पूजन विधि, ज्योतिष, स्तोत्र संग्रह, व्रत कथाएँ, मुहूर्त, पुजन सामाग्री आदि

कामकलाकाली खण्ड पटल 8

कामकलाकाली खण्ड पटल 8  

इससे पूर्व महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड के पटल 8 में देवी को महाकाल ने पहले नृसिंह, भैरव, कामदेव के इक्यावन नामइक्यावन देवियों में 36 देवी महालक्ष्मी से सिद्धिलक्ष्मी तक पढ़ा अब आगे चामुण्डा, वाराही, बगला, जयदुर्गा, नारसिंही, ब्रह्माणी, वैष्णवी, माहेश्वरी, इन्द्राणी, हरसिद्धा, फेत्कारिणी, लवणेश्वरी, नाकुली, मृत्युहारिणी और कामकला काली । उपर्युक्त इक्वायन देवियों के मन्त्र और ध्यान का निर्वचन पृथक्-पृथक् करने के पश्चात् षोढान्यास के समर्पण और विधि की चर्चा की गयी है । मन्त्रसहित बलि- समर्पण का उल्लेख कर अन्त में यह बतलाया गया कि इन न्यासों का अनुष्ठाता साक्षात् देवीपुत्र हो जाता है। वह न तो किसी के ऊपर क्रोध करे और न किसी को अभिशाप दे, क्योंकि वह जिसके प्रति ऐसा करेगा उस मनुष्य की छह महीने कें अन्दर मृत्यु हो जायेगी ।

कामकलाकाली खण्ड पटल 8

महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल ८    

Mahakaal samhita kaam kalaa kaali khanda patal 8

महाकालसंहिता कामकलाकालीखण्ड: अष्टमः पटलः

महाकालसंहिता कामकलाखण्ड अष्टम पटल

महाकालसंहिता कामकलाकालीखण्ड आठवां पटल

महाकालसंहिता

कामकलाखण्ड:

(कामकलाकालीखण्ड:)

अष्टमः पटल:

चामुण्डा

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - चामुण्डाया मन्त्रध्याने

कथयाम्यथ चामुण्डामन्त्रमुन्नतिकारकम् ।

यज्ज्ञात्वा यत्र कुत्रापि सङ्कटे नावसीदति ॥ ५४५ ॥

संयुगे निर्भयो भूयादधिगच्छेच्च सम्पदम् ।

प्रणवाङ्कुशकालीयशाकिनीचण्डयोगिनी: ॥ ५४६ ॥

खेचरीक्रोधफेत्कारीविद्युत्कालरतित्रपाः।

भौजङ्गममहाक्रोधसौपर्णान् षोडशोच्चरेत् ॥ ५४७ ॥

चामुण्डे इति सङ्कीर्त्य युग्मं ज्वल हिले: किलेः ।

मम शत्रूनिति प्रोच्य युगं त्रासय मारय ॥ ५४८ ॥

हल युग्मं पतयुगं भक्षय द्वितयं ततः ।

कालोत्रपारुषां युग्मं फट् द्वयं स्वाहया युतम् ॥ ५४९ ॥

एकसप्तत्यक्षरोऽसौ मन्त्रः परमशोभनः ।

चामुण्डा के मन्त्र ध्यान - अब चामुण्डा का उन्नतिकारक मन्त्र बतला रहा हूँ जिसको जानकर मनुष्य किसी भी सङ्कट में दुःखी नहीं होता । युद्ध में निर्भय होता और सम्पत्ति प्राप्त करता है । प्रणव अङ्कुश काली शाकिनी चण्ड योगिनी खेचरी क्रोध फेत्कारी विद्युत् काल रति लज्जा भुजङ्ग महाक्रोध गरुड इन सोलह बीजाक्षरों का उच्चारण करे। फिर 'चामुण्डे' कहकर 'ज्वल हिलि किलि' को दो-दो बार फिर 'हन पत भक्षय' को दो-दो बार कहने के बाद काली त्रपा क्रोध बीजों तथा फट् को दो बार कहकर 'स्वाहा' कहे। (मन्त्र-ॐ क्रीं क्रीं फ्रें फ्रों छ्रीं ख्रौं हूं ह्स्ख्फ्रें ब्लौं जूं क्लूं ह्रीं क्रम्लै क्षूं क्रौं चामुण्डे ज्वल ज्वल हिलि हिलि किलि किलि हन हन पत पत भक्षय भक्षय क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं हूं हूं फट् फट् स्वाहा ) । इकहत्तर अक्षरों का यह मन्त्र परम शोभन है ।। ५४५-५५० ॥

धरालग्नशिरोजानुप्रसुप्तकुणपोपरि ।। ५५० ।।

निषेदुषीं निष्पललसर्वावयवभीषणाम् ।

त्वगस्थिमात्रघटितामत्युग्राकारदर्शनाम् ॥ ५५१ ॥

कपालाकारशिरसं विलुण्ठितशिरोरुहाम् ।

स्कन्धावसक्तयुगलकुण्डलीकृतखर्पराम् ॥ ५५२ ॥

नारास्थिनिर्मितानेक भूषणां भीषणाकृतिम् ।

मुण्डमालापरिक्षिप्तां ललज्जिह्वाभयानकाम् ॥ ५५३ ॥

विकरालमहादंष्ट्रां रौद्री रुद्रपरिग्रहाम् ।

अतिशुष्कोदरश्रोणिनितम्बोरुपयोधराम् ।। ५५४ ।।

गणेयोभयपार्श्वस्थपञ्जरास्थिकरालिनीम् 1

दीर्घतालडुमाकारकरपादां हसन्मुखीम् ॥ ५५५ ॥

खर्जूरकण्टकाकाररोमराजिविराजिताम् 1

लौहसूर्पाकृतिनखां समुत्कम्पिशिरोधराम् ॥ ५५६ ॥

कूपाकारत्रिनयनां विद्युच्चपलतारकाम् ।

लम्बमानौष्ठाधरां तां वलीलग्नपयोधराम् ॥ ५५७ ॥

विदीर्णसृक्कयुगलां नारान्त्रकटिसूत्रिणीम् ।

दिगम्बरां चर्वयन्तीं शवं कटकटारवैः ॥ ५५८ ॥

ध्यान पृथ्वी से संयुक्त शिर और घुटने वाले (अर्थात् औंधे मुँह पड़े हुए) शव के ऊपर बैठी हुई, मांसरहित समस्त अङ्गों से भयङ्कर, चर्म और अस्थिमात्र की बनी हुई, देखने में अत्यन्त उग्र, कपालसदृश शिर, नोंच लिये गये बालों वाली, कन्धे तक लटके हुये कुण्डल के समान खप्पर वाली, नरास्थि से निर्मित अनेक भूषणों वाली. भीषण आकार वाली, मुण्ड माला से उल्लासित, लपलपाती जिह्वा से भयङ्कर, विकराल दाँतों वाली, रौद्ररूप वाली, रुद्र के साथ स्थित (अथवा रुद्राक्ष धारण की हुई), अत्यन्त शुष्क उदर श्रोणी नितम्ब उरु और पयोधरों वाली, दोनों पार्श्वों की अस्थियों के गिनने योग्य होने से भयङ्कर, दीर्घताडवृक्ष के आकार के हाथ पैर वाली, हुए मुख वाली, खजूर के काँटे के आकर वाली रोमराजि से शोभायमान, लोहे के सूप के समान नखों वाली, काँपते शरीर वाली, कूप के आकार के तीन नेत्रों वाली, उनमें बिजली के समान चञ्चल ताराओं वाली, लटकते ओष्ठ और अधरवाली, वली तक लटके हुए स्तनों वाली, दोनों सृक्क खोली हुई, मनुष्य के आँत का कटिसूत्र धारण की हुई, दिगम्बर शव को कट-कट चबाती हुई है ।। ५५०-५५८ ।।

अष्टादशभुजां भीमां चरन्तीं पितृकानने ।

वामे करे चर्मचापखट्वाङ्गडमरून् क्रमात् ॥ ५५९ ॥

अङ्कुशं च तथा पाशं भिन्दिपालं शवं तथा ।

रक्तपूर्ण कपालं च धारयन्तीं महोदरीम् ॥ ५६० ॥

दक्षिणे बिभ्रती खड्गं विशिखं च त्रिशूलकम् ।

चक्रं शक्तिं गदां पर्शुमस्थिमालां च कर्त्तृकाम् ॥ ५६१ ॥

दिवा कालाभ्रसदृशां जवापुष्पारुणां निशि ।

वलाकासमदन्ताली भुजङ्गकुटिलध्रुवम् ॥ ५६२ ॥

अतिक्रूराकृतिधरां दृष्ट्यैव मरणप्रदाम् ।

घोरागृहासां गगने प्लवन्तीं सर्वतोमुखीम् ॥ ५६३ ॥

चिन्तयित्वा तु चामुण्डामित्थमङ्गे न्यसेन्मनुम् ।

अट्ठारह भुजा वाली भयङ्कर यह देवी श्मशान में घूमती रहती है । बायें हाथों में ढाल, धनुष, खट्वाङ्ग, डमरू, अङ्कुश, पाश, भिन्दिपाल, शव और रक्तपूर्ण कपाल तथा दायें हाथों में खड्ग, बाँण, त्रिशूल, चक्र, शक्ति, गदा, परशु, अस्थिमाला और कैंची ली हुई; दिन में काले बादल के समान रूप वाली तथा रात्रि में जवाकुसुम के समान लाल, बलाका के समान दाँतों वाली, भुजङ्ग के समान वक्र भौंह वाली. अत्यन्त क्रूर आकार धारण की हुई, देखने से ही मृत्यु देने वाली, चामुण्डा का इस प्रकार ध्यान कर मन्त्र का अङ्गों में न्यास करना चाहिये ।। ५५९-५६४ ॥

