कामकलाकाली खण्ड आठवां पटल
महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड आठवांपटल में देवी ने अन्य रहस्यों के बारे में प्रश्न किया। महाकाल ने कहा कि जो षोढ़ान्यास मै बतलाऊँगा वह अत्यन्त गोपनीय है। इस न्यास की महिमा के सन्दर्भ में पहले भगवान् नृसिंह, भैरव, कामदेव तथा इसी प्रकार कामकला, डाकिनी, शक्ति, इक्यावन देवियों के ऋषि आदि उनके इक्यावन नाम व स्वरूप के विस्तृत ध्यान का वर्णन किया। अब आगे इक्यावन देवियों के नाम निम्नलिखित है— महालक्ष्मी, वागीश्वरी, अश्वारूढा, मातङ्गी, नित्यक्लिन्ना, भुवनेश्वरी, उच्छिष्टचाण्डालिनी, भैरवी, शूलिनी, वनदुर्गा, त्रिपुरा, त्वरिता, अघोरा, जयलक्ष्मी, वज्रप्रस्तारिणी, पद्मावती, अन्नपूर्णा, कालसङ्कर्षिणी, धनदा, कुक्कुटी, भोगवती, शबरेश्वरी, कुब्जिका, सिद्धिलक्ष्मी इन देवियों के मन्त्र और ध्यान का निर्वचन पृथक्-पृथक् चर्चा की गयी है ।
महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल ८
Mahakaal samhita kaam kalaa kaali khanda patal
8
महाकालसंहिता कामकलाकालीखण्ड: अष्टमः पटलः
महाकालसंहिता कामकलाखण्ड अष्टम पटल
महाकालसंहिता कामकलाकालीखण्ड आठवां पटल
महाकालसंहिता
कामकलाखण्ड:
(कामकलाकालीखण्ड:)
अष्टमः पटल:
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - महालक्ष्म्या
मन्त्रध्याने
वाग्भवं कामलं मायां कामबीजं ततः
परम् ॥ २१२ ॥
चतुरक्षरमन्त्रोऽयं महालक्ष्म्याः
प्रकीर्तितः ।
पूर्णचन्द्राननां
लक्ष्मीमरविन्दोपरि स्थिताम् ॥ २१३ ॥
गौराङ्गीं
विविधाकल्परत्नाभरणमण्डिताम् ।
क्षौमाबद्धनितम्बां तां
वराभयकरद्वयाम् ॥ २१४ ॥
श्वेतैश्चतुर्भिर्द्विरदैः
शुण्डदण्डनिवेशितैः ।
हिरण्मयामृतघटैः सिच्यमानां
विभावयेत् ॥ २१५ ॥
लक्ष्मी के मन्त्र ध्यान - वाग्भव, कमला, माया और कामबीज- यह चार अक्षरों वाला महालक्ष्मी का मन्त्र बतलाया गया है (मन्त्र का स्वरूप इस प्रकार है-ऐं श्रीं ह्रीं क्लीं) । पूर्णचन्द्र के समान मुखवाली, कमल के ऊपर बैठी हुई, गौराङ्गी, अनेक प्रकार के रत्नों से अलङ्कृत, नितम्बों तक रेशमी वस्त्र को धारण की हुई, दोनों हाथों में वरद एवं अभय मुद्रा धारण की हुई है। श्वेतवर्ण के चार हाथी अपने सूड़ों में सोने का अमृतपूर्ण घट लेकर उसका अभिषेक कर रहे हैं—ऐसा ध्यान करना चाहिये ॥ २१२-२१५ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - वागीश्वर्या
मन्त्रध्याने
अथ वागीश्वरीमन्त्रस्तारं माया च
वाग्भवः ।
पुनर्माया पुनस्तारो ङेऽन्तापि च
सरस्वती ॥ २१६ ॥
अन्ते हन्मनुना ज्ञेयो मन्त्रो
ह्येकादशाक्षरः ।
ध्यायेद् वागीश्वरी देवीं हंसारूढां
हसन्मुखीम् ॥ २१७ ॥
पूर्णेन्दुवदनां
कुन्दकर्पूरसितविग्रहाम् ।
अर्धेन्दुविलसद्भालां
दिव्याभरणभूषिताम् ॥ २९८ ॥
विशाललोचनां तुङ्गस्तनीं
स्मितमनोहराम् ।
पीयूषकुम्भं विद्यां च वामे
सम्बिभ्रतीं शिवाम् ॥ २१९ ॥
वीणामक्षगुणान् दक्षे धारयन्तीं
चतुर्भुजाम् ।
ध्यात्वा तु मूलमन्त्रेण साधको
न्यासमाचरेत् ॥ २२० ॥
वागीश्वरी के मन्त्र ध्यान- अब वागीश्वरी का मन्त्र-तार माया वाग्भव माया तार चतुर्थ्यन्त सरस्वती पद फिर 'नमः' । यह ग्यारह अक्षरों वाला मन्त्र है ( मन्त्र — ॐ ह्रीं ऐं ह्रीं ॐ सरस्वत्यै नमः) । हंस पर आरूढ, मुस्कराती हुई, पूर्णिमा के चन्द्र सदृश मुखवाली, कुन्द और कपूर के समान श्वेत शरीर वाली, ललाट पर अर्धचन्द्र, दिव्य आभूषणों से विभूषित, विशाल नेत्रों वाली, ऊँचे स्तनों वाली, मुस्कान से मनोहर, बायें दोनों हाथों में अमृतकलश और शिवशास्त्र तथा दायें दोनों हाथों में वीणा और माला धारण की हुई चार भुजा वाली वागीश्वरी का ध्यान कर साधक मूल मन्त्र से न्यास करे ॥ २१६-२२० ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - अश्वारूढाया
मन्त्रध्याने
अश्वारूढा तृतीया स्यादस्या मन्त्रं
निबोध मे ।
तारं लज्जां रमां क्रोधं कामं पाशं
ततः परम् ॥ २२९ ॥
अश्वारूढा चतुर्थ्यन्ता
ततोऽस्त्रद्वितयं वदेत् ।
वह्निजायान्तगो मन्त्रो ज्ञेयः
पञ्चदशाक्षरः ॥ २२२ ॥
ध्यानं चास्याः कथ्यमानं निबोध
वरवर्णिनि ।
पूर्णशारदशीतांशुसमानवदनां शिवाम् ॥
२२३ ॥
सन्तप्तकाञ्चनाभासां
विशालाम्बुजलोचनाम् ।
व्यालम्बमानवेणीकां स्थितां ज (य)
वनवाजिनि ॥ २२४ ॥
करे च दक्षिणे बाणं वामे रश्मिं च
वाजिनः ।
चन्द्रखण्डलसद्भालां वेत्रं पद्मं च
बिभ्रतीम् ॥ २२५ ॥
अश्वारूढा के मन्त्र ध्यान - तीसरी देवी अश्वारूढा है । इसके मन्त्र को मुझसे जानो । तार, लज्जा, रमा, क्रोध, काम, पाश बीजों के बाद चतुर्थ्यन्त अश्वारूढा पद का उच्चारण कर दो बार अस्त्र मन्त्र कहना चाहिये । अन्त में 'स्वाहा' कहने पर यह पन्द्रह अक्षरों वाला मन्त्र बनता है (मन्त्र-ॐ ह्रीं श्रीं हूं क्लीं आं अश्वारूढायै फट् फट् स्वाहा) । हे वरवर्णिनि! इसके कथ्यमान ध्यान को जानो—यह देवी शिवा शरत्कालीन पूर्ण चन्द्र के समान मुख वाली, तप्त सोने के समान कान्तिमती, विशाल नेत्रों वाली, लटकती हुई वेणी वाली, वेगवान् घोड़े पर सवार, दायें हाथ में बाण और बायें हाथ में घोड़े की लगाम ली हुई, ललाट पर शोभायमान चन्द्रखण्ड वाली ( नीचे के दायें, बायें हाथों में बेंत एवं कमल ली हुई है - इस प्रकार ध्यान करना चाहिये) ॥ २२१-२२५ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - मातङ्गीदेव्या
