पूजन विधि, ज्योतिष, स्तोत्र संग्रह, व्रत कथाएँ, मुहूर्त, पुजन सामाग्री आदि

कामकलाकाली खण्ड अष्टम पटल

कामकलाकाली खण्ड अष्टम पटल   

इससे पूर्व महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड के अष्टम पटल में देवी को महाकाल ने पहले नृसिंह, भैरव, कामदेव के इक्यावन नाम व इक्यावन देवियों में २४ देवी महालक्ष्मी से सिद्धिलक्ष्मी तक पढ़ा अब आगे बाला, त्रिपुरसुन्दरी, तारा, दक्षिणकाली, छिन्नमस्ता, त्रिकण्टकी, नीलपताका, चण्डघण्टा, चन्द्रेश्वरी, भद्रकाली, गुह्यकाली, अनङ्गमाला तक देवियों के मन्त्र और ध्यान का निर्वचन पृथक्-पृथक् करने के पश्चात् षोढान्यास के समर्पण और विधि की चर्चा की गयी है ।

कामकलाकाली खण्ड अष्टम पटल

महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल ८     

Mahakaal samhita kaam kalaa kaali khanda patal 8

महाकालसंहिता कामकलाकालीखण्ड: अष्टमः पटलः

महाकालसंहिता कामकलाखण्ड अष्टम पटल

महाकालसंहिता कामकलाकालीखण्ड आठवां पटल

महाकालसंहिता

कामकलाखण्ड:

(कामकलाकालीखण्ड:)

अष्टमः पटल:

महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल ८- बाला

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - बालाया मन्त्रध्याने

कृत्वा ध्यानं न्यसेदङ्गे बालामाकलयाधुना ॥ ३५१ ॥

आदौ वाग्भवमुद्धृत्य कामबीजं ततः परम् ।

सकारोऽधोदन्तयुतो महासेनविराजितः ॥ ३५२ ॥

त्र्यक्षरः परमो मन्त्रो विद्यैश्वर्य्यप्रदायकः ।

समुद्यद्रविबिम्बाभामरुणक्षौमधारिणीम् ॥ ३५३ ॥

फुल्लराजीववदनां पीनोत्तुङ्गपयोधराम् ।

रत्नकेयूरताटङ्कमुक्ताहारविराजिताम् ।। ३५४ ।।

त्रिनेत्रां बालशीतांशुखण्डशोभिललाटिकाम् ।

पद्मोपरि समासीनां बालां देवीं चतुर्भुजाम् ॥ ३५५ ॥

विद्यामभीतिं वामेन दक्षे जपवटीं वरम् ।

धारयन्तीं जगद्धात्रीं सर्वदैव हसन्मुखीम् ॥ ३५६ ॥

सञ्चिन्त्य न्यसनं कुर्यादप्रमत्तेन चेतसा ।

बाला के मन्त्र ध्यान - अब बाला को सुनो। पहले वाग्भव फिर काम अधोदन्त ( =ओ) से युक्त सकार जो कि महासेन (:) से सुशोभित है। ( मन्त्र - ऐं क्लीं सौः) । तीन अक्षरों वाला यह परम मन्त्र विद्या देता है। ध्यान-उगते हुए सूर्यबिम्ब के समान कान्तिवाली, लाल रेशमी वस्त्र पहनी हुई, विकसित कमल के समान मुख वाली पीन उत्तुङ्ग स्तनों वाली, रत्नजटित केयूर ताटङ्क एवं मोती के हार से शोभायमान, तीन नेत्रों वाली, ललाट पर बालचन्द्रखण्ड वाली, कमल के ऊपर बैठी, चार भुजा वाली बाला देवी बायें हाथों में विद्या और अभय मुद्रा, दायें हाथों में जपमाला और वरद मुद्रा धारण की हुई, जगत् का पालन करने वाली, सर्वदा हँसती हुई देवी का अप्रमत्त चित्त से ध्यान कर न्यास करना चाहिये ।। ३५१-३५७ ।।

त्रिपुरसुन्दरी

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - त्रिपुरसुन्दर्या मन्त्रध्याने

अथाकर्णय देवेशि विद्यां त्रिपुरसुन्दरीम् ॥ ३५७ ॥

यत्र प्रतिष्ठिताः सर्वे तन्त्रडामरयामलाः ।

यतः परतरा विद्या न भूता न भविष्यति ॥ ३५८ ॥

केनापि नैव शप्तेयं नैव केन च कीलिता ।

तत्तेऽहं सम्प्रवक्ष्यामि यथावदुपधारय ॥ ३५९ ॥

सव्योमसब्रह्मभूमित्रपार्णैराद्यकूटकम् ।

व्योमसब्रह्मगगनमेदिनी भुवनेश्वरी ॥ ३६० ॥

द्वितीयकूमुद्दिष्टं विद्याराज्यफलप्रदम् ।

सक्ोधीशपिनाकीशलज्जाबीजान्त्यसंयुतम् ॥ ३६१ ॥

तृतीयकूटमुद्दिष्टं सर्वसिद्धिविधायकम् ।

एषा प्रकाशिता विद्या लोपामुद्राविधायिनी ॥ ३६२ ॥

यस्याः संस्मरणेनापि किं कार्यं नैव सिद्ध्यति ।

कथ्यमानं मया देवि ध्यानमस्या निशामय ॥ ३६३ ॥

त्रिपुरसुन्दरी के मन्त्र ध्यान- हे देवेशि ! अब त्रिपुरसुन्दरी विद्या को सुनो । जिसमें सभी तन्त्र डामर और यामल प्रतिष्ठित हैं। इससे बढ़कर विद्या न हुई और न होगी। इसे न तो किसी ने शाप दिया और न किसी ने इसका कीलन किया। उसको मैं तुम्हें बतला रहा हूँ। जैसा मैं बतला रहा हूँ वैसा ही मन में समझो । आकाश ब्रह्म भूमि लज्जा वर्णों का पहला कूट है। आकाश, ब्रह्म, गगन, भूमि, भुवनेश्वरी यह दूसरा कूट है। यह विद्या और राज्य देने वाला है। क्रोधीश पिनाकीश लज्जा यह तृतीय कूट है जो सर्वसिद्धिदायक है। ( मन्त्र स्वरूप - १. हं कं लं ह्रीं, २. कं लं ह्रीं) । यह प्रकाशिता विद्या लोपामुद्रा (अगस्त्य की पत्नी) को ऋषित्व प्रदान करने वाली है। कौन सा ऐसा कार्य है जो इसके स्मरण मात्र से नहीं सिद्ध होता । हे देवि! मेरे द्वारा इसके कथ्यमान ध्यान को सुनो ।। ३५७-३६३ ।।

उद्यच्चन्द्रोदय क्षुब्धरक्तपीयूषवारिधेः।

मध्ये हेममयी भूमी रत्नमाणिक्यमण्डिता ॥ ३६४ ॥

तन्मध्ये नन्दनोद्यानं मदनोन्मादनं महत् ।

नित्याभ्युदितपूर्णेन्दुज्योत्स्नाजालविराजितम् ॥ ३६५ ॥

सदा सह वसन्तेन कामदेवेन रक्षितम् ।

कदम्बचूतपुन्नागनागकेशरचम्पकैः ॥ ३६६ ॥

वकुलैः पारिजातैश्च सर्वर्तुकुसुमोज्ज्वलैः ।

झङ्कारमुखरैर्भृङ्गैः कूजद्भिः कोकिलैः शुकैः ॥ ३६७ ॥

नानावर्णैरथान्यैश्च द्विजसङ्घैर्निषेवितम् ।

शिखिकारण्डहंसाद्यैर्नानापक्षिभिरावृतम् ॥ ३६८ ॥

नानापुष्पलताकीर्णैः शोभितं वृक्षखण्डकैः ।

पर्यन्तदीर्घिकोत्फुल्लकमलोत्पलसम्भवैः॥ ३६९ ॥

रजोभिर्धूसरैः सम्यक्सेवितं मलयानिलैः ।

ध्यात्वैतन्नन्दनोद्यानं तदन्तः प्राङ्गणं स्मरेत् ॥ ३७० ॥

उदीयमान चन्द्र के उदय से क्षुब्ध रक्त वर्ण के अमृतसिन्धु के मध्य में रत्नमाणिक्य से मण्डित स्वर्णमयी भूमि है। उसके बीच में कामोद्दीपक नन्दन वन है। यहाँ नित्योदित पूर्णचन्द्र की ज्योत्स्ना फैली रहती है। कामदेव वसन्त के साथ सदा (इस वन की) रक्षा करते हैं। कदम्ब, आम, पुन्नाग, नागकेशर, चम्पा, बकुल, पारिजात सभी ऋतुओं में पुष्पित रहते हैं । झङ्कारयुक्त भौंरों कूजती हुई कोकिलों, शुकों तथा अन्य नाना प्रकार के पक्षियों से यह वन व्याप्त है। मयूर कारण्डव हंस आदि अनेक पक्षियों से आवृत नाना पुष्पों एव लताओं से व्याप्त वृक्षों से सुशोभित, किनारे-किनारे तक व्याप्त तालाब के अन्दर खिले हुए कमलों से उत्पन्न पराग कणों से धूसर, मलयानिल से सेवित इस नन्दन वन का ध्यान कर उसके भीतर स्थित आंगन का ध्यान करना चाहिये ।। ३६४-३७० ॥