वाराही

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - वाराह्या मन्त्रध्याने

धरित्रीधरणे धीरामाकर्णय इतः परम् ॥ ५६४ ॥

तारं नमः समाभाष्य भगवत्यै ततो वदेत् ।

वाराह इति चोद्धृत्य रूपिण्यै तदनन्तरम् ॥ ५६५ ॥

ततश्चतुर्दश प्रोच्य कीर्तयेद् भुवना ततः ।

धिपायै समनूद्धृत्य वारायै तदनन्तरम् ॥ ५६६ ॥

भूपतित्वं ततः प्रोच्य मे देहि तदनन्तरम् ।

दापयानन्तरं वह्निजायान्तो मनुरीरितः ॥ ५६७ ॥

घननीलघनाकारां खर्वस्थूलकलेवराम् ।

हस्तमात्रविनिष्क्रान्तप्रचलत्पोत्ररन्ध्रवत् ॥ ५६८ ॥

वामभागेऽक्षिवदनं धारयन्तीं द्विलोचनाम् ।

अष्टमीचन्द्रखण्डाभदंष्ट्रायुगविराजिताम् ॥ ५६९ ॥

कोपादालोलरसनां विस्तारिविवृताननाम् ।

कल्पान्तरविसङ्काशां पूरयन्तीं जगत् त्विषा ॥ ५७० ॥

भीमदंष्ट्राट्टहासां च रक्ताक्षी रक्तवाससम् ।

कृपाणाकाररोमालीपरिपूर्णकलेवराम् ॥ ५७१ ॥

भूदाररूपधात्रीं च सञ्चरन्तीं विहायसि ।

सटाधूननवित्रस्तप्रपलायितखेचराम् ॥ ५७२ ॥

सर्वालङ्कारसंयुक्तां घुघुरारावकारिणीम् ।

अब्जचापाङ्कुशान् पाशं वामगे बिभ्रतीं करे ॥ ५७३ ॥

चक्रं बाणं गदां शङ्खं दधतीं दक्षिणे करे ।

दूर्वादलश्यामलया धरण्या सेवितां सदा ॥ ५७४ ॥

वाराहीं चिन्तयेदित्थं सर्वकामफलप्रदाम् ।

वाराही के मन्त्र ध्यान - इसके बाद मुझसे पृथ्वी को धारण करने में धीर ( वाराही के मन्त्र) को सुनो। तार नमः कहकर 'भगवत्यै' कहे। फिर 'वाराहरूपिण्यै' कहने के बाद 'चतुर्दशभुवनाधिपायै' कहकर 'वारा' कहे । ततः 'भूपतित्वं मे देहि दापय' के बाद 'स्वाहा' कहे । (मन्त्र ॐ नमो भगवत्यै वाराहरूपिण्यै चतुर्दशभुवनाधिपायै वाराह्यै भूपतित्वं में देहि दापय स्वाहा ) । ध्यान - घने काले बादलों के आकार वाली, छोटी स्थूल शरीर वाली, एक हाथ बाहर निकले हुए चञ्चल थूथुन के छिद्रवाली, बायें भाग में अक्षियुक्त मुख को धारण की हुई, दो आखों वाली, अष्टमी के चन्द्रखण्ड के समान दो (बाहर निकले) दाँतों से सुशोभित, क्रोध के कारण कुछ रक्त जिह्वा वाली फैले खुले मुख वाली, कल्पान्त सूर्यसदृश, अपने तेज से संसार को व्याप्त करने वाली, भयङ्कर दाँतों से अट्टहास करने वाली, रक्ताक्षी, रक्तवस्त्रधारण की हुई, कृपाण के आकार की रोमावली से परिपूर्ण शरीर वाली, कुदार रूप धारण की हुई तथा आकाश में विचरण करने वाली है। सटा के विधूनन के कारण वित्रस्त अत एव पलायित खेचर (= पक्षी या राक्षस आदि) वाली, सर्वालङ्कारसंयुक्त, घुघुर शब्द करने वाली, बायें हाथों में कमल - धनुष अङ्कुश -पाश तथा दायें हाथों में चक्र बाण गदा और शङ्ख धारण की हुई हैं। दूर्वादल के समान श्यामल पृथ्वी के द्वारा सदा सेव्यमान तथा सर्वकामफलप्रदा वाराही का इस प्रकार ध्यान करना चाहिये ।। ५६४-५७५ ।।

बगलामुखी

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - वगलाया मन्त्रध्याने

शृण्वतो वगलामन्त्रं येन संवदनं भवेत् ॥ ५७५ ॥

प्रणवान्ते नमो दत्वा भगवत्यै ततोऽपि च ।

पीताम्बरायै चोद्धृत्य त्रपायुग्मं ततः परम् ॥ ५७६ ॥

ततश्च सुमुखि प्रोच्य वगले तदनन्तरम् ।

विश्वमेतं वशं प्रोच्य कुरुयुग्मं शिरोऽपि च ॥ ५७७ ॥

एकत्रिंशाक्षरो मन्त्रो जगद्वश्यकरः प्रिये ।

निगद्यमानमस्यास्त्वं ध्यानमप्यवधारय ॥ ५७८ ॥

गौरी पीताम्बरधरा पीतस्त्रगनुलेपना ।

रत्नसिंहासनगता रत्नालङ्कारभूषिता ॥ ५७९ ॥

त्रिनेत्रा चन्द्रशकलविराजितललाटिका ।

सौन्दर्य्यसारविजितजगल्लावण्यपुञ्जिका ॥ ५८० ॥

चतुर्भुजाङ्कुशवरे दक्षिणे बिभ्रती करे ।

तथैव धारयन्ती च वामे दीपाभये करे ॥ ५८१ ॥

ध्यातव्या भक्तिभावेन वश्यकर्म चिकीर्षता ।

बगला के मन्त्र ध्यान इसके बाद बगला मन्त्र को सुनो जिससे संवदन (= वशीकरण) होता है। प्रणव के अन्त में 'नमः' कहकर 'भगवत्यै पीताम्बरायै' कहे। फिर लज्जा बीज दो बार, तत्पश्चात् 'सुमुखि' वगले विश्वमेतं वशं कहकर 'कुरु' को दो बार कहने के पश्चात् 'शिर' कहना चाहिये। (मन्त्र ॐ नमो भगवत्यै पीताम्बरायै ह्रीं ह्रीं सुमुखि वगले विश्वमेतं वशं कुरु कुरु स्वाहा ) । हे प्रिये! इकतीस अक्षर का यह मन्त्र जगत् को वश में करने वाला है। इसके निगद्यमान ध्यान को भी समझो । (यह देवी) गोरे रंग वाली, पीत वस्त्र धारण की हुई, पीत माला और अनुलेपन वाली, रत्नसिंहासन पर बैठी, रत्नजटित अलङ्कार से भूषित, त्रिनेत्रा ललाट पर चन्द्रखण्ड की शोभा वाली, सौन्दर्यसार के द्वारा जगत् को जीतने वाले लावण्यपुञ्जवाली, चार भुजाओं वाली, दायें हाथों में अकुश और वरदमुद्रा, उसी प्रकार बायें हाथों में दीपक और अभयमुद्रा धारण की हुई है । वश्यकर्म करने की इच्छा वाला साधक भक्तिभाव से इसका ध्यान करे ।। ५७५-५८२ ॥

जयदुर्गा

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - जयदुर्गाया मन्त्रध्याने

अथातो जयदुर्गाया रम्यं मनुमुदीरये ॥ ५८२ ॥

ताराङ्कुशस्मररमामायापाशवधूरुषः ।

जय दुर्गे ततश्चोक्त्वा रक्ष रक्ष ततो वदेत् ॥ ५८३ ॥

स्वाहान्त एष कथितो मनुरष्टादशाक्षरः ।

यथैतां चिन्तयेद् देवीं तथा त्वमवधारय ॥ ५८४ ॥

अतिकालघनाकारा चन्द्रार्द्धकृतशेखरा ।

कटाक्षैः शत्रुसङ्घातान् निर्दहन्ती परात्परा ॥ ५८५ ॥

त्रिनेत्रा भृकुटीभङ्गा वित्रासितजगत्त्रया ।

सिंहधोरणधौरीणा चलच्चिकुरपल्लवा ॥ ५८६ ॥

अष्टवाहा जगद्धात्री विकरालतरानना ।

शङ्खं तथाङ्कुशं चापं जीवतो वैरिणः शिरः ॥ ५८७ ॥

सकचं वामपार्श्वस्थकरेण दधती शिवा ।

करवालं तथा चक्रं विशिखं च गदामपि ।। ५८८ ॥

दक्षिणेन करेणैव धारयन्ती भयप्रदा ।

जयदुर्गा सदा ध्येया घोरे समरमूर्द्धनि ॥ ५८९ ।।

जयदुर्गा के मन्त्र ध्यान - अब इसके बाद जयदुर्गा का रम्य मन्त्र कह रहा हूँ । तार, अङ्कुश, काम, रमा, माया, पाश, वधू, क्रोध, बीजों को कहकर 'जय दुर्गे' कहे । पश्चात् 'रक्ष रक्ष' और अन्त में 'स्वाहा' कहे। यह मन्त्र अट्ठारह अक्षरों वाला है ( मन्त्र - ॐ क्रीं क्लीं श्रीं ह्रीं आं स्त्रीं हूं जयदुर्गे रक्ष रक्ष स्वाहा) । (अब) जिस प्रकार इस देवी का ध्यान करना चाहिये वैसा तुम समझो - अत्यन्त काले बादल के आकार वाली, मस्तक पर अर्धचन्द्र, कटाक्षों से शत्रुओं को नष्ट करने वाली, परात्पर, त्रिनेत्रा, कुटिल भौंहों वाली, तीनों लोकों को त्रस्त करने वाली, सिंह की सवारी करने में दक्ष, चञ्चल बालों वाली, आठ वाह (भुजा) वाली (अथवा आठ वाहन वाली), जगत् का पालन करने वाली, विकराल मुख वाली, बायें हाथों में शङ्ख, अङ्कुश, धनुष और जीवित शत्रु का बाल सहित शिर तथा दायें हाथों में खड्ग, चक्र, बाँण और गदा धारण की हुई, भयप्रद जयदुर्गा का घोर युद्धक्षेत्र में सदा ध्यान करना चाहिये ।। ५८२-५८९ ॥

