कामकलाकाली रहस्य

कामकलाकाली रहस्य

महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल ८ में देवी ने अन्य रहस्यों के बारे में प्रश्न किया। महाकाल ने कहा कि जो षोढ़ान्यास मै बतलाऊँगा वह अत्यन्त गोपनीय है। इस न्यास की महिमा के सन्दर्भ में पहले भगवान् नृसिंह, भैरव तथा कामदेव के इक्यावन नाम व उनके ध्यान की चर्चा की गयी। अब इसी प्रकार कामकला, डाकिनी, शक्ति, इक्यावन देवियों के ऋषि आदि उनके इक्यावन नाम तथा विशाल स्वरूप के विस्तृत ध्यान की पृथक्-पृथक् कामकलाकाली रहस्य की प्रस्तुति इस पटल में है।

कामकलाकाली रहस्य

कामकलाकाली रहस्य  

Mahakaal samhita kaam kalaa kaali khanda patal 8

महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल ८-  कामकलाकाली रहस्य

महाकालसंहिता कामकलाखण्ड अष्टम पटल

कामकलाकालीरहस्य

महाकालसंहिता

कामकलाखण्ड:

(कामकलाकालीखण्ड:)

कामकलाकाली रहस्य

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - चतुर्थस्य डाकिनीन्यासस्य ऋष्यादिनिर्देश:

अथ प्रवक्ष्ये ते देवि डाकिनीन्यासमुत्तमम् ॥ १४० ॥

यदाचरन् नरो याति समत्रैश्वर्य्यपात्रताम् ।

न्यासस्य डाकिनीनाम्नो विरूपाक्ष ऋषिर्मतः ॥ १४१ ॥

पश्छिन्दः समाख्यातं डाकिन्यो देवता अपि ।

बीजं तु डाकिनीबीजं खेचरी शक्तिरुच्यते ॥ १४२ ॥

डाकिनीन्यास एवास्य विनियोगः प्रकीर्तितः ।

षड्दीधैर्डाकिनीबीजैः षडङ्गन्यासमाचरेत् ॥ १४३ ॥

वाग्भवं च पराकूटं मायां लक्ष्मीं ततः परम् ।

क्रोधबीजं वधूबीजं योगिनीबीजमेव च ॥ १४४ ॥

शाकिनीकामबीजे च धनदाबीजमेव च ।

कालीचण्डाङ्कशार्णं च बीजानीह त्रयोदश ॥ १४५ ॥

सनाम डाकिनी ङेऽन्तं सर्वशेषे नमः पदम् ।

मातृकान्यासवत्स्थानमासां देवि प्रकीर्तितम् ॥ १४६ ॥

डाकिनी न्यास - हे देवि! अब इसके बाद तुमको उत्तम डाकिनीन्यास बतलाऊँगा जिसका आचरण करने वाला मनुष्य समग्र ऐश्वर्य का पात्र हो जाता है । इस डाकिनी नामक न्यास के ऋषि विरूपाक्ष हैं। छन्द पङ्क्ति और देवता डाकिनियाँ हैं। डाकिनी वर्ण (ख्फ्रें) बीज है और खेचरीबीज (= ह्स् ख्फ्रें) शक्ति है। इसका डाकिनीन्यास में विनियोग कहा गया है। छह दीर्घ डाकिनी बीज से षडङ्गन्यास करे । ( उसका स्वरूप यह है-ख्फ्रां ख्फ्रीं ख्फ्रूं ख्फ्रें ख्फ्रौं ख्फ्र:) (डाकिनीमन्त्र का स्वरूप बतलाते हैं -) वाग्भव, पराकूट (=सहक्लह्रीं) माया, लक्ष्मी, क्रोध, वधू, योगिनी, शाकिनी, काम, धनदा, काली, चण्ड और अङ्कुश ये तेरह बीज तत्पश्चात् डाकिनी का चतुर्थ्यन्त नाम और सबके अन्त में 'नमः' कहना चाहिये । (मन्त्र का स्वरूप इस प्रकार होगा- ऐं स्ह्क्लह्रीं ह्रीं श्रीं हूं स्त्रीं छ्रीं फ्रें क्लीं क्षं क्रीं फ्रें क्रों कालरात्रिडाकिन्यै नमः । डाकिनियों का नाम समय समय पर सर्वत्र बदल देना चाहिये) हे देवि! इनका स्थान मातृका न्यास के समान है ।। १४०-१४६ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - एकपञ्चाशड् डाकिनीनामाभिधानम् 

