कामकलाकाली खण्ड पटल ८
महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल ८
में - देवी ने अन्य रहस्यों के बारे में प्रश्न किया। महाकाल ने कहा कि जो
षोढ़ान्यास मै बतलाऊँगा वह अत्यन्त गोपनीय है। इस न्यास की महिमा के सन्दर्भ में
कहा गया कि पौरव वृहदश्व आदि पैंतीस राजाओं ने इस न्यास का अनुष्ठान कर
सप्तद्वीपेश्वरत्व और चक्रवर्त्तित्व प्राप्त किया था। षोढ़ान्यास की उत्पत्ति की
मूलभूत त्रिपुरासुर की कथा का वर्णन किया गया है । सङ्क्षेप में वह इस प्रकार है -
इन्द्र त्रिपुरासुर के संहार के लिये रुद्र की शरण में गये । इस कार्य के लिये
विशिष्ट रथ का निर्माण हुआ। तत्पश्चात् देवी ने शिव को षोढान्यास का उपदेश दिया ।
इसी क्रम में षोढान्यास के ऋषि आदि का नाम उद्दिष्ट कर उन न्यासों का नामकथन किया
गया है। फिर न्यास की विधि बतलायी गयी है । इसके बाद प्रथम नृसिंह न्यास के ऋषि
आदि एवं उसकी विधि का वर्णन कर नृसिंह भगवान के इक्यावन नामों का निर्वचन इस पटल
में प्रस्तुत है। नरसिंह के विस्तृत रूप का ध्यान बतलाने के बाद भैरवन्यास की
चर्चा की गयी है। भैरव के भी इक्यावन नाम हैं। उनके ध्यान का भी वर्णन किया गया
है। पुनः कामकलान्यास तथा कामदेवन्यास की चर्चा की गयी है। कामदेव के इक्यावन नाम व
उनके ध्यान का वर्णन किया गया है।
महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल ८
Mahakaal samhita kaam kalaa kaali khanda patal
8
महाकालसंहिता कामकलाकालीखण्ड: अष्टमः पटलः
महाकालसंहिता कामकलाखण्ड अष्टम पटल
महाकालसंहिता कामकलाकालीखण्ड आठवां पटल
महाकालसंहिता
कामकलाखण्ड:
(कामकलाकालीखण्ड:)
अष्टमः पटल:
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - षोढान्यासस्यावतरणम्
देव्युवाच-
महायोगिन् महाकाल कलानिधिविभूषित ।
सर्वज्ञ सर्वलोकेश धूर्जटे
भक्तवत्सल ॥ १ ॥
त्वत्प्रसादादिदं सर्वं प्रयोगं
कामकालिकम् ।
अश्रौषं सर्वमेवाहमप्रमत्तेन चेतसा
॥ २ ॥
अन्यद् रहस्यं यद्यत् स्यात्
तच्चापि कथय प्रभो ।
आकर्णयन्त्याश्चेतो मे न
तृप्तिमधिगच्छति ॥ ३ ॥
देव्या रहस्यं यत् किञ्चिदेतद्
व्यावर्तते विभो ।
तत्तत् सर्वमशेषेण कथय त्वं दयानिधे
॥ ४ ॥
छह प्रकार का न्यास-
देवी ने कहा- हे महायोगिन् ! महाकाल ! कलानिधि ( = चन्द्रमा) से विभूषित !
सर्वज्ञ! समस्त लोकों के स्वामी! धूर्जटे! भक्तवत्सल ! आपकी कृपा से मैंने
कामकलाकाली का समस्त प्रयोग ध्यान लगा कर सुना । हे प्रभो! अन्य जो-जो रहस्य हैं
उसे भी बतलाइये। यह सुनती हुई मेरा चित्त तृप्त नहीं होता । हे विभो! देवी का जो
रहस्य व्यावर्त्तित होता रहता है। हे दयानिधे! वह सब पूर्णतया बतलाइये ॥ १-४ ॥
महाकाल उवाच-
साधु देवि वरारोहे धन्यासि त्वं न
संशयः ।
शृण्वन्त्या अपि ते
यस्माच्छुश्रूषानुक्षणं भवेत् ॥ ५ ॥
चेतसा भक्तियुक्तेन
शुश्रूषुर्योऽनसूयकः ।
तस्मै रहस्यं नाचष्टे यः स
पापकृदग्रणीः ॥ ६ ॥
तस्मात् तव प्रवक्ष्यामि रहस्यं
यद्धि वेद्म्यहम् ।
भक्तिश्रद्धापरायास्ते नाकथ्यं
विद्यते मम ॥ ७ ॥
महाकाल ने कहा- हे देवि ! हे
वरारोहे! तुम धन्य हो इसमें संशय नहीं है । क्योंकि सुनने वाली तुम्हारे (मन मे)
प्रतिक्षण सुश्रूषा होती रहती है। जो भक्तियुक्त चित्त से सुनने की इच्छा वाला है,
अनसूयक है, मैं उसका ( रहस्य बतलाता हूँ) और
जो पापियों में अग्रणी है उसको रहस्य नहीं बतलाता । इस कारण जो रहस्य मैं जानता
हूँ वह तुमको बतलाऊँगा । भक्तिश्रद्धापरायण तुम्हारे लिये मेरे पास कुछ भी अकथ्य
नहीं है ॥ ५-७ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - वक्ष्यमाणस्य
षोढान्यासस्य गोपनीयत्वस्य महत्त्वातिशयस्य चाभिधानम्
न चाख्येयं त्वयान्यस्य प्राणेषु
विगलत्स्वपि ।
रहस्यमेतद् देवानां
सर्वसिद्धिमभीप्सताम् ॥ ८ ॥
न कामकालिको योगो न विधानं शिवाबलेः
।
नान्यप्रयोगो न जपो न होमो न च
पूजनम् ॥ ९ ॥
वक्ष्यमाणरहस्यस्य सहस्रांशं न
चार्हति ।
सिद्धिमीयुः पुरैतस्याः प्रसादात्
पार्थिवर्षयः ॥ १० ॥
षोढान्यास की गोपनीयता और
महत्ता - प्राणसङ्कट होने पर भी तुम किसी और को मत
बतलाना । समस्त सिद्धियों को चाहने वाले देवताओं के लिये भी यह रहस्य है । कामकला
योग,
शिवाबलि का विधान अन्य प्रयोग, जप, होमपूजन – ये सब वक्ष्यमाण रहस्य के बराबर नहीं है।
राजा और ऋषि लोग इसकी कृपा से पूर्वकाल में सिद्धि प्राप्त किये ॥ ८-१० ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - प्रवर्तकतया
षोढान्यासेन प्राप्तसिद्धीनां राज्ञामनुकीर्तनम्
पौरवो बृहदश्वश्च सोमदत्तो बृहद्रथः
।
अजमीढः कार्तवीर्यो भद्रश्रेण्यः
पुरूरवाः ॥ ११ ॥
पृथुर्गयो रन्तिदेवो मान्धाता नहुषो
रघुः ।
विदूरथश्च भरतो दिवोदासः प्रतर्दनः
॥ १२ ॥
कृशाश्वो यमदग्निश्च जैगीषव्यश्च
देवलः ।
पैठीनसिर्वीतहव्यः कश्यपो
भृगुरङ्गिराः ॥ १३ ॥
संवर्तश्च वशिष्ठोऽत्रिर्व्यासः
शातातपस्तथा ।
उद्दालको भरद्वाजो जाबालो
जैमिनिस्तथा ॥ १४ ॥
सप्तद्वीपेश्वरत्वं हि
चक्रवर्तित्वमेव च ।
प्रापुः पूर्वे
महीपालाश्चिरजीवित्वमप्यलम् ॥ १५ ॥
योगसिद्धिं तथाप्यन्ये तपस्यां
सर्वसाधिकाम् ।
शापानुग्रहसामर्थ्यं प्राप्तवन्तो
महर्षयः ॥ १६ ॥
कथयामि तमेवाहं षोढान्यासं
शुचिस्मिते ।
त्रैलोक्याधिपतित्वं हि
यत्प्रसादात् करे स्थितम् ॥ १७ ॥
षोढान्यास से सिद्धि
प्राप्त करने वाले राजा और ऋषिगण - पौरव (=
युधिष्ठिर) वृहदश्व सोमदत्त वृहद्रथ अजमीढ सहस्रार्जुन भद्रश्रेण्य पुरूरवा पृथु
गय रन्तिदेव मान्धाता नहुष रघु विदूरथ भरत दिवोदास प्रतर्दन कृशाश्व यमदग्नि
जैगीषव्य देवल पैठीनसि वीतहव्य कश्यप भृगु अङ्गिरा संवर्त्त वशिष्ठ अत्रि व्यास
शातातप उद्दालक भरद्वाज जाबाल जैमिनि में से सभी राजा सप्तद्वीप के स्वामी और
चक्रवर्ती होते चिरञ्जीवी हुए । अन्य ऋषि लोग सर्वसाधिका तपस्या करने का सामर्थ्य,
शाप देने और उसे वापस लेने का सामर्थ्य प्राप्त किये । हे शुचिस्मिते!