नारसिंही

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - नारसिंहीदेव्या मन्त्रध्याने

धारय त्वं कथ्यमानं नारसिंहीमनुं मया ।

तारपाशाङ्कुशक्रोधकालमायास्मरस्त्रियः॥ ५९० ॥

महाक्रोधक्षेत्रपालचण्डनाकालशाकिनी: ।

उल्काजिह्वा सटाशब्द घोररूप ततो वदेत् ॥ ५९१ ॥

दंष्ट्राकराल आभाष्य नारसिंहि समुद्धरेत् ।

प्रासादत्रितयं चोक्त्वा हुङ्कारत्रिकमालिखेत् ॥ ५९२ ॥

अस्त्रद्वयं ततः स्वाहा चत्वारिंशाक्षरो मनुः ।

यादृशी ध्यानचर्चा स्यात्तामप्याकर्णय प्रिये ॥ ५९३ ॥

हिमानीकुन्दकैलासरजताचलसन्निभा ।

वितस्तकेशरभरा विकीर्णवदनाकृतिः ॥ ५९४ ॥

सृक्कक्षरद्रक्तधारा लम्बमानाधरागलम् ।

द्विगुणीकृतशीतांशुकलातुल्यरदावलिः ॥ ५९५ ॥

अवभ्रटा क्षीणमध्यालातसङ्काशदृग्द्वया ।

कृशदीर्घसमस्ताङ्गी सर्वालङ्कारमण्डिता ॥ ५९६ ॥

प्रोद्यन्मार्तण्डबिम्बा भकौस्तुभोद्भासिनी हृदि ।

मुखावटविनिर्गच्छज्जिह्वाकोटिशतह्रदा ।। ५९७ ॥

केशराधूननत्रस्तखचरा खचरास्पदा ।

वज्राधिकनखस्पर्शा लोचनाभ्यां मुखादपि ॥ ५९८ ॥

वमन्ती कल्पकालाग्निं चर्वयन्ती दितेः सुतान् ।

हसन्ती चाट्टहासेन नृत्यन्ती व्योममण्डले ॥ ५९९ ॥

नारसिंही देवी के मन्त्र ध्यान - मेरे द्वारा कथ्यमान नारसिंही के मन्त्र को सुनो । तार, पाश अङ्कुश, क्रोध, काल, माया, स्मर, स्त्री, महाक्रोध, क्षेत्रपाल, चण्डना, काल, शाकिनी, उल्काजिह्वा, सटा शब्द कहने के बाद 'घोररूपे' कहे । फिर 'दंष्ट्राकराले' कहकर 'नारसिंही' कहे। ततः प्रसाद का तीन बार कथन कर तीन ङ्कार लिखे । दो अस्त्र लिखने के बाद 'स्वाहा' कहने पर यह चालिस अक्षरों वाला मन्त्र है। ( मन्त्र - ॐ आं क्रों हूं जूं ह्रीं क्लीं स्त्रीं क्षं क्षौ फ्रों जूं क्षं फ्रें उल्काजिह्वा सटाघोररूपे दंष्ट्राकराले नारसिंहि हौं हौं हौं हूं हूं हूं फट् फट् स्वाहा ) । हे प्रिये! जैसी ध्यानचर्चा है उसको भी सुनो। (यह देवी) महाहिम कुन्द कैलास अथवा रजत पर्वत के समान (धवल ), बिखरे बालों वाली, विकृत वदन वाली, सृक्क से बहती रक्तधारा वाली, गले तक लटकते हुए ओठ वाली, चन्द्रमा की दोगुनी कलातुल्य दाँतों वाली, अवभ्रटा (= चपटी नाक वाली), क्षीण कटिवाली, अलातचक्र के समान दो नेत्रों वाली, कृश एवं दीर्घ समस्त अङ्गों वाली, समस्त अलङ्कार से युक्त, हृदय पर उगते हुए सूर्य बिम्ब के समान कौस्तुभमणि से भासित, मुख से सैकड़ों बिजली की भाँति निकलती हुई जिह्वा वाली, केसर के आधूनन से आकाशचारियों को त्रस्त करने वाली, वज्र से अधिक कठोर नखस्पर्श वाली, आँखों और मुख से भी कल्पकालाग्नि को उगलती हुई, राक्षसों को चबाती हुई, अट्टहास के साथ चलने वाली तथा आकाश में नर्तन करने वाली है । ५९० ५९९ ॥

गच्छन्ती वातवेगेन चरन्ती पितृकानने ।

दैत्यवक्षः पातनोत्थरुधिरोक्षितविग्रहा ॥ ६०० ॥

सुदीर्घषोडशभुजाशीतिदम्भोलिधारिणी ।

चापकं वज्रचर्माणि मुशलं परशुं तथा ॥ ६०१ ॥

धारयन्ती करे वामे पट्टिशं च विदारणम् ।

बाणचक्रगदाखङ्गपाशाङ्कुशपवीनपि ॥ ६०२ ॥

विदारणं दक्षिणेन करेण दधती तथा ।

प्रतप्तहेमपिङ्गाग्रसटाभारावगुण्ठिता ॥ ६०३ ॥

प्रकम्पिततनूयष्टिः पारिप्लवकनीनिका ।

प्रसुप्तभुजगाकारलूमखण्डविराजिता ॥ ६०४ ॥

नक्षत्रमालायितया रम्या नक्षत्रमालया ।

संवर्त्तकालकोट्यर्कदुर्निरीक्ष्यभयङ्करा ॥ ६०५ ॥

कोटिप्रलयकालाग्निप्रत्यनीकतनुप्रभा ।

इत्थं ध्येया नारसिंही न्यासकर्मणि पार्वति ॥ ६०६ ॥

वायुवेग से चलने वाली, श्मशान में विचरण करने वाली, दैत्यों के वक्षस्थल के फाड़ने से निकले हुए रुधिर से उक्षित शरीर वाली, लम्बी सोलह भुजाओं के द्वारा अशीति (=अस्सी सङ्ख्या वाले या अशीति नामक) वज्र, धनुष, वज्र, ढाल, मुसल, परशु, पट्टिश और विदारण बायें हाथों में तथा बाण, चक्र, गदा, खड्ग, पाश, अङ्कुश, वज्र और विदारण दायें हाथों में ली हुई है। तप्त सुवर्ण के समान पीत, अग्रजटा के भार से आच्छन्न मुख वाली, काँपती हुई शरीर वाली, हिलती- डुलती कनीनिका (आँख की पुतली) वाली, सोये हुए सर्प के आकार वाले लूमखण्ड (= जहरीली पूँछ) से शोभायमान, नक्षत्रमाला के सदृश प्रतीत होने वाली, नक्षत्र माला (=मोतियों की माला) से रमणीय, प्रलयकालीन करोड़ों सूर्य के समान दुर्निरीक्ष्य और भयङ्कर, प्रलयकालीन करोड़ अग्नि के सदृश शारीरिक चमक वाली है। हे पार्वति ! न्यासकर्म में इस प्रकार की नारसिंही का ध्यान करना चाहिये ॥ ६०० ६०६ ॥

ब्रह्माणी

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - ब्रह्माण्या मन्त्रध्याने

ब्रह्माणीमन्त्रमधुना सन्दिशामि तवेश्वरि ।

प्रणवादिं लिखेत् पाशं प्रासादं तदनन्तरम् ॥ ६०७ ॥

पीयूषमङ्कुशं नागमस्त्रं सप्ताक्षरो मनुः ।

ध्येयेयं येन विधिना वदामि तदपि प्रिये ॥ ६०८ ॥

हंसासनसमारूढ़ा रक्तवर्णा चतुर्मुखा ।

पिचिण्डिला निम्ननाभिः शुक्लयज्ञोपवीतिनी ॥ ६०९ ॥

स्थूलगण्डाधरौष्ठ भ्रूकपोलवदनात्मिका ।

बद्धपद्मासना स्थूला घनपिङ्गशिखाजटा ॥ ६१० ॥

सप्तर्षिभिर्नारदाद्यैः स्तूयमाना परेश्वरी ।

बाहुभ्यां दक्षवामाभ्यामक्षसूत्रं कमण्डलुम् ॥ ६११ ॥

धारयन्ती मुखैर्वेदान् पठन्ती खर्वविग्रहा ।

चिन्तनीयेदृशी देवी ब्रह्माणी सर्वकामदा ॥ ६१२ ॥

ब्रह्माणी के मन्त्र ध्यान- हे ईश्वरि ! अब तुम्हें ब्रह्माणीमन्त्र बतला रहा हूँ। पहले प्रणव फिर पाश प्रासाद अमृत अङ्कुश नाग और अस्त्र लिखे। यह मन्त्र सात अक्षरों वाला है। (मन्त्र का स्वरूप इस प्रकार है - ॐ आं हौं ग्लूं क्रों ब्रीं फट् ) । हे प्रिये! जिस विधि से इसका ध्यान करना चाहिये । वह भी तुमको बतला रहा हूँ । यह परमेश्वरी हंस पर आरूढ़, रक्तवर्णा, चतुर्मुखा, वृहद् उदरवाली, गहरी नाभि वाली, शुक्ल यज्ञोपवीत धारण की हुई, मोटे गण्ड अधर ओष्ठ भ्रू कपोल और वदन वाली, पद्मासन लगा कर बैठी, मोटी, सघन और पिङ्ग जटावाली है । सप्तर्षि नारद आदि इसकी स्तुति करते रहते हैं । दायें बायें हाथों से अक्षमाला और कमण्डलु धारण की हुई, मुखों से वेदपाठ करती हुई, नाटी कद वाली सर्वकामदा ब्रह्माणी देवी का ध्यान करना चाहिये ।। ६०७ ६१२ ।