डाकिनीनां च नामापि गदतो मेऽवधारय ।

महारात्रिः कालरात्रिर्विरूपा च कपालिनी ॥ १४७ ॥

महोत्सवा गुह्यनिद्रा ततो दोर्दण्डखण्डिनी ।

वज्रिणी शूलिनी चापि विमला च महोदरी ॥ १४८ ॥

कुरुकुल्ला कौमुदी च कौलिनी कालसुन्दरी ।

बलाकिनी फेरवी च ज्ञेया डमरुका तथा ॥ १४९ ॥

घटोदरी भीमदंष्ट्रा ततश्च भगमालिनी ।

मेना तारावती भानुमती तदनु कीर्तिता ॥ १५० ॥

एकानङ्गा केकराक्षीन्द्राक्षी संहारिणी तथा ।

प्रभञ्जना भ्रामरी च प्रचण्डाक्ष्यपराजिता ॥ १५१ ॥

विद्युत्केशी महामारी शोषिणी वज्रनख्यपि ।

सूची तुण्डी जृम्भका च तीव्रा प्रस्वापनी ततः ॥ १५२ ॥

ज्वालिनी चण्डघण्टा च लम्बोदर्य्यग्निमर्द्दिनी ।

एकदन्तोल्कामुखी च सूर्पजिह्वा च घोणकी ॥ १५३ ॥

पूतना वेगमाला च ततो जालन्धरी मता ।

एकपञ्चाशदित्येता डाकिन्यः परिकीर्तिताः ॥ १५४ ॥

नमस्कृताः स्तुता ध्याता प्रयच्छन्त्युत्तमां श्रियम् ।

विपरीतेन विधिना साधकं भक्षयन्ति तम् ॥ १५५ ॥

इक्यावन डाकिनी नाम- अब डाकिनियों के नाम भी मुझसे सुनो। महारात्रि, कालरात्रि, विरूपा, कपालिनी, महोत्सवा, गुह्यनिद्रा, दोर्दण्डखण्डिनी, वज्रिणी, शूलिनी, विमला, महोदरी, कुरुकुल्ला, कौमुदी, कौलिनी, कालसुन्दरी, बलाकिनी, फेरवी, डमरुका, घटोदरी, भीमदंष्ट्रा, भगमालिनी, मेना, तारावती, भानुमती, एकानङ्गा, केकराक्षी, इन्द्राक्षी, संहारिणी, प्रभञ्जना, भ्रामरी, प्रचण्डाक्षी, अपराजिता, विद्युत्केशी, महामारी, शोषिणी, वज्रनखी, सूचीतुण्डी, जृम्भका, तीब्रा, प्रस्वापनी, ज्वालिनी, चण्डघण्टा, लम्बोदरी, अग्निमर्दिनी, एकदन्ता, उल्कामुखी, सूर्पजिह्वा, घोणकी, पूतना, वेगमाला और जालन्धरी । इस प्रकार ये इक्यावन डाकिनियाँ कही गयी हैं । इनका नमस्कार, स्तुति और ध्यान करने पर ये साधक को उत्तम लक्ष्मी प्रदान करती हैं। यदि विपरीत विधि से अनुष्ठान होता है तो ये उस साधक को ही खा जाती हैं ।। १४७-१५५ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - डाकिनीध्यानम् 