शुद्धकाञ्चनसङ्काशवसुधाभिरलङ्कृतम् ।

प्राङ्गणं चिन्तयित्वेत्यं सुरसिद्धनिषेवितम् ॥ ३७१ ॥

तन्मध्ये मण्डपं ध्यायेद् व्याप्तब्रह्माण्डमण्डलम् ।

सहस्रादित्यसङ्काशं चतुरस्त्रसुशोभितम् ॥ ३७२ ॥

रत्नतेजःप्रभापुञ्जपिञ्जरीकृतदिङ्मुखम् ।

मध्यस्तम्भविनिर्मुक्तं कोणस्तम्भसमन्वितम् ॥ ३७३ ॥

महामाणिक्यवैदूर्य्यरत्नकाञ्चनभूषितम् ।

मुक्तादामवितानाढ्यं रत्नसोपानमण्डितम् ॥ ३७४ ॥

मन्दवायुसमाक्रान्तं गन्धधूपतरङ्गितम् ।

रत्नचामरघण्टादिवितानैरुपशोभितम् ॥ ३७५ ॥

जातीचम्पकपुन्नागकेतकीमल्लिकादिभिः।

रक्तोत्पलसिताम्भोजमाधवीभिः सुपुष्पकैः ॥ ३७६ ॥

वद्धाभिश्चित्रमालाभिः सर्वत्र समलङ्कृतम् ।

तिर्यगूर्ध्वलसद्रलं पुत्तलीकोटिमण्डितम् ॥ ३७७ ॥

नानारत्नादिभिर्दिव्यैर्निर्मितं विश्वकर्मणा ।

शुद्ध स्वर्ण के समान पृथिवी से अलङ्कृत तथा देवताओं और सिद्धों से सेवित इस प्रकार के प्राङ्गण का ध्यान कर उसके बीच में ब्रह्माण्डमण्डल को व्याप्त करने वाले मण्डप का ध्यान करना चाहिये। यह मण्डप हजार सूर्य के समान (दीप्तिमय), चौकोर, रत्नों के तेज प्रभापुञ्ज से दिशाओं को आवृत करने वाला, मध्य में स्तम्भ- रहित, कोनों पर स्तम्भ वाला, महामाणिक्य वैदूर्य रत्न और स्वर्ण से अलङ्कृत, मोतियों की माला से भरा हुआ, रत्नों के सोपान से मण्डित, मन्दवायु से भरा, गन्ध एवं धूप से तरङ्गित, रत्न, चामर, घण्टा आदि के विस्तार से शोभित, जाती चम्पक पुन्नाग केतकी मल्लिका आदि रक्तकमल श्वेतकमल माधवी आदि पुष्पों से बनी विचित्र मालाओं से सर्वत्र समलङ्कृत, तिर्यक् और ऊपर की ओर चमकते रत्नों वाला, करोड़ों पुत्तलियों से मण्डित एवं विश्वकर्मा के द्वारा दिव्य अनेक रत्न आदि से विनिर्मित है ।। ३७१-३७८ ॥

तन्मध्ये भावयेन्मन्त्री पारिजातं मनोहरम् ॥ ३७८ ॥

स्वर्णादिरत्नभूमिं च बालुकां काञ्चनप्रभाम् ।

उद्यदादित्यसङ्काशं व्याप्तब्रह्माण्डमण्डपम् ॥ ३७९ ॥

शतयोजनविस्तीर्णं ज्योतिर्मन्दिरमुत्तमम् ।

चतुर्द्वारसमायुक्तं हेमप्राकारमण्डितम् ॥ ३८० ॥

रत्नोपक्लृप्तसंशोभिकपाटाष्टकसंयुतम् ।

नवरत्नसमाक्लृप्ततुङ्गगोपुरतोरणम् ॥ ३८१ ॥

हेमदण्डशिखालम्बिध्वजावलिपरिष्कृतम् ।

मध्यकोणस्थितस्तम्भनवरत्नसमन्वितम् ॥ ३८२ ॥

महामाणिक्यवैदूर्य्यरत्नचामरशोभितम् ।

मन्दवायुसमाक्रान्तं गन्धधूपैरलङ्कृतम् ॥ ३८३ ॥

बहुचामरघण्टादिवितानैरुपशोभितम् ।

कल्पवृक्षे गिरेः पार्श्वे छत्रं तन्मण्डपोपरि ॥ ३८४ ॥

सुवर्णसूत्रै रचितं तन्मध्ये रत्नमण्डपम् ।

तन्मध्ये स्फुरितं ध्यायेत् त्रिशृङ्गज्योतिरुत्तमम् ॥ ३८५ ॥

तस्य मध्ये महाचक्रं पीयूषपरिपूरितम् ।

रत्नसिंहासनं तस्या वेद्या मध्ये स्मरेच्छुभम् ॥ ३८६ ॥

विरिञ्चिविष्णुरुद्रेशरूपपादचतुष्टयम् ।

सदाशिवमयं साक्षात्तस्मिन् परशिवात्मकम् ॥ ३८७ ॥

पुष्पपर्य्यकमाश्चर्य्य. (परिच्छदसमावृतम्) ।

मन्त्री इस मण्डप के बीच मनोहर पारिजात की भावना करे। स्वर्ण आदि रत्नों की भूमि और सोने सी चमक वाली बालुका की भावना करे। उगते हुए सूर्य के समान तथा ब्रह्माण्डमण्डप को व्याप्त किया हुआ सौ योजन विस्तृत तथा उत्तम एक ज्योति मन्दिर है जिसमें चार दरवाजे और स्वर्ण की चारदीवारी है। रत्न से बने हुए शोभायुक्त आठ किवाड़ से यह युक्त है। इसका गोपुर और तोरण नव रत्नों से रचित एवं अति उच्च है। यह ज्योति मन्दिर सोने के दण्ड की शिखा से लटकने वाली पताकाओं से परिष्कृत मध्य एवं कोनों में स्थित स्तम्भ में जटित नवरत्नों से समन्वित, महामाणिक्य वैदूर्य रत्नों से जटित चामरों से शोभित, मन्द वायु से समाक्रान्त, गन्ध धूप से अलङ्कृत, बहुत से चामर घण्टा आदि वस्तुओं से शोभित है। उस मण्डप के ऊपर पर्वत के पास कल्पवृक्ष के ऊपर छत्र है। उसके बीच में सोने के तारों से निर्मित रत्नमण्डप है । साधक को उस मण्डप के मध्य में तीन शिखा वाली उत्तम स्फुरित होती हुई ज्योति का ध्यान करना चाहिये। उसके मध्य में अमृतपूर्ण महाचक्र (= गोल वेदी) है। साधक को उस वेदी के मध्य में शुभ रत्नमय सिंहासन का ध्यान करना चाहिये। यह रत्नसिंहासन ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और ईशान रूप चार पायों वाला है। वह सदाशिवमय है (अर्थात् पञ्च कारण ही इस सिहासन के रूप में विराजमान हैं) । उसमें परमशिव पुष्प के पर्यङ्क के समान है जो आश्चर्ययुक्त चादर से युक्त है ।। ३७८-३८८ ॥

तन्मध्ये योनिमध्यस्थे श्रीमदोड्यानपीठके ॥ ३८८ ॥

पर्यङ्कबद्धविलसत्स्वस्तिकासनशालिनीम् ।

ध्यायेत् परशिवाङ्कस्यां पद्ममध्योज्ज्वलाकृतिम् ॥ ३८९ ॥

त्रिपुरासुन्दरीं देवीं बालार्ककिरणारुणाम् ।

जवाकुसुमसङ्काशां दाडिमीकुसुमोपमाम् ॥ ३९० ॥

पद्मरागप्रतीकाशां कुङ्कुमोदकसन्निभाम् ।

स्फुरन्मुकुटमाणिक्यकिङ्किणीजालमण्डिताम् ॥ ३९९ ॥

कालालिकुलसङ्काशकुटिलालकपल्लवाम् ।

प्रत्यग्रारुणसङ्काशवदनाम्भोजमण्डलाम् ॥ ३९२ ॥

किञ्चिदर्द्धेन्दुकुटिलललाटमृदुपट्टिकाम ।

पिनाक धनुराकारसुध्रुवं परमेश्वरीम् ॥ ३९३ ॥

आनन्दमुदितोल्लोललीलान्दोलितलोचनाम् ।

स्फुरन्मयूखसङ्घातविलसद्धेमकुण्डलाम् ॥ ३९४ ॥

स्वगण्डमण्डला भोगजितेन्द्वमृतमण्डलाम् ।

विश्वकर्मादिनिर्माणसूत्रसुस्पष्टनासिकाम् ॥ ३९५ ॥

ताम्रविद्रुमबिम्बाभरक्तोष्ठीममृतोपमाम् ।

दाडिमीबीजपङ्क्त्या भदन्तपङ्क्तिविराजिताम् ॥ ३९६ ॥

स्मितमाधुर्यविजितमाधुर्यरससागराम् ।

अनौपम्यगुणोपेतचिबुकोद्देशशोभिताम् ॥ ३९७ ॥

कम्बुग्रीवां महादेवी मृणालललितैर्भुजैः ।

रक्तोत्पलदलाकारसुकुमारकराम्बुजाम् ॥ ३९८ ॥

उस पर्यङ्क के मध्य में योनि है । योनि के मध्य में उड्डीयान पीठ पर पर्यङ्क आसनयुक्त स्वस्तिक आसन वाली त्रिपुरसुन्दरी का ध्यान करना चाहिये। (यह देवी) परम शिव की गोद में विराजमान है। यह परमेश्वरी कमल के मध्य (स्थ केशर) के समान उज्ज्वल आकृति वाली, प्रातः कालीन सूर्य के समान अरुण, जपाकुसुम अनार पुष्प पद्मराग कुङ्कुमोदक के समान है। इसका मुकुट माणिक्य एवं किङ्किणी जाल से युक्त कहा गया है । काले भ्रमर (अथवा मृत्युकारी भ्रमर) कुल के समान कुटिल बालों वाली, निकलते हुए अरुण के समान मुखकमल वाली, कुछ टेढे अर्धचन्द्र के समान कोमल ललाटपट्ट वाली, पिनाक धनुष के आकार वाले सुन्दर भौंहों वाली है । आनन्द से मुदित उल्लोल लीला के कारण आन्दोलित नेत्रों वाली, चञ्चल किरणों से शोभायमान स्वर्ण कुण्डलों वाली, अपने गण्डमण्डल के विस्तार से चन्द्रमा के अमृतमण्डल को जीतने वाली, विश्वकर्मा आदि के रचनासूत्र से सुस्पष्ट नाक वाली, ताम्र, मूँगा, बिम्बफल के समान लाल ओठों वाली, अमृततुल्य अनार की बीजपति के समान दन्तपङ्क्ति से सुशोभित, मुस्कान की मधुरिमा से माधुर्यरस सागर को भी जीत लेने वाली है । अनुपम गुणों वाली चिबुक से शोभित यह देवी कम्बुग्रीवा है। मृणाल के समान ललित भुजाओं से युक्त रक्तकमल दल के आकार के समान कोमल करों वाली है ।। ३८८-३९८ ॥