वैष्णवी

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - वैष्णव्या मन्त्रध्याने

वदामि वैष्णवीमन्त्रमाकर्णय वरानने ।

तारं नमः समुद्धृत्य नारायण्यै ततो वदेत् ॥ ६१३ ॥

जगत्स्थिति ततश्वोक्त्वा कारिण्यै तदनन्तरम् ।

कामबीजत्रयं चोक्त्वा लक्ष्मीबीजत्रयं ततः ॥ ६१४ ॥

पाशबीजं कालबीजं ततश्च विनिवेशयेत् ।

स्वाहान्तो मनुरुद्दिष्टश्चतुर्विंशाक्षरात्मकः ॥ ६१५ ॥

इन्द्रनीलमणिश्यामां फुल्लराजीवलोचनाम् ।

कोटिशारदपूर्णेन्दुसमानमुखरोचिषम् ॥ ६१६ ॥

अत्यच्छदर्पणी भूतकपोलद्वयराजिताम् ।

शोणबिम्बाधरां रत्नस्फुरन्मकरकुण्डलाम् ॥ ६१७ ॥

कम्बुग्रीवां महोदारां तुङ्गवक्षोजनम्रिताम् ।

श्रीवत्सकौस्तुभोद्भासिवक्षःस्थलविराजिताम् ॥ ६१८ ॥

शङ्खचक्रगदापद्मधारिभिर्दीर्घपीवरैः।

चतुर्भिः पल्लवाकारैर्बाहुभिः परिराजिताम् ॥ ६१९ ॥

आपादपद्मलम्बिन्यालङ्कृतां वनमालया ।

किरीटरत्नकेयूरमञ्जीरादिभिरुज्ज्वलाम् ॥ ६२० ॥

पीताम्बरधरां देवीं भक्तानामभयप्रदाम् ।

गरुडासनमारूढां मन्दमन्दस्मिताधराम् ॥ ६२१ ॥

पक्षाभ्यां दीर्घपीनाभ्यां पृथुचवावृताननाम् ।

हेमाभं गरुडं ध्यायेद्यमारूढा हि वैष्णवी ॥ ६२२ ॥

वैष्णवी के मन्त्र ध्यान- हे वरानने! वैष्णवीमन्त्र को बतला रहा हूँ। सुनो । तार 'नमः' को कहकर 'नारायण्यै' कहना चाहिये। फिर 'जगत्स्थितिकारिण्यै' कहकर तीन बार कामबीज कहे। फिर तीन बार लक्ष्मी बीज कहकर पाशबीज, कालबीज कहे । अन्त में 'स्वाहा' कहना चाहिये। वह चौबीस अक्षरों वाला मन्त्र है (मन्त्र- ॐ नमो नारायण्यै जगतस्थितिकारिण्यै क्लीं क्लीं क्लीं श्रीं श्रीं श्रीं आं जूं स्वाहा ) । ध्यान - इन्द्रनीलमणि की भाँति श्याम, खिले कमल के सदृश नेत्रों वाली, करोड़ शरत्कालीन पूर्णचन्द्र के समान मुखकान्ति वाली, अत्यन्त स्वच्छदर्पण के सदृश दोनों कपोलों वाली, लाल बिम्ब के समान अधर वाली, रत्नों से स्फुरित मकराकृति- कुण्डलवाली, कम्बुग्रीवा, विशाल पेट वाली, ऊँचे स्तनों से नम्र, वक्षस्थल पर विराजमान श्रीवत्स (चरणचिह्न) और कौस्तुभ मणिवाली, शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म धारण की हुई, लम्बी चौड़ी पल्लवाकार चार भुजाओं से शोभायमान, पैर तक लटकने वाली वनमाला से अलङ्कृत, किरीट रत्न केयूर मञ्जीर आदि से चमत्कृत, पीताम्बरधारिणी देवी भक्तों के लिये अभयप्रदा है। यह गरुड़ासन पर आरूढ़ मन्द मुस्कानयुक्त अधर वाली है। दीर्घ पीन पलों, स्थूल चोंच तथा खुले मुख वाले स्वर्णाभ गरुड़ पर सवार वैष्णवी का ध्यान करना चाहिये ॥ ६१३-६२२ ॥

माहेश्वरी

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - माहेश्वर्या मन्त्रध्याने

अथ माहेश्वरीमन्त्रं समासात् प्रब्रवीमि ते ।

यस्यैकवारस्मरणान्निर्वाणमपि लभ्यते ॥ ६२३ ॥

तारप्रासादपीयूषपाशलज्जारमारुषः ।

माहेश्वरीपदं देवि प्रोच्चरेत्तदनन्तरम् ॥ ६२४ ॥

शाङ्करं शाम्भवं व्योम कूटत्रयमुदाहरेत् ।

भुजङ्गमतडिन्मेघशाकिनीरतिकालिकाः ॥ ६२५ ॥

चण्डकालामृतप्रेतान् युगलं कवचास्त्रयोः ।

त्रिंशदर्णात्मको मन्त्रः स्वाहासंवलितो भवेत् ॥ ६२६ ॥

इदानीं व्याहराम्यस्या ध्यानं सत्त्वगुणोज्ज्वलम् ।

हिमानीशैलसङ्काशामतिपीतजटाभराम् ॥ ६२७ ॥

घनाघनाभनागेन्द्रपरिबद्धजटाचयाम् ।

जटाजूटोच्छलद्ङ्गाजलकल्लोलमालिताम् ।। ६२८ ।।

पञ्चवक्त्रां गलच्छायाजितकज्जलरोचिषम् ।

हिमांशुशकलोद्दीप्तपञ्चभालां हसन्मुखीम् ॥ ६२९ ॥

प्रतिभालप्रविद्योतित्रित्रिलोचनसङ्गताम् ।

भालतृतीयनेत्रोद्यद्वह्निज्वालासमाकुलाम् ॥ ६३० ॥

कपोलमण्डलोद्योतिशुद्धस्फटिककुण्डलाम् ।

शुभ्र वासुकिनागेन्द्रलसद्यज्ञोपवीतिनीम् ॥ ६३१ ॥

शातकुम्भाभनागेन्द्ररुचिराङ्गदशोभिताम् ।

अतिशोणभुजङ्गेन्द्रविलसद्रत्नकङ्कणाम् ।। ६३२ ॥

वसानां चर्म वैयाघ्रं रत्नाकल्पोल्लसत्तनुम् ।

माहेश्वरी समारूढामतिश्वेतवृषोपरि ॥ ६३३ ॥

दशवाहां वीरभद्रनन्दिभृङ्गिपुर: सराम् ।

विष्णुरूपं शवं घोरं त्रिशूलं पर्शुमेव च ॥ ६३४ ॥

अक्षमालां वरं दक्षे करे सम्बिभ्रतीं पराम् !

पिनाकं नागपाशं च मृगं डमरुमेव च ॥ ६३५ ॥

अभयं दधतीं वामे प्रमथादिगणैर्वृताम् ।

इत्थं विचिन्त्य मनसा न्यसेदङ्गेषु साधकः ॥ ६३६ ॥

माहेश्वरी के मन्त्र ध्यान - अब तुम्हें संक्षेप में माहेश्वरी मन्त्र को बतला रहा हूँ, जिसके एक बार के स्मरणमात्र से निर्वाण भी मिलता है। हे देवि! तार, प्रासाद, अमृत, पाश, लज्जा, रमा, क्रोध बीजों के बाद 'माहेश्वरि' पद कहना चाहिये । ततः शाङ्कर, शाम्भव और व्योम-इन तीन कूटों को कहना चाहिये । भुजङ्गम, विद्युत, मेघ, शाकिनी, रति, काली, चण्ड, काल, अमृत, प्रेत कहकर कवच और अस्त्र को दो बार कहे । 'स्वाहा' से युक्त यह मन्त्र तीस वर्णों वाला है (मन्त्र - ॐ हौं ग्लूं आं ह्रीं श्रीं हूं माहेश्वरि लक्षमह्रजरक्रव्य्रऊं स्हजहलक्षमलवनऊं क्ष्लह्रमव्य्रऊं क्रम्लै ब्लौं क्लौं फ्रें क्यूं क्रीं फ्रों जूं ग्लूं स्हौः हुं हुं फट् फट् स्वाहा ) । अब तुम्हें इसका सत्त्व- गुणोज्ज्वल ध्यान बतला रहा हूँ। महाहिमशैल के समान, अत्यन्त पीत जटावाली, काले बादल की आभा वाले नागराज से जटा को बाँधी हुई, जटाजूट से उछलती हुई गङ्गा के जल की लहरों की माला वाली, पाँच मुखों वाली, गले की छाया से कज्जल की कान्ति को जीतने वाली, पाँचों मस्तकों पर चन्द्रखण्ड की चमक वाली. हँसमुख, प्रत्येक मस्तक पर चमकते हुए तीन-तीन नेत्रों वाली, भाल के तीसरे नेत्र से निकलने वाली अग्निज्वाला से समाकुल, कपोलमण्डल पर चमकने वाले शुद्ध स्फटिक के कुण्डलों वाली, शुभ्रवासुकि नाग का यज्ञोपवीत धारण की हुई, सोने के समान नागराजों का रुचिर अङ्गद पहनी हुई, अत्यन्त लाल साँपों के कङ्कण से शोभायमान, व्याघ्रचर्म पहनी हुई, रत्नों के आभूषण से सुशोभित शरीर वाली माहेश्वरी अत्यन्त श्वेत बैल पर आरूढ़ हैं। दश भुजा तथा वीरभद्र नन्दी भृङ्गी के पीछे-पीछे चलने वाली, दायें हाथों में विष्णुरूपी शव, घोर त्रिशूल, परशु अक्षमाला और वरद मुद्रा तथा बायें हाथों में धनुष, नागपाश, मृग, डमरू और अभय को धारण करती हुई अभय देने वाली, प्रमथ आदि गणों से घिरी हुई है। ऐसा ध्यान कर साधक अङ्गों में न्यास करे ॥ ६२३-६३६ ॥