ध्यानं ब्रवीम्यहं तासां यत्कृत्वा न्यासमाचरेत् ।

काश्चिद् बन्धूकसदृशाः काश्चिन्नीलघनप्रभाः ॥ १५६ ॥

काश्चिन्मार्त्तण्डबिम्बाभदेहद्युतय ईरिताः ।

काश्चित्स्फटिकखण्डाभाः काश्चित्स्वर्णसमप्रभाः ॥ १५७ ॥

दीर्घकर्णचलद्घोरनृमुण्डाङ्कितकुण्डलाः।

शुष्कस्तनकपोलोरोजजङ्घाग्रीवामुखोदराः।। १५८ ।।

नरास्थिकृतसर्वाङ्गभूषणा घोरदर्शनाः ।

ज्वलच्चिताग्निजिह्वा भजटामण्डलमण्डिताः॥ १५९ ॥

अर्धचन्द्रसमुद्भासिललाटतटपट्टिकाः ।

विदीर्णमुखनिर्गच्छज्जिह्वादंष्ट्राविराजिताः ॥ १६० ॥

पादालम्बिजटाभारा: श्मशानस्था दिगम्बराः ।

भूतप्रेतपिशाचाद्यैः सज्जन्त्यः कामलालसाः ॥ १६१ ॥

दोर्भ्यामादाय कुणपान् गिलन्त्यः पितृकानने ।

त्रासयन्त्यस्तर्जयन्त्यो जगदेतच्चराचरम् ॥ १६२ ॥

दीर्घेर्भुजैर्धारयन्त्यः शस्त्रास्त्राणि च भूरिशः ।

बाणान् धनूंषि परिघान् कृपाणांस्तोमरान् गदाः ॥ १६३ ॥

खट्वाङ्गानि त्रिशूलानि कुठारान् मुद्गरानपि ।

भिन्दिपालान् भुशुण्डीश्च शक्तीश्चक्राणि पट्टिशान् ॥ १६४ ॥

हुनाः प्राशांश्च कुणपान् मुशलानङ्कुशान् गुडान् ।

चर्माणि घण्टा डमरून् भेरीझर्झरमईलान् ॥ १६५ ॥

सवसासृक्पलास्थिीनि खर्पराणि बहूनि च ।

नृत्त्यन्तश्चर्चरीशब्दैः प्रकम्पितजगत्त्रयाः ॥ १६६ ॥

कोटिविद्युद्दुर्निरीक्ष्यज्वलच्चपलतारकाः ।

दीर्घातिशुष्ककठिनगर्ताभुग्नकलेवराः ॥ १६७ ॥

देव्याः पारिषदीभूताः बद्धाञ्जलिपुटद्वयाः ।

किङ्कर्य आज्ञाकारिण्यः सर्वा देव्याः पुरः स्थिताः ॥ १६८ ॥

एवंरूपा: प्रध्यातव्या डाकिनीन्यासकारिणा ।

डाकिनी ध्यान मैं उनका ध्यान बतला रहा हूँ जिसको करने के बाद न्यास करना चाहिये । कोई बन्धूक के समान कोई नीलघनसदृश और कोई सूर्यबिम्ब के समान द्युतिमय शरीर वाली कही गयी हैं। कोई स्फटिक के टुकड़े के समान तथा कोई स्वर्णप्रभा वाली हैं । लम्बे कानो में हिलते डुलते नरमुण्ड का कुण्डल पहनी हैं। इनके स्तन कपोल उरोज जङ्घा ग्रीवा मुख और उदर सूख गये हैं। मनुष्य की अस्थि का इन्होंने सर्वाङ्ग आभूषण धारण किया है। इनका दर्शन भयानक है। जलती हुई चिता की अग्नि की लपट के समान जटा धारण की हैं। ललाटतट पर अर्धचन्द्र विराजमान है । खुले हुए मुख में से जिह्वा और दाँत बाहर निकले हुए हैं। जटायें पैर तक लटकी हैं। ये श्मशान में रहती हैं और नग्न हैं। कामातुर ये भूत-प्रेत पिशाच आदि के साथ संसक्त