मन्त्रध्याने
निशामयाथ मातङ्गीमन्त्रं
सर्वार्थसाधकम् ।
वाग्भवं च त्रपा लक्ष्मीस्तत: प्रणव
एव च ॥ २२६ ॥
नमो भगवतीत्युक्त्वा मातङ्गेश्वरि
चोद्धरेत् ।
ततः सर्वजनेत्येवं मनोहारि पदं ततः
॥ २२७ ॥
पुनः सर्वमुखेत्युक्त्वा रञ्जिनीति
समुद्धरेत् ।
तत उच्चारयेदेवं सर्वराजवशङ्करि ॥
२२८ ॥
सर्वस्त्रीपुरुषेत्युक्त्वा वशङ्करि
ततो वदेत् ।
सर्वदुष्टमृगाभाष्य ततश्चापि
वशङ्करि ॥ २२९ ॥
ततोऽपि चोद्धरेदेवं
सर्वसत्त्ववशङ्करि ।
सर्वलोकममुं मे च वशमानय चेत्यपि ॥
२३० ॥
शिरोऽन्तो मनुरुद्दिष्टो
वश्यकर्मफलप्रदः ।
मातङ्गी के मन्त्र ध्यान-
अब सर्वार्थसाधक मातङ्गी मन्त्र को सुनो । वाग्भव, लज्जा, लक्ष्मी, प्रणव कहकर 'नमोभगवति मातङ्गेश्वरि' कहे । पुनः 'सर्वजन- मनोहारि' कहने के बाद 'सर्वमुखरञ्जिनि' कहे। इसी प्रकार 'सर्वराजवशङ्कर' कहे तथा 'सर्वस्त्रीपुरुषवशङ्करि
सर्वदुष्टमृगवशङ्कर' कहने के बाद 'सर्वसत्त्ववशङ्कर'
कहे । पुनः 'सर्वलोकं अमुं च मे वशमानय'
कहने के बाद अन्त में शिर कहे ( मन्त्र - ऐं ह्रीं श्रीं ॐ नमो
भगवति मातङ्गेश्वरि सर्वजनमनोहारि सर्वमुखरञ्जिनि सर्वराजवशङ्करि
सर्वस्त्रीपुरुषवशङ्कर सर्वदुष्टमृगवशङ्करि सर्वसत्त्ववशङ्करि सर्वलोकममुं च मे
वशमानय स्वाहा ) । यह मन्त्र वश्यकर्मफल देने वाला कहा गया है ।। २२६-२३१ ॥
रत्नपीठोपरि गतां
सान्द्रनीरदसच्छविम् ॥ २३१ ॥
शृण्वन्तीं कीरपोतस्य
कलभाषितमुत्तमम् ।
न्यस्तैकपादां कमले
बालेन्दुकृतशेखराम् ॥ २३२ ॥
करपल्लवयुग्मेन वीणावादनतत्पराम् ।
आपादपद्मलम्बिन्या रम्यां
कल्हारमालया ॥ २३३ ॥
तिलकोद्भासिवदनां
वारुणीपानविह्वलाम् ।
(इसका ध्यान इस प्रकार बतलाया गया है ) ( यह देवी) रत्नजटित पीठ पर विराजमान, सघन काले बादल के समान छवि वाली, शुकशावक के मधुर शब्दों का श्रवण करती हुई, एक पैर कमल के ऊपर रखी हुई, मस्तक पर बाल चन्द्र धारण की हुई, दो हाथों से वीणावादन में तत्पर, पैर तक लटकी हुई कल्हार (= श्वेत कुमुदिनी) की माला से सुशोभित, मुख पर तिलक लगायी हुई तथा वारुणीपान के कारण मदमत्त है ।। २३१-२३४ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - नित्यक्लिन्नाया
मन्त्रध्याने
अथ धारय चेतस्त्वं नित्यक्लिन्नामनौ
मनः ॥ २३४ ॥
प्रणवं वाग्भवं बीजं मायिकं
तदनन्तरम् ।
नित्यक्लिन्ने समुद्धृत्य ततोऽपि च
मदद्रवे ॥ २३५ ॥
सवाग्भवत्रपास्वाहा मनुः
पञ्चदशाक्षरः ।
नित्यक्लिन्ना के मन्त्र
ध्यान- इसके बाद अब तुम नित्यक्लिन्ना के मन्त्र पर
ध्यान दो । प्रणव, वाग्भव, माया बीज के बाद 'नित्यक्लिन्ने' कहकर 'मदद्रवे' कहे । फिर
वाग्भव लज्जा बीज के साथ 'स्वाहा' कहे
। ( मन्त्र - ॐ ऐं ह्रीं नित्यक्लिन्ने मदद्रवे ऐं ह्रीं स्वाहा ) । यह
पञ्चदशाक्षर मन्त्र है ।। २३४-२३६ ।।
रक्ताङ्गी
यौवनोद्भिन्नपीनवक्षोरुहद्वयाम् ॥ २३६ ॥
त्रिनेत्रां मदिरापानविह्वलाङ्गी
शिवप्रियाम् ।
रक्ताङ्गरागवसनाभरणां सस्मिताननाम्
॥ २३७ ॥
बालेन्दुमौलिमरुणसरोरुहकृतस्थितिम्
।
कल्पवल्लीं कपालं च वामतो बिभ्रतीं
शिवाम् ॥ २३८ ॥
पाशाङ्कुशौ दक्षिणे च धारयन्तीं विचिन्तयेत्
।
(उसका ध्यान इस प्रकार है-) (यह देवी) रक्त अङ्गों वाली, यौवन के कारण उभरे हुए दो स्तनों वाली, तीन नेत्रों वाली, मदिरापान से विह्वल अङ्गों वाली, शिवप्रिया, रक्तवर्ण के अङ्गराग वस्त्र और आभूषणों का धारण करने वाली मुख पर मुस्कान और शिर पर बाल चन्द्रमा वाली तथा लाल कमल पर बैठी हुई है। बायें हाथ में कल्पलता और कपाल तथा दायें हाथ में पाश और अङ्कुश धारण की है— ऐसा ध्यान करना चाहिये ।। २३६-२३९ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - भुवनेश्वर्या
मन्त्रध्याने
शृणु षष्ठीं महादेवीमतस्त्वं
भुवनेश्वरीम् ॥ २३९ ॥
पाशलज्जाङ्कुशैरेव
मन्त्रस्त्र्यक्षर एव च ।
महिमा वर्णितुं देवि न
शक्यस्त्रिदशैरपि ॥ २४० ॥
भुवनेशीमथ ध्यायेत्
सिन्दूरारुणविग्रहाम् ।
त्रिलोचनां स्मेरमुखीं
चन्द्रार्धकृतशेखराम् ॥ २४१ ॥
पीनवक्षोरुहद्वन्द्वां
सर्वाभरणशोभिताम् ।
माणिक्यरत्नकुम्भस्थसव्यपादां
करद्वये ॥ २४२ ॥
बिभ्रतीं रत्नचषकं रक्तोत्पलमथापि च
।
भुवनेश्वरी के मन्त्र ध्यान — इसके बाद तुम छठीं महादेवी भुवनेश्वरी को सुनो । पाश लज्जा और अङ्कुश बीजों से बना हुआ (इस देवी का) मन्त्र तीन अक्षरों वाला है । (मन्त्र—आं ह्रीं क्रों) । (इस मन्त्र की महिमा का वर्णन देवताओं के भी द्वारा शक्य नहीं है । सिन्दूर की भाँति अरुण विग्रह वाली, तीन लोचनों वाली, स्मित- मुखी, मस्तक पर अर्धचन्द्र धारण की हुई, चौड़े दोनों स्तनों वाली, समस्त अलङ्कारों से अलङ्कृत, मणिक्यरत्न से जटित (अथवा निर्मित) कुम्भ के ऊपर बायें पैर को रखी हुई, दोनों हाथों में रत्ननिर्मित पानपात्र, और लालकमल धारण की हुई है- ऐसा ध्यान करना चाहिये ।। २३९-२४३ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - उच्छिष्टचाण्डाल्या