कराम्बुजनखज्योतिर्विद्योतितनभस्थलाम् ।

मुक्ताहारलतोपेतसमुन्नतपयोधराम् ॥ ३९९ ॥

त्रिबलीबलिनायुक्तमध्यदेशोपशोभिताम् ।

लावण्यसरिदावर्त्ताकारनाभिविभूषिताम् ॥ ४०० ॥

अनर्घ्यरत्नघटितकाञ्चीयु (त) नितम्बिनीम् ।

नितम्बबिम्बद्विरदरोमराजिवराङ्कुशाम् ॥ ४०१ ॥

कदलीललितस्तम्भसुकुमारोरुमीश्वरीम् ।

लावण्यक दलीतुल्यजङ्घायुगलमण्डिताम् ॥ ४०२ ॥

गूढगुल्फपदद्वन्द्वप्रपदाजितकच्छपाम् ।

ब्रह्मविष्णुशिरोरत्ननिघृष्टचरणाम्बुजाम् ॥ ४०३ ॥

तनुदीर्घांगुलीभास्वन्नखचन्द्रविराजिताम् ।

शीतांशुशतसङ्काशकान्तिसन्तानहासिनीम् ॥ ४०४ ॥

लौहित्यजितसिन्दूरजवादाडिमरागिणीम् ।

रक्तवस्त्रपरीधानां पाशाङ्कुशकरोद्यताम् ॥ ४०५ ॥

रक्तपुष्पनिविष्टां च रक्ताभरणमण्डिताम् ।

चतुर्भुजां त्रिनेत्रां च पञ्चबाणधनुर्द्धराम् ॥ ४०६ ॥

हाथों की नखज्योति से नभःस्थल को प्रकाशित करने वाली, उसके स्तनों पर मुक्ताहार शोभायमान है । यह ईश्वरी त्रिबली से युक्त मध्य देश (= कटिप्रदेश के ऊपर का भाग) वाली, सौन्दर्य की सरिता के आवर्त (= भँवर) के आकार वाली नाभि से विभूषित, नितम्बों पर अमूल्य रत्नों से बनी काञ्ची पहनी हुई, नितम्ब बिम्ब (= गोल कूल्हे) के ऊपर हाथी के रोमसमूह के समान अङ्कुश वाली, केले की सुन्दर स्तम्भ के समान सुकुमार ऊरु वाली, लावण्य के केले के सदृश दोनों जङ्घा वाली, गूढ गुल्फ वाले दोनों पैरों से कच्छप को भी जीत लेने वाली है। इसके चरणों में ब्रह्मदेव, श्रीविष्णु अपने शिरमुकुट के रत्न घिसते रहते (अर्थात् नमन करते रहते हैं। पतली लम्बी ऊँगलियों में चन्द्रतुल्य नख भासमान हैं। सैकड़ों चन्द्रमा की कान्ति सी हँसी वाली, लालिमा में सिन्दूर जवाकुसुम और अनार के रंग को जीतने वाली, लाल वस्त्र पहनी हुई, हाथ में पाश और अङ्कुश धारण की हुई, रक्त पुष्पों पर बैठी हुई, रक्त आभरण से अलङ्कृत, चार भुजा और तीन नेत्रों वाली, पाँच बाण और धनुष को धारण की हुई है ।। ३९९-४०६ ।।

कर्पूरशकलोन्मिश्रताम्बूलापूरिताननाम् ।

महामृगमदोद्दामकुङ्कुमारुणविग्रहाम् ॥ ४०७ ॥

सर्वशृङ्गारवेषाढ्यां सर्वालङ्कारभूषिताम् ।

जगदाह्लादजननीं जगद्रञ्जनकारिणीम् ॥ ४०८ ॥

जगदाकर्षणकरी जगत्कारणरूपिणीम् ।

सर्वमन्त्रमयीं देवीं सर्वसौभाग्यसुन्दरीम् ॥ ४०९ ॥

सर्वलक्ष्मीमयीं नित्यां परमानन्दनन्दिताम् ।

प्रदीपैः पूर्णकुम्भैश्च सर्वतः समलङ्कृताम् ॥ ४१० ॥

हैमीभिः पालिकाभिश्च साङ्कङ्कुराभिरलङ्कृताम् ।

रत्नपीठस्थितैर्दिव्यैरागमैः परिशोभिताम् ॥ ४११ ॥

तदन्तरान्तराप्रोद्यन्मणिदर्पणमङ्गलाम् I

मधुरोदारविविधगान्धर्वस्तोत्रबृंहिताम् ॥ ४१२ ॥

शृङ्गाररससन्नद्धैर्नवयौवनलम्पटैः I

अमरीनिकरैर्नानामणिभूषणभूषितैः ॥ ४१३ ॥

वीणावेणुमृदङ्गादिवादनेन च नृत्यकैः ।

प्रीणयद्भिर्महादेवीं परीतां परितः सदा ॥ ४१४ ॥

देवीं ध्यात्वा न्यसेदेवं सर्वान् कामानवाप्नुयात् ।

यह देवी कपूर के खण्ड से मिश्रित पान से पूरित मुख वाली, महामृगमद् (= कस्तूरी) से अत्यन्त सुगन्धित कुङ्कुम से उपलिप्त देहवाली, समस्त शृङ्गारवेष से परिपूर्ण, समस्त अलङ्कारों से विभूषित, संसार को आह्लाद देने वाली, जगत् का मनोरञ्जन करने वाली, सर्वमन्त्रमयी, सर्वसौभाग्यसुन्दरी, सर्वलक्ष्मीमयी, नित्या, परमानन्द से परिपूर्ण प्रदीपों और पूर्ण कुम्भों से सब ओर से अलङ्कृत, रत्नपीठ पर स्थित मणिदर्पण से मङ्गलमयी, मधुर उदार विविध गान्धर्व स्तोत्रों से सम्बधित है । शृङ्गार रस से सन्नद्ध नव यौवन से युक्त नाना मणियुक्त अलङ्कारों से अलङ्कृत देवताओं की स्त्रियों, वीणा वंशी मृदङ्ग आदि बाजों के साथ नर्तकों, महादेवी की प्रशंसा करने वालों से सदा सब ओर से परिवृत देवी का ध्यान कर न्यास करे । (इससे साधक) समस्त इच्छाओं की पूर्ति प्राप्त करता है ।। ४०७-४१५ ॥

तारा

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - ताराया मन्त्रध्याने

अथ वक्ष्ये महादेव्यास्ताराया मन्त्रमुत्तमम् ॥ ४१५ ॥

मायाबीजं निःसकारं वधूबीजं ततः परम् ।

क्रोधबीजमथोच्चार्य शेषेऽस्त्रं प्रतिपादयेत् ॥ ४१६ ॥

ध्यानमस्याः समासेन कथ्यमानं निबोध मे ।

प्रत्यालीढपदां घोरां मुण्डमालाविभूषिताम् ॥ ४१७ ॥

खव लम्बोदरी भीमां व्याघ्रचर्मावृतोरुकाम् ।

नवयौवनसम्पन्नां पञ्चमुद्राविभूषिताम् ॥ ४१८ ॥

चतुर्भुजां महादेवीं ललज्जिह्वां वरप्रदाम् ।

खड्गकर्तृधरां दक्षे तथोत्पलकपालके ॥ ४१९ ॥

वामतो बिभ्रतीं देवीं दंष्ट्राघोरतराननाम् ।

पिङ्गोग्रैकजटां ध्यायेन्मौलावक्षोभ्यभूषिताम् ॥ ४२० ॥

कुणपं वामपादेन चाक्रम्य परिनिष्ठिताम् ।

नीलेन्दीवरमालाभिः संशोभिचिकुरोच्चयाम् ॥ ४२१ ॥

नीलमेघाभभुजपरिनद्धजटाभराम् ।

जवाकुसुमसङ्काश भुजङ्गकृतकुण्डलाम् ॥ ४२२ ॥

धूमप्रभमहानागकृतकेयूरमण्डलाम् ।

तप्तकाञ्चनरुग्भोगिविहितोज्ज्वलकङ्कणाम् ॥ ४२३ ॥

दूर्वादलश्यामनागकृतयज्ञोपवीतिनीम् ।

हिमकुन्दाभभोगीन्द्रविराजिकटिसूत्रिणीम् ॥ ४२४ ॥

पाटलीकुसुमाभां हि कृतमञ्जीरशोभिताम् ।

प्रज्वालपितृभूमध्यगतां दंष्ट्राकरालिनीम् ॥ ४२५ ॥

सावेशस्मेरवदनां स्त्र्यलङ्कारविभूषिताम् ।

सद्यः कवित्वफलदां सद्यो राज्यफलप्रदाम् ॥ ४२६ ॥

भवाब्धितारिणी तारां चिन्तयित्वा न्यसेन्मनुम् ।

तारा के मन्त्र ध्यान- अब महादेवी तारा का उत्तम मन्त्र बतलाऊँगा । माया सकाररहित वधू बीज इसके बाद क्रोध बीज का उच्चारण कर अन्त में अस्त्र कहना चाहिये (मन्त्र - ह्रीं श्रीं हूं फट्) । अब संक्षेप में इसका ध्यान कह रहा हूँ। मुझसे जानो। एक पैर को आगे बढ़ायी हुई, घोर, मुण्डमाला से अलङ्कृत, खर्व लम्बे उदरवाली, भयङ्कर, उरु को बाघ के चर्म से ढँकी हुई, नव यौवन वाली, पञ्चमुद्रा से विभूषित, चार भुजा वाली, जिह्वा को लपलपाती हुई, वरप्रदा, दायें (हाथ में) खड्ग और कैची धारण की हुई, बायें (हाथ में) कमल और कपाल धारण की हुई, दाँत के कारण घोरतर आनन वाली, शिर पर अक्षोभ्य और पिङ्ग जटा से भूषित, बायें पैर से शव को आक्रान्त कर खड़ी, बालों में नीलकमल की मालायें गूँथी हुई, जटाओं में नील मेघ के समान काले नाग लपेटी हुई, कानों में जवाकुसुम के रंग एवं आकृति के समान सर्प धारण की हुई, धूम के समान महानाग का केयूर पहनी हुई, तप्त कञ्चन की आभा वाले साँपों का उज्ज्वल कङ्कण पहनी हुई, दूर्वादल के समान महासर्प का यज्ञोपवीत पहनी हुई, हिम एवं कुमुद के समान साँप के कटिसूत्र (=करधनी) से शोभायमान, पाटलीपुष्प के समान कान्तिवाली, मञ्जीर पहनने से सुशोभित ज्वालायुक्त श्मशान के मध्य में खड़ी, दाँतों के कारण भयङ्करी, आवेशसहित मुस्कान वाली, स्त्री के लिये उचित अलङ्कार से विभूषित, तत्काल कवित्वशक्ति देने वाली, सद्यः राज्यफल देने वाली, संसारसागर से पार लगाने वाली तारा का ध्यान कर मन्त्र का न्यास करना चाहिये ।। ४१५-४२७ ॥