इन्द्राणी

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - इन्द्राण्या मन्त्रध्याने

अथेन्द्राणीमनुं वक्ष्ये मातृमण्डलमध्यगाम् ।

यदाराधनतो लोकः सद्यः प्राप्नोति देवताम् ॥ ६३७ ॥

प्रणवं समनुद्धृत्य वदेल्लज्जारमारुषः ।

इन्द्राणि तदनुद्धृत्य मायायुग्मं ततो वदेत् ॥ ६३८ ॥

हं हं ततः समुच्चार्य्य क्षेत्रपालद्वयं ततः ।

अस्त्रत्रयान्तसंयुक्तः शिरोमन्त्रेण पार्वति ॥ ६३९ ॥

अष्टादशाक्षरो मन्त्रः सर्वसिद्धिप्रदायकः ।

ध्यानं निरुच्यमानं त्वं समाकर्णय पार्वति ॥ ६४० ॥

कैलासाचलसङ्काशतुङ्गैरावतसंस्थिता ।

नीलोत्पलदलश्यामा कवचावृतविग्रहा ॥ ६४१ ॥

रक्ताम्बरपरीधाना पीवरा खर्वविग्रहा ।

अनर्घ्यरत्नघटितचलच्छ्रवणकुण्डला ॥ ६४२ ॥

सर्वाङ्गव्याप्तशोणाब्जसहस्त्रनयनोज्ज्वला ।

चतुर्भुजा महापीनोत्तुङ्गवक्षोजमण्डिता ॥ ६४३ ॥

बाहुभ्यां दक्षवामाभ्यां स्थिताभ्यामुपरि क्रमात् ।

कुलिशं खेटकं चापि बिभ्रती समरोत्सुका ॥ ६४४ ॥

वामेनास्फालयन्ती च गण्डं करिपतेर्महत् ।

दक्षेण बाहुना कुम्भं दधती ददती शृणिम् ॥ ६४५ ॥

चतुर्दन्तो मदोन्मत्तस्तुषाराचलसन्निभः ।

ऐरावतोऽपि ध्यातव्यो यमिन्द्राणी समाश्रिता ॥ ६४६ ॥

इन्द्राणी के मन्त्र ध्यान- अब इन्द्राणी के मन्त्र को बतलाऊँगा जिसकी आराधना से मनुष्य उसी दिन मातृमण्डल की मध्यवर्ती देवता को प्राप्त कर लेता है। प्रणव को उद्धृत कर लज्जा, रमा और क्रोध बीजों को कहकर 'इन्द्राणि' कहे । इसके बाद दो बार माया बीज कहकर हं हं कहे । ततः दो क्षेत्रपाल बीज कहने के बाद अन्त में तीन अस्त्र और शिरोमन्त्र कहे । हे पार्वति ! यह अट्ठारह अक्षरों वाला मन्त्र सर्वसिद्धिदाता है (मन्त्र ॐ ह्रीं श्रीं हूं इन्द्राणि ह्रीं ह्रीं हं हं क्षौं क्षौं फट् फट् फट् स्वाहा ) । हे पार्वति ! अब कथ्यमान ध्यान को सुनो- वह देवी कैलास पर्वत के समान ऊँचे ऐरावत हाथी पर सवार है। नीलकमल के दल के समान श्याम, पूरे शरीर को कवच से ढँकी हुई, लालवस्त्र पहनी हुई, मोटी, छोटी शरीर वाली, बहुमूल्य रत्नों से जटित चञ्चल श्रवणकुण्डल वाली, समस्त अङ्गों में लाल कमल सदृश सहस्र नेत्रों से देदीप्यमान, चार भुजा वाली, महापीन ऊँचे स्तनों से मण्डित, ऊपर उठे दायें-बायें हाथों में क्रमशः वज्र और खेटक (= ढाल) ली हुई, युद्ध के लिये उत्सुक, बायें हाथ से गजराज के गण्ड को दबाती हुई, दायीं भुजा से कुम्भ धारण की हुई, शृणि (= अङ्कुश ) देती हुई है। (इसके ध्यान के साथ) जिस पर यह इन्द्राणी बैठी है उस चतुर्दन्त मदोन्मत्त तुषार पर्वत के समान (विशाल एवं शुभ्र ) ऐरावत का भी ध्यान करना चाहिये ।। ६३७-६४६ ॥

हरसिद्धा

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - हरसिद्धाया मन्त्रध्याने

अथातो हरसिद्धाया मन्त्रं ते व्याहराम्यहम् ।

सर्वं मयाराधितेयं बहुसिद्धिमभीप्सता ॥ ६४७ ॥

अतः प्रसिद्धिं सम्प्राप्तां मन्नाम्नैव वरानने ।

प्रणवं वाग्भवं बीजं मायाबीजं ततः परम् ॥ ६४८ ॥

कमलां मान्मथं बीजं कालीपाशाङ्कुशा अपि ।

चण्डक्रोधमहाक्रोधफेत्कारी शाकिनी अपि ॥ ६४९ ॥

हरसिद्धिं ततः प्रोच्य सर्वसिद्धिमितीरयेत् ।

कुरुयुग्मं देहि युगं दापय द्वितयं पुनः ॥ ६५० ॥

क्रोधत्रयं समुद्धृत्य द्विफडन्तेऽग्निवल्लभा ।

द्विचत्वारिंशवर्णाढ्यो मन्त्रः सर्वोत्तमोत्तमः ॥ ६५१ ॥

ध्यानं चास्याः प्रवक्ष्यामि यत् कृत्वा न्यासमाचरेत् ।

हरितालसमाभासलोचनत्रयभूषिताम् ।। ६५२ ।।

पादालम्बिजटाभारां नरमुण्डकृतस्त्रजम् ।

बर्हिपिच्छकृतोदप्रकाञ्चीकिङ्किणिमण्डिताम् ॥ ६५३ ॥

शार्दूलचर्मारचितकञ्चक्यावृतवक्षसम् ।

शवोपरि समारूढामीषत्कम्पितमस्तकाम् ॥ ६५४ ॥

चलदोष्ठपुटां बाहुचतुष्केन विराजिताम् ।

बर्हिणं वृक्षपालं च वामतो बिभ्रतीं शुभाम् ॥ ६५५ ॥

खड्गं च कर्त्तृकां दक्षे योगपट्टकृतस्त्रजम् ।

हरसिद्धा के मन्त्र ध्यान - अब इसके बाद मैं तुमको हरसिद्धा का सम्पूर्ण मन्त्र बतला रहा हूँ । बहुत सिद्धि चाहने वाले मेरे द्वारा इसकी आराधना की गयी । इसलिये हे वरानने! यह मेरे नाम से ही प्रसिद्ध हुई । प्रणव वाग्भव बीज, माया बीज, कमला, मन्मथ, काली, पाश, अङ्कुश, चण्ड, क्रोध, महाक्रोध, फेत्कारी, शाकिनी बीजों को कहकर 'हरसिद्धिं' कहकर 'सर्वसिद्धि' कहे । 'कुरु' 'देहि' 'दापय' को दो-दो बार कहकर क्रोधबीज को तीन बार कहे। अन्त में दो बार 'फट्' कहकर 'स्वाहा' कहना चाहिये। बयालिस वर्णों वाला यह मन्त्र सर्वोत्तम है (मन्त्र - ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं क्रीं आं क्रों औ हूं क्षं ह्स्ख्फ्रें फ्रें हरसिद्धिं सर्वसिद्धिं कुरु कुरु देहि देहि दापय दापय हूं हूं हूं फट् फट् स्वाहा। अब इसके ध्यान को बतलाऊँगा जिसको करने के बाद न्यास करना चाहिये। ध्यान - हरताल के समान चमकने वाले तीन नेत्रों से भूषित, पैर तक लटकती हुई जटा वाली, नरमुण्ड की माला पहनी हुई, मयूर के पङ्ख से बनी हुई सुन्दर करधनी और किङ्किणी से अलङ्कृत, सिंह के चर्म से बनी चोली से वक्ष को ढँकी हुई, शव के ऊपर बैठी हुई, कुछ हिलते हुए शिर वाली, फड़कते ओष्ठपुट वाली, चार भुजाओं से सुशोभित, बायें हाथ से मयूर और वृक्षपाल (=अस्त्र विशेष) दायें हाथ में खड्ग और कैंची ली हुई, शुभ, योगपट्ट की माला धारण की हुई है ।। ६४७-६५६ ॥