रहती हैं। दोनों हाथों से शवों को लेकर श्मशान में चिल्ला रही होती हैं- ('गृ शब्दे' अथवा निगल रही हैं-गृ निगरणे) । इस चराचर जगत् को सन्त्रस्त एवं तर्जित कर रही हैं। लम्बी भुजाओं से बहुत से शस्त्रास्त्र धारण की हुई हैं। वे शस्त्र हैं- बाण, धनुष, परिघ, कृपाण, तोमर, गदा, खट्वाङ्ग, त्रिशूल, कुठार, मुद्गर, भिन्दिपाल, भुशुण्डी, शक्ति, चक्र, पट्टिश, हुना, पाश, कुणप, मुसल, अङ्कुश, गुड, चर्म, घण्टा, डमरू, भेरी, झांझर, और मर्दल । ये वसा, रक्त, मांस, हड्डी से भरे बहुत से कपाल ली हुई हैं। चर् चर् शब्दों से नर्तन करती हुई ये तीनों लोकों को कम्पित कर रही हैं। उनकी आँखों की पुतलियाँ करोड़ों विद्युत के समान दुर्निरीक्ष्य एवं चञ्चल हैं। उनका पेट लम्बा शुष्क और कठिन तथा शरीर कुछ झुका हुआ है। देवी के परिषद के रूप में ये हाथ जोड़ कर देवी के सामने किङ्करी और आज्ञाकारिणी के रूप में खड़ी हैं । डाकिनीन्यास करने वाले साधक के द्वारा इनका इस रूप में ध्यान करना चाहिये ॥ १५६-१६९ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - पञ्चमस्य शक्तिन्यासस्य ऋष्यादिनिर्देश:

अतः शृणु वरारोहे शक्तिन्यासमनुत्तमम् ॥ १६९ ॥

यदाचरन् सिद्धिमिष्टामाप्नोति शतवासरैः ।

शक्तिन्यासस्य देवेशि ऋषिः कपिल उच्यते ॥ १७० ॥

छन्दोऽनुष्टुप् समाख्यातं देवता शक्तयस्त्विमाः ।

लज्जाबीजं तु बीजं स्याच्छक्तिश्च कमलार्णकम् ॥ १७१ ॥

न्यासस्य विनियोगोऽस्य शक्तिन्यासे प्रकीर्तितः ।

अग्न्यारूढाकाशबीजैः षडङ्गन्यासमाचरेत् ॥ १७२ ॥

षड्भिर्दीर्घः समेतैश्च कराङ्गन्यासमेव च ।

शक्ति-न्यास - हे वरारोहे! इसके बाद सर्वोत्तम शक्तिन्यास को सुनो जिसका अनुष्ठान करने वाला साधक सौ दिनों में इष्टसिद्धि प्राप्त करता है। हे देवेशि ! शक्तिन्यास के ऋषि कपिल कहे जाते हैं। छन्द अनुष्टुप् और देवता ये शक्तियाँ कही गयी हैं। लज्जा (= ह्रीं) बीज है और कमलावर्ण (श्री) शक्ति है। शक्ति के न्यास में इन सबका विनियोग कहा गया है। अग्नि पर आरूढ़ आकाश बीजों (अर्थात् अग्नि के बीच र् से युक्त आकाशबीज '' के छह दीर्घरूपों) से कराङ्गन्यास तथा षडङ्गन्यास करना चाहिये (न्यास का स्वरूप होगा- हां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ......हः करतलकरपृष्ठाभ्यां फट् तथा हाँ हृदयाय नमः हः अस्त्राय फट् ) ।। १६९-१७३ ।।