दक्षिणकाली

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - दक्षिणकाल्या मन्त्रध्याने 

अथ दक्षिणकाल्यास्तु मन्त्रमुद्धारयाम्यहम् ॥ ४२७ ॥

यदेकवारस्मरणात् किं तद् यन्न करे स्थितम् ।

आदौ बीजत्रयं काल्यास्ततः क्रोधयुगं वदेत् ॥ ४२८ ॥

लज्जाबीजद्वयं प्रोच्य वदेद् दक्षिणकालिके ।

पुनर्बीजत्रयं काल्याः क्रोधबीजद्वयं पुनः ॥ ४२९ ॥

लज्जायुगं वह्निजाया द्वाविंशत्यक्षरो मनुः ।

धन्यः सोऽपि नरो लोके यः सकृत् प्रोच्चरेदमुम् ॥ ४३० ॥

महिमा वर्णितुं देवि न शक्योऽस्य कथञ्चन ।

विस्तारोऽस्याः पूर्वमेव देवि ते वर्णितो मया ॥ ४३१ ॥

ध्यानं पूजादिकं सर्वं कथितं तत्प्रसङ्गतः ।

किञ्चिद् ध्यानं प्रवक्ष्यामि तस्या ध्यानक्रमागतम् ॥ ४३२ ॥

ज्वलत्पावककीलालश्मशानचितिमध्यगाम् ।

करालवदनां घोरां मुक्तकेशीं चतुर्भुजाम् ॥ ४३३ ॥

कालिकां दक्षिणां दिव्यां मुण्डमालाविभूषिताम् ।

नागयज्ञोपवीतां च चन्द्रार्द्धकृतशेखराम् ॥ ४३४ ॥

जटायुक्तां घोररूपां महाकालसमीपगाम् ।

सद्यश्छिन्नशिरःखड्गवामोर्ध्वाधः कराम्बुजाम् ॥ ४३५ ॥

अभयं वरदं चापि दक्षिणोऽ धोर्ध्वपाणिकम् ।

महामेघप्रभां श्यामां तथा चैव दिगम्बराम् ॥ ४३६ ॥

कण्ठावसक्तमुण्डालीगलगुधिरचर्चिताम् ।

कर्णावतंसतानीतशवयुग्मभयानकाम् ॥ ४३७ ॥

घोरदंष्ट्राकरालास्यां पीनोन्नतपयोधराम् ।

शवानां करसङ्घातैः कृतकाञ्चीं हसन्मुखीम् ॥ ४३८ ॥

सृक्कद्वन्द्वस्रवद्रक्तधाराविच्छुरिताननाम् ।

घोराकारां महारौद्री श्मशानालयवासिनीम् ॥ ४३९ ॥

भूतप्रेतपिशाचादिडाकिनीगणमध्यगाम् ।

दैत्यदानवकोटिघ्नीं ललज्जिह्वाभयानकाम् ॥ ४४० ॥

दक्षिणां कालिकां ध्यायेदित्थं सिद्धिविधायिनीम् ।

दक्षिणकाली के मन्त्र ध्यान अब मैं दक्षिण काली का मन्त्रोद्धार करूंगा जिसके एक बार के स्मरण से ऐसी कौन सी वस्तु है जो हाथ में न आ जाय। पहले कालीबीज को तीन बार इसके बाद क्रोधबीज को दो बार फिर लज्जा बीज को दो बार कह कर 'दक्षिणकालिके' कहे। फिर काली बीज को तीन क्रोध बीज को दो और लज्जा बीज को दो बार कहने के बाद 'स्वाहा' कहे (मन्त्र - क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं दक्षिणकालिके क्री क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं स्वाहा ) * । इस लोक में वह मनुष्य धन्य है जो एक बार भी इस मन्त्र का उच्चारण करता है। हे देवि । इस मन्त्र की महिमा का वर्णन किसी भी प्रकार नहीं किया जा सकता। हे देवि! इसका विस्तार मैंने तुमको पहले ही बतला दिया है। उस प्रसङ्ग में मैंने ध्यान पूजा आदि सब कुछ कह दिया है । यहाँ ध्यानक्रम से प्राप्त कुछ ध्यान बतलाऊँगा । ध्यान-यह देवी जलती हुई आग और पानी वाले श्मशान की चिता के मध्य में स्थित है । विकराल मुख वाली, घोर, खुले बालों वाली, चतुर्भुजा दिव्य दक्षिणाकाली मुण्डमाला से विभूषित है। यह देवी नाग का यज्ञोपवीत, मस्तक पर अर्धचन्द्र धारण की हुई, जटावाली, घोररूपा महाकाल के समीप स्थित है। बायें ऊपर-नीचे दोनों हाथों से सद्यः कटा हुआ शिर और खड्ग तथा दायें ऊपर-नीचे हाथों में अभय और वरद मुद्रा धारण की है । महामेघ की प्रभा के समान काली, नग्न, कण्ठ में पड़ी मुण्डमाला से गिरते हुए रक्त से उपलिप्त, कानों में दो शवों का कुण्डल धारण करने से भयानक, घोर दाँत के कारण विकराल मुख वाली, पीन और उत्तुङ्ग स्तनों वाली, शवों के हाथों की करधनी पहनी हुई, हँसमुख, दोनों सृक्कों से गिरती हुई रक्त धारा से अलङ्कृत मुख वाली, भयानक आकार वाली, श्मशान गृह में रहने वाली, भूत-प्रेत पिशाच आदि तथा डाकिनियों के बीच स्थित, करोड़ों दैत्यों और दानवों का नाश करने वाली, लपलपाती जिह्वा के कारण भयानक सिद्धिदायिनी काली का इस प्रकार ध्यान करना चाहिये ।। ४२७-४४१ ॥

* काली का मन्त्र एक अक्षर से लेकर बाईस अक्षरों तक का होता है। उपर्युक्त मन्त्र में से 'दक्षिणे कालिके' पद को हटाकर षोडशाक्षर और उपर्युक्त द्वाविंशाक्षर मन्त्र अधिक प्रचलित माना गया है।