मैं उस षोढान्यास को तुमको बतलाऊँगा जिसकी कृपा से त्रैलोक्य का स्वामित्व हस्तगत
हो जाता है ।। ११-१७ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - षोढान्यासोद्भवमूलतया
त्रिपुरासुरकथाभिधानम्
ताराक्षः कमलाक्षश्च विद्युन्माली
तथैव च ।
एते ह्यासन् कृतयुगे दैतेया
भ्रातरस्त्रयः ॥ १८ ॥
तेऽतप्यन्त तपो घोरं दिव्यं
वर्षायुतं प्रिये ।
ततः प्रजापतिस्तेभ्यो वरं
सम्प्रार्थितो ददौ ॥ १९ ॥
वब्रुर्वरद्वयं दैत्यास्ते
शौर्यमदगर्विताः ।
एकं त्वेषामवध्यत्वं सर्वभूतेभ्य
उत्थितम् ॥ २० ॥
द्वितीयं योजनानां
त्रित्रिलक्षान्तरसंस्थितम् ।
त्रयाणां त्रिपुरं भूयाद्
दुर्लङ्घ्यं त्रिदशैरपि ॥ २१ ॥
वरं दत्वावदद् धाता सर्वे शृणुत
पुत्रकाः ।
सर्वप्रकारैः कस्यापि नावध्यत्वं
जगत्त्रये ॥ २२ ॥
एकेनापि प्रकारेण घटमानेन सर्वथा ।
सर्वे स्वकीयं निधनमङ्गीकुरुत
दानवाः ॥ २३ ॥
त्रिपुर राक्षस की कथा
- सत्ययुग में दिति के पुत्र ताराक्ष कमलाक्ष और विद्युन्माली नामक तीन भाई थे। हे
प्रिये उन्होंने दश हजार वर्षों तक घोर तपस्या की । इसके बाद प्रार्थना किये जाने
पर प्रजापति ने उन्हें वर दिया। शूरता और मद से गर्वित वे दैत्य दो वर माँगे। एक
तो यह कि वे तीनों समस्त प्राणियों के अवध्य हो जाँय । दूसरा कि तीन-तीन लाख योजन
के अन्तर से उनके तीन पुर हो जाँय जिन्हें देवता लोग भी न जीत सकें । वर देने के
बाद ब्रह्मा बोले- हे समस्त प्रिय पुत्रों, सुनो!
तीनो लोक में सब प्रकार से कोई भी अवध्य नहीं है। तुम सब दानव घटमान किसी भी एक
प्रकार से अपनी मृत्यु को स्वीकार करो ॥ १८-२३ ॥
ते विचार्यावदन् सर्वे शरेणैकेन यः
क्षणात् ।
दहेत् त्रयाणां त्रिपुरं स नो
मृत्युर्भविष्यति ॥ २४ ॥
तथेत्युक्त्वा ययौ वेधा ब्रह्मलोकं
सुरैर्वृतः ।
तेऽपि सर्वे तथा चक्रुर्यथा पूर्वं
विचारितम् ॥ २५ ॥
ताराक्षस्य तु सौवर्णं पुरं
सर्वोपरि स्थितम् ।
योजनायुतविस्तीर्णं तावदेवायतं
प्रिये ॥ २६ ॥
राजतं कमलाक्षस्य योजनायुतविस्तृतम्
।
दिक्षु तादृशविस्तीर्णं
विद्युन्मालिन आयसम् ॥ २७ ॥
त्रित्रिलक्षान्तरं तेषां पुरं
गगनसीमनि ।
प्राकारपरिखोपेतं चयाट्टालकशोभितम्
॥ २८ ॥
ध्वजगोपुरनिःश्रेणीपताकायन्त्रशोभितम्
।
खड्गप्रासाङ्कुशाकिङ्कगदाकार्मुकधारिभिः॥
२९ ॥
पाशशूलभुशुण्ड्यष्टिचक्रमुद्गरपाणिभिः
।
त्रिंशन्निखर्वषड्वृन्दनवत्यर्बुदकोटिभिः॥
३० ॥
एकैकं पुरमाक्रान्तं
दानवैर्युद्धदुर्मदैः ।
उन सबों ने विचार कर कहा कि जो एक
ही बाण से एक क्षण में तीनों पुरों को जला दे वही हमारी मृत्यु का कारण बने । 'तथास्तु' ऐसा कह कर देवताओं से आवृत ब्रह्मा
ब्रह्मलोक को चले गये। वे सब भी वैसा ही किये जैसा कि उन्होंने पहले से विचार किया
था। ताराक्ष का सोने का नगर सबसे ऊपर स्थित था। वह दश हजार योजन और उतना ही चौड़ा
था। कमलाक्ष का पुर चाँदी का तथा दश हजार योजन विस्तृत था । विद्युन्माली का पुर
लोहे का बना हुआ था और उतना ही विस्तृत था । उनका पुर तीन-तीन लाख योजन के अन्तराल
पर (ऊपर नीचे स्थित था) । उसमें चारदीवारी खाईं और अट्टलिकायें थीं। उसमें ध्वज
गोपुर निःश्रेणी (= सीढ़ी) पताका और यन्त्र स्थापित थे। एक-एक पुर खड्ग प्रास
अङ्कुश अकिङ्क गदा और धनुष धारण करने वाले हाथ में पाश शूल भुसुण्डी (=बन्दूक)
अर्ष्टि चक्र और मुद्गर धारण किये हुए तीस निखर्व छह वृन्द नब्बे अरब करोड़
युद्धदुर्मद दानवों से मरा था ।। २४-३१ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - देवानां
त्रिपुरासुरभीत्यभिधानम्
दृष्ट्वा तु तादृशीमृद्धिं देवाः
सर्वे सवासवाः ॥ ३१ ॥
पलायाञ्चक्रिरे केचित् केचिच्चापि
तमभ्ययुः ।
केचिच्च
युयुधुर्देवास्तत्यजुस्त्रिदिवं परे ॥ ३२ ॥
केचित् समुद्रं विविशुः केचिच्च
गिरिगह्वरम् ।
जहुः केचिद् भिया प्राणानगुः
केचिच्चतुर्दिशम् ॥ ३३ ॥
जब इन्द्रसहित सब देवता उस प्रकार
की समृद्धि को देखे तो कुछ देवतायें वहाँ से भाग खड़ी हुई । कुछ देव उसके पास चले
गये। कुछ देवता उससे युद्ध करने लगे और कुछ ने स्वर्ग का त्याग कर दिया। कुछ
समुद्र में प्रविष्ट हो गये और कुछ पर्वत की गुफाओं में घुस गये। कुछ ने डर के
मारे प्राण त्याग दिया और कुछ चारों दिशाओं में चल गये ॥ ३१-३३ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - त्रिपुरासुरसंहारायेन्द्रस्य
रुद्रशरणत्वाभिधानम्
दृष्ट्वा सुराणामधिपो देवानामीदृशीं
दशाम् ।
रुद्रं जगाम शरणं पुरोधाय
प्रजापतिम् ॥ ३४ ॥