तारमायारमाक्रोधकालीकामाङ्कुशामृतैः ॥ १७३ ॥

शक्तिनाम चतुर्थ्यन्तं दत्वा तदनु कीर्तयेत् ।

कवर्गाद्यार्णयुगलमवर्गेणान्वितं प्रिये ॥ १७४ ॥

ततः प्रासादमुद्धृत्य महाक्रोधं च गारुडम् ।

अस्त्रत्रितयमुद्धृत्य स्वाहान्तो मनुराडसौ ॥ १७५ ॥

उसके बाद तार माया रमा क्रोध काली काम अङ्कुश और अमृत बीजों का उच्चारण कर शक्ति का चतुर्थ्यन्त नाम बोलने के बाद कवर्ग का आदिम दो वर्ण अवर्ग के साथ कहे। उसके बाद प्रासाद को उद्धृत कर महाक्रोध गरुड तीन अस्त्र का उच्चारण कर अन्त में 'स्वाहा' कहे। ( मन्त्र का स्वरूप यह होगा - ॐ ह्रीं श्रीं हूं क्रीं क्लीं क्रों ग्लूं सूक्ष्माशक्त्यै कं खं हौं क्षूं क्रौं फट् फट् फट् स्वाहा ) । यह मन्त्रराज कहा गया है ।। १७३-१७५ ।।

चवर्गवर्णयोरेव टवर्गवर्णयोरपि ।

तवर्गवर्णयोरेव पवर्गवर्णयोरपि ॥ १७६ ॥

यवर्गवर्णयोः पश्चाच्छवर्गवर्णयोरपि ।

स्वरान्त्यवर्णसंयुक्तो हवर्णस्तदनन्तरम् ॥ १७७ ॥

पुनः स्वरान् समुच्चार्य वर्गान्तत्र्यक्षरं वदेत् ।

आवृत्तयश्चतस्त्रः स्युः सर्वशेषविवर्जितम् ॥ १७८ ॥

उक्ता मयैते शक्तीनां मन्त्राः सर्वार्थसाधकाः ।

इसके बाद चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग, यवर्ग तथा शवर्ग के आद्य दो अक्षरों को अन्तिमस्वरवर्ण से संयुक्त करे। इसके बाद हवर्ण का उच्चारण करे। पुनः सोलह स्वरों का उच्चारण कर सातों वर्गों के अन्तिम तीन अक्षरों का उच्चारण करे । इस प्रकार मन्त्र पूरा होता है। इस पूरे मन्त्र की चार आवृत्तियाँ करनी चाहिये । इस प्रकार मैंने शक्तियों के सर्वार्थसाधक मन्त्रों को बतलाया ।। १७६- १७९ ।।