छिन्नमस्ता

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - छिन्नमस्ताया मन्त्रध्याने

अथातश्छिन्नमस्ताया मन्त्रं ते व्याहराम्यहम् ॥ ४४१ ॥

जिघृक्षयापि यस्य स्युः साधकस्याष्टसिद्धयः ।

नातः परतरा काचिदुग्रा देवी भविष्यति ॥ ४४२ ॥

तस्मादशक्तैर्मनुजैर्न ग्राह्योऽयं कथञ्चन ।

सिद्धिर्वा मृत्युरपि वा द्वयोरकेतरं भवेत् ॥ ४४३ ॥

प्रणवं च रमाबीजं लज्जां वाग्भवमेव च ।

वज्रवैरोचनीये च इत्येवं तत उद्धरेत् ॥ ४४४ ॥

क्रोधद्वयं ततश्चास्त्रं स्वाहान्तः षोडशाक्षरः ।

ध्यानं चास्याः प्रवक्ष्यामि तत्र चेतो निवेशय ॥ ४४५ ॥

स्वनाभौ नीरजं ध्यायेच्छुद्धं विकसितं सितम् ।

तत्पद्मकोषमध्ये तु मण्डलं चण्डरोचिषः ॥ ४४६ ॥

जवाकुसुमसङ्काशं रक्तबन्धूकसन्निभम् ।

रजः सत्त्वतमोरेखायोनिमण्डलसन्निभम् ॥ ४४७ ॥

मध्ये तस्या महादेवीं सूर्यकोटिसमप्रभाम् ।

छिन्नमस्तां करे वामे धारयन्तीं स्वमस्तकम् ॥ ४४८ ॥

प्रसारितमुखं भीमं लेलिहानोग्रजिह्वकम् ।

प्रपिबद्रौधिरीं धारां निजकण्ठसमुद्भवाम् ॥ ४४९ ॥

विकीर्णकेशपाशं च नानापुष्पविराजितम् ।

दिगम्बरां महारूपां प्रत्यालीढपदस्थिताम् ॥ ४५० ॥

अस्थिमालाधरां देवीं नागयज्ञोपवीतिनीम् ।

विपरीतरतासक्तरतिकामोपरिस्थिताम् ॥ ४५१ ॥

छिन्नमस्ता के मन्त्र ध्यान - अब मैं तुम्हें छिन्नमस्ता का मन्त्र बतला रहा हूँ जिसके ग्रहण करने की इच्छामात्र से साधक को अष्टसिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। कोई भी देवी इससे बढ़कर उग्र नहीं है। इस कारण असमर्थ मनुष्यों को इसका मन्त्र का ग्रहण नहीं करना चाहिये । ( इस मन्त्र के प्रभाव से) सिद्धि या मृत्यु दोनों में से एक ही मिलती है। प्रणव रमाबीज लज्जा वाग्भव बीजों के बाद 'वज्रवैरोचनीये' कहना चाहिये । फिर क्रोध बीज दो बार और अन्त में स्वाहा कहना चाहिये । ( मन्त्र ॐ श्रीं ह्रीं ऐं वज्रवैरोचनीये हूं हूं फट् स्वाहा ) । यह मन्त्र सोलह अक्षरों वाला है । अब इसका ध्यान बतला रहा हूँ, इसमें चित्त को स्थिर करो। अपनी नाभि में शुद्ध विकसित श्वेतकमल का ध्यान करना चाहिये। उस पद्मकोश के मध्य में चण्डरोचिष् (=सूर्य) के मण्डल का चिन्तन करना चाहिये। यह मण्डल जवाकुसुम अथवा रक्त बन्धूक के समान सत्त्व रजस् तमस् रेखा योनि मण्डल के समान है। इस (योनि) के मध्य में करोड़ों सूर्य के समान प्रभा वाली महादेवी छिन्नमस्ता का ध्यान करे। यह देवी अपने बायें हाथ से अपना (कटा हुआ ) शिर ली हुई है। उस शिर का मुख खुला हुआ है। इस भयङ्कर मुख में उग्र जिह्वा लहलहा रही है तथा अपने कण्ठ से निकली रुधिर धारा को यह मुख पी रहा है। केशपाश बिखरे हुए हैं। उसमें अनेक पुष्प सुशोभित हो रहे हैं। यह देवी नग्न, विशालरूपा, आगे बढ़े पैर पर खड़ी, हड्डी की माला पहनी हुई, नाग का यज्ञोपवीत धारण की हुई, विपरीत रति में आसक्त काम और रति के ऊपर खड़ी है ॥ ४४१-४५१ ॥

वर्णिनीडाकिनीयुक्तां वामदक्षिणपार्श्वतः ।

दक्षिणे वर्णिनीं ध्यायेद्वामपार्श्वे च डाकिनीम् ॥ ४५२ ॥

वर्णिनी लोहितश्यामां मुक्तकेशीं दिगम्बराम् ।

कपालकर्त्तृकाहस्तां वामदक्षिणयोगतः ॥ ४५३ ॥

देवीकण्ठोच्छलद्रक्तधारापानं प्रकुर्वतीम् ।

अस्थिमालाधरां देवीं नागयज्ञोपवीतिनीम् ॥ ४५४ ॥

डाकिनीं वामपार्श्वे च कल्पान्तजलदोपमाम् ।

विद्युच्छटा भनयनां दन्तपङ्क्तिवलाकिनीम् ॥ ४५५ ॥

दंष्ट्राकरालवदनां पीनोत्तुङ्गकुचद्वयाम् ।

महोदरी मुक्तकेशीं महाघोरां दिगम्बराम् ॥ ४५६ ॥

लेलिहानचलज्जिह्वां मुण्डमालाविभूषिताम् ।

कपालकर्त्तृकाहस्तां वामदक्षिणयोगतः ॥ ४५७ ॥

देवीं गलोच्छलद्रक्तधारापानं प्रकुर्वतीम् ।

करस्थितकपालेन भीषणेनातिभीषणाम् ॥ ४५८ ॥

दुर्निरीक्ष्यां चेतसापि सर्वकामफलप्रदाम् ।

ध्यात्वेत्थं मनुनानेन न्यसेत् साधकसत्तमः ॥ ४५९ ॥

बायें और दायें वर्णिनी और डाकिनी नामक दो शक्तियों से युक्त है । (इसके) दायीं ओर वर्णिनी और वामपार्श्व में डाकिनी का ध्यान करना चाहिये । वर्णिनी लोहित, श्यामा, मुक्तकेशी, दिगम्बरा है । बायें हाथ में कपाल और दायें हाथ में कैंची ली हुई है। देवी के कण्ठ से उछलती हुई रक्तधारा का पान कर रही है। अस्थिमाला धारण करने वाली वह देवी नाग का यज्ञोपवीत पहनी हुई हैं। वाम पार्श्व में डाकिनी का ध्यान करना चाहिये। यह कल्पान्त प्रलय के मेघ के समान, विद्युत् छटा की भाँति नेत्रों वाली, बलाका के समान (धवल) दन्तपंक्ति वाली, दंष्ट्रा के कारण कराल मुख वाली पीन उत्तुङ्ग दोनों स्तनों वाली, विशाल उदर वाली, मुक्तकेशी, महाघोरा और दिगम्बरा है। इसकी जिह्वा लहलहा रही और चञ्चल है । मुण्डमाला से विभूषित यह बायें दायें हाथों में कपाल और कैंची ली हुई है । यह देवी हाथ में स्थित भीषण कपाल के द्वारा गले से निकलती रक्तधारा को पी रही है। अत्यन्त भयङ्कर मन से भी दुर्निरीक्ष्य यह सर्वकामफलप्रदा है। उत्तम साधक ऐसा ध्यान कर उक्त मन्त्र से न्यास करे ।। ४५२-४५९ ॥

त्रिकण्टकी

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - त्रिकण्टक्या मन्त्रध्याने

अथ त्रिकण्टकीमन्त्रं समाकर्णय भामिनि ।

क्रोधमादौ समुद्धृत्य माकूरौ चण्डघण्टिकौ ॥ ४६० ॥

सविसर्गं क्षबीजं च तृतीयं परिकीर्तितम् ।

अथ ध्यानं शृणु त्वं मे यथावद्वरवर्णिनि । ४६१ ॥

पादादानाभिपर्यन्तं घनाघनतनुच्छविः ।

नाभेराकण्ठपर्य्यन्तं सिन्दूरारुणविग्रहा ॥ ४६२ ॥

चतुर्भिर्वदनैर्युक्ता दंष्ट्रापटल भीषणैः ।

दुर्निरीक्ष्यैर्महाघोरैः पतितैरुदरोपरि ॥ ४६३ ॥

त्रिनेत्रा चन्द्रशकलद्योतिभालस्थला शिवा ।

हस्ताभ्यां दधती शङ्खं चक्रमद्भुतविक्रमम् ॥ ४६४ ॥

सर्वालङ्कारशोभाढ्या सर्वकामफलप्रदा ।

ध्येया त्रिकण्टकी देवी न्यासकर्मणि साधकैः ॥ ४६५ ॥

त्रिकण्टकी के मन्त्र ध्यान- हे भामिनि ! अब त्रिकण्टकी के मन्त्र को सुनो। पहले क्रोध बीज फिर माँ (लक्ष्मी) और क्रूर बीज चण्डघण्टिक, फिर तीसरा बीज विसर्ग सहित 'क्ष' है (मन्त्र - हूं श्रीं रट्रें फ्रों फ्रम्रग्लओं क्षः)। हे वरवर्णिनि! अब इसका यथावत् ध्यान सुनो। यह देवी पैर से लेकर नाभि तक काले बादल की छवि वाली, नाभि से कण्ठ तक सिन्दूर के समान अरुणविग्रहा है। इसके चार मुख हैं। महाघोर दुर्निरीक्ष्य भयङ्कर दाँत इसके उदर के ऊपर तक गिरे हुए हैं। तीन नेत्रों वाली तथा भाल पर चन्द्रखण्ड धारण की हुई यह शिवा हाथों में शङ्ख चक्र धारण की हुई है । समस्त अलङ्कारों से युक्त सर्वकामफलप्रद इस त्रिकण्टकी देवी का ध्यान साधकों को न्यासकर्म में करना चाहिये ॥ ४६०-४६५ ॥

नीलपताका

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - नीलपताकाया मन्त्रध्याने

अतो नीलपताकाख्यां विद्यामाकर्णयाम्बिके ।

तारं हृत्पदमाभाष्य कामेश्वरि पदं ततः ॥ ४६६ ॥

कामाङ्कुशे पदं चोक्त्वा ततः कामप्रदायिके ।

भगवत्यथ नीलान्ते पताके च भगान्तिके ॥ ४६७ ॥

रतिहृन्मन्त्रमालिख्य ततोऽस्त्विति च ते वदेत् ।

परमान्ते तथा गुह्ये हूङ्कारत्रिकमालिखेत् ॥ ४६८ ॥

मदने मदनान्तेऽथ देहे त्रैलोक्यमावदेत् ।

आवेशय तथा लेख्यं कवचास्त्राग्निवल्लभा ॥ ४६९ ॥

षट्षष्ठ्यर्णा महेशानी देवी नीलपताकिका |

निगद्यमानं ध्यानं च समाकर्णय पार्वति ॥ ४७० ॥

इन्द्रनीलशिलाखण्डसमानतनुरोचिषम् ।

प्रफुल्लपुण्डरीकाभवदनां स्मितशालिनीम् ॥ ४७१ ॥

कबरीबन्धशोभाढ्यां पीवरोरोजसंयुताम् ।

रम्याभिः सर्वतो नीलपताकाभिरलङ्कृताम् ॥ ४७२ ॥

वराभयकरद्वन्द्वं धारयन्तीं शुचिस्मिताम् ।

ध्यायेद् यतमनाः सुस्थः साधको विजितेन्द्रियः ॥ ४७३ ॥

नीलपताका के मन्त्र ध्यान- हे अम्बिके! अब नीलपताका विद्या को सुनो । तार हृत् को कहने के बाद 'कामेश्वरि' पद कहना चाहिये। 'कामाङ्कुशे' कहने के बाद 'कामप्रदायिके भगवति नीलपताके भगाङ्किते' कहे । फिर रति हृन्मन्त्र कहने के बाद 'अस्तु ते' कहे। 'परमगुह्ये' के बाद तीन हङ्कार का उच्चारण करे । 'मदने मदनान्ते देहे त्रैलोक्यम् आवेशय' कहे। फिर कवच अस्त्र और अन्त में अग्निवल्लभा कहे । ( मन्त्र - ॐ नमः कामेश्वरि कामाङ्कुशे कामप्रदायिके भगवति नीलपताके भगाङ्किते क्यूं नमोऽस्तु ते परमगुह्ये हूं हूं हूं मदने मदनदेहे त्रैलोक्यमावेशय हुं फट् स्वाहा ) । हे महेशानि! नीलपताका देवी छाछट वर्णों वाली है। हे पार्वति! इसके निगद्यमान ध्यान को सुनो। यह नीलमणि के खण्ड के समान देहकान्ति वाली है। इसका मुख खिले कमल के समान है । स्मितशालिनी वालों को पीछे बाँधने से शोभायुक्त, पीवरस्तनवाली, सर्वतः रमणीय नीलपताकाओं से अलङ्कृत वरद एवं अभयमुद्रा वाले दोनों हाथों को धारण करने वाली शुचिस्मिता इसका ध्यान साधक सुस्थ जितेन्द्रिय एवं संयत मन वाला होकर करे ।। ४६६-४७३ ॥