दण्डवत् प्रणता भूत्वा ते देवाः
सपितामहाः ।
ऊचुः प्राञ्जलयो भूत्वा
पिनाकिनमुमापतिम् ॥ ३५ ॥
तपस्यया वरं धातुः सम्प्राप्य
त्रिपुरासुराः ।
बाधन्ते ऽस्मान् महेशानान्
शैलगह्वरगानपि ॥ ३६ ॥
त्वत्तः शरण्यो नास्माकं विद्यते
देव कश्चन ।
अतो निवेदयामस्ते प्रमथाधिपते प्रभो
॥ ३७ ॥
देवाङ्गनाः समाकृष्य नयन्ति स्वपुरं
प्रति ।
निरध्वरं जगज्जातं
निष्कल्पतरुनन्दनम् ॥ ३८ ॥
निर्मनुष्या मही सर्वा
निर्देवाप्यमरावती ।
निस्तोया निम्नगा जाता नीरत्ना
सागरा अपि ॥ ३९ ॥
त्रिपुरसंहार के लिये
इन्द्रसहित देवताओं का प्रयास - देवताओं के
स्वामी इन्द्र ने जब देवताओं की यह दशा देखी तो ब्रह्मा को आगे कर रुद्र की शरण
में गये । पितामह के साथ वे देवता दण्डवत् प्रणाम कर पिनाकी उमापति से हाथ जोड़कर
बोले—तपस्या के द्वारा विधाता से वर प्राप्त कर त्रिपुरासुरगण शैल गह्वर में
स्थित भी हम देवताओं को पीड़ा दे रहे हैं। हे देव ! हम लोगों के लिये आपसे बढ़कर
शरणदाता कोई नहीं है । इसलिये हे प्रमथाधिप प्रभो! हम आपसे निवेदन करने आये हैं ।
(वे राक्षस) देवताओं की स्त्रियों को खींच कर अपने पुर में ले जाते हैं । संसार
यज्ञविहीन और नन्दन कानन कल्पवृक्ष से रहित हो गया है। सारी पृथिवी मनुष्यों से
रहित और अमरावती देवविहीन हो गयी है। नदियों में पानी और समुद्र में रत्न नहीं हैं
।। ३४-३९ ॥
पादपानां कोटरेषु कन्दरेषु
महीभृताम् ।
लीना भूत्वा वयं सर्वे
तिष्ठामस्तद्भयार्दिताः ॥ ४० ॥
तेषां हि शास्ता त्रैलोक्ये
त्वदन्यो नास्ति कश्चन ।
तान् निहत्यासुरान् स्वर्गे
पुनरस्मान् निवेशय ॥ ४१ ॥
इत्युक्तः प्रणतैः सर्वैर्विहस्य
वृषभध्वजः ।
प्रत्युवाच सुरान् सर्वान् रथो मे
कल्प्यतामिति ॥ ४२ ॥
ततो ब्रह्माब्रवीत्तत्र स्मितं
कुर्वन् महेश्वरम् ।
निर्मातव्यो रथो देव
कैस्त्वद्रारोहणक्षमः ॥ ४३ ॥
त्ववोढरथनिर्माणे सामर्थ्यं कस्य
विद्यते ।
स्वयोग्यं स्यन्दनं चास्त्रं
स्वयमेवोपकल्पय ॥ ४४ ॥
इत्युक्तो ब्रह्मणा शम्भुरवदद्
धर्षयन् सुरान् ।
हम सब उनके भय से त्रस्त होकर
वृक्षों के कोटरों तथा पर्वतों की गुफाओं में रह रहे हैं । त्रिलोक में उनको दण्ड
देने में समर्थ आपके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं है। उन राक्षसों को मार कर स्वर्ग
में हम लोगों का पुनः प्रवेश कराइये। प्रणत उन लोगों के द्वारा ऐसे कहे गये निवेदन
पर भगवान् रुद्र ने हँस कर उन सब देवताओं से कहा- मेरे लिये रथ तैयार करो। इसके
बाद ब्रह्मा ने मुस्कराते हुए महेश्वर से कहा- हे देव! आपके आरोहण के लिये सक्षम
रथ का निर्माण कौन कर सकता है? आपको ढोने
वाले रथ के निर्माण में किसका सामर्थ्य है? अपने योग्य रथ और
अस्त्र का निर्माण आप स्वयं कीजिये । ब्रह्मा के द्वारा ऐसा कहे गये शिव ने
देवताओं को प्रसन्न करते हुए कहा ।। ४०-४५ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - त्रिपुरासुरसंहाराय
रुद्रार्थं तदयुद्धानुरूपरथस्य निर्माणाभिधानम्
चत्वारो वाजिनो वेदाः सम्पूर्णा
मेदिनी रथः ॥ ४५ ॥
सूर्याचन्द्रमसौ चक्रे कूबरो
गन्धमादनः ।
विन्ध्यो गिरिर्नाभिरस्तु
कैलासोऽक्षत्वमेव तु ॥ ४६ ॥
मेरुर्मे ध्वजदण्डः स्यात्
सारथिर्भगवान् विधिः ।
प्रणवस्तु प्रतोदः स्यात् प्रकाशानि
च रश्मयः ॥ ४७ ॥
धनुर्मे मन्दरो भूयात् शिञ्जिनी
बासुकिर्भवेत् ।
विष्णुः शरो मे भवतु वाजे
वायुर्विशत्वपि ॥ ४८ ॥
यमो मृत्त्युश्च कालश्च फली मध्ये
विशन्तु च ।
वासवः शरपृष्ठे स्यात्
कुबेरवरुणावुभौ ॥ ४९ ॥
भवतः पुङ्खसंस्थानौ लस्तके
सर्वदेवताः ।
नासत्यावटनीसंस्थौ यज्ञाः सर्वे
पदातयः ॥ ५० ॥
स्वेच्छयान्यच्च सकलं कल्पयामास
शङ्करः ।
स्वयोग्यं कवचं शम्भुरलब्ध्वा
चिन्तितोऽभवत् ॥ ५१ ॥
निमील्य त्रीणि नेत्राणि चिरं तस्थौ
जगत्पतिः ।
अथ ध्यानगतो भूत्वा तुष्टाव
जगदम्बिकाम् ॥ ५२ ॥
स्तुत्वा सम्प्रार्थयामासाभेद्यं कवचमात्मनः
।
रथ-निर्माण-
(भगवान् शिव ने विचार किया) चारो वेद घोड़े बनें । पृथ्वी रथ हो । सूर्य और
चन्द्रमा पहिये तथा गन्धमादन पर्वत कूबर ( = जुआ) हो जाय । विन्ध्याचल नाभि और
कैलास पर्वत धुरा बने। सुमेरु पर्वत ध्वजा का दण्ड बन जाय और ब्रह्मा सारथि बन
जायें। प्रणव कोड़ा और प्रकाश लगाम बन जाय । मन्दराचल मेरा धनुष वासुकि नाग
प्रत्यञ्चा बने । विष्णु बाण बनें । वायु बाण का पक्ष बन जाय । यम स्वयं मृत्यु और
काल ये (बाण के) फली (= बाण का आगे का नुकीला लोहा) में घुस जाँय । इन्द्र शर के