मन्त्रध्याने
अथ
वक्ष्येऽहमुच्छिष्टचाण्डालीमन्त्रमादृतम् ॥ २४३ ॥
आदौ सम्बोधनं देव्याः सुमुखी
तद्वदेव च ।
ततो देवि महाप्रोच्य वदेत् पश्चात्
पिशाचिनी ॥ २४४ ॥
मायाबीजं विसर्गेण सहितं ठत्रयं ततः
।
द्वाविंशत्यक्षरो मन्त्रः
सर्वसिद्धिविधायकः ॥ २४५ ॥
ध्यानमस्याः प्रवक्ष्यामि
यथावज्जगदीश्वरि ।
रक्तालङ्कारसंयुक्तां नीलमेघसमप्रभाम्
।
शवोपरि समासीनां
रक्ताम्बरपरिच्छदाम् ॥ २४६ ॥
ईषद्धास्यसमायुक्तां
गुञ्जाहारविराजिताम् ॥ २४७ ॥
षोडशाब्दां च युवतीं
पीनोन्नतपयोधराम् ।
कपालकर्तृकाहस्तां सर्वाभरणभूषिताम्
॥ २४८ ॥
उच्छिष्टचाण्डालिनी के मन्त्र ध्यान- अब मैं सर्वत्र आदर को प्राप्त उच्छिष्ट- चाण्डाली मन्त्र को बतलाऊँगा । पहले देवी का सम्बोधन फिर 'सुमुखी' का सम्बोधन तत्पश्चात् 'देवि' कहे। फिर 'महाशब्द' का उच्चारण कर 'पिशाचिनी' का सम्बोधन कहे। बाद में मायाबीज फिर विसर्गसहित तीन ठ कहे (मन्त्र- उच्छिष्टचाण्डालिनि सुमुखि देवि महापिशाचिनि ह्रीं ठः ठः ठः) । बाईस अक्षरों वाला यह मन्त्र सर्वसिद्धि देने वाला है । हे जगदीश्वरि! अब इसका यथावत् ध्यान बतलाऊँगा । (यह देवी) शव के ऊपर बैठी, लालवस्त्र ओढ़ी हुई, रक्त अलङ्कार से संयुक्त, नीलमेघ के समान कान्तिवाली, किञ्चित् हास्य से युक्त, गुञ्जा का हार पहनी हुई, सोलह वर्षीया युवति, चौड़े और ऊँचे स्तनों वाली, हाथ में कपाल और कैंची ली हुई एवं सर्वाभरणभूषित है - ऐसा ध्यान करना चाहिये ।। २४३ २४८ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - भैरव्या
मन्त्रध्याने
अथ ब्रवीमि भैरव्या
मन्त्रमागमगोपितम् ।
यन्न कस्यचिदाख्यातं न कस्मा अपि
केन च ॥ २४९ ॥
न कीलितं न शप्तं च स्तम्भितं न च
कैरपि ।
पञ्चकूटात्मिकां विद्यामुद्धरामि
शृणुष्व ताम् ॥ २५० ॥
नभो वह्निविधिक्षोणीसवह्निधनदार्णकम्
॥ २५१ ॥
खं खपूर्वो
विधिर्भूमिस्तार्तीयकविराजितः ।
तृतीयं कूटं फेत्कारी चतुर्थी
शाङ्करी भवेत् ।
पञ्चमी व्योमकूटाख्या
सर्वकामफलप्रदा ॥ २५२ ॥
कथयामि ध्यानमस्या यद्विधाय
न्यसेत्तनुम् ।
उद्यत्सहस्रमार्तण्डकान्तिमिन्दुकलोज्ज्वलाम्
॥ २५३ ॥
त्रिनेत्रां पीनवक्षोजां
पद्मासनपरिस्थिताम् ।
सर्वाभरणसम्पूर्णां
पूर्णयौवनशालिनीम् ॥ २५४ ॥
चतुर्भुजां जपवटी दक्षिणे बिभ्रतीं
वरम् ।
वामे विद्यामभीतिं च धारयन्तीं
विचिन्तयेत् ॥ २५५ ॥
भैरवी के मन्त्र ध्यान- अब आगमों में छिपाकर रखे गये भैरवीमन्त्र को बतला रहा हूँ । जिसको (मैंने) किसी को नहीं बतलाया और किसी दूसरे व्यक्ति ने भी किसी को नहीं बतलाया । (इस मन्त्र को) किसी ने न तो कीलित न अभिशप्त और न स्तम्भित किया है । मैं पञ्चकूटात्मिका विद्या को उद्धृत कर रहा हूँ। उसको सुनो- ख खपूर्व विधि भूमि (पहला कूट) तार्तीयक ( दूसरा कूट) फेत्कारी तीसरा शाङ्करी चौथा और व्योमकूट पाँचवाँ है ( मन्त्र - हं ह् क् लं ह्सौं हं रं वं लं रं ढं ह् स् ख् फ्रें ॠं हं ? ) यह विद्या सर्वकामफलप्रदा है। अब इसका ध्यान बतला रहा हूँ जिसको करने के बाद शरीर का न्यास करना चाहिये । उगते हुए हजारों सूर्य के समान कान्ति वाली, चन्द्रकला के समान उज्ज्वल, तीन नेत्रों वाली, पीन स्तनों वाली, पद्मासन पर बैठी हुई, सर्वाभरण परिपूर्ण पूर्णयौवन वाली चार भुजा वाली, दायें हाथों में जपवटी और वरद मुद्रा, बायें में विद्या मुद्रा और अभय मुद्रा धारण की हुई है - ऐसा ध्यान करना चाहिये ॥ २४९-२५५ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - शूलिन्या
मन्त्रध्याने
अर्थाकर्णय शूलिन्या मन्त्रं ध्यानं
च पार्वति ।
ज्वलयुग्मं समुद्धृत्य वदेत्तदनु
शूलिनि ॥ २५६ ॥
दुष्टग्रह समाभाष्य
क्रोधबीजमथोद्धरेत् ।
अस्त्रं शिरस्ततः पश्चान्मनुः
पञ्चदशाक्षरः ॥ २५७ ॥
ध्यायेन्मृगेन्द्रमारूढां सतोयजलदच्छविम्
।
त्रिनेत्रां बिभ्रतीं भालं
चन्द्रखण्डावतंसितम् ॥ २५८ ॥
ददतीं द्विषतां भीतिं
युद्धोद्यतकलेवराम् ।
देवीमष्टभुजां घोरभृकुटीभीषणाकृतिम्
॥ २५९ ॥
पद्मं गदां धनुर्मुण्डं वामे
सम्बिभ्रतीं क्रमात् ।
त्रिशूलं करवालं च विशिखं पाशमेव च
॥ २६० ॥
धारयन्तीं दक्षिणेन
सर्वालङ्कारमण्डिताम् ।
कृपाणखेटको दोर्भ्यां
बिभ्रतीभिरहर्निशम् ॥ २६१ ॥
कन्यकाभिश्चतसृभिः सेव्यमानां
विचिन्तयेत् ।
शूलिनी के मन्त्र ध्यान
- हे पार्वति ! अब शूलिनी के मन्त्र और ध्यान को सुनो। दो बार 'ज्वल' कहकर 'शूलिनि' कहे। फिर 'दुष्टग्रह' कहकर
क्रोधबीज को उद्धृत करे। उसके बाद अस्त्र और शिर कहे (मन्त्र - ज्वल ज्वल
शूलिनि दुष्टग्रहं हूं फट् स्वाहा ) यह पन्द्रह अक्षरों वाला मन्त्र है। ध्यान-
सिंह पर आरूढ, जल से परिपूर्ण बादल के समान (नील) छवि वाली,
तीन नेत्रों वाली, चन्द्रखण्ड से युक्त
भालवाली, शत्रुओं को भय देने वाली, युद्ध
के लिये उद्यत शरीर वाली, अष्टभुजा, भयङ्कर
भौंहों से डरावनी आकृतिवाली, बायें हाथों में कमल, गदा, धनुष और मुण्ड तथा दायें हाथों में त्रिशूल,