फेत्कारिणी

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - फेत्कारिण्या मन्त्रध्याने

अथ फेत्कारिणीमन्त्रं व्याहरामि तव प्रिये ॥ ६५६ ॥

सद्यः कविर्यग्रहणाद् राजा वापि प्रजायते ।

प्रणवाङ्कशसौपर्णफेत्कारीक्रोधयोगिनी: ।। ६५७ ।।

बीजान्युद्धृत्य फेत्कारिपदं प्रोक्त्वा वदेत्ततः ।

दद युग्मं देहि ततो दापयेति पदं वदेत् ॥ ६५८ ॥

स्वाहान्तो मनुराजोऽयं विंशत्यक्षरिकः प्रिये ।

ध्यानमस्या ब्रुवे नाभेरधो मनुजसन्निभाम् ॥ ६५९ ॥

ऊर्ध्वं गोमायुसदृशीं तदाकारां मुखेऽपि च ।

अधोजाम्बूनदरुचिमूर्ध्वं रक्तासितप्रभाम् ॥ ६६० ॥

पृष्ठे लूमयुतां नग्नां कुर्वन्तीं फैरवं रवम् ।

शिवाकारं बाहुयुगं बिभ्रतीं पितृतान्विताम् ॥ ६६१ ॥

प्रसुप्तशवपृष्ठस्थां योगपट्टे निषेदुषीम् ।

शिवाभिर्घोररूपाभिर्वामदक्षिणतो वृताम् ॥ ६६२ ॥

फेत्कारिणी के मन्त्र ध्यान- हे प्रिये ! अब तुम्हें फेत्कारिणी का मन्त्र बतला रहा हूँ जिसके ग्रहण से साधक सद्यः कवि या राजा हो जाता है। प्रणव अङ्कुश गरुड फेत्कारी क्रोध योगिनी बीजों को उद्धृत कर 'फेत्कारि' पद कहे। इसके बाद दो-दो बार 'दद' 'देहि' और 'दापय' कहे। अन्त में 'स्वाहा' कहे। हे प्रिये! यह मन्त्रराज बीस अक्षरों वाला है (मन्त्र का स्वरूप इस प्रकार है - ॐ क्रीं क्रौं ह्स्ख्फ्रें हूं छीं फेत्कारि दद दद देहि दापय स्वाहा )। अब इसका ध्यान बतला रहा हूँ। ध्यान- (यह देवी) नाभि के नीचे मनुष्य के समान, उसके ऊपर शृगालिनसदृश, मुख भी उसी (शृगाली) के आकार वाला, नीचे स्वर्णसदृश चमक वाली, ऊपर रक्त और कृष्ण वर्ण वाली, पीछे पूँछ वाली, नग्न, सियार का शब्द करती हुई, शिवा के आकार की दो भुजाओं से युक्त, पितृत्व से युक्त, सोये हुए शब की पीठ पर बैठी हुई, योगपट्ट पर बैठी हुई, बायीं और दायीं ओर भयानक सियारिनों से घिरी हुई है (- ऐसा ध्यान करना चाहिये) ॥ ६५६-६६२ ॥

लवणेश्वरी

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - लवणेश्वर्या मन्त्रध्याने

अथ ब्रवीमि लवणेश्वर्य्या मन्त्रं कलार्णिकम् ।

आदौ चैतन्यकमले पाशप्रासादकौ ततः ॥ ६६३ ॥

रुग्भूतप्रेतडाकिन्यो योगिनी वनिता तथा ।

मानसं वज्रभारुण्डे कपालं च कुलाङ्गना ॥ ६६४ ॥

त्रैवर्णिकः सर्वशेषे महामन्त्रोऽयमीरितः ।

साम्प्रतं ध्यानमाख्यास्ये यत् कृत्वा न्यासमाचरेत् ॥ ६६५ ॥

रत्नसिंहासनारूढां दूर्वादलसमुद्युतिम् ।

बद्धाञ्जलिपुटैः सप्तसागरै रत्नपाणिभिः ॥ ६६६ ॥

विहाय सम्मुखं दिक्षु विदिक्षु परिवेष्टिताम् ।

नेत्रदासक्तहस्तेन धनदेन पुरोजुषा ॥ ६६७ ॥

सेवितां प्रज्वलन्मौलिमणिभिर्नागनायकैः ।

अष्टभिर्निधिभिश्चापि महापद्मादिभिर्वृताम् ॥ ६६८ ॥

चतुर्भुजां रत्नकुम्भाभये सव्यभुजद्वये ।

अक्षमालावरे दक्षे भुजयुग्मेषु बिभ्रतीम् ॥ ६६९ ॥

मुक्ताहारपरिक्षिप्तां द्रव्यसिद्धिविधायिनीम् ।

न्यासं समाचरेद् देवि ध्यात्वेत्थं लवणेश्वरीम् ॥ ६७० ॥

लवणेश्वरी के मन्त्र ध्यान- अब लवणेश्वरी का कलावर्ण वाला मन्त्र कह रहा हूँ। पहले चैतन्य और कमला इसके बाद पाश और प्रासाद फिर क्रोध भूत, प्रेत, डाकिनी, योगिनी, स्त्री, मानस, वज्र, भारुण्ड, कपाल, कुलाङ्गना और सबके अन्त में त्रैवर्णिक (=ॐ)। यह महामन्त्र कहा गया है। (मन्त्र-ऐं श्रीं आं हौं हूं स्फ्रों स्हौः ख्फ्रें छ्रीं स्त्रीं ठ्रीं श्रीं प्रीं श्रीं स्त्रीं ॐ)। अब ध्यान कहूँगा जिसको करने के बाद न्यास करना चाहिये । ध्यान - रत्नसिंहासन पर आरूढ, दूर्वादल के समान (हरित) ति वाली, हाथों में रत्न लिये हाथ जोड़े सात सागरों के द्वारा सामना छोड़कर शेष सात दिशाओं में आवृत, नेत्रदा के ऊपर हाथ रखे हुए एवं सामने स्थित कुबेर के द्वारा सेवित, चमकती हुई मणियों को शिर पर धारण करने वाले नागराजों तथा महापद्म आदि आठ निधियों से घिरी हुई, चार भुजाओं वाली, बायीं दोनों भुजाओं में रत्नकुम्भ और अभय मुद्रा तथा दायीं दोनों भुजाओं में अक्षमाला और वरद मुद्रा धारण की हुई, मोतियों का हार पहनी हुई, द्रव्यसिद्धि देने वाली लवणेश्वरी का इस प्रकार ध्यान कर न्यास करना चाहिये ॥ ६६३-६७० ॥

नाकुली

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - नाकुलीदेव्या मन्त्रध्याने

अथातो नाकुलीं वक्ष्ये महाविद्यां जयप्रदाम् ।

सर्वादिप्रकृतेरादौ सप्तान्ते चतुरस्तथा ॥ ६७१ ॥

त्यक्त्वा माध्यमिकैर्भूतमितैर्मन्त्रो महाफलः ।

कपोतगलदेहाभा पीनोरोजा दिगम्बरा ॥ ६७२ ॥

मुक्तपादालम्बिजटाजूटभारा भयङ्करा ।

बभ्रौ निषेदुषी शूच्याकारतुण्डी खरस्वरा ॥ ६७३ ॥

सितलूताजालजालाच्छादितोर्ध्वशिरोरुहा ।

कपालमालाभरणा ब्रस्थिकाञ्चीगुणोज्ज्वला ॥ ६७४ ॥

लम्बमानशिवापोतकुण्डलद्वयशोभिता ।

अर्द्धचन्द्रसमुद्भासि भ्रमरीकललाटिका ॥ ६७५ ॥

दण्डाकारितयोर्दक्षवामयोर्भुजयुग्मयोः ।

बिभ्रती कालभुजगौ दीर्घदंष्ट्राकरालिनी ॥ ६७६ ॥

परस्परं त्यक्तवैरैरुरगैर्नकुलैरपि ।

संवेष्टिता चतुर्दिक्षु महारण्यकृतालया ॥ ६७७ ॥

नाकुलीदेवी के मन्त्र ध्यान- अब विजय देने वाली नाकुली महाविद्या को बतलाऊँगा । (सर्वादि प्रकृति= सोलहस्वर, इनमें से प्रथम सात = अ आ इ ई उ ऊ ऋ तथा अन्तिम चार = ओ औ अं अः को त्यक्त्वा = छोड़कर शेष माध्यमिकै = मध्य में स्थित, भूतमितै= महाभूत की सङ्ख्या वाले अर्थात् पाँच स्वर ॠ लं लूं एं ऐं) इनसे बना हुआ मन्त्र महाफलदायक होता है । (मन्त्र - ऋं ऌं ॡं एं ऐं ? )* । ध्यान - यह देवी कबूतर के गले एवं देह जैसी कान्ति वाली, पीनवक्ष वाली, नग्न, पैर तक खुले बालों की जटा वाली, भयङ्कर, बभ्रु पर बैठी हुई, सूई के आकार के मुखवाली, गदहे के स्वर वाली है। उसके शिर के बाल श्वेत मकड़ी के जाल से वेष्ट एवं ऊर्ध्वमुखी है । कपालमाला का आभूषण तथा मनुष्य की हड्डी की करधनी से यह चमत्कृत है । शिवा के बच्चों का कुण्डल धारण की हुई है। अर्धचन्द्र से समुद्भासित तथा भँवर वाले ललाट वाली, दण्ड के आकार वाले दायें-बायें दोनों हाथों में कालसर्प पकड़ी हुई, लम्बे दाँतों वाली, विकराल, परस्पर वैररहित सर्पों एवं नेवलों से चारो ओर घिरी हुई तथा घोर जंगल में रहने वाली है ।। ६७१-६७७ ।।

*  डॉ० किशोरनाथ झॉ द्वारा सम्पादित संस्करण के अनुसार मन्त्र का स्वरूप है- क्रः छ्रीं हूं स्त्री फ्रें

मृत्युहारिणी

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - मृत्युहरिण्या मन्त्रध्याने