पृष्ठ में स्थित रहें तथा कुबेर और वरुण पुंरव बने । लस्तक (= धनुष के मध्य भाग)
में सभी देवतायें स्थित रहें। दोनों नासत्य अटनी (धनुष के दोनों कोणों) में स्थित
रहें । समस्त यज्ञ पदाति सेना बन जाय । अन्य सब कुछ की कल्पना महेश्वर ने अपनी
इच्छानुसार की। किन्तु अपने योग्य कवच को न पाकर शम्भु चिन्ता में पड़ गये ।
तदनन्तर जगत्पति (भगवान् शिव ) अपने नेत्रों को बन्द कर बहुत देर तक बैठे रहे।
इसके बाद ध्यानस्थ होकर उन्होंने स्वयं जगदम्बिका की स्तुति की। स्तुति करने के
बाद अपने अभेद्य कवच के लिये उनसे प्रार्थना की । ४५-५३ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - शिवं
प्रति षोढान्यासस्य देव्योपदेशः
ततः सोपदिदेशास्मै षोढान्यासं
महात्मने ॥ ५३ ॥
स्वीयं च कवचं देवी कवचत्वेन तं ददौ
।
तेनामुक्तो हरो भूत्वा जगाम
त्रिपुरं प्रति ॥ ५४ ॥
अस्त्रं पाशुपतं चापि सन्धाय
वृषभध्वजः ।
पुराणि त्रीणि दैत्यानां विभेदैकेन
पत्रिणा ॥ ५५ ॥
क्षणेन भस्मसाद् भूता जग्मुर्दैत्या
यमालयम् ।
तमेव षोढान्यासं ते प्रवदामि वरानने
॥ ५६ ॥
यदेकवारं कृत्वैव भवेत्
त्रिजगतीपतिः ।
प्राणव्ययेऽपि नान्येषां कथनीयं
कदाचन ॥ ५७ ॥
देवी का न्यासोपदेश-
इसके बाद उन (जगदम्बिका) ने इन महात्मा (शिव) को षोढा न्यास का उपदेश दिया तथा
अपना कवच स्वयं कवच के रूप में उनको प्रदान किया। उससे संयुक्त होकर भगवान् रुद्र
त्रिपुर की ओर चल पड़े। वृषभध्वज ने पाशुपत अस्त्र का सन्धान किया और एक ही बाण से
दैत्यों के तीनो पुरों का भेदन कर दिया। एक ही क्षण में भस्म होकर दैत्य यमालय को
चले गये । हे वरानने! इसी षोढा न्यास को मैं तुमको बतला रहा हूँ। जिसको केवल एक ही
बार करने से (कर्ता) तीनों लोक का स्वामी हो जाता है। प्राण देकर भी इसे किसी को
नहीं बतलाना चाहिये ॥ ५३-५७ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - षोढान्यासस्य
ऋष्यादिनिर्देश:
षोढान्यासस्यास्य
ऋषिस्त्रिपुरारिर्महेश्वरः ।
छन्दश्च जगती प्रोक्तं देवतेयं
प्रकीर्तिता ॥ ५८ ॥
कान्दर्पार्णं तु बीजं स्यात्
क्रोधः कीलकमुच्यते ।
मायाबीजं च शक्तिः स्यात् कामना
यद्यदिष्यते ॥ ५९ ॥
षोढा न्यास के ऋषि आदि
- इस षोढान्यास के ऋषि त्रिपुरारि महेश्वर हैं। छन्द जगती देवता यह (=कामकला काली)
है। क्लीं बीज, हूँ कीलक, ह्रीं शक्ति है । कामना जो-जो वाञ्छित हो । ५८-५९ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - षण्णां
न्यासानां नामनिर्देश:
आदौ नृसिंहन्यासः स्याद् द्वितीये
भैरवस्य च ।
तृतीयेऽपि च विज्ञेयो न्यासः
कामकलाभिधः ॥ ६० ॥
चतुर्थे डाकिनीन्यासः शक्तिन्यासश्च
पञ्चमे ।
षष्ठेऽपि देवीन्यासः स्यादथैतस्य
विधिं शृणु ॥ ६१ ॥
न्यासों के नाम
- पहला नृसिंहन्यास कहा गया । दूसरा भैरवन्यास और तीसरा कामकलान्यास बतलाया गया
है। चौथा डाकिनीन्यास और पाँचवाँ शक्तिन्यास कहा गया। इसके बाद छठाँ देवी न्यास
बतलाया गया है। अब इसकी विधि को आप मुझसे सुनो ॥ ६०-६१ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - षोढान्यासस्य
विध्यभिधानम्
वर्गाः कचटतपाः पञ्च षष्ठो
यरलवास्तथा ।
सप्तमः शषसाश्चापि हळक्षाश्चाष्टमः
प्रिये ॥ ६२ ॥
विधि
- हे प्रिये! कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग और पवर्ग ये पाँच वर्ग है। य र ल व
छठाँ वर्ग, श ष स सातवाँ और ह ळ क्ष आठवाँ वर्ग है ॥ ६२ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - तत्र
प्रथमस्य नृसिंहन्यासस्य ऋष्यादिनिर्देश:
ऋषिर्नृसिंहन्यासस्य हयग्रीवः
प्रकीर्तितः ।
गायत्रीच्छन्द इत्युक्तं
नरसिंहोऽस्य देवता ॥ ६३ ॥
बीजानि वर्णा विज्ञेयाः स्वराः षोडश
शक्तयः ।
विनियोगो नृसिंहस्य न्यास एवेति
सम्मतः ॥ ६४ ॥
षड्भिर्दीधैः क्षबीजस्य
कराङ्गन्यासमाचरेत् ।
पुनस्तद्वद् वरारोहे तैरेव च
षडङ्गकम् ॥ ६५ ॥
नृसिंहन्यास
- नृसिंहन्यास के ऋषि, हयग्रीव, छन्द गायत्री, देवता नरसिंह बीज व्यञ्जनवर्णसमूह,
शक्तियाँ सोलह स्वरवर्ण हैं। नृसिंहन्यास में इसका विनियोग होता है।
छह दीर्घ क्ष वर्णों से न्यास करना चाहिये। इसका स्पष्ट स्वरूप इस प्रकार है- ( ॐ
क्षां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः, ॐ क्षीं तर्जनीभ्यां स्वाहा,
ॐ क्षं मध्यमाभ्यां वषट्, ॐ क्षैं
अनामिकाभ्यां हुम्, ॐ क्षौं कनिष्ठाभ्यां वौषट्, ॐ क्षः करतल करपृष्ठाभ्यां फट् ) इस प्रकार कराङ्गन्यास कर हे वरारोहे!