तलवार, बाण और पाश को क्रमशः धारण की हुई,
सर्वालङ्कार- अलङ्कृत, भुजाओं में निरन्तर
कृपाण और खेटक धारण की हुई, चार कन्याओं के द्वारा सेव्यमान
(देवी) का ध्यान करना चाहिये ।। २५६-२६२ ।। 
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - वनदुर्गाया
मन्त्रध्याने
अथातो वनदुर्गायाः प्रवक्ष्ये
मनुमुत्तमम् ॥ २६२ ॥
तारं वाग्भवमुद्धृत्य लक्ष्मीं
लज्जां च योगिनीम् ।
क्रोधमङ्कुशमुल्लिख्य शिरोऽन्तोऽयं
नवाक्षरः ॥ २६३ ॥
कालाभ्रसमदेहाभां सिंहस्कन्धोपरि
स्थिताम् ।
मौलिबद्धेन्दुशकलां कटाक्षैः
शत्रुभीतिदाम् ॥ २६४ ॥
त्रिनेत्रां पीवरोरोजां
स्मेरवक्त्रां चतुर्भुजाम् ।
शङ्खं चक्रं गदां खड्गमुद्वहन्तीं
हरप्रियाम् ॥ २६५ ॥
पूरयन्तीं जगत्सर्वं
स्वतेजोभिर्विचिन्तयेत् ।
वनदुर्गा के मन्त्र ध्यान – इसके बाद अब मैं आपको वनदुर्गा का उत्तम मन्त्र बतलाऊँगा — तार, वाग्भव को उद्धृत कर लक्ष्मी, लज्जा, योगिनी (=छ्रीं) क्रोध अङ्कुश का उल्लेख कर अन्त में 'शिर' कहना चाहिये । ( मन्त्र - ॐ ऐं श्रीं ह्रीं ह्रीं हूं क्रीं स्वाहा ) । यह नव अक्षरों वाला मन्त्र है। ध्यान-काले बादल के समान शरीरकान्ति वाली, सिंह के कन्धे पर बैठी, शिर पर चन्द्रमा का खण्ड धारण की हुई, कटाक्षों से शत्रुओं को भय देने वाली, तीन नेत्रों और उन्नत स्तनों वाली, मुस्कानभरे मुख और चार भुजाओं वाली, शङ्ख, चक्र, गदा और खड्ग धारण की हुई, शिव की प्रिया तथा समस्त संसार को अपने तेज से आपूरित करती हुई (देवी का) ध्यान करना चाहिये ॥ २६२-२६६ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - त्रिपुटाया
मन्त्रध्याने
त्रिपुटाया मनुर्बीजैस्त्रिभिर्लक्ष्मीत्रपास्मरैः
॥ २६६ ॥
ध्यानं वदाम्यथैतस्याः
सर्वसिद्धिविधायकम् ।
गौराङ्गीं रत्नमञ्जीरकाञ्चीग्रैवेयकोज्ज्वलाम्
॥ २६७ ॥
रत्नमौलि त्रिनयनामर्द्धेन्दुकृतशेखराम्
।
चतुर्भुजां
रक्तवस्त्रगन्धमाल्यानुलेपनाम् ॥ २६८ ॥
रक्तोत्पलं चापपाशौ वामतो दधतीं
शिवाम् ।
दक्षिणेऽप्यङ्कुशं पुष्पं वाणान्
सम्बिभ्रतीं तथा ॥ २६९ ॥
त्रिपुटा के मन्त्र ध्यान - त्रिपुटा का मन्त्र लक्ष्मी लज्जा और काम के तीन बीजों से (बनता) है । (मन्त्र - श्रीं ह्रीं क्लीं)। अब इसके सर्वसिद्धिविधायक ध्यान को बतला रहा हूँ-गोरे अङ्गों वाली, रत्नजटित मञ्जीर काञ्ची और ग्रैवेयक से दीप्यमान, शिर पर रत्न धारण की हुई, तीन नेत्रों वाली, मस्तक पर अर्धचन्द्र धारण की हुई, चार भुजा वाली, रक्तवर्ण के वस्त्र, गन्ध, माला और लेप धारण की हुई, बायें हाथों में लाल कमल धनुष, पाश तथा दायें हाथों में अङ्कुश, पुष्प और बाणों को धारण की हुई है । २६६-२६९ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - त्वरिताया
मन्त्रध्याने
प्रवदामि मनूद्धारं त्वरिताया अतः
परम् ।
प्रणवं मायिकं बीजं क्रोधबीजमतः
परम् ॥ २७० ॥
पाशमङ्कुशबीजं च वधूबीजमतः परम् ।
पुनः क्रोधं ततोऽन्त्यार्णे
युञ्जीताधोदतं स्वरम् ॥ २७१ ॥
पुनर्मायां तदन्तेऽस्त्रं मन्त्रः
प्रोक्तो दशाक्षरः ।
कथ्यमानमथ ध्यानं समाकर्णय पार्वति
॥ २७२ ॥
इन्द्रनीलशिलाखण्डतुल्यावयवरोचिषम् ।
पत्राच्छादितवक्षोजनितम्बजघनस्फिचम्
॥ २७३ ॥
गुञ्जाहारसमुल्लासिपीवरोरोजयुग्मकाम्
।
अलङ्कारतया बद्धान् भुजगानष्ट
बिभ्रतीम् ॥ २७४ ॥
ताटङ्काङ्गदमञ्जीरहारकुण्डलतामिताम्
I
मयूरपिच्छसम्बद्धकपालकृतशेखराम् ॥
२७५ ॥
किरातवेषं दधतीं त्रिनेत्रां
जगदम्बिकाम् ।
वराभयोद्यतकरां कृपास्मेरमुखाम्बुजाम्
॥ २७६ ॥
त्वरिता के मन्त्र ध्यान-
इसके बाद त्वरिता देवी के मन्त्र का उद्धार बतला रहा हूँ । प्रणव,
माया बीज इसके बाद क्रोध बीज, पाश, अङ्कुश बीज तत्पश्चात् वधूबीज पुनः क्रोध इसके बाद अन्तिम वर्ण में
अधोदन्त (= औं) स्वर को जोड़ना चाहिये । पुनः माया उसके बाद अस्त्र कहना चाहिये।
(मन्त्र - ॐ ह्रीं हूं आं क्रों स्त्रीं हूं औ ह्रीं फट् ) यह दश अक्षरों
वाला मन्त्र कहा गया है। हे पार्वति! अब इसके कथ्यमान ध्यान को सुनो-नीलम पत्थर के
टुकड़ों के समान अवयवों से कान्तियुक्त, पत्तों के द्वारा
स्तन नितम्ब जघन और स्फिक् (=कूल्हों) को ढँके रखने वाली, गुञ्जा
के हार से शोभायमान दोनों स्तनों वाली, अलङ्कार के रूप में
बद्ध आठ सर्पों को धारण की हुई, ताटङ्क, अङ्गद, मञ्जीर, हार और कुण्डल
से तामित (= अलङ्कृत), मयूर की पूँछ को बाँध कर कपाल पर रखी
हुई, किरातवेष को धारण की हुई, तीन
नेत्रों वाली, हाथों में वरद एवं अभय मुद्रा धारण की हुई,
कृपा की इच्छा से मुस्कानयुक्त मुखकमल वाली जगदम्बिका का ध्यान करना
चाहिये ॥ २७०-२७६ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - अघोराया
मन्त्रध्याने
अथाघोरामनुं वक्ष्ये येन
सिद्ध्यन्ति साधकाः ।
करामलकवद् विश्वं यस्य संस्मरणादपि
॥ २७७ ॥
मायारमाङ्कुशानङ्गवधूवाग्भवगारुडैः।
योगिनीशाकिनीकालीफेत्कारीक्रोधबीजकैः
॥ २७८ ॥
सम्बोधनमघोरायाः सिद्धिं मे देहि
चोद्धरेत् ।
ततश्च दापयेत्युक्त्वा स्वाहान्तो
मनुरिष्यते ॥ २७९ ॥
पञ्चविंशत्यक्षरोऽयं मन्त्रो
वाञ्छितसिद्धिकृत् ।