साम्प्रतं मृत्युहारिण्या मन्त्रध्याने ब्रवीमि ते ।

मृत्युञ्जयप्राणमन्त्र उद्धृता या नवाक्षरी ॥ ६७८ ॥

नास्या न्यासं तया कुर्य्यादन्येन प्रब्रवीमि ते ।

तारमाये रमाकालौ रावा (न्त) चतुरक्षरी ॥ ६७९ ॥

प्रासादप्रेतभैरव्यः कूटं शाम्भवमेव च ।

कूटं च परमात्मीयं विहायैतच्छुचिस्मिते ॥ ६८० ॥

विलोमरीत्या प्रवदेत्तान्येव द्वादशानि हि ।

पञ्चविंशाक्षरो मन्त्रो मृत्त्योर्मृत्त्युकरः स्मृतः ॥ ६८१ ॥

आचरेदमुना न्यासमिदानीं ध्यानमीरये ।

हिमानीकूटसदृशीमीश्वरीं देहरोचिषा ।। ६८२ ॥

उत्तानकुणपाकारकालमृत्त्यूपरि स्थिताम् ।

चतुर्वेदाकारयोगपट्टजानुद्वयाङ्किताम् ॥ ६८३ ॥

सितसूक्ष्माम्बरधरां स्मेराननसरोरुहाम् ।

ज्ञानरश्मिच्छटाटोपविद्योतितनुमण्डलाम् ।। ६८४ ।।

प्रौढाङ्गनारूपधरामुत्तुङ्गस्तनमण्डलाम् ।

विभूषितां यावदेकयोषिद् (भू) षणसञ्चयैः ॥ ६८५ ॥

विद्याभिरष्टादशभिर्निबद्धाञ्जलिभिः सदा ।

सेव्यमानां चतुर्दिक्षु हसन्तीं तां निरीक्ष्य च ॥ ६८६ ॥

चतुर्भुजां सुधाकुम्भपुस्तके वामहस्तयोः ।

दक्षयोरक्षमालां च मुद्रां व्याख्यानशालिनीम् ॥ ६८७ ॥

दधतीं सर्वदा ध्यायेद् देवीं तां मृत्युहारिणीम् ।

मृत्युहारिणी के मन्त्र ध्यान- अब तुमको मृत्युहारिणी के मन्त्र और ध्यान को बतलाता हूँ । मृत्युञ्जयप्राण मन्त्र में जिस नवाक्षरी का वर्णन किया गया है इस ( = मृत्युहारिणी) का न्यास उससे नहीं बल्कि किसी दूसरे से करना चाहिये। वह मैं तुम्हें बतला रहा हूँ । तार माया रमा काल रावान्त चतुरक्षरी प्रसार प्रेत भैरवी शाम्भव और परमात्म के बाद परमात्मा कूट को छोड़कर विलोम क्रम से उन्हीं बारह बीजों को पुनः कहना चाहिये । पचीस अक्षरों वाला यह मन्त्र मृत्यु की भी मृत्यु करता है। ( मन्त्र - ॐ ह्रीं श्रीं जूं फ्रां फ्रीं फ्रूं फ्रैं हौं स्हौः सौः स्हजहलक्षम्लवनऊं तत्त्वमसि सहज लक्षम्लवनऊं सौः स्हौः हौं फ्रें फूं फ्री फ्रां जूं श्रीं ह्रीं ॐ)। इस मन्त्र से न्यास करना चाहिये । अब तुमको मैं इसका ध्यान बतला रहा हूँ। देह की कान्ति हिमकूट के सदृश है। उत्तान शव के आकार वाले कालमृत्यु के ऊपर बैठी, दोनों घुठनों पर चारों वेदों के आकार की पट्टिका रखी, रश्मि की शोभा के विस्तार के कारण चमकती देह वाली, प्रौढ स्त्री रूपधारिणी, ऊँचे स्तनमण्डल वाली, एक स्त्री के लिये योग्य उचित भूषणों से भूषित, चारो दिशाओं में हाथ जोड़े अट्ठारह विद्याओं से सदा सेवित, हंसती हुई, चतुर्भुजा, बायें हाथों में अमृत कलश एवं पुस्तक तथा दायें हाथों में अक्षमाला और व्याख्यामुद्रा धारण की हुई उस मृत्युहारिणी देवी का सदा ध्यान करना चाहिये ।। ६७८-६८८ ।।

कामकला काली

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - कामकलाकाल्या मन्त्रध्याने

अथात एकपञ्चाशत्तमा वै कामकालिका ॥ ६८८ ॥

न्यसनीया सर्वदोषव्यापकत्वेन पार्वति ।

ध्यानं पूर्वोक्तमेवात्र कर्त्तव्यं प्रथमं बुधैः ॥ ६८९ ॥

ततस्तत्त्वमिता मन्त्रा न्यसनीया क्रमेण हि ।

सर्वाम्नायाः सप्तदश्याः प्रथमं समुदीरयेत् ॥ ६९० ॥

व्यापकं मातृकावर्णं महाम्नायनिकस्य च ।

जघन्ये हृन्मनुर्देवि मध्ये तु मनवोऽखिलाः ॥ ६९१ ॥

एकैकेनैकवारं हि विदध्याद् व्यापकं बुधः ।

पञ्चविंशतिभिश्चैवं मनुभिः पृथगीरितैः ॥ ६९२ ॥

व्यापकं तावतो वारान्निरालस्यः समाचरेत् ।

अथवा निखिलान्मन्त्रानुच्चार्य्य क्रमतः प्रिये ॥ ६९३ ॥

नमोऽन्ते व्यापकं कुर्यात् पूर्वस्मिन् फलभूमता ।

कामकला काली के मन्त्र ध्यान- हे पार्वति ! अब सर्वदोष के व्यापक के रूप में इक्यावनवीं देवी कामकला काली का न्यास करना चाहिये। विद्वान् सबसे पहले पूर्वोक्त ध्यान करे। इसके बाद क्रम से तत्त्वमित (=सङ्ख्या के पचीस तत्त्वों की सङ्ख्या वाली) मन्त्रों का न्यास करना चाहिये । पहले समस्त शास्त्रों में स्वीकृत सप्तदशी का कथन करना चाहिये। इसमें महा आम्नाय के (पचास) मातृका वर्णों का उच्चारण कर जघन्य (= अन्त) में हन्मन्त्र कहना चाहिये। शेष सभी मन्त्र बीच में आते हैं। विद्वान् एक मन्त्र से एक बार व्यापक न्यास करे। इस प्रकार पृथक्-पृथक् कहे गये पचीस मन्त्रों से पचीस बार व्यापक न्यास आलस्यरहित होकर करे । (यह एक विधि है) । अथवा हे प्रिये ! (दूसरी विधि यह है कि) सभी मन्त्रों का क्रम से उच्चारण कर अन्त में 'नमः' कहे और व्यापक न्यास करे। किन्तु पहले ( प्रकार से न्यास करने) में प्रचुर फल की प्राप्ति होती है । ६८८-६९४ ।।

इतरत्र ततः किञ्चित्तारतम्यं प्रचक्षते ॥ ६९४ ॥

मरीच्युपासिता विद्या पुरः सप्तदशी मता ।

ततो नु कपिलोपास्या षोडशार्णा निगद्यते ॥ ६९५ ॥

नवाक्षरी हिरण्याक्षोपासिता तदनन्तरम् ।

ततो दशार्णा विज्ञेया लवणोपासिता हि या ॥ ६९६ ॥

वैवस्वतमनूपास्या ज्ञेया पञ्चदशी ततः ।

नवबीजात्मिका दत्तात्रेयोपास्या नवाक्षरी ॥ ६९७ ॥

दूर्वासोपासिता चापि ततः पञ्चाक्षरी मता ।

अष्टादशाक्षरं ज्ञेयं त्रैलोक्याकर्षणं ततः ॥ ६९८ ॥

मन्वक्षरो मनुः पश्चादुत्तङ्कोपासितः प्रिये ।

ततः परा सप्तदशी विश्वामित्रेण सेविता ॥ ६९९ ॥

तत ऊनत्रिंशदर्णा विद्यौर्वोपासिता स्मृता ।

पराशरोपासितश्च षष्ठांशकाक्षरस्ततः ॥ ७०० ॥

सप्तदशी विद्या की उपासना मरीचि ऋषि ने की। इसके बाद कपिल ने सोलह वर्णों वाली विद्या की उपासना की। हिरण्याक्ष ने नवाक्षरी की उपासना की तो लवणासुर ने दशाक्षरी विद्या की उपासना की । पञ्चदशी की उपासना वैवस्वत मनु ने की । नव बीजरूपा नवाक्षरी दत्तात्रेय की उपास्या है। दुर्वाशा ने पञ्चाक्षरी की उपासना की अट्ठारह अक्षरों वाले मन्त्र को त्रैलोक्याकर्षण जानना चाहिये। हे प्रिये ! मनु ने चौदह अक्षर वाले मन्त्र की पूजा की। विश्वामित्र ने सप्तदशी की और उन्तीस अक्षरों वाली विद्या की उपासना और्व ने कीऐसा वर्णन है। साठ अक्षरों वाली की पराशर ने उपासना की ।। ६९४ ७०० ॥