उन्हीं से षडङ्गन्यास भी करना चाहिये । ( वह इस प्रकार है - ॐ क्षां हृदयाय नमः,
ॐ क्षीं शिरसे स्वाहा, ॐ क्षं शिखायै वषट्,
ॐ क्षैं कवचाय हुम्, ॐ क्षौं नेत्रत्रयाय
वौषट्, ॐ क्षः अस्त्राय फट् ) ॥
६३-६५ ॥
सबिन्दुर्वर्गमध्यस्थः कवर्गों
बिन्दुसंयुतः ।
क्रमेणानेन देवेशि (वर्णाः)
कचवर्गयोः ॥ ६६ ॥
अष्टावृत्त्या भवेन्
न्यासस्ततश्चापि निबोध मे ।
सबिन्दवो हलः सर्वे सृष्टिमार्गेण
चैककम् ॥ ६७ ॥
त एव तादृशा ज्ञेयाः पुनः
संहारवर्त्मना ।
सृष्टिस्थितिभ्यामन्तेऽपि न्यासः
सम्पूर्ण उच्यते ॥ ६८ ॥
अनुस्वार के साथ वर्गों के मध्य
वर्ण (गं जं डं दं बं रं षं) और बिन्दु से संयुक्त कवर्ग (= कं खं गं घं ङं),
हे देवेशि ! इसी क्रम से कवर्ग और चवर्ग के वर्ण (=कं खं गं घं ङं
चं छं जं झं ञं) इनकी आठ आवृत्ति से (आठ अङ्गों शिर, नेत्र,
मुख, भुजा, नाभि,
जानु, पाद और सर्वाङ्ग ? का) न्यास होता है । इसके बाद मुझसे जानो कि बिन्दु के साथ समस्त हल्
(=व्यञ्जनों, यथा कं खं गं घं ङं शं षं सं हं क्षं) का
सृष्टिमार्ग से अर्थात् 'क' से लेकर 'क्ष' तक फिर संहार से (क्षं हं सं षं शं..... ङं घं
गं खं कं) न्यास पुनः सृष्टि न्यास और स्थितिन्यास इस प्रकार चार न्यास सम्पूर्ण
न्यास कहलाता है ॥ ६६-६८ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - एकपञ्चाशन्नरसिंहनामानि
ज्वालामाली करालश्च
भीमश्चैवापराजितः ।
क्षोभणश्च तथा सृष्टिः स्थितिः
कल्पान्त इत्यपि ॥ ६९ ॥
अनन्तश्च विरूपश्च व (ज्र)
युधपरापरौ ।
प्रध्वंसनश्च विज्ञेयो विश्वमर्दन
इत्यपि ॥ ७० ॥
उग्रो भद्रश्च मृत्त्युश्च सहस्रभुज
इत्यपि ।
विद्युज्जिह्नो घोरदंष्ट्रो
महाकालाग्निरेव च ॥ ७१ ॥
मेघनादश्च विकटस्तथा पिङ्गजटोऽपि च
।
प्रदीपो विश्वरूपश्च विद्युद्दशन एव
च ॥ ७२ ॥
विदारी विक्रमश्चापि प्रचण्डः
सर्वतोमुखः ।
वज्रो दिव्यश्च भोगश्च मोक्षो
लक्ष्मीरपि क्रमात् ॥ ७३ ॥
विद्रावणः कालचक्रः कृतान्तस्तप्तहाटकः
।
भ्रामकश्च महारौद्रो विश्वान्तक
भयङ्करौ ॥ ७४ ॥
प्रतप्तो विजयश्चापि
सर्वतेजोमयस्तथा ।
ज्वालाजटालश्च खरनखरो नाददारुणः ॥
७५ ॥
निर्वाणनरसिंहश्चेत्येकपञ्चाशदीरिताः
I
नरसिंह के इक्यावन नाम-ज्वालामाली,
कराल, भीम, अपराजित,
क्षोभण, सृष्टि, स्थिति, कल्पान्त, अनन्त, विरूप,
वज्रायुध, परापर, प्रध्वंसन,
विश्वमर्दन, उग्र, भद्र,
मृत्यु, सहस्रभुज, विद्युज्जिह,
घोरदंष्ट्र, महाकालाग्नि, मेघनाद, विकट, पिङ्गजट,
प्रदीप्त, विश्वरूप, विद्युद्दशन,
विदार, विक्रम, प्रचण्ड,
सर्वतोमुख, वज्र, दिव्य,
भोग, मोक्ष, लक्ष्मी,
विद्रावण, कालचक्र, कृतान्त,
तप्तहाटक, भ्रामक, महारौद्र,
विश्वान्तक, भयङ्कर, प्रतप्त,
विजय, सर्वतेजोमय, ज्वालाजटाल,
खरनखर, नाददारुण, निर्वाण
और नरसिंह- ये इक्यावन नाम कहे गये हैं ।
ललाट, मुखवृत्त, दक्षनेत्र, वामनेत्र,
दक्षकर्ण, वामकर्ण, दक्ष
नासापुट, वाम नासापुट, वामगण्ड,
ओष्ठ, अधर, ऊर्ध्वदन्त,
अधोदन्त, मूर्धा (= ब्रह्मरन्ध्र), जिह्वा, दक्षिणभुजमूल, दक्षिण
कूर्पर, दक्ष मणिबन्ध, दक्षाङ्गुलीमूल,
दक्षाङ्गुल्यग्र, वामभुजमूल, वामकूर्पर, वाममणिबन्ध, वामाङ्गुलीमूल,
वामाङ्गुल्यग्र, दक्षिणपादमूल, दक्षिण जानुमध्य, दक्षिण गुल्फ, दक्षपादाङ्गुलीमूल, दक्षपादाङ्गुल्यग्र वामपादमूल,
दक्षपार्श्व, वामपार्श्व, पृष्ठ, नाभि, जठर, हृदय, दक्षअंस, ककुत्, वामअंस, हृदयादि दक्षकर, हृदयादि
वामकर, हृदयादि दक्षपाद, हृदयादि वामपाद,
हृदयाद्युदर, हृदयादि मुख वाला व्यापक - इसके
लिये देखें- गुह्यकाली खण्ड ( १।६।५२३-५२९) ॥ ६९-७६ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - नरसिंहध्यानम्
अथ ध्यानं प्रवक्ष्यामि यत् कृत्वा
न्यासमाचरेत् ॥ ७६ ॥
उद्यन्मार्त्तण्डकोट्यंशुसमारुणतनुप्रभाः
।
उलूकाकारपृथुलनेत्रत्रितयभूषिताः ॥
७७ ॥
विदारिसृक्क
निर्गच्छद्दंष्ट्राचन्द्रकलान्विताः ।
विदीर्णविकरालास्यनिर्यज्जिह्वाविराजिताः
॥ ७८ ॥
विमुक्तचामराकारसटाकेशरमण्डिताः।
आबद्धयोगपट्टान्ता
जानुन्यस्तकराम्बुजाः ॥ ७९ ॥
कोटिकल्पान्तार्कसमा
भीमदंष्ट्राट्टहासिनः ।
कौस्तुभोद्धासिहृदयाः श्वेतपद्मोपरि
स्थिताः ॥ ८० ॥
किरीटहारकेयूरकिङ्किण्यङ्गदशोभिताः।
मुखैः कल्पान्तकालाग्निं वमन्तः
सर्वतोमुखाः ॥ ८१ ॥
नरसिंह का ध्यान
- अब ध्यान को बतलाऊँगा जिसको करने के बाद (साधक) न्यास करे। देवी के चारो ओर
नरसिंह विराजमान हैं। उनके शरीर की कान्ति उदीयमान करोड़ों सूर्य की किरणों के
समान अरुण है। सबके तीनों नेत्र उल्लू के आकार की भाँति पृथुल हैं। उनके खुले हुए
होठों के बीच से दाँतरूपी चन्द्रमा की किरणें प्रकाशित हो रही हैं। खोले गये
विकराल मुखों से जिह्वायें बाहर निकली हुई हैं। चामर के आकार की खुली हुई सटाओं के
केशर से वे अलङ्कृत हैं । वे योगपट्ट बाँधे हुए तथा हाथों को घुटनों पर रखे हुए
हैं। करोड़ों कल्पान्त सूर्य के समान (उत्तापयुक्त), भयङ्कर दाँतों से अट्टहास करने वाले हैं। उनके हृदय पर कौस्तुभमणि चमक रही
है और स्वयं वे सब श्वेत कमल पर बैठे हुए हैं। किरीट हार केयूर किङ्किणी अङ्गद