अथ ध्यानं व्याहरामि येन मन्त्रः
प्रसिद्ध्यति ॥ २८० ॥
सुस्निग्धकज्जलग्रावतुल्यावयवरोचिषम्
।
विशालवर्तुलारक्तनयनत्रितयान्विताम्
॥ २८१ ॥
श्वेतन्त्रस्थिकृताकल्पसमुज्ज्वलतनुच्छविम्
।
दिगम्बरां मुक्तकेशीं
नृमुण्डकृतकुण्डलाम् ॥ २८२ ॥
शवोपरि समारूढां
दंष्ट्राविकटदर्शनाम् ।
द्विभुजां मार्जनीसूर्पहस्तां
पितृवनस्थिताम् ॥ २८३ ॥
अघोरा के मन्त्र ध्यान- अब अघोरा के मन्त्र को बतलाऊँगा जिससे साधक सिद्ध हो जाते हैं। जिस (मन्त्र) के स्मरणमात्र से विश्व हस्तामलक की भाँति (ज्ञात) होता है । माया, रमा, अङ्कुश, काम, वधू, वाग्भव, गरुड, योगिनी, शाकिनी, काली, फेत्कारी, क्रोध, बीजों के साथ अघोरा का सम्बोधन कहकर 'सिद्धिं मे देहि' कहे । इसके बाद 'दापय' कहकर अन्त में 'स्वाहा' कहे। (मन्त्र - ह्रीं श्रीं क्रों क्लीं स्त्रीं ऐं क्रौं छ्री फ्रें क्रीं ह्स्ख्फ्रें हूं अघोरे सिद्धिं में देहि दापय स्वाहा ) । पचीस अक्षरों वाला यह मन्त्र वाञ्छित की सिद्धि देने वाला है। अब मैं ध्यान बतला रहा हूँ जिससे मन्त्र सिद्ध होता है— चिकने कज्जल पत्थर (=काले पत्थर) के समान अवयव की चमक वाली, विशाल. गोल कुछ लाल रंग वाले तीन नेत्रों वाली, मनुष्य की श्वेत अस्थि से युक्त उज्ज्वल तनुशोभा वाली, नग्न, खुले बालों वाली, मनुष्य के मुण्ड का कुण्डल पहनी हुई, शव के ऊपर बैठी हुई, दाँतों के कारण भयङ्कर दिखलायी पड़ने वाली, द्विभुजा, हाथ में झाडू और सूप ली हुई श्मशान वासिनी (अघोरा का ध्यान करना चाहिये) ।। २७७-२८३ ।।
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - जयलक्ष्म्या
मन्त्रध्याने
जयलक्ष्मीमन्त्रमतो ब्रवीमि
परमेश्वरि ।
वाग्भवं भुवनेशी च
लक्ष्मीकामसदाशिवाः ॥ २८४ ॥
जयलक्ष्मि ततो ब्रूयाद् युद्धे मे
विजयं वदेत् ।
देहि प्रासादपाशौ च शृणिबीजमतः परम्
॥ २८५ ॥
अस्त्रत्रितयसंयुक्तं शिरस्तदनु
कीर्तयेत् ।
जयलक्ष्मीमथो ध्यायेदासीनां कमलोपरि
॥ २८६ ॥
विद्युत्कनकवर्णाभां
मुक्तादामविराजिताम् ।
पृथुलोत्तुङ्गवक्षोजां लोचनत्रितयान्विताम्
॥ २८७ ॥
चतुर्भुजां पद्मयुगं वराभयमथापि च ।
दधतीं कौस्तुभोद्भासिहृदयां
चिन्तयेत् पराम् ॥ २८८ ॥
जयलक्ष्मी के मन्त्र ध्यान- हे परमेश्वरि ! इसके बाद मैं आपको जयलक्ष्मी मन्त्र को बतलाऊँगा । वाग्भव भुवनेश्वरी लक्ष्मी काम सदाशिव बीजों के बाद 'जयलक्ष्म' कहे। फिर 'युद्धे में विजयं देहि' कहने के बाद प्रासाद पाश बीज फिर शृणि बीज (=क्रों) कहे। फिर तीन अस्त्र कहने के बाद शिरो बीज कहे। (मन्त्र-ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं स्फों? जयलक्ष्मि युद्धे में विजयं देहि हौं आं क्रों फट् फट् फट् स्वाहा) इसके बाद जयलक्ष्मी का इस प्रकार ध्यान करना चाहिये कि वे कमल पर बैठी हैं; विद्युत अथवा स्वर्ण के वर्ण सी कान्तिवाली, मोती की माला पहनी हुई, बड़े ऊँचे स्तनों वाली, तीन नेत्रों से युक्त, चार भुजा वाली, (हाथों में) दो कमल, वरद एवं अभय मुद्रा धारण की हुई हृदय पर कौस्तुभमणि पहनी हुई है। ऐसी परा देवी का ध्यान करना चाहिये ।। २८४-२८८ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - वज्रप्रस्तारिण्या
मन्त्रध्याने
व्याहराम्यथ देवेशि
वज्रप्रस्तारिणीमनुम् ।
तारत्रपारमाकामप्रासादाङ्कुशबीजकैः
॥ २८९ ॥
सम्बोधनं ततो देव्याः स्वाहान्तो
मनुरीरितः ।
रत्नसिन्धौ रत्नपोतोपरि देवीं
निषेदुषीम् ॥ २९० ॥
कमले द्वादशदले सन्निविष्टां
हसन्मुखीम् ।
रत्नाङ्गीं रत्नमुकुटां
चन्द्रखण्डविराजिताम् ॥ २९९ ॥
स्तनभारावनम्राङ्गी विशालनयनत्रयाम्
।
षड्भुजां
रत्नखचितरक्ताम्बरविराजिताम् ॥ २९२ ॥
बीजपूरधनुः पाशान् दक्षिणे दधतीं
शिवाम् ।
अङ्कूशस्मरकोदण्डकपालानि च वामतः ॥
२९३ ॥
विचिन्त्यैवं जगद्धात्रीं
न्यासङ्कर्यादतन्द्रितः ।
वज्रप्रस्तारिणी के मन्त्र ध्यान- हे देवेशि ! अब वज्रप्रस्तारिणी मन्त्र को बतला रहा हूँ । तार, लज्जा, लक्ष्मी, काम, प्रासाद, अङ्कुश, बीजों के साथ देवी का सम्बोधन और अन्त में 'स्वाहा' यह मन्त्र कहा गया है (मन्त्र — ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं हौं क्रों वज्रप्रस्तारिणि स्वाहा ) । ध्यान रत्नों के समुद्र में रत्न की नौका पर बैठी हुई, द्वादशदल कमल पर विराजमान, हँसती हुई, अङ्गों में रत्न धारण की हुई, रत्नजटित मुकुट वाली, चन्द्रखण्ड से शोभायमान, स्तनों के भार से नत शरीर वाली, तीन विशाल नेत्रों वाली, छह भुजाओं वाली, रत्नजटित लाल वस्त्र धारिणी हैं । दायें हाथों में बीजपूर (= बिजौरा नीबू) धनुष और पाश तथा बायें हाथों में अङ्कुश स्मरधनुष एवं कपाल धारण की है । जगद्धात्री का इस प्रकार अतन्द्रित हुआ ध्यान कर साधक न्यास करे ।। २८९-२९४ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - पद्मावत्या
मन्त्रध्याने
मायामादौ समुद्धृत्य पद्मावतिपदं
ततः ॥ २९४ ॥
शिरोमन्त्रान्वितो ज्ञेयो मन्त्रः
सप्ताक्षरो महान् ।
अरुणामरविन्दस्थां
फुल्लपद्मसमाननाम् ॥ २९५ ॥
कराभ्यां दधतीं रक्तोत्पलद्वन्द्वं
त्रिलोचनाम् ।
