ ।।

आवृत्तञ्च चपरावृत्तं पादोद्धतमवप्लुतं ।

हंसमर्द्दं विमर्दञ्च३ गदाकर्म प्रकीर्त्तितं ।। १२ ।।

विप्रवर! आहत, विहत, प्रभूत, कमलासन, ततोर्ध्वगात्र, नमित, वामदक्षिण, आवृत्त, परावृत्त, पादोद्भूत, अवप्लुत, हंसमर्द ( या हंसमार्ग) तथा विमर्द-ये 'गदा सम्बन्धी' कर्म कहे गये हैं ॥ ११-१२ ॥

करालमवघातञ्च दंशोपप्लुतमेव च ।

क्षिप्तहस्तं स्थितं शून्यं परशोस्तु विनिर्दिशेत् ।। १३ ।।

कराल, अवघात, दशोपप्लुत, क्षिप्तहस्त, स्थित और शून्य ये 'फरसे' के कर्म समझने चाहिये ॥ १३ ॥

ताडनं छेदनं विप्र तथा चूर्णनमेव च ।

मुद्‌गरस्य तु कर्माणि तथा प्लवनघातनं ।। १४ ।।

विप्रवर! ताड़न, छेदन, चूर्णन, प्लवन तथा घातन ये 'मुद्गर के कर्म हैं ॥ १४ ॥

सं श्रान्तमथ विश्रान्तं गोविसर्गं सुदुर्द्धरं ।

भिन्दिपालस्य कर्माणि लगुडस्य च तान्यपि ।। १५ ।।

संश्रान्त, विश्रान्त, गोविसर्ग तथा सुदुर्धर - ये 'भिन्दिपाल के कर्म हैं और 'लगुड' के भी वे ही कर्म बताये गये हैं॥ १५ ॥

अन्त्यं मध्यं परावृत्तं निदेशान्तं द्विजोत्तम ।

वज्रस्यैतानि कर्माणि लगुडस्य च तान्यपि ।। १६ ।।

द्विजोत्तम! अन्त्य, मध्य, परावृत्त तथा निदेशान्त ये 'वज्र' और 'पट्टिश के कर्म हैं ॥ १६ ॥

हरणं छेदनं घातो बलोद्धारणमायतं ।

कृपाणकर्म निर्दिष्टं पातनं स्फोटनं तथा ।। १७ ।।

हरण, छेदन, घात, भेदन, रक्षण, पातन तथा स्फोटन - ये 'कृपाण के कर्म कहे गये हैं ॥ १७ ॥

त्रासनं रक्षणं घातो बलोद्धरणमायतम् ।

क्षेपणीकर्म निर्दिष्टं यन्त्रकर्मैतदेव तु ।। १८ ।।

त्रासन, रक्षण, घात, बलोद्धरण और आयत- ये 'क्षेपणी' (गोफन) के कार्य कहे गये हैं। ये ही 'यन्त्र 'के भी कर्म हैं ॥ १८ ॥

सन्त्यागमवदंशश्च वराहोद्धूतकं तथा ।

हस्तावहस्तमालीनमेकहस्तावहस्तके ।। १९ ।।

द्विहस्तवाहुपाशे च कटिरेचितकोद्‌गते ।

उरोललाटघाते च भुजाविधमनन्तथा ।। २० ।

द्विहस्तवाहुपाशे च कटिरेचिककोद्‌गते ।

गात्रसंश्लेषणं शान्तं तथा गात्रविपर्य्ययः ।। २१ ।।

ऊद्‌र्ध्वप्र्हारं घातञ्च गोमूत्रं सव्यदक्षिणे ।

पारकन्तारकं दण्डं४ करवीरन्धमाकुलं ।। २२ ।।

तिर्य्यग्बन्धमपामार्गं५ भीमवेगं सुदर्शनं ।

सिंहाक्रान्तं गजाक्रान्तं गर्द्दभाक्रान्तमेव च ।। २३ ।।

गदाकर्माणि जानीयान्नियुद्धस्याथ कर्म च ।

संत्याग, अवदंश, वराहोद्धूतक, हस्तावहस्त, आलीन, एकहस्त, अवहस्तक, द्विहस्त, बाहुपाश, कटिरेचितक, उद्गत, उरोघात, ललाटघात, भुजाविधमन, करोद्धूत, विमान, पादाहति, विपादिक, गात्रसंश्लेषण, शान्त, गात्रविपर्यय, ऊर्ध्वप्रहार, घात, गोमूत्र, सव्य, दक्षिण, पारक, तारक, दण्ड (गण्ड), कबरीबन्ध, आकुल, तिर्यग्बन्ध, अपामार्ग, भीमवेग, सुदर्शन, सिंहाक्रान्त, गजाक्रान्त और गर्दभाक्रान्त- ये 'गदायुद्ध' के हाथ जानने चाहिये। अब 'मल्लयुद्ध' के दाव पेंच बताये जाते हैं ॥ १९ – २३अ ॥