पहने हुए हैं। मुखों से कल्पान्त कालाग्नि उगल रहे वे सर्वतोमुख हैं ॥ ७६-८१ ॥
करालभृकुटीदृष्टिसन्त्रासितजगत्त्रया:
।
नखनिर्भिन्नदैत्येन्द्ररुधिरोक्षितबाहवः
॥ ८२ ॥
विपाटितान्त्रनिर्गच्छवसालिप्ताङ्ककुक्षयः।
अस्त्रैर्विभूषितान् दीर्घान्
भुजान् षोडश बिभ्रतः ॥ ८३ ॥
शरं चक्रं गदां खड्गं पाशमङ्कशमेव च
।
वज्रं विदारणं चापि दक्षिणेन
क्रमादपि ॥ ८४ ॥
धनुः शङ्खं च पद्मं च खेटकं मुशलं
तथा ।
परशुं पट्टिशं चापि विदारणमतः परम्
॥ ८५ ॥
वामेन धारयन्तस्ते
रत्नाकल्पविराजिताः ।
वामजङ्घासन्निविष्टलक्ष्मीकाः
सिद्धिदायिनः ॥ ८६ ॥
स्थिता देव्याश्चतुर्दिक्षु नरसिंहा
वरानने ।
मातृकान्याससंस्थाने न्यसेत्
साधकसत्तमः ॥ ८७ ॥
एष ते कथितो देवि नृसिंहन्यास
उत्तमः ।
विकराल भ्रुकुटिद्वय वाली दृष्टि से
तीनों संसार को भयभीत किये हुए हैं। नखों से फाड़े गये दैत्येन्द्र (= हिरण्यकशिपु)
के रक्त उनकी बाहुओं में उपलिप्त हैं। फाड़ी गयी आँतों से निकलने वाली वसा से गोद
और बगलें आलिप्त हैं। अस्त्रों से युक्त सोलह भुजाओं वे धारण किये हैं। बाण,
चक्र, गदा, खड्ग,
पाश, अङ्कुश, वज्र और
विदारण को दायें हाँथों में धारण किये हैं। धनुष, शङ्ख,
कमल खेटक, मुसल, परशु,
पट्टिश और विदारण को बायें हाथों से पकड़े हुए वे रत्नों से युक्त हैं।
वाम जङ्घा पर स्वयं लक्ष्मी को धारण किये हुए तथा सिद्धिदायक हैं। उत्तम साधक को
मातृकान्यास के संस्थान में न्यास करना चाहिए। हे देवि! यह तुम्हें उत्तम
नृसिंहन्यास बतलाया गया । ८२-८८ ।।
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - द्वितीयस्य
भैरवन्यासस्य ऋष्यादिनिर्देश:
अथातो भैरवन्यासं प्रवदामि निबोध
तम् ॥ ८८ ॥
अस्य भैरवन्यासस्य ऋषिस्तावत्
प्रकीर्तितः ।
कालाग्निरुद्रश्छन्दश्च जगती
सम्प्रकीर्तिता ॥ ८९ ॥
भैरवो देवता प्रोक्ता क्रोधबीजं च
बीजकम् ।
शक्तिरङ्कशबीजं च देवि ते
परिकीर्तितम् ॥ ९० ॥
विनियोगोऽस्य विज्ञेयो भैरवन्यास एव
हि ।
कराङ्गन्यासमेतस्य षडङ्गन्यासमेव च
॥ ९१ ॥
चण्डबीजेन कर्तव्यं दीर्धैः षड्भिः
समन्वितम् ।
भैरवन्यास
- अब इसके बाद भैरवन्यास को बतलाऊँगा । उसको जानो । इस भैरवन्यास के ऋषि
कालाग्निरुद्र हैं। छन्द जगती कही गयी है। भैरव देवता और क्रोधबीज (=हूँ) बीज कहा
गया है । शक्ति अङ्कुशबीज (=क्रों) है। भैरवन्यास में इसका विनियोग जानना चाहिये।
इसका कराङ्गन्यास और षडङ्गन्यास चण्डबीज (=खं) से करना चाहिये । वह बीज छह
दीर्घस्वरों से युक्त हो । उसका स्वरूप इस प्रकार होगा-खां खीं खूं खै खौं खः
। इन छह बीजों से पहले कराङ्गन्यास पुनः षडङ्गन्यास करना चाहिये। जैसे खां
अङ्गुष्ठाभ्यां नमः खीं तर्जनीभ्यां स्वाहा........ खः करतलकरपृष्ठाभ्यां फट् तथा
खां हृदयाय नमः खीं शिरसे स्वाहा.....खः करतल- करपृष्ठाभ्यां फट् तथा ।। ८८-९२ ।।
आदौ तारं समुल्लिख्य द्वितीयं
वाग्भवं वदेत् ॥ ९२ ॥
तृतीया तु तृतीयं स्याद्रमाबीजं
चतुर्थकम् ।
पञ्चमं शृणिमुद्दिष्टं प्रासादं
षष्ठमुच्यते ॥ ९३ ॥
सप्तमं क्रोधबीजं स्यान्महाक्रोधं
तथाष्टमम् ।
तत्तद् भैरवनामापिङऽन्तमुच्चारयेत्ततः
॥ ९४ ॥
पुनरप्यष्टबीजानि प्रतिलोमेन
चोद्धरेत् ।
हार्देन मनुना युक्तो मनुः
सर्वार्थसाधकः ॥ ९५ ॥
पूर्ववन्मातृकास्थानं सर्वत्रैव
वरानने ।
( अब भैरवमन्त्र को बतलाते हैं)
पहले प्रणव फिर वाग्भव बीज फिर तृतीया ( = ह्रीं) फिर रमाबीज चतुर्थ है । पाँचवाँ
शृणि (=क्रों) छठाँ प्रासाद (= हं) सातवाँ अक्षर क्रोध (= हूं) आठवाँ महाक्रोध
(=क्षं) है। इसके बाद तत्तद् भैरव का चतुर्थ्यन्त नाम उच्चारित होगा । ( इस प्रकार
अब तक मन्त्र का स्वरूप होगा- ॐ ऐं ह्रीं श्रीं को हौं हूं क्षं क्रोधभैरवाय )
इसके बाद पुनः उपर्युक्त आठ बीजों को विपरीत क्रम से कहना चाहिये । अन्त में हार्द
(= नमः) से युक्त होना चाहिये । ( इस प्रकार मन्त्र का पूर्ण रूप होगा - ॐ ऐं
ह्रीं श्रीं क्रों हौं हूं क्षं क्रोधभैरवाय क्षं हूं हौं क्रीं श्रीं ह्रीं ऐं ॐ
नमः) भैरव के वक्ष्यमाण इक्यावन नामों को स्थान-स्थान पर परिवर्तित करना
चाहिये। हे वरानने! मातृका का स्थान सर्वत्र पूर्ववत् रहेगा ॥ ९२- ९६ ॥
भैरवाणामथो नाम गदतो मेऽवधारय ॥ ९६
॥
क्रोधः श्मशानः कापाली कालः
कालान्तको रुरुः ।
महाघोरो घोरतर: संहारश्चण्ड इत्यपि
॥ ९७ ॥
हुङ्कारोऽनादिरुन्मत्त आनन्दस्तदनन्तरम्
।
भूताधिपः कृतान्तोऽसिताङ्गः कालाग्निरित्यपि
॥ ९८ ॥
उग्रायुधश्च वज्राङ्गः
करालस्तदनन्तरम् ।
विकरालो महाकालः कल्पान्तोऽपि ततः
परम् ॥ ९९ ॥
विश्वान्तकः प्रचण्डश्च भगमाल्युग्र
एव च ।
भूतनाथश्च भद्रश्च तथा
सम्पत्प्रदोऽपि च ॥ १०० ॥
मृत्युर्यमोऽन्तकश्चापि
ततश्चोल्कामुखः स्मृतः ।
एकपादस्तथा प्रेतो मुण्डमाली ततः
परम् ॥ १०१ ॥
वटुकः क्षेत्रपालश्च ततोऽपि च
दिगम्बरः ।
वज्रमुष्टिर्घोरनादश्चण्डोग्रोऽपि
प्रकीर्तितः ॥ १०२ ॥
सन्तापनः क्षोभणश्च ज्वालासम्वर्त्त
एव च ।
वीरभद्रस्त्रिकालाग्निः
शोषणस्त्रिपुरान्तकः ॥ १०३ ॥
भैरवा एकपञ्चाशदेते देवि प्रकीर्तितः
।
इक्यावन भैरवों के नाम-