पद्मावती के मन्त्र ध्यान—पहले माया बीज फिर 'पद्मावति' फिर शिरोमन्त्र से युक्त यह सात अक्षरों वाला मन्त्र है ( मन्त्र - ह्रीं पद्मावति स्वाहा ) । ध्यान- अरुण वर्ण वाली, कमल पर बैठी हुई, खिले कमल के समान मुख वाली, त्रिनेत्रा तथा हाथों में दो कमल ली हुई है । २९४-२९६ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - अन्नपूर्णाया
मन्त्रध्याने
अथ वक्ष्येऽन्नपूर्णाया मन्त्रं
सप्तदशाक्षरम् ॥ २९६ ॥
मायाबीजं समुद्धृत्य नमो भग
इतीरयेत् ।
वति माहेश्वरि ततोऽप्यन्नपूर्णे
समाहरेत् ॥ २९७ ॥
वह्निजायायुतो मन्त्रो
महदन्नसमृद्धिकृत् ।
विचित्रवसनां देवीमरुणामम्बुजासनाम्
॥ २९८ ॥
स्तनभारावनम्राङ्ग नवचन्द्रार्द्धशेखराम्
।
प्रमथाधिपमालोक्य
प्रहृष्टवदनाम्बुजाम् ॥ २९९ ॥
हेमभाण्डं रत्नदव दधतीं
करयोर्द्वयोः ।
अन्नपूर्णा के मन्त्र ध्यान- अब अन्नपूर्णा के सत्रह अक्षरों वाले मन्त्र को बतलाऊँगा । माया बीज का उच्चारण कर 'नमो भगवति माहेश्वरि अन्नपूर्णे' कहना चाहिये । ‘स्वाहा' से युक्त यह मन्त्र अन्न की महासमृद्धि करता है । ध्यान- अरुण रंग की, विचित्र वस्त्रों को धारण की हुई, रक्तवर्ण वाली, कमल पर बैठी, स्तनभार से नतशरीर वाली, नवीन अर्धचन्द्र को मस्तक पर धारण की हुई, शिव को देखकर प्रसन्न वदनाम्बुज वाली, दोनों हाथों में सोने का पात्र और रत्नजटित दर्वी (=कल्छुल) धारण की हुई है ।। २९६- ३०० ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - कालसङ्कर्षण्या
मन्त्रध्याने
अथ प्रवक्ष्ये देवेशि
कालसङ्कर्षणीमनुम् ॥ ३०० ॥
यन्न ज्ञातं न चाख्यातं कस्मैचिदपि
केन च ।
तारत्रपारमाकामवाग्भवाङ्कुशकालिकाः॥
३०१ ॥
पाशक्रोधमहाक्रोधप्रासादामृतगारुडाः
।
फेत्कारी धनदाचण्डयोगिनीशाकिनीघनैः
॥ ३०२ ॥
विद्युद्रतिप्रेत
भूतखेचरीकालपन्नगाः।
कालसङ्कर्षणि प्रोच्य क्रोधयुग्मं
ततः परम् ॥ ३०३ ॥
स्वाहान्तो मन्त्रराजोऽयं मन्त्रः
षट्त्रिंशदक्षरः ।
ध्यानं वदामि ते देवि तत्र चेतो
निवेशय ॥ ३०४ ॥
घनाघनप्रभां देवीं पितृकाननचारिणीम्
।
प्रज्वलत्पावकचिताशवमध्यनिषेदुषीम्
॥ ३०५ ॥
अग्निकीलालसमया जटया गुल्फसंस्पृशा
।
विमुक्तया शोभमानां
शोणनेत्रत्रयान्विताम् ॥ ३०६ ॥
अतिघोरतरत्रस्थिभूषणोज्ज्वलविग्रहाम्
।
पीवरापघनां खर्वां लम्बमानमहोदरीम्
॥ ३०७ ॥
छिन्नचन्द्रकलातुल्यदंष्ट्राकोटिभयङ्कराम्
।
लेलिहानमहाशोणप्रकम्पिरसनां शिवाम्
॥ ३०८ ॥
विस्त्रस्तकेशमनुजकपालकृतकुण्डलाम्
।
शुष्कैर्नरास्थिभिः
शुभ्रैर्विहिताशेषभूषणाम् ॥ ३०९ ॥
मयूरपिच्छनिचयच्छादितोरुकटिस्थलाम्
।
मृतब्रह्मादिगीर्वाणकपालरचितस्रजम्
॥ ३९० ॥
कृत्वाट्टहासं धावन्तीं
पीनोन्नतपयोधराम् ।
विदीर्णसृक्कयुगलां व्यात्तघोराननां
सदा ॥ ३११ ॥
सर्वशस्त्रास्त्रसम्पूर्णषट्त्रिंशद्दोर्विराजिताम्
।
कालसङ्कर्षिणी के मन्त्र
ध्यान- हे देवेशि ! अब कालसङ्कर्षिणी का मन्त्र बतलाऊँगा
जिसको आज तक किसी ने किसी को भी नहीं बतलाया। तार त्रपा, रमा, काम, वाग्भव, अङ्कुश, काली, पाश, क्रोध, महाक्रोध, प्रासाद,
अमृत, गरुड़, फेत्कारी,
धनदा, चण्ड, योगिनी,
शाकिनी, घन, विद्युत्,
रति, प्रेत, भूत,
खेचरी, काल सर्प (बीजों का उच्चारण करे फिर) 'कालसङ्कर्षिणि' कहकर दो क्रोध बीज के साथ अन्त में 'स्वाहा' कहे। यह छत्तीस अक्षरों वाला मन्त्र है।
(मन्त्र — ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं क्रों क्रीं आं हूं
क्षूं हौं वं क्रौं ह्स्ख्फ्रें क्षूं फ्रों छ्रीं फ्रें क्लौं ब्लौं क्लूं स्हौः
स्फ्रें ह्स्ख्फ्रें झं थं कालसङ्कर्षिणि हूं हूं स्वाहा
) हे देवि ! अब तुमको ध्यान बतला रहा हूँ, उसमें मन को लगाओ।
जलपूर्ण घने बादल की कान्तिवाली, श्मशानचारिणी, जलती हुई अग्नि वाली चिता पर रखे हुए शव के ऊपर विराजमान, गुल्फ (= एड़ी) तक लटकने वाली द्रुत अग्नि के समान खुली जटाओं से शोभायमान,
लाल तीन नेत्रों वाली, अत्यन्त घोर नरास्थि के
आभूषण से दीप्त शरीर वाली, पीवर अङ्गों छोटे कद की, लटकते हुए बड़े पेट वाली, छिन्न चन्द्रकला के समान
दाँतों की नोक से भयङ्कर, अत्यधिक रक्त को चाटने में लगी हुई
जीभ वाली, बिखरे हुए बालों वाले नरकपाल का कुण्डल पहनी हुई
उज्ज्वल नरास्थि से बने समस्त भूषणों मोर के पङ्खों से उरु और कटिस्थल को आच्छादित
की हुई मृत ब्रह्मा आदि देवताओं के कपाल से बनी माला पहनी हुई, अट्टहास कर दौड़ती हुई, पीन उन्नत स्तनों वाली,
फटी सृक्क (= गलफर) वाली, खुले अतएव घोर मुख
वाली, समस्त शस्त्रास्त्रों से युक्त छत्तीस भुजाओं से
शोभायमान है ॥ ३००-३१२ ॥
पद्मचधनुः पाशाङ्कुशानपि वरानने ॥ ३१२
॥
भिन्दिपालं तथा प्रासं घण्टां
कुणपमेव च ।
शङ्खमृष्टिं च डमरूमक्षमालां क्रमेण
च ॥ ३१३ ॥
रक्तकुम्भं नृमुण्डं च शत्रुजिह्वां
ततः परम् ।
खर्परं चाभयं वामे दधतीं
भीषणाकृतिम् ॥ ३१४ ॥
त्रिशूलखड्गविशिखचक्रशक्तिगदा अपि ।
मुद्गरं परिघं कुन्तं तथा मुशलतोमरौ
॥ ३१५ ॥
परश्वधं नागपाशं भुशुण्डीं पट्टिशं
तथा ।
खट्वाङ्गं कर्त्तृकां दक्षे वहन्तीं
च तथा वरम् ॥ ३१६ ॥
करालाभिः परिवृतां डाकिनीनवकोटिभिः