चण्डघण्टा

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - चण्डघण्टाया मन्त्रध्याने 

द्वात्रिंशत्तमिकां देवीं चण्डघण्टामथो शृणु ।

युद्धे जयेप्सुभिर्दैत्यैः पूर्वमाराधिता परा ॥ ४७४ ॥

द्विकाली च चतुः क्रोधमङ्कुशत्रितयं ततः ।

द्विरमा च द्विमाया च योगिनीशाकिनीवधूः ॥ ४७५ ॥

चण्डघण्टे ततो वाच्यं शत्रूंश्च तदनन्तरम् ।

स्तम्भय द्वितयं प्रोच्य मारय द्वितयं ततः ॥ ४७६ ॥

कवचास्त्राग्निजायान्तो ह्यष्टत्रिंशाक्षरो मनुः ।

ध्यायेद् दूर्वादलश्यामां पूर्णचन्द्राननत्रयाम् ॥ ४७७ ॥

एकैकवक्त्रनयनत्रितयोज्ज्वलविग्रहाम् ।

पीताम्बरपरीधानां पीतखगनुलेपनाम् ॥ ४७८ ॥

सर्वाभरणनद्धाङ्गीं रत्नाकल्पपरिष्कृताम् ।

चण्डघण्टामष्टभुजां स्थितां मत्तगजोपरि ॥ ४७९ ॥

खड्गं त्रिशूलं विशिखं कर्तृकां दक्षिणे करे ।

चर्मपाशधनुर्दण्डखर्पराणि च वामतः ॥ ४८० ॥

धारयन्तीं क्रूरदृष्टिं चण्डघण्टां विचिन्तयेत् ।

चण्डघण्टा के मन्त्र ध्यान- अब मुझसे बत्तीसवीं देवी चण्डघण्टा को सुनो । यह परा देवी प्राचीन काल में विजय चाहने वाले राक्षसों के द्वारा आराधित हुई थी । मन्त्र इस प्रकार है - दो काली बीज, चार क्रोध, तीन अङ्कुश, दो रमा, दो माया, फिर योगिनी शाकिनी वधू बीज कहने के बाद 'चण्डघण्टे शत्रून्' कहे । फिर 'स्तम्भय' दो बार कहकर 'मारय' दो बार कहे । अन्त में कवच अस्त्र और अग्निजाया कहे। ( मन्त्र - क्रीं क्रीं हूं हूं हूं हूं क्रों क्रों क्रीं श्रीं श्रीं ह्रीं ह्रीं छीं फ्रें स्त्रीं चण्डघण्टे शत्रून् स्तम्भय स्तम्भय मारय मारय हुं फट् स्वाहा ) । यह मन्त्र अँड़तीस अक्षरों वाला है । ध्यान दूर्वादल की भाँति श्याम, पूर्ण चन्द्र के समान तीन मुखों वाली, एक-एक मुख में तीन-तीन नेत्रों वाली, पीतवस्त्र पीतमाला और पीत अनुलेपन वाली, समस्त अङ्गों में आभूषण पहनीं हुई, रत्नों से परिष्कृत, मत्तगज के ऊपर बैठी हुई यह चण्डघण्टा अष्टभुजा है । खड्ग, त्रिशूल, बाण, कैंची को दायें हाथ में तथा चर्म, पाश, धनुष और खर्पर बायें हाथ में ली हुई है । ऐसी क्रूरदृष्टि वाली चण्डघण्टा का ध्यान करना चाहिये ॥ ४७४-४८१ ॥

चण्डेश्वरी

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - चण्डेश्वर्या मन्त्रध्याने

अतश्चण्डेश्वरीमन्त्रं शृणु सावहिता सती ॥ ४८१ ॥

तारलज्जारमाक्रोधाङ्कुशकालीवधूस्मराः ।

अष्टबीजं समुद्धृत्य शाम्भवं कूटमुद्धरेत् ॥ ४८२ ॥

ततश्च भैरवीकूटं कूटं माहेश्वरं ततः ।

ततः परापरं कूटं व्योमकूटं च पञ्चमम् ॥ ४८३ ॥

उक्त्वा चण्डेश्वरि ततः खेचरीं योगिनीं लिखेत् ।

शाकिनीं गारुडं बीजं युगं क्रोधास्त्रयोस्ततः ॥ ४८४ ॥

वह्निजायान्वितो मन्त्रो जगतीतलदुर्लभः ।

नातः परतरो मन्त्रो न भूतो न भविष्यति ॥ ४८५ ॥

चण्डेश्वरी के मन्त्र ध्यान- अब सावधान होकर चण्डेश्वरी के मन्त्र को सुनो । तार लज्जा, रमा, क्रोध, अङ्कुश, काली, वधू, काम इन आठ बीजों को उद्धृत कर शाम्भव कूट कहना चाहिये । इसके बाद भैरवी कूट माहेश्वर कूट परापर कूट व्योम कूट का कथन कर 'चण्डेश्वरि' कहे। फिर खेचरी योगिनी शाकिनी गरुड बीज को दो बार और क्रोध को तीन बार कहने के बाद अन्त में 'स्वाहा' कहे । (मन्त्र का स्वरूप इस प्रकार है - ॐ ह्रीं श्रीं हूं क्रों क्रीं स्त्रीं क्लीं स्हजहलक्षम्लवनऊं क्षमक्लह्रहसव्य्रऊं क्वलहभ्रकह्रनसक्लईं सस्लक्षकमह्रब्रूं क्ष्लह्रमव्य्रऊं चण्डेश्वरि ख्फ्रें छ्री फ्रें क्रौं हूं हूं फट् फट् स्वाहा ) यह मन्त्र जगतीतल पर दुर्लभ है। इससे बढ़कर मन्त्र न हुआ और न होगा ।। ४८१-४८५ ॥

शृणु ध्यानममुष्यास्त्वमतिनिर्मलचेतसा ।

इन्द्रगोपनिभां देवीं प्रौढास्त्रीरूपधारिणीम् ॥ ४८६ ॥

पञ्चवक्त्रां महाभीमां दंष्ट्राभिर्विकरालिनीम् ।

प्रविस्त्रस्तजटाभारां नरास्थिकृतभूषणाम् ॥ ४८७ ॥

केयूराङ्गदकोटीरहारनूपुरशालिनीम् ।

किङ्किणीकुण्डलापीडधारिणीं न्रस्थिनिर्मिताम् ॥ ४८८ ॥

राङ्कवत्वक्परीधानां शुष्कलम्बस्तनद्वयाम् ।

शवद्वयोपरिगतां दक्षवामान्प्रियोगतः ॥ ४८९ ॥

सकेशनरमुण्डाभ्यां बद्धाभ्यां पादयोर्द्वयोः ।

त्रित्रिलोचनसंयुक्तवदनां घोररूपिणीम् ॥ ४९० ॥

चण्डेश्वरीं दशभुजामट्टहासं वितन्वतीम् ।

वक्त्रं मुखद्वयं वामे दक्षिणे वदनद्वयम् ॥ ४९१ ॥

सम्मुखे वदनं चैकं धारयन्तीं प्रकल्पितम् ।

हस्तमात्रविनिष्क्रान्तलेलिहान भयानकम् ॥ ४९२ ॥

 जिह्वायुगं दक्षिणयोः करयोर्बिभ्रती सदा ।

तथैव रसनायुग्मं दधतीं वामहस्तयोः ॥ ४९३ ॥

सम्मुखास्यगतां जिह्वां नभः स्थलप्रसारिताम् ।

दधतीं घोरनादाट्टहासत्रस्तजगत्त्रयाम् ॥ ४९४ ॥

सद्यः कृत्तस्त्रवद्वक्तधारं मुण्डं कचान्वितम् ।

कराभ्यां वामदक्षाभ्यां वहन्तीं सकलोपरि ॥ ४९५ ॥

ततो हस्तद्वये जिह्वां विस्फुरन्तीं च बिभ्रतीम् ।

मुण्डवृतासृजां धारां पतन्तीं रसनोपरि ॥ ४९६ ॥

पिबन्तीं शीत्कृतिं कृत्वा हूँ हूँकारविनादिनीम् ।

यह देवी इन्द्रगोप (= मखमली लाल रंग का कीड़ा जिसे बीरहूटी कहते हैं) के समान, प्रौढा स्त्री का रूप धारण की हुई, पाँच मुखों वाली, महाभयङ्कर, दाँतों के कारण विकराल, अस्तव्यस्त जटाओं वाली, नरास्थि का आभूषण पहनी हुई, केयूर अङ्गद कोटीर हार नूपुर भूषणों वाली, मनुष्य की अस्थि से निर्मित किङ्किणी कुण्डल आपीड (=कण्ठहार) धारिणी, रड का चर्म धारण की हुई, सूखे लटकते हुए दो स्तनों वाली, केशयुक्त नरमुण्ड बंधे हुए दायें-बायें पैरों को जोड़ कर दो शवों के ऊपर स्थित होकर, तीन-तीन नेत्रों से संयुक्त, (पाँच) मुखों वाली, घोररूपा, दशभुजावाली, अट्टहास करती हुई, (पाँच मुखों में से) बायीं ओर दो मुख, दक्षिण ओर दो मुख और एक मुख सामने धारण की हुई, एक हाथ निकली हुई लेलिहान भयानक दो जिह्वाओं को दो दायें हाथों से और दो जिह्वाओं को दो बायें हाथों से पकड़ी हुई, तथा सामने वाले मुख की जिह्वा को आसमान में उठाई है। घोर नादयुक्त अट्टहास से तीनों लोकों को त्रस्त करने वाली, तत्काल कटे हुए एवं रक्तधारा गिरते हुए बालों सहित मुण्ड को बायें दायें हाथों से सबके ऊपर ले जाती हुई, इसके बाद दो हाथों से फड़कती जिह्वा को पकड़ी हुई, उस जिह्वा पर मुण्ड से निकली हुई रक्त की गिरती हुई धारा का शीत्कार (सीसी) कर पान करती हुई, हूं हूं नाद करती है ।। ४८६-४९७ ॥