अब भैरवों के नाम तुमको बतला रहा हूँ, सुनो।
क्रोध भैरव, श्मशान भैरव, कापाली भैरव,
काल भैरव, कालान्तक, रुरु
महाघोर, घोरतर, संहार, चण्ड, हङ्कार, अनादि, उन्मत्त, आनन्द, भूताधिप,
कृतान्त, असिताङ्ग, कालाग्नि,
उग्रायुध, वज्राङ्ग, कराल,
विकराल, महाकाल, कल्पान्त,
विश्वान्तक, प्रचण्ड, भगमाली,
उग्र, भूतनाथ, भद्र,
सम्पत्प्रद, मृत्यु, यम,
अन्तक, उल्कामुख, एकपाद,
प्रेत, मुण्डमाली, बटुक,
क्षेत्रपाल, दिगम्बर, वज्रमुष्टि,
घोरनाद, चण्डोग्र, सन्तापन,
क्षोभण, ज्वालासम्वर्त्त, वीरभद्र, त्रिकालाग्नि, शोषण
और त्रिपुरान्तक । (प्रत्येक नाम के अन्त में 'भैरव' जोड़ना चाहिये जैसा कि प्रथम चार नामों के साथ जोड़ा गया है) हे देवि! ये
इक्यावन भैरव कहे गये ॥ ९६-१०४ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - भैरवध्यानम्
ध्यानमेषां भैरवाणां कथ्यमानं मया
शृणु ॥ १०४ ॥
ज्वलद्भुतवहज्वालाश्मशानस्थलचारिणः।
पादालम्बिजटाभारा मसीपुञ्जसमप्रभाः
॥ १०५ ॥
ज्वलच्चिताकुण्डनिभलोचनत्रयभूषिताः ।
लम्बोदराः पिङ्गजटाः स्थूलाः
खर्वकलेवराः ॥ १०६ ॥
नृमुण्डमालाघटितहारयैवेयकोज्ज्वलाः ।
मज्जासृङ्मांसमेदोऽस्थिवसासम्पूरिताननाः
॥ १०७ ॥
घोरदंष्ट्रा ललज्जिह्वाः
करालमुखमण्डलाः ।
शवोपरि कृतावासा अट्टहासभयानकाः ॥
१०८ ॥
द्विशीर्षाश्च त्रिशीर्षाश्च तथा
विंशतिमौलयः ।
शतशीर्षास्त्रिपादाश्च बहुपादा
अपादकाः ॥ १०९ ॥
भैरव का ध्यान
–
अब मेरे द्वारा इन भैरवों के कथ्यमान ध्यान को सुनो। ये भैरव जलती
हुई अग्नि की ज्वाला वाले श्मशान में रहते हैं । इनकी जटायें पैर तक लटकी हुई रहती
हैं । ये काली स्याही के पुञ्ज के समान हैं । जलती हुई चिता के कुण्ड के समान तीन
नेत्रों से ये युक्त हैं । लम्बा उदर तथा पीली जटा वाले, स्थूल
तथा नाटे कद के हैं । नरमुण्ड की माला से बने हुए हार और ग्रैवेयक धारण करने से
देदीप्यमान हैं । मुँह में मज्जा, रक्त-मांस, मेदा, हड्डी, वसा भरे हुए हैं
। डरावने दाँत, लपलपाती हुई जिह्वा और करालमुख मण्डल वाले
हैं। शव के ऊपर बैठे हुए, ये भयानक अट्टहास करते हैं । इनमें
से कुछ दो शिर वाले, कुछ तीन शिर और कुछ तो बीस शिर वाले
हैं। किसी को एक सौ शिर भी हैं। इसी प्रकार तीन पैर वाले, अनेक
पैर वाले तथा कोई बिना पैर के हैं ।। १०४- १०९ ॥
त्रिशूलचक्रपरिघगदामुसलतोमरान् ।
भुशुण्डीचापविशिखपाशपट्टिशमुद्गरान्
॥ ११० ॥
परश्वङ्कुशखट्वाङ्गभिन्दिपालर्ष्टययोगुडान्
।
कुन्तप्रासहुनायष्टिशक्तिच्छुरिककर्त्तृकान्
॥ १११ ॥
मुष्टिनीचर्म्मकुणपनागपाशा
क्षछुच्छुकाः ।
घण्टाखर्प्पर पाषाणांस्तथा तर्ज्जनमेव
च ॥ ११२ ॥
धारयन्तः करैः सर्वे
व्याघ्रचर्मावगुण्ठिताः ।
एवं ध्यात्वा न्यसेद् देवि
मातृकान्यासवर्णवत् ॥ ११३ ॥
एष द्वितीयस्ते प्रोक्तो भैरवन्यास
उत्तम: ।
ये सब हाथों में त्रिशूल,
चक्र, परिघ, गदा,
मुसल, तोमर, भुसुण्डी,
धनुष, बाण, पाश, पट्टिश, मुद्गर, परशु अङ्कुश,
खट्वाङ्ग, भिन्दिपाल, ऋष्टि,
अयोगुड, कुन्त, प्रास,
हुना, यष्टि, शक्ति,
चाकू, कैंची, मुष्टिनी,
चर्मकुणप, नागपाश, अक्षछुच्छुक,
घण्टा, खप्पर, पत्थर और
तर्जन धारण किये हुए हैं। सबके सब बाघ के चर्म से अवगुण्ठित हैं। इस प्रकार हे
देवि! भैरवों का ध्यान कर मातृकान्यासवर्ण की भाँति ही इनका न्यास करना चाहिये। यह
तुमको दूसरे प्रकार का उत्तम भैरव- न्यास बतलाया गया ।। ११०-११४ ।।
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - तृतीयस्य
कामकलान्यासस्य ऋष्यादिनिर्देश:
अतः कामकलान्यासं समाकर्णय भामिनि ॥
११४ ॥
चिकीर्षयापि यस्य स्याद् देवी
प्रत्यक्षरूपिणी ।
अस्य कामकलाख्यस्य न्यासस्य
जगदम्बिके ॥ ११५ ॥
ऋषिश्च दक्षिणामूर्त्तिर्महादेवः
प्रकीर्तितः ।
छन्दश्च बृहती ख्यातं देवता सा
प्रकीर्तिता ॥ ११६ ॥
येयं कामकलाकाली कामार्णं
बीजमुच्यते ।
रतिबीजं हि शक्तिः स्याद् विनियोगं
च मे शृणु ॥ ११७ ॥
देवि कामकलान्यासे एवमेव
प्रकीर्तयेत् ।
कराङ्गन्यासमादध्यात् षडङ्गन्यासमेव
च ॥ ११८ ॥
धरारूढेण विधिना षड्दीर्घेनाचरेदिमम्
।
अथ मन्त्रं निबोधास्य न्यासस्य
जगदम्बिके ॥ ११९ ॥
पाशं भूतं समुद्धृत्य फेत्कारीं
प्रेतमुद्धरेत् ।
काली च गारुडं कालं विद्युन्मेघौ
समाहरेत् ॥ १२० ॥
अमृतं नागबीजं च खेचरीं च ततो वदेत्
।
रतित्रयं कामयुगं ङेऽन्ता कामाभिधा
ततः ॥ १२१ ॥
ततश्च मूलमन्त्रः स्यात् त्रिरतिः
कामयुक् ततः ।
हार्देन मनुना
युक्तस्त्रैलोक्यैश्वर्य्यसाधकः ॥ १२२ ॥
कामकलान्यास
- हे भामिनि ! इसके बाद कामकलान्यास को सुनो जिसके करने की इच्छामात्र से देवी
प्रत्यक्ष हो जाती है। हे जगदम्बिके! इस कामकलान्यास के ऋषि दक्षिणामूर्ति महादेव
कहे गये हैं। छन्द बृहती और देवता कामकला काली है। काम वर्ण (=क्लीं) बीज है।
रतिबीज (=क्लूं) शक्ति है। अब मुझसे विनियोग सुनो। हे देवि! कामकलान्यास में इसी
प्रकार कहना चाहिये। तत्पश्चात् कराङ्गन्यास और षडङ्गन्यास करना चाहिये। धरा (लं)
पर आरूढ विधि (क्) को छह दीर्घ स्वरों से युक्त करे (इस प्रकार मन्त्र का स्वरूप
बनेगा - क्लां क्लीं क्लं क्लैं क्लौं क्लः) । हे जगदम्बिके! इसके बाद इस