।
कालसङ्कर्षणीनाम्नी कल्पान्ते
क्षयकारिणीम् ॥ ३१७ ॥
कोटिविद्युहुर्निरीक्ष्यां
देवैर्हरिहरादिभिः ।
एवं ध्यात्वा न्यसेद् देवीं
चतुर्वर्गफलप्रदाम् ॥ ३९८ ॥
कमल, चर्म, धनुष, पाश, अङ्कुश, भिन्दिपाल, प्रास, घण्टा, मृतशरीर, शङ्ख, ऋष्टि, डमरू, अक्षमाला, रक्तपूर्णघट, नरमुण्ड, शत्रुजिह्वा, खर्पर और अभयमुद्रा को बायें हाथों में धारण की हुई यह भयानक रूप वाली है। दायें हाथों में त्रिशूल, खड्ग, बाँण, चक्र, शक्ति, गदा, मुद्गर, परिघ, भाला, मुशल, तोमर, परश्वघ नागपाश, कैंची एवं वरद मुद्रा धारण की हुई है। नव करोड़ विकराल डाकिनियों से परिवृत, कल्पान्त में क्षय करने वाली, हरि हर आदि देवताओं के द्वारा भी करोड़ों विद्युत् के समान दुर्निरीक्ष्य चतुर्वर्गफलप्रदा काल-सङ्कर्षिणी नामक देवी का ध्यान कर न्यास करना चाहिये ॥ ३१२-३१८ ।।
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - धनदाया
मन्त्रध्याने
अथातो धनदामन्त्रं व्याहरामि
तवाग्रतः ।
महाकालसमारूढः क्षेत्रपालो वरानने ॥
३१९ ॥
वामकर्णान्वित बीजं सद्य एव
वसुप्रदम् ।
देवी कोकनदारूढां विकचाब्जसमाननाम्
॥ ३२० ॥
कृतपद्ममहापद्मनिधिकुण्डलयुग्मिकाम्
।
मञ्जीरतापन्नशङ्खमकराख्यनिधिद्वयाम्
॥ ३२१ ॥
रत्नकङ्कणतापन्नमुकुन्दनिधिकच्छपाम्
।
ललाटबिन्दुतापन्नविराजत्कुन्दशेवधिम्
॥ ३२२ ॥
त्रिलोचनां नीलनिधिकृतहारां
हसन्मुखीम् ।
अञ्जलिद्वितयेनापि ददतीं सर्वतो
धनम् ॥ ३२३ ॥
सर्वालङ्कारसंयुक्तां विचित्रवसनां
पराम् ।
चिन्तयेद् धनदां देवीं
वाञ्छितार्थफलप्रदाम् ॥ ३२४ ॥
धनदा के मन्त्र ध्यान- अब तुम्हारे समक्ष धनदा का मन्त्र बतलाता हूँ । हे वरानने! महाकाल पर समारूढ क्षेत्रपाल और वामकर्ण से युक्त बीज तत्काल धन देता है (मन्त्र -क्ष्मूं) । ध्यान-यह देवी कोकनद (रक्त कमल ) पर आरूढ, विकसित कमल के समान मुख वाली, पद्म और महापद्म दो निधियों का कुण्डल पहनी हुई, शङ्ख और मकर नामक दो निधियों को मञ्जीर (= पादाभूषण) बनायी हुई, मुकुन्द और कच्छप निधियों को कङ्कण बनायी हुई, कुन्द निधि को ललाट बिन्दु बनायी हुई हैं । तीन नेत्रों वाली, नील निधि का हार पहनी हुई, हंसी युक्त, दोनों हाथों से सम्पूर्ण धन देती हुई, सर्वालङ्कार युक्त, विचित्र (= रंग-बिरंगे ) वस्त्र धारण की हुई तथा वाञ्छितार्थ फलप्रदा हैं- ऐसी देवी का ध्यान करना चाहिये ॥ ३१९-३२४ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - कुक्कुट्या
मन्त्रध्याने
प्रवक्ष्ये कुक्कुटीमन्त्रं सद्यः
प्रत्ययकारकम् ।
वाग्भवं मायिकं बीजं लक्ष्मीं
काममनूच्चरेत् ॥ ३२५ ॥
फेत्कारी क्रोधमुल्लिख्य कुक्कुटीति
ततो वदेत् ।
कालीपाशाङ्कुशानुक्त्वा शाकिनीं
चण्डमुच्चरेत् ॥ ३२६ ॥
सास्त्रद्वयं शिरः
पश्चाद्विज्ञेयोऽष्टादशाक्षरः ।
इयं वै कुक्कुटीविद्या गुप्ता
सर्वागमेष्वपि ॥ ३२७ ॥
स्कन्देनोपासिता पूर्वं तारकस्य
जयेप्सुना ।
अब्धौ रत्नमये पोते
रत्नसिंहासनस्थिताम् ॥ ३२८ ॥
श्यामां त्रिनेत्रां
कुटिलकुन्तलभ्रूविराजिताम् ।
माणिक्यशकलद्योतिदन्तमण्डलमण्डिताम्
॥ ३२९ ॥
रत्नाभरणनद्धाङ्गीं
चतुर्दोर्वल्लिशोभिताम् ।
कुक्कुटी खर्परं वामे बिभ्रतीं
शशिशेखराम् ॥ ३३० ॥
खड्गं च कर्त्तृकां दक्षे धारयन्तीं
शुचिस्मिताम् ।
कुक्कुटी के मन्त्र ध्यान-
अब सद्यः प्रत्यय ( यश, बुद्धि) देने वाले
कुक्कुटी मन्त्र को बतलाऊँगा । वाग्भव, माया, लक्ष्मी, काम, फेत्कारी,
क्रोध, बीजों को कहकर 'कुक्कुटि'
कहे। फिर काली पाश अङ्कुश बीजों का कथन कर शाकिनी और चण्ड बीजों का
उच्चारण करे। दो अस्त्र और अन्त में शिर को कहने से अट्ठारह अक्षर वाला मन्त्र
बनता है (मन्त्र- ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं ह्स्ख्फ्रें हूं कुक्कुटि क्रीं आं
क्रों फ्रें फ्रों फट् फट् स्वाहा। यह कुक्कुटीविद्या सभी आगमों में गुप्त रखी
गयी है । तारकासुर के ऊपर विजय की इच्छा वाले स्कन्द ने इसकी उपासना की। ध्यान-
समुद्र में रत्नमय जहाज के ऊपर रत्नजटित सिंहासन पर बैठी हुई श्यामवर्ण वाली (अथवा
यौवनमध्यथा), त्रिनेत्रा, कुटिल कुन्तल
वाले भौंह से शोभायमान, माणिक्य के टुकड़ों की कान्तिवाले
दन्तसमूह से सुशोभित, रत्नजटित अलङ्कारों को अङ्गों में पहनी
हुई, चार भुजलताओं से शोभित, बायें दो
हाथों में कुक्कुटी (= मुर्गी) और खर्पर ली हुई है, मस्तक पर
चन्द्रमा वाली, दायें हाथ में खड्ग और कैंची ली हुई
शुचिस्मिता कुक्कुटी देवी का ध्यान करने के बाद न्यास करे ।। ३२५-३३१ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - भोगवत्या
मन्त्रध्याने
चिन्तयित्वा चरेन्यासं शृणु
भोगवतीमथ ॥ ३३१ ॥
पाशाङ्कुशौ समुद्धृत्य
प्रासादोऽन्तो मनुर्मतः ।
त्र्यक्षरों जगतीमध्ये
सर्वसौख्यप्रदायकः ॥ ३३२ ॥
अरुणामरविन्दास्यामतिपीनपयोधराम् ।
शेखरीकृतशीताशुं रत्नमौलिं
त्रिलोचनाम् ॥ ३३३ ॥
वराभयकरां शान्तां सितपद्मोपरि
स्थिताम् ।
भोगवती के मन्त्र ध्यान
- अब भोगवती को सुनो। पाश और अङ्कुश का उच्चारण कर अन्त में प्रासाद कहने पर (इस