तथा नृमुण्डयुगलं पुनर्दक्षिणवामयोः ॥ ४९७ ॥

पुनर्जिह्वायुगं तद्वद्वामदक्षिणहस्तयोः ।

धयन्तीं पूर्ववद्रक्तं सशब्दपरिघोषितम् ॥ ४९८ ॥

पुरः स्थिताभ्यां घोराभ्यां करालाभ्यामतीव हि ।

योगिनीडाकिनीभ्यां च रक्तपूर्णं घटद्वयम् ॥ ४९९ ॥

सर्वदा पातयन्तीभ्यां स्थिताभ्यां पुरतः सदा ।

सम्मुखस्थितजिह्वायां मांसखण्डास्थिपूरितम् ॥ ५०० ॥

पिबन्तीमीदृशाकारां दुर्निरीक्ष्यां सुरासुरैः ।

कपालं खपरं शेषभुजाभ्यां बिभ्रतीं पराम् ॥ ५०१ ॥

चिन्तयेन्मन्त्रवित्र्यासे देवीं चण्डेश्वरीं हृदि ।

उसी प्रकार दो नरमुण्डों को पुनः दायें, बायें हाथों में, पुनः दो जिह्वाओं को उसी प्रकार दायें बायें हाथों से पकड़ी हुई, पूर्व की भाँति शब्दघोष के साथ रक्तपान करती हुई विराजमान हैं। सामने स्थित घोर अत्यन्त विकराल योगिनी और डाकिनी के द्वारा रक्तपूर्ण दो घटों से रक्त गिराती हुई, पुनः सम्मुख स्थित जिह्वा के ऊपर मांसखण्ड और अस्थि से पूरित रक्त का पान करती हुई है। इस प्रकार के आकार वाली वह सुरों और असुरों से दुर्निरीक्ष्य है । (रसना मुण्ड आदि के ग्रहण से ) अवशिष्ट दो भुजाओं के द्वारा कपाल और खप्पर धारण की हुई परा देवी चण्डेश्वरी का ध्यान मन्त्रन्यास के सन्दर्भ में करना चाहिये ।। ४९७-५०२ ॥

भद्रकाली

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - भद्रकाल्या मन्त्रध्याने

इदानीं भद्रकाल्यास्त्वं शृणु मन्त्रमनुत्तमम् ॥ ५०२ ॥

येन सिद्धिमवाप्नोति परत्रामुत्र मानवः ।

प्रणवं शाकिनीबीजं वधूं कवचमेव च ॥ ५०३ ॥

योगिनीमङ्कशं पाशं फेत्कारीस्मरमायिकम् ।

नवाक्षरो महामन्त्री भद्रकाल्याः प्रकीर्त्यते ॥ ५०४ ॥

ध्यानं चास्याः कथ्यमानमवधारय पार्वति ।

सिंहोपरि समासीनां मसीपुञ्जसमप्रभाम् ॥ ५०५ ॥

भृकुट्यरालवदनां त्रीक्षणां घोरदर्शनाम् ।

शार्दूलत्वक्परीधानां विष्वग् विस्तारिताननाम् ॥ ५०६ ॥

अत्यन्तशुष्कसर्वाङ्गीं ललज्जिह्वाकरालिनीम् ।

त्रेतागर्त्तस्थितत्र्यग्निसमाननयनां शिवाम् ॥ ५०७ ॥

भद्रकाली के मन्त्र ध्यान- अब तुम भद्रकाली के सर्वोत्तम मन्त्र को सुनो जिससे मनुष्य परत्र और अमुत्र दोनों स्थानों में सिद्धि प्राप्त करता है। (भद्रकाली का महामन्त्र) प्रणव शाकिनी बीज वधू कवच योगिनी अङ्कुश पाश फेत्कारी काम माया बीजों वाला नव अक्षरों वाला है। (मन्त्र ॐ फ्रें स्त्रीं हुं छ्रीं क्रों आं ह्स्ख्फ्रें क्लीं हृीं)* । ध्यान - हे पार्वति ! इसके कहे जा रहे ध्यान को समझो। सिंह के ऊपर बैठी, काली स्याही के पुञ्ज की भाँति, टेढ़ी भ्रुकुटियुक्त मुख वाली, तीन नेत्रों वाली, घोरदर्शना, सिहचर्म पहनी हुई, चारो ओर मुख फैलायी हुई, अत्यन्त शुष्क सर्वाङ्गवाली, ललत् जिह्वा से विकराल, तीन गड्ढों में स्थित तीन अग्नियों के समान (तीन) नेत्रों वाली है ।। ५०२-५०७ ।।

*  यहाँ दश अक्षर बन रहे हैं। इसलिये या तो 'नवाक्षरों' की जगह 'दशाक्षरो' पाठ होना चाहिये, या एक बीजाक्षर कम होना चाहिये ।

नरमुण्डावलीहारां नादापूरितपुष्कराम् ।

ज्वलद्भुतवहाकारविस्रस्तकचसञ्चयाम् ॥ ५०८ ।।

नरास्थिकृतसर्वाङ्गभूषणां जगदम्बिकाम् ।

कोटिकोटिमहाघोरयोगिनीगणमध्यगाम् ॥ ५०९ ॥

काली दशभुजां सृक्कगलद्रुधिरचर्चिताम् ।

खड्गं त्रिशूलं विशिखं शक्तिं दक्षिणतः स्मरेत् ॥ ५१० ॥

फलकं डमरुं चापं कपालं वामतोऽपि च ।

वदनं घोरं दंष्ट्राभिः पूरितान्तरम् ॥ ५११ ॥

व्यादाय दानवासुरदैत्यानां महत् ।

लेलिहानचलद्विद्युत्समानरसनं कोटिमर्बुदमेव च ॥ ५१२ ॥

धारयित्वा च धृत्वा च सार्द्धं कटकटारवैः ।

प्रक्षिप्य तत्र बाहुभ्यां चर्वयन्तीं हसन्मुखीम् ॥ ५१३ ॥

गिलन्तीं पूरयन्तीं च पातालतुलितोदरम् ।

ध्यात्वा चैवंविधां कालीं ततोऽङ्गेषु न्यसेदमुम् ॥ ५१४ ॥

यह शिवा नरमुण्ड का हार धारण की हुई, नाद से पुष्कर (= आकाश) को पूरित करने वाली, जलती हुई अग्नि के आकार वाले बिखरे हुए बालों वाली, नरास्थि के बने हुये सर्वाङ्गभूषण वाली, करोड़ों-करोड़ों महाघोर योगिनीगणों के मध्य में स्थित जगदम्बा काली दश भुजा वाली है। सृक्त से गिरते हुए रुधिर से उपलिप्त वह दायें हाथों में खड्ग त्रिशूल, बाँण और शक्ति तथा बायें हाथों में फलक, डमरू, धनुष और कपाल ली हुई है। मुख घोर दाँतों से भरा है उसमें विद्युत् के समान रसना लपलपा रही है। ऐसे मुख को खोलकर उसमें भुजाओं के द्वारा दानवों असुरों को करोड़ों की सङ्ख्या में घसीट कर कट कट शब्दों के साथ मुख में फेंक कर चबाती हुई, हँसती हुई, राक्षसों को निगल कर उनसे पाताल सदृश अपने उदर को भर रही है। इस प्रकार की काली का ध्यान कर फिर इस मन्त्र का अङ्गों में न्यास करना चाहिये ॥ ५०८-५१४ ।।