आकर्षणं विकषञ्च बाहूनां मूलमेव च ।। २४ ।।

ग्रीवाविपरिवर्त्तञ्च पृष्ठभङ्गं सुदारुणं ।

पर्य्यासनविपर्य्यासौ पशुमारमजाविकं ।। २५ ।।

पादप्रहारमास्फोटं ककटिरेचितकन्तथा ।

गात्रश्लेषं स्कन्धगतं महीव्याजनमेव च ।। २६ ।।

उरोललाटघातञ्च विस्पष्टकरणन्तथा ।

उद्‌धूतमवधूतञ्च तिर्य्यङ्मार्गगतं तथा ।। २७ ।।

गजस्कन्धमवक्षेपमपराङ्‌मुखमेव च ।

देवमार्गमधोमार्गममार्गगमनाकुलं ।। २८ ।।

यष्टिघातमवक्षेपो वसुधादारणन्तथा ।

जानुबन्धं भुजाबन्धं गात्रबन्धं सुदारुणं ।। २९ ।।

विपृष्ठं सोदकं शुभ्रं भुजावेष्टितमेव च ।

आकर्षण, विकर्षण, बाहुमूल, ग्रीवाविपरिवर्त, सुदारुण, पृष्ठभङ्ग, पर्यासन, विपर्यास, पशुमार, अजाविक, पादप्रहार, आस्फोट, कटिरेचितक, गात्राश्लेष, स्कन्धगत, महीव्याजन, उरोललाटघात, विस्पष्टकरण, उद्भूत, अवधूत, तिर्यङ्मार्गगत, गजस्कन्ध, अवक्षेप, अपराङ्मुख, देवमार्ग, अधोमार्ग, अमार्गगमनाकुल, यष्टिघात, अवक्षेप, वसुधादारण, जानुबन्ध, भुजाबन्ध, सुदारुण, गात्रबन्ध, विपृष्ठ, सोदक, श्वभ्र तथा भुजावेष्टित ॥ २४ – २९अ ॥

सन्नद्धैः संयुगे भाव्यं सशस्त्रैस्तैर्गजादिभिः ।। ३० ।।

वराङ्कुशधरौ चोभौ एको ग्रीवागतोऽपरः ।

स्कन्धगौ द्वौ च धानुष्कौ द्वौ च खड्‌गधरौगजे ।। ३१ ।।

युद्ध में कवच धारण करके, अस्त्र-शस्त्र से सम्पन्न हो, हाथी आदि वाहनों पर चढ़कर उपस्थित होना चाहिये। हाथी पर उत्तम अङ्कुश धारण किये दो महावत या चालक रहने चाहिये। उनमें से एक तो हाथी की गर्दन पर सवार हो और दूसरा उसके कंधे पर। इनके अतिरिक्त सवारों में दो धनुर्धर होने चाहिये और दो खड्गधारी ॥ ३०-३१ ॥

रथे रणे गजे चैव तुरङ्गाणां त्रयं भवेत् ।

धानुष्काणान्त्रयं प्रोक्तं रक्षआर्थे तुरगस्य च ।। ३२ ।।

प्रत्येक रथ और हाथी की रक्षा के लिये तीन-तीन घुड़सवार सैनिक रहें तथा घोड़े की रक्षा के लिये तीन-तीन धनुर्धर पैदल सैनिक रहने चाहिये। धनुर्धर की रक्षा के लिये चर्म या ढाल लिये रहनेवाले योद्धा की नियुक्ति करनी चाहिये ॥ ३२ ॥

धन्विनो रक्षणार्थाय चर्मिणन्तु नियोजयेत् ।

स्वमन्त्रैः शस्त्रमभ्यर्च्य शास्त्रान्त्रैलोक्यमोहनं ।।

यो युद्धे याति स जयेदरीन् सम्पालयेद्भुवं ।।३३ ।।

जो प्रत्येक शस्त्र का उसके अपने मन्त्रों से पूजन करके त्रैलोक्यमोहन- कवच का पाठ करने के अनन्तर युद्ध में जाता है, वह शत्रुओं पर विजय पाता और भूतल की रक्षा करता है। (पाठान्तर के अनुसार शत्रुओं पर विजय पाता और उन्हें निश्चय ही मार गिराता है।) ॥ ३३ ॥

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये नाम द्विपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'धनुर्वेद का कथन' नामक दो सौ बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २५२ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 253

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