देवी का) मन्त्र होता है (मन्त्र-आं क्रों हौं) यह तीन अक्षरों वाला मन्त्र
संसार मे समस्त सुखों को देने वाला है। ध्यान- रक्त वर्ण वाली,
कमल जैसे मुख वाली, अत्यन्त पीन स्तनों वाली,
मस्तक पर चन्द्रमा धारण की हुई, शिर पर रत्न
(जटित मुकुट धारण करने) वाली, त्रिनेत्रा, श्वेत कमल के ऊपर बैठी हुई हाथों में वरद एवं अभय मुद्रा धारण की हुई,
शान्त देवी का ध्यान करना चाहिये ।। ३३१-३३४ ॥ 
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - शबरेश्वर्या
मन्त्रध्याने
कथयाम्यथ देवेशि विद्यां तां
शबरेश्वरीम् ॥ ३३४ ॥
तारं त्रपां तथा पाशं ङन्ता च
शबरेश्वरी ।
युक्तो हृन्मनुनाप्यन्ते महामन्त्रो
दशाक्षरः ॥ ३३५ ॥
श्यामा पर्णावृततनुर्गुञ्जाहारविराजिता
।
स्मेरा षोडशवर्षीयावतंसितलतादला ॥
३३६ ॥
वैणवं भाजनं वामे कटेरुपरि
बिभ्रतीम् ।
फलानि चिन्वती दक्षकरेण विपिनावनौ ॥
३३७ ॥
वराटककृताकल्पा गायन्ती खर्वविग्रहा
।
भक्ति भावतया देवी ध्यातव्या
शबरेश्वरी ॥ ३३८ ॥
शबरेश्वरी के मन्त्र ध्यान- हे देवेशि ! अब उस शबरेश्वरी विद्या को बतला रहा हूँ। तार, त्रपा, पाश कहने के बाद ङेऽन्त शबरेश्वरी का उच्चारण कर अन्त में हृदय मन्त्र कहे । यह दश अक्षरों वाला मन्त्र है । ( मन्त्र — ॐ ह्रीं आं शबरेश्वर्यै नमः) । ध्यान - श्यामा, पत्तों से शरीर को ढँकी हुई, गुञ्जा के हार वाली, स्मयमाना, सोलहवर्षीया, लता एवं पत्रों को अवतंस (कर्णाभरण) बनाई हुई, बायीं कटि के ऊपर बाँस का पात्र लटकायी हुई, दायें हाथ से जंगल की भूमि पर फल तोड़ती हुई, कौड़ियों का आभूषण धारण की हुई, गान करती हुई, नाटे कद की भगवती शबरेश्वरी देवी का ध्यान करना चाहिये ॥ ३३४-३३८ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - कुब्जिकाया
मन्त्रध्याने
अथातः कुब्जिकामन्त्रमाकर्णय वरानने
।
नवकूटात्मिका (विद्या)
चिन्तामणिरितीरिता ॥ ३३९ ॥
आदौ वैहायसं कूटं वायवीयं
द्वितीयकम् ।
आग्नेयकूटं तार्तीयं फेत्कारी
तुर्यमुच्यते ॥ ३४० ॥
पञ्चमं वारुणं कूटं शाङ्करं
षष्ठमुच्यते ।
सप्तमं हंसकूटं स्यात्
पराकूटमथाष्टमम् ॥ ३४१ ॥
नवमं डाकिनीकूटं गुप्तं सर्वागमेष्वपि
।
पूर्वमेव विशेषोऽस्याः कथितस्त्वयि
पार्वति ॥ ३४२ ॥
अतो विशिष्य नो वच्मि तथाप्युक्तं
समासतः ।
ध्यानं पूर्वोदितं कुर्याद् यथा
देवि मयोदितम् ॥ ३४३ ॥
कुब्जिका के मन्त्र ध्यान - हे वरानने! अब इसके बाद कुब्जिका के मन्त्र को सुनो। नवकूटात्मिक (यह कुब्जिका देवी ) चिन्तामणि कही गयी है। पहले आकाश कूट फिर वायुबीज तीसरा अग्निबीज चौथा फेत्कारी पाँचवा वरुण कूट छठां शङ्कर (=शं) सातवाँ हंस (=सं) बीज आठवाँ पराकूट और नवाँ डाकिनी कूट है। (मन्त्र—ह य र हस्ख्फ्रें वं शं सं ह्रीं ख्फ्रें) । यह समस्त आगमों में गुप्त है । हे पार्वति ! इसका विशेष तुमको पहले ही बतलाया जा चुका है इसलिये विस्तार से यहाँ नहीं कर रहा हूँ । तथापि संक्षेप में कहा गया । हे देवि ! ध्यान पूर्वोक्त करना चाहिये जैसा कि मैंने पहले कहा है ।। ३३९-३४३ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - सिद्धिलक्ष्म्या
मन्त्रध्याने
त्वं चतुर्विंशतितमां
सिद्धिलक्ष्मीमथो शृणु ।
लज्जां क्रोधं शाकिनीं च योगिनीं
प्रेतमेव च ॥ ३४४ ॥
कालीमथाङ्कुशं बीजं शाकिनीं
कामिनीमपि ।
लक्ष्मी चण्डे च कालं च वैद्युतं
भुजगार्णकम् ॥ ३४५ ॥
स्वाहान्तः षोडशार्णोऽयं
मन्त्रोऽमृतफलप्रदः ।
श्वेतां श्वेतशवारुढां
नृमुण्डकृतकुण्डलाम् ॥ ३४६ ॥
पञ्चवक्त्रां महारौद्रीं प्रतिवक्त्रत्रिलोचनाम्
।
व्याघ्रचर्मावृतकटिं शुष्कावयवभूषिताम्
॥ ३४७ ॥
आबद्धयोगपट्टाञ्च नरास्थिकृतभूषणाम्
।
हस्तैः षोडशभिर्युक्तां
विस्त्रस्तघनकुन्तलाम् ॥ ३४८ ॥
खड्गं बाणं तथा शूलं चक्रं शक्तिं
गदामपि ।
जपमालां कर्त्तृकां च बिभ्रतीं
दक्षिणे भुजे ॥ ३४९ ॥
फलकं कार्मुकं नागपाशं परशुमेव च ।
डमरु फेरुपोतं च नरमुण्डं कपालकम् ॥
३५० ॥
उद्वहन्तीं करे वामे
दीर्घसर्वाङ्गभीषणाम् ।
सिद्धिलक्ष्मी के मन्त्र
ध्यान- अब तुम चौबीसवीं सिद्धिलक्ष्मी को सुनो ।
लज्जा,
क्रोध, शाकिनी, योगिनी,
प्रेत, काली, अङ्कुश,
शाकिनी, कामिनी, लक्ष्मी,
चण्ड, काल, विद्युत,
सर्प, बीजों को कहकर अन्त में 'स्वाहा' कहना चाहिये । ( मन्त्र - ह्रीं हूं
फ्रें छ्रीं स्हौः क्रीं क्रों फ्रें क्लीं श्री फ्रों जूं ब्लों दं स्वाहा )
सोलह वर्णों वाला यह मन्त्र अमृतत्त्व देता है। ध्यान—श्वेत
वर्ण की, श्वेत शव पर आरूढ, नरमुण्ड का
कुण्डल पहनी हुई, पाँच मुखों वाली, महाभयङ्करी,
प्रत्येक मुख में तीन आँखों वाली, कटिप्रदेश
में बाघ का चर्म पहनी हुई, शुष्क अङ्गों वाली, सोलह हाथों से युक्त, बिखरे घने बालों वाली, दायें हाथों में खड्ग, बाण, त्रिशूल,
चक्र, शक्ति, गदा,
जपमाला और कैंची तथा बायें हाथों में फलक, धनुष,
नागपाश, कुठार, डमरू,
श्रृंगाल का बच्चा, नरमुण्ड और कपाल ली हुई
तथा समस्त लम्बे अङ्गों से भयङ्कर देवी (का ध्यान कर अङ्गन्यास करना चाहिये) ॥
३४४-३५१ ।।
शेष भाग आगे जारी ........





















Post a Comment