न्यास का मन्त्र जानो - पाश भूत फेत्कारी प्रेत काली गरुड काल विद्युत् मेघ अमृत
नाग बीजों को कहने के बाद खेचरी बीज कहना चाहिये । (यहाँ तक का स्वरूप हुआ-आं
स्फ्रें ह्स्ख्फ्रें स्हौः क्रीं क्रौं जूं ब्लौं क्लौं ग्लूं ब्रीं ख्रौं)।
इसके बाद रति बीज तीन बार कामबीज दो बार तत्पश्चात् कामकला का चतुर्थ्यन्त उच्चारण
फिर मूलमन्त्र ततः रतिबीज तीन बार फिर अन्त में हार्द कहना चाहिये । (इस अंश का
स्वरूप होगा- क्लूं क्लूं क्लूं क्लीं क्लीं अनङ्गाय क्लीं क्रीं क्रों स्फ्रें
कामकलाकालि स्फ्रें क्रों हूं क्रीं क्लीं स्वाहा क्लूं क्लूं क्लूं क्लीं क्लीं
नमः) । सम्पूर्ण मन्त्र - आं स्फ्रें ह् स् ख्फ्रें स्हौं क्रीं क्रौं जूं
ब्लॉ ग्लूं ब्रीं खौं क्लं क्लं क्लीं क्लीं अनङ्गाय क्लीं क्रीं क्रों स्फ्रें
कामकलाकालि स्फ्रें क्रों हूं क्रीं क्लीं स्वाहा क्लूं क्लूं क्लूं क्लीं नमः ।
प्रत्येक मन्त्र के साथ कामदेव का नाम बदल देना चाहिये। यह मन्त्र त्रैलोक्य के
ऐश्वर्य का साधक है ।। ११४-१२२ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - एकपञ्चाशत्कामनामाभिधानम्
आद्योऽनङ्गः समाख्यातस्ततः कन्दर्प
उच्यते ।
रतिप्रियः पञ्चशरः सुरतातुर इत्यपि
॥ १२३ ॥
मनोभवस्ततो ज्ञेयः कुसुमायुध इत्यपि
।
चित्ततर्ज्जन इत्येवं
मन्मथस्तदनन्तरम् ॥ १२४ ॥
सम्मोहनो यौवनेशो मदनस्तदनन्तरम् ।
हृत्क्षोभक श्चाकर्षकः केलिवल्लभ एव
च ॥ १२५ ॥
चित्तविद्रावणश्चापि दर्पको
भ्रामकस्तथा ।
त्रिलोकीवशकारी च मकरध्वज इत्यपि ॥
१२६ ॥
उन्मादकोऽन्धकारी च चण्डवेगस्ततो
वदेत् ।
मार उच्चाटनश्चापि तथा
व्यामोहदाय्यपि ॥ १२७ ॥
पुष्पधन्वा स्मरश्चापि ततः सन्तापनः
स्मृतः ।
मनः प्रमाथी भगदो मीनकेतुरितः परम्
॥ १२८ ॥
उपस्थगो योनिवासी तथा मनसिजोऽपि च ।
पुष्पचापो यौवतेशस्तथा
विश्वोपताप्यपि ॥ १२९ ॥
वसन्तमित्रो मलयकेतुश्चेतः प्रमोदनः
।
क्रथनश्चण्डतेजाश्च धर्माधर्मप्रवर्त्तकः
॥ १३० ॥
कोमलायुध इत्येवं प्रमर्दन इतः परम्
।
त्रिलोकीसुखदः पश्चात्
पिकदुन्दुभिरेव च ॥ १३१ ॥
अलिमाली जगज्जेता कामोऽन्ते च
प्रकीर्तितः ।
कामा इत्येकपञ्चाशद् देव्याः
पारिषदाः स्मृताः ॥ १३२ ॥
कामदेव के इक्यावन नाम
- पहला नाम अनङ्ग है दूसरा कन्दर्प । इसी प्रकार रतिप्रिय,
पञ्चशर, सुरतातुर, मनोभव,
कुसुमायुध, चित्ततर्जन, मन्मथ,
सम्मोहन, यौवनेश, मदन,
हृत्क्षोभक, आकर्षक, केलिवल्लभ,
चित्तविद्रावण, दर्पक, भ्रामक,
त्रिलोकीवशकारी, मकरध्वज, उन्मादक, अन्धकारी, चण्डवेग,
मार, उच्चाटन, व्यामोहदायी,
पुष्पधन्व स्मर, सन्तापन, मनः प्रमाथी भगद, मीनकेतु, उपस्थग
योनिवासी, मनसिज, पुष्पचाप, यौवतेश, विश्वोपतापी, वसन्तमित्र
मलयकेतु, चेतः प्रमोदन, क्रथन, चण्डतेजा, धर्माधर्मप्रवर्त्तक, कोमलायुध, प्रमर्दन, त्रिलोकीसुखद,
पिकदुन्दुभि, अलिमाली, जगज्जेता
और काम । प्रकार के इक्यावन काम देवी के परिषद् में रहते हैं ।। १२३-१३२ ।।
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - कामदेवध्यानम्
शृणु देवि ध्यानमेषां यद् ध्यात्वा
न्यासमाचरेत् ।
रत्नसन्दोहसंशोभिकिरीटोज्ज्वलमौलयः॥
१३३ ॥
माणिक्यशकलोद्धासिकुण्डलद्वयशोभिताः।
शरत्पार्वणशीतांशुसमानमुखदीप्तयः ।।
१३४ ।।
माणिक्यखण्ड
भ्रमकृद्दन्तमण्डलमण्डिताः ।
विशाललोचनयुगाः
श्यामकुञ्चितमूर्द्धजाः ॥ १३५ ॥
कङ्कणाङ्गदकेयूरमुक्ताहारविराजिताः ।
वल्गत्कुण्डलसंशोभिकपोलद्वयराजिताः
॥ १३६ ॥
गौरा हसन्तश्चपलाः सर्वे
सर्वाङ्गसुन्दराः ।
पौष्पं चापं करे वामे दक्षिणे
पञ्चसायकान् ॥ १३७ ॥
दधतश्चित्रवसना मञ्जीररणिताङ्घ्रयः
।
पिककोकिलझङ्कारवसन्तमलयानिलैः ॥ १३८
॥
सेव्यमाना मुदा
स्वस्वशक्त्यालिङ्गितमूर्त्तयः ।
सर्वे देव्याश्च पुरतो नृत्त्यन्तः
सस्मिताननाः ॥ १३९ ॥
तत्तत्कलाभिः सहिता ध्यातव्याः
सिद्धिदायिनः ।
कामदेव का ध्यान
- हे देवि! अब इनका ध्यान सुनो; जिसको करने के
बाद न्यास करना चाहिये । इनके शिर रत्नसमूहजटित किरीटों से उज्ज्वल हैं। ये
माणिक्य के टुकड़ों से उद्भासित होने वाले दो-दो कुण्डलों (= कर्णाभूषणों) से सुशोभित
हैं। इनके मुख की दीप्ति शरत्कालीन पूर्णिमा के चन्द्र के समान है । माणिक्यखण्ड
का भ्रम उत्पन्न करने वाले दाँतों से ये अलङ्कृत हैं। इनके दोनों नेत्र विशाल और
बाल काले तथा घुँघराले हैं । कङ्गन, अङ्गद, केयूर, मुक्ताहार से ये शोभायमान हैं । इनके दोनों
कपोल हिलते-डुलते कुण्डलों से शोभायमान हैं। गोरे, हँसते हुए
चञ्चल सबके सब सर्वाङ्गसुन्दर कहे गये हैं। बायें हाथ में पुष्प का धनुष, दाहिने में पाँच बाण धारण किये हुए ये रंग-बिरंगे वस्त्र पहने हुए हैं।
पैरों में मञ्जीर बज रही है। पिकों, कोकिलों के झङ्कार बसन्त
के मलयानिल से सेव्यमान ये शक्तियों के द्वारा प्रेमपूर्वक आलिङ्गित हैं। मुस्कान
के साथ ये सब साक्षात् देवी के सामने नाच रहे हैं। सिद्धिदाता इन सबों का तत्तत्
कलाओं के साथ साधक को ध्यान करना चाहिये ।। १३३-१४० ।।
शेष भाग आगे जारी ........




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