विद्या त्रिकूटा तदनु भगीरथनिषेविता ।

वैरोचनिसमाराध्या तदनु स्यात् षडक्षरी ॥ ७०१ ॥

ख्याता महाषोडशीया संवर्तोपासिता ततः ।

नारदोपासिता पश्चाज् ज्ञेया पञ्चदशाक्षरी ॥ ७०२ ॥

या बीजान्तरिता शाम्भवादिकूटपुरःसरा ।

सप्तकूटात्मिका पञ्च बीजेन घटिता तथा ॥ ७०३ ॥

ख्याता महासप्तदशी गरुडोपासिता तथा ।

वक्ष्यमाणक्रमेणापि या तु सप्तदशी ततः ॥ ७०४ ॥

कामदग्धोपासिता च ततः सप्ताक्षरी मता ।

भृगूपास्यतया ख्याता ततः सप्तदशाक्षरी ॥ ७०५ ॥

चतुर्दशार्णस्तदनु कार्त्तवीर्येण सेवितः ।

पञ्चाक्षरी पृथूपास्या तत्पश्चादनु कीर्त्यते ॥ ७०६ ॥

द्वाविंशाक्षरिकः पश्चाद् हनूमत्समुपासितः ।

शताक्षरसहस्त्रार्णी सर्वोपास्यौ ततः परम् ॥ ७०७ ॥

चतुर्विंशमिता एवं मन्त्राः व्यापककर्मणि ।

ध्यानं चैषामेकमेव यत्पूर्वं गदितं तव ॥ ७०८ ॥

भगीरथ ने त्र्यक्षरा की, बलि ने षडक्षरा की संवर्त ने षोडशाक्षरा की उपासना की। नारद ने पञ्चादशाक्षरी की अर्चना की। जो शाम्भव आदि कूटाक्षरों से आन्तरित (= बीच-बीच में शाम्भव आदि बीजाक्षरवाली) सातकूट वाली पाँच बीजाक्षरों से रचित थी तथा जिसे महा सप्तदशी बतलाया गया है, गरुड़ के द्वारा यह उपासित हुई । वक्ष्यमाण क्रम से जो सप्तदशी है उसकी कामदग्ध ने उपासना की । यही सप्तदशाक्षरी भृगु के द्वारा भी उपास्य थी। चौदह वणों वाले इस मन्त्र की सहस्रार्जुन ने अर्चना की । इसके बाद पृथु ने पञ्चाक्षरी की उपासना की । हनुमान् के द्वारा बाईस अक्षरों वाली की उपासना की गयी । शताक्षरा और सहस्राक्षरा सबके द्वारा उपास्य बतलायी गयी हैं। इस प्रकार व्यापक कर्म में चौबीस प्रकार के मन्त्र कहे गये हैं। इन सबका ध्यान एक ही प्रकार का कहा गया है जिसे मैंने तुमको पहले ही बतला दिया है ।। ७०१-७०८ ।।

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - षोढान्यासस्य समर्पणविधिः

प्राणायामं ततः कृत्वा षडङ्गमपि चाचरेत् ।

शतमष्टोत्तरं जप्त्वा न्यासं देव्यै समर्पयेत् ॥ ७०९ ॥

वक्ष्यमाणेन मन्त्रेण गृहीतकरपुष्करः ।

[ न्याससमर्पणमन्त्रः ]

ॐ सर्वं निविष्टं त्रैलोक्ये त्रैलोक्यं त्वयि विष्टितम् ॥ ७१० ॥

त्वमप्यमुष्मिन् न्यासेऽम्ब सन्निविष्टाणुरूपिणी ।

त्रैलोक्यविजयत्वेन ख्यातोऽयमत एव हि ॥ ७११ ॥

निविष्टोऽयं मयि न्यासस्त्रिपुरा विश्वरूपिणि ।

न्यासस्तवार्पितो देवि त्रैलोक्यविजयो मया ।। ७१२ ।।

एतेनैव सह त्वं च मय्येव प्रविशाम्बिके ।

त्रैलोक्यमखिलं तस्मान् मद्रूपत्वे वितुष्टितम् ॥ ७१३ ॥

अहं त्रैलोक्यरूपश्च तस्मादैक्यं बभूव तु ।

षोढा न्यास समर्पण की विधि और मन्त्र-न्यास के बाद प्राणायाम कर षडङ्ग न्यास भी करना चाहिये। योगी साधक १०८ बार जप कर हाथ में कमल या अभाव में कोई भी फूल लेकर वक्ष्यमाण मन्त्र से न्यास कर देवी के लिये समर्पण करे । ( मन्त्र का स्वरूप प्रकार है - ॐ सर्व निविष्टं बभूव तु)। हे देवि! सब कुछ त्रैलोक्य में निविष्ट है और त्रैलोक्य तुममे निविष्टि है । हे अम्ब! तुम भी अणुरूपिणी होकर इस न्यास में सन्निविष्ट हो जाओ। यह न्यास त्रैलोक्यविजय मन्त्र के रूप में विख्यात है अतः एव हे त्रिपुराविश्वरूपिणि! यह न्यास मेरे अन्दर निविष्ट है। मैंने इस त्रैलोक्यविजय न्यास को तुम्हें समर्पित कर दिया। हे अम्बिके! इस न्यास के साथ तुम भी मेरे अन्दर प्रवेश कर जाओ। इस कारण सम्पूर्ण त्रैलोक्य मेरे अन्दर प्रविष्ट हो गया। मैं भी त्रैलोक्य रूप हो गया अतः (मेरी और त्रैलोक्य की एकरूपता हो गयी) ।। ७०९-७१४ ।।

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - समन्त्रो बलिसमर्पणविधिः

कृतं न्यासं समप्यैवं बलिं देव्यै निवेदयेत् ॥ ७१४ ॥

स्वस्वानुक्रमतो मन्त्रपूर्वसम्भक्तिभावितः ।

तारत्रपाकामवध्वः शाकिनी डाकिनी तथा ।। ७१५ ।।

फेत्कारीप्रेतभैरव्यः कूटं शाम्भवमेव च ।

एह्येहि भगवत्युक्त्वा कालि कामकलार्णतः ॥ ७१६ ॥

इमं बलिं गच्छ युगं तावद् गृह्णापयेति च ।

खादय द्वयमाभाष्य भक्षयद्वितयं ततः ॥ ७१७ ॥

सर्वसिद्धिं प्रयच्छेकं वमदग्निमुखीरयेत् ।

फेरुकोटि समाभाष्य ततः परिवृते वदेत् ॥ ७१८ ॥

हस ज्वल प्रज्वल च द्वयं द्वयमुदीरयेत् ।

क्रोधास्त्रयोश्च त्रितयं नमः स्वाहा जघन्यतः ॥ ७१९ ॥

यथेष्टं विहरेद् धीमान् पठित्वा मनुना बलिम् ।

संहारमुद्रया देवीं हृदये विनिधाय च ॥ ७२० ॥

इति कामकलाकाल्याः षोढान्यासो मयेरितः ।

किन्त्वस्य महिमा (वक्तुं मयापि नहि शक्यते ॥ ७२१ ॥

पर्वण्यमुं विधायेशि वाञ्छितार्थं प्रसाधयेत् ।

षण्मासेन विदधत् कदाप्यपतितं प्रिये ॥ ७२२ ॥

साक्षाद् देवीपुत्र एव भवेद् भैरव एव वा ।

अमुं न्यासं प्रकुर्वाणः पर्वण्यथ सदापि वा ॥ ७२३ ॥

कस्मैचिदपि न क्रुध्यान्ननमेन्न शपेदपि ।

न निष्ठुरं च भाषेत न चापत्यमृतिं स्मरेत् ॥ ७२४ ॥

यस्मैः कुध्यात् स म्रियते षण्मासाभ्यन्तरे नरः ॥ ७२५ ॥

बलिसमर्पण की विधि और मन्त्र-साधक किये गये न्यास का इस प्रकार समर्पण कर देवी के लिये बलि दे । यह बलि अपने-अपने क्रम से मन्त्रोच्चारपूर्वक भक्तिभाव से देनी चाहिये । ( मन्त्र के लिये) तार, त्रपा, काम, वधू, शाकिनी, डाकिनी, फेत्कारी, प्रेत, भैरवी, शाम्भवकूट के बाद 'एहि एहि भगवति' ऐसा कहकर 'कामकलाकालि इमं बलि' कहे। फिर 'गच्छ गृह्णापय खादय भक्षय' को दो-दो बार कहे । फिर सर्वसिद्धिं प्रयच्छ' कहकर एक बार 'वमदग्निमुखि' कहे । ततः 'फेरुकोटि' कहकर 'परिवृते' कहने के बाद 'हस ज्वल प्रज्वल' को दो-दो बार कहना चाहिये । इसके बाद तीन क्रोध और अस्त्र को तीन-तीन बार 'नमः' और 'स्वाहा' कहकर बलि दे (मन्त्र ॐ ह्रीं क्लीं स्त्री औं ख्फ्रें ह्स्खफ्रें स्हौः सौः स्हजहलक्षम्लवनऊं एहि ऐहि) भगवति कामकलाकालि इमं बलिं गच्छ गच्छ ( - गृह्ण गृह्ण) गृह्णापय गृह्णापय खादय खादय भक्षय भक्षय सर्वसिद्धिं प्रयच्छ वमदग्निमुखि फेरुकोटिपरिवृते ( हस हस ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल हूं हूं हूं फट् फट् फट् नमः स्वाहा) । धीमान् साधक मन्त्र को पढ़कर बलि का समर्पण करने के बाद संहारमुद्रा के द्वारा देवी को हृदय में स्थित ध्यान कर यथेष्ट विचरण करे । इस प्रकार मैंने कामकलाकाली के छह न्यासों का वर्णन किया । किन्तु इसकी महिमा का वर्णन मैं भी नहीं कर सकता । हे ईश्वरि! किसी भी पर्व पर इस न्यास का विधान कर वाञ्छित अर्थ की सिद्धि करनी चाहिये। हे प्रिये! छह महीने तक अव्यवहित रूप से करने वाला मनुष्य साक्षात् देवीपुत्र या भैरव हो जाता है। पर्व पर्व पर अथवा सदा इस न्यास को करने वाला न तो किसी के ऊपर क्रोध करे, न किसी को नमस्कार करे और न किसी को शाप दे, न किसी को गाली दे न सन्तान की मृत्यु की कामना करे । क्योंकि (यह साधक) जिसके ऊपर क्रोध आदि करेगा वह मनुष्य छह महीने में मर जायेगा ।। ७१४-७२५ ॥

॥ इत्यादिनाथविरचितायां पञ्चशतसाहस्त्र्यां महाकालसंहितायां षोढान्यासोद्धारो नामाष्टमः पटलः ॥ ८ ॥

॥ इस प्रकार श्रीमद् आदिनाथविरचित पचास हजार श्लोकों वाली महाकालसंहिता के कामकलाकाली खण्ड के षोढान्यासोद्धार नामक अष्टम पटल की आचार्य राधेश्याम चतुर्वेदी कृत 'ज्ञानवती' हिन्दी व्याख्या सम्पूर्ण हुई ॥ ८ ॥

आगे जारी ........ महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल 9

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