गुह्यकाली

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - गुह्यकाल्या मन्त्रध्याने

गुह्यकालीमन्त्रमतः समाकर्णय भामिनि ।

यत्तवैवोच्यते देवि नैवान्यत्र कदाचन ॥ ५१५ ॥

त्रपाऽनङ्गं शाकिनीं च क्रोधमङ्कुशमेव च ।

गुह्यशब्दादपि वदेत् कालिशब्द वरानने ॥ ५९६ ॥

काली च योगिनीबीजं फेत्कारी चण्डमेव च ।

योगिनीकामिनीबीजं स्वाहान्ते विनिवेशयेत् ॥ ५१७ ॥

सुदुर्लभो मन्त्रराजो ज्ञेयः सप्तदशाक्षरः ।

न तीर्य्यतेऽस्य महिमा वर्णितुं वरवर्णिनि ॥ ५१८ ॥

ध्यानं निशामयाथास्याः प्रोच्यमानं मया स्वयम् ।

आपादपद्मादारभ्य कण्ठं पाटलसन्निभा ॥ ५१९ ॥

मुखे दूर्वादलश्यामा जटाभारविराजिता ।

शवोपरि समासीना किञ्चिद्विस्तारितानना ॥ ५२० ॥

दशभिर्वदनैर्युक्ता त्रित्रिचक्षुर्विराजितैः ।

मुण्डकुण्डलसंवीता सर्वेषु वदनेष्वपि ॥ ५२१ ॥

नरास्थिविहिताकल्पा कल्पकल्पक्षयङ्करा ।

सर्वत्र लम्बितजटा सर्वत्रापदि तारिणी ॥ ५२२ ॥

किञ्चिच्छुष्कगलोद्देशा किञ्चिदाकुञ्चितानना ।

पिचिण्डिला निम्ननाभिर्नातिपीनपयोधरा ॥ ५२३ ॥

स्थूलोरुजङ्घाविका सर्वाभरणभूषिता ।

अदीर्घषोडशापीनदोर्मण्डलविराजिता ।। ५२४ ॥

गुह्यकाली के मन्त्र ध्यान - हे भामिनि ! इसके बाद गुह्यकाली का मन्त्र सुनो जिसको मैं तुम्हीं को बतला रहा हूँ किसी और को नहीं। लज्जा काम शाकिनी क्रोध अङ्कुश के बाद 'गुह्य' शब्द के बाद 'कालि' कहे। फिर काली बीज योगिनीबीज, फेत्कारी चण्ड योगिनी कामिनी बीजों के बाद अन्त में 'स्वाहा' कहना चाहिये ( मन्त्र - ह्रीं क्लीं फ्रें हूं क्रों गुह्यकालि क्रीं ह्रीं ह्स्ख्फ्रें फ्रों छ्रीं स्त्री स्वाहा ) । यह दुर्लभ मन्त्रराज सत्रह अक्षरों वाला समझना चाहिये। हे वरवर्णिनि। इसकी महिमा का वर्णन नहीं किया जा सकता। अब मेरे द्वारा कहे जाने वाले इसके ध्यान को सुनो- यह देवी पैर से लेकर कण्ठ तक पाटल के समान है। मुख दूर्वादल के समान श्याम है। शिर पर जटा विराजमान है। शव के ऊपर आसीन इसका मुख कुछ विस्तारित है । तीन-तीन नेत्रवाले दशमुखों से युक्त यह सभी मुखों में नरमुण्ड का कुण्डल पहनी हुई है । नरास्थि का आकल्प (= आभूषण) धारण की हुई है । कल्प-कल्प में यह संहार करती रहती हैं। इसकी जटायें सब ओर लटक रही हैं। यह सब आपत्तियों को दूर करने वाली है। इसका गला कुछ सूखा हुआ और मुख कुछ सिकुड़ा है । पिचिण्डिला (= बड़े पेट वाली), गहरी नाभि वाली और सामान्य स्तनों वाली यह स्थूल उरु एवं जङ्घा के कारण विकट है । समस्त आभूषणों से अलङ्कृत छोटी-छोटी पतली सोलह भुजाओं से यह शोभायमान है ।। ५१५-५२४॥

नीलाम्बरपरीधाना नीलग्गन्धलेपना ।

शिवापोतं च खट्वाङ्गं गदामङ्कुशमेव च ॥ ५२५ ॥

घण्टां नृमुण्डं वामेन दधती खर्पराभये ।

खड्गं त्रिशूलं चक्रं च नागपाशं ततः परम् ॥ ५२६ ॥

जपमालां च डमरुं कर्त्तृकां वरमेव च ।

धारयन्ती दक्षिणेनोपविष्टा कुणपोपरि ॥ ५२७ ॥

योगपट्ट समुन्नद्धजानुमध्यकराम्बुजा ।

समस्तविग्रहव्यापि मुण्डमालाविराजिता ॥ ५२८ ॥

सर्वकामप्रदा देवी सर्वसिद्धिविधायिनी ।

ध्यातव्या भक्तिभावेन परमैश्वर्यदायिनी ॥ ५२९ ॥

नातः परतरा कापि त्रैलोक्यैश्वर्य्यसाधिका ।

विद्यते दयिते देवी सद्यः प्रत्ययकारिणी ॥ ५३० ॥

लोकपालशिरोरत्ननिघृष्टचरणद्वयः ।

त्रैलोक्यविजयी यत्र प्रमाणं दशकन्धरः ॥ ५३१ ॥

दिव्यं वर्षायुतं देवि ध्यायता येन तां पराम् ।

पेशकारीयता कालात् प्राप्ता सत्यं दशास्यता ॥ ५३२ ॥

यमेन्द्रचन्द्रवरुणकुबेरानिलनैर्ऋताः।

मित्राग्निरविनासत्यरुद्रब्रह्मादिदेवताः॥ ५३३ ॥

यक्षराक्षसगन्धर्वसिद्धविद्याधरोरगाः।

उपासते सभायां यं नित्यमेव समाहिताः ॥ ५३४ ॥

मन्वन्तरद्वयं पूर्णं किञ्चिदप्यधिकं प्रिये ।

यः शशासाखण्डिताज्ञो भुवनानि चतुर्दश ॥ ५३५ ॥

नास्तेऽमरत्वमेतस्मात्कालेनासौ निपातितः ।

यह देवी नीलवस्त्र पहनी हुई, नीलमाला और गन्ध लगायी हुई है। बायें हाथों में श्रृंगाल का बच्चा खट्वाङ्ग, गदा, अङ्कुश, घण्टा, नरमुण्ड, खप्पर और अभयमुद्रा तथा दायें हाथों में खड्ग, त्रिशूल, चक्र, नागपाश, जपमाला, डमरू, कैंची और वरदमुद्रा धारण की हुई है। शव के ऊपर बैठी हुई है। योगपट्ट से बँधे हुए जानु के मध्य में हाथ रखी हुई तथा सर्वसिद्धिदायिनी है। परम ऐश्वर्यदायिनी इसका भक्तिभाव से ध्यान करना चाहिये | इससे बढ़कर त्रिलोक के ऐश्वर्य को देने वाली कोई दूसरी नहीं है। हे देवि ! यह सद्यः ज्ञानदायिनी है। इस विषय में वह रावण प्रमाण है जो कि त्रैलोक्यविजयी रहा तथा जिसके दोनों चरणों में लोकपालों का मुकुट अवनत रहा करता था। इस परा देवी का ध्यान करने वाले जिसने समय के अनुसार छलविद्या और दश मुख प्राप्त किया। यम इन्द्र, चन्द्र, वरुण, कुबेर, वायु, निर्ऋति, मित्र, अग्नि, सूर्य, नासत्य, रुद्र, ब्रह्मा आदि देवतायें तथा यक्ष, राक्षस, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर, सर्प, नित्य समाहित होकर सभा में नित्य जिसकी उपासना करते थे। हे प्रिये! जिसकी आज्ञा कभी उल्लङ्घित नहीं हुई ऐसा जो चौदहों भुवनों के ऊपर दो मन्वन्तर से कुछ अधिक समय तक शासन किया और चूँकि अमरत्व (इस लोक में) किसी का नहीं रहता इसलिये काल के अनुसार वह मारा गया ( - ऐसा रावण इस विषय में प्रमाण है ) ।। ५२५-५३६ ॥

अनङ्गमाला

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - अनङ्गमालाया मन्त्रध्याने

अथातोऽनङ्गमालाया व्याहरामि मनुं शुभम् ॥ ५३६ ॥

प्रणवं वाग्भवं पाशं त्रपाक्रोधाङ्कुशान्यपि ।

क्षेत्रपालं च काली च गारुडं शाकिनीमपि ॥ ५३७ ॥

अनङ्गमाले उल्लिख्य स्त्रियमित्युच्चरेदथ ।

आकर्षयद्वयं चोक्त्वा त्रुटछेदययोर्युगम् ॥ ५३८ ॥

कवचद्वितयं चास्त्रद्वयं स्वाहान्तगो मनुः ।

स्वर्णसिंहासनगतां तप्तकाञ्चनसन्निभाम् ॥ ५३९ ॥

विशालमुकुराकारवदनां स्मितशालिनीम् ।

चलत्खञ्जनलीलानुकारित्रिनयनां सदा ॥ ५४० ॥

अर्द्धेन्दुशेखरां देवीं किञ्चिदाकुञ्चितध्रुवम् ।

कर्णान्दोलस्फुरद्रत्नकुण्डलोद्यत्कपोलकाम् ॥ ५४१ ॥

पीवरोत्तुङ्गवक्षोजां वक्षोजोद्योतिगोस्तनाम् ।

गोस्तनोद्योतिशशभृच्छेखरां जगदम्बिकाम् ॥ ५४२ ॥

बृहन्नितम्बवेदीकां तनुमध्यां वरोरुकाम् ।

मञ्जीरकिङ्किणीहारकङ्कणाङ्गदराजिताम् ॥ ५४३ ॥

वराभयकरां देवीं द्विभुजां सिद्धिदायिनीम् ।

ध्यात्वा चित्ते न्यसेद् देवीं सर्वकामार्थसिद्धये ॥ ५४४ ॥

अनङ्गमाला के मन्त्र ध्यान - अब अनङ्गमाला का शुभ मन्त्र बतला रहा हूँ। प्रणव, वाग्भव, पाश, त्रपा, क्रोध, अङ्कुश, क्षेत्रपाल, काली, गरुड़, शाकिनी बीजों तथा 'अनङ्गमाले' का उच्चारण कर 'स्त्रियम्' कहे। पुनः 'आकर्षय' को दो बार कहकर 'त्रुट छेदय' को दो दो बार कहे । फिर दो कवच दो अस्त्र और अन्त में 'स्वाहा' कहे । ( मन्त्र - ॐ ऐं आं ह्रीं हूं क्रों क्षौं क्रीं क्रौं फ्रें अनङ्गमाले स्त्रियमाकर्षय आकर्षय त्रुट त्रुट छेदय छेदय हुं हुं फट् फट् स्वाहा) ध्यान - स्वर्णसिंहासन पर बैठी हुई, तप्त काञ्चन के समान, विशाल दर्पण के आकार के मुख वाली, मुस्कानयुक्त, चलते हुए खञ्जन की लीला का अनुकरण करने वाले तीन नेत्रों वाली, मस्तक पर अर्धचन्द्र धारण की हुई, कुछ टेढ़ी भौंह वाली, कानों के हिलने से चमकने वाले कुण्डलों से प्रकाशित कपोल वाली, पीवर उत्तुङ्ग स्तनों वाली, स्तनों पर चमकती हुई गोस्तना (= चार लड़ी की मोतियों की माला) वाली, गोस्तना को चमत्कृत करने वाले चन्द्रमा को मस्तक पर धारण की हुई, संसार की माता, बृहत् नितम्बों वाली, क्षीण कटि प्रदेश तथा श्रेष्ठ जांघों वाली, मञ्जीर किङ्किणी हार कङ्कण अङ्गद से सुशोभित, वरद एवं अभय मुद्रा धारण किये हाथों वाली, दो भुजाओं वाली सिद्धिदायिनी देवी का मन में ध्यान कर सर्वकामार्थसिद्धि के लिये न्यास करना चाहिये ॥ ५३६-५४४ ।। 

शेष भाग आगे जारी ........

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