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - एकपञ्चाशच्छक्तिनामानि

नामानि तासामधुना समाकर्णय पार्वति ॥ १७९ ॥

सूक्ष्मा जया तथा माया प्रभा च विजया पुनः ।

सुप्रभा नन्दिनी पश्चाद् विशुद्धिः कान्तिरुन्नतिः ॥ १८० ॥

कीर्तिर्विभूतिर्हष्टिश्च व्युष्टिः सन्नतिरुन्नतिः ।

ऋद्धिरुत्कृष्टिरजिता तथा चैवापराजिता ॥ १८१ ॥

नित्या सरस्वती श्रीश्च स्मृतिर्लक्ष्मीरुषा धृतिः ।

बुद्धिः श्रद्धा मतिर्मेधा विद्या प्रज्ञा प्रकीर्तिता ॥ १८२ ॥

इच्छा क्रिया तथा माया दीप्ता प्रीतिस्ततः परम् ।

नीति: सृष्टिः स्थितिर्ज्ञेया संहृतिश्चेतनापि च ॥ १८३ ॥

सत्या शान्ती रतिर्भद्रा रौद्री ज्येष्ठा च विद्युता ।

एकपञ्चाशत्तमा च ज्ञेया शक्तिः परापरा ॥ १८४ ॥

इत्येताः शक्तयः सर्वा देव्याः पारिषदा मताः ।

देव्यास्तनौ च संविष्टा ध्यानमासां निशामय ।। १८५ ॥

इक्यावन शक्तियों के नाम- हे पार्वति ! अब आप उन (शक्तियों) के नामों को मुझसे सुनो। सूक्ष्मा, जया, माया, प्रभा, विजया, सुप्रभा, नन्दिनी, विशुद्धि, कान्ति, उन्नति, कीर्त्ति, विभूति, हृष्टि, व्युष्टि, सन्तति, उन्नति, ऋद्धि, उत्कृष्टि, अजिता अपराजिता, नित्या, सरस्वती, श्री, स्मृति, लक्ष्मी, उषा, धृति, बुद्धि, श्रद्धा, मति, मेधा, विद्या, प्रज्ञा, इच्छा, क्रिया, माया, दीप्ता, प्रीति, नीति, सृष्टि, स्थिति, संहृति, चेतना, सत्या, शान्ति, रति, भद्रा, रौद्री ज्येष्ठा, विद्युता और परापरा । ये समस्त शक्तियाँ देवी कामकलाकाली की पारिषद हैं। देवी के शरीर में संविष्ट इनका ध्यान सुनो ।। १७९-१८५ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - शक्तीनां ध्यानम् 

निरङ्कपूर्णिमापूर्णचन्द्रबिम्बसमाननाः ।

विशालफुल्लराजीवदलशोणायतेक्षणाः ॥ १८६ ॥

विलसद्रत्नताटङ्कश्रवणाभरणोज्ज्वलाः ।

मन्दारमालासन्नद्धधम्मिल्ल भरगर्विताः ॥ १८७ ॥

विशालजघनाभोगा अतिक्षीणकटिस्थलाः ।

कठोरपीवरोत्तुङ्गवक्षोजयुगलान्विताः ॥ १८८ ॥

रत्नमञ्जीरकेयूरकङ्कणाङ्गदशोभिताः ।

किङ्किणीहारमुकुटमुद्रिकावलयान्विताः ॥ १८९ ॥

त्रैलोक्यसारसौन्दर्ययौवनोन्मादगर्विताः ।

सिंहासनसमारूढा विचित्रविविधाम्बराः ॥ १९० ॥

स्वच्छशीतांशुशकलविराजितललाटिकाः ।

सुशुक्लमाल्यललिताः स्वस्वचेटीगणैर्वृताः ॥ १९९ ॥

गौराङ्गदेहसंशोभिचन्दनागुरुचित्रकाः ।

सुस्मितोद्भासिवदनचञ्चद्दशनपक्तयः ॥ १९२ ॥

कराभ्यां धारयन्त्यस्ता वराभयमनुत्तमम् ।

न्यसनीयं स्थानगता देव्यास्तु तत्तनौ प्रिये ॥ १९३ ॥

एवं ध्यात्वा चरेन्न्यासं सर्वकामार्थसिद्धये ।

शक्तियों का ध्यान-ये शक्तियाँ पूर्णिमा के निष्कलङ्क चन्द्र के बिम्ब के समान मुखों वाली हैं । इनकी आँखें विशाल खिले हुए कमल के दल के समान लाल और बड़ी-बड़ी हैं। रत्नों से जटित ताटङ्क आदि कर्णाभरण धारण करने से वे चमक रही हैं। कल्पवृक्ष के फूलों की माला से बँधी हुई चोटी के भार से वे गर्वित हैं। जघन का विस्तार विशाल है। कटि अत्यन्त क्षीण है। दोनों स्तन कठोर विशाल और ऊँचे-ऊँचे हैं । रत्नजटित मञ्जीर केयूर कङ्कण और अङ्गद से सुशोभित ये शक्तियाँ किङ्किणी हार मुकुट मुँदरी और कङ्गन से अन्वित हैं। त्रैलोक्य के सारभूत सौन्दर्य और यौवन के उन्माद से ये गर्वित हैं। सिंहासन पर बैठी हुई ये अनेक एवं रंग-बिरंगे वस्त्र धारण की हुई हैं। इनके ललाट पर स्वच्छ चन्द्रमा का खण्ड विराजमान है। श्वेत मालाओं से ललित ये अपनी-अपनी दासियों से घिरी रहती हैं। इनके गौराङ्ग देह के ऊपर चन्दन और अगर के द्वारा विविध चित्र बने हुए मुस्कराहट के कारण चमकने वाले बदन में दाँतों की पङ्क्तियाँ चमक रही हैं। दोनों हाथों से वे वरद एवं अभय मुद्रा धारण की हुई हैं। हे प्रिये! देवी के उस शरीर में स्थित इनका न्यास करना चाहिये। इस प्रकार ध्यान कर समस्त कामनाओं की सिद्धि के लिये न्यास करना चाहिये ।। १८६-१९४ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - षष्ठस्य देवीन्यासस्य ऋष्यादिनिर्देश:

अथ षष्ठो वरारोहे देवीन्यासः प्रकीर्त्यते ॥ १९४ ॥

षोढा न्यासः समग्रोऽपि यत्र देवि प्रतिष्ठतः ।

वक्तुं न शक्यो महिमा यस्य वर्षायुतैरपि ॥ १९५ ॥

या यामले कृतोद्धारा डामरे याः प्रकीर्तिताः ।

भीमातन्त्रे च याः प्रोक्ता याः प्रोक्ताः कौलिकार्णवे ॥ १९६ ॥

देव्यास्ता एकपञ्चाशत् समन्त्रध्यानपूर्विकाः ।

न्यसनीयास्तनौ देवि तासां मन्त्रं समुच्चरेत् ॥ १९७ ॥

देवी न्यास - हे वरारोहे! अब छठाँ देवीन्यास कहा जा रहा है। हे देवि ! इसमें समग्र षोढा न्यास प्रतिष्ठित है। इसकी महिमा दश हजार वर्षों तक भी नहीं कहीं जा सकती। हे देवी! यामल में जिनका उद्धार किया गया और डामर में जो कही गयी हैं। भीमातन्त्र में जिनका वर्णन है और कुलार्णव तन्त्र में जिनका वर्णन हैइन इक्यावन देवियों का मन्त्र एवं ध्यान के साथ देवी के शरीर में न्यास करना चाहिये । फिर उनके मन्त्र का उच्चारण करना चाहिये ।। १९४-१९७ ।।

देवीन्यासस्यास्य ऋषिः सदाशिव इतीरितः ।

जगत्यनुष्टुब्बृहतीगायत्रीपङ्क्तयोऽपि च ॥ १९८ ॥

छन्दांसि कथितानीह देवता परिकीर्तिता ।

देवी कामकलाकाली बीजं कामस्य वर्जिता ॥ १९९ ॥

क्रोधबीजं तु शक्तिः स्याद् विनियोगः प्रकीर्तितः ।

देवीन्यासे कामबीजैः षडङ्गन्यासमाचरेत् ॥ २०० ॥

कराङ्गन्यासमेतैश्च षड्दीर्घेराचरेद् बुधः ।

इस देवीन्यास के ऋषि सदाशिव, छन्द जगती अनुष्टुब् बृहती गायत्री और पङ्क्ति हैं । देवता कामकलाकाली हैं, बीज काम (=क्लीं) है तथा शक्ति क्रोधबीज (= हूं) है। इस प्रकार इसका विनियोग कहा गया है। देवीन्यास में कामबीजों के द्वारा षडङ्गन्यास करना चाहिए । विद्वान् छः दीर्घ इनके (कामबीज के) स्वरूप के द्वारा कराङ्गन्यास करे । ( यथाक्लां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः, क्लीं तर्जनीभ्यां स्वाहा... क्लः करतलकरपृष्ठाभ्यां फट् तथा क्लां हृदयाय नमः, क्लीं शिरसे स्वाहा...क्लः अस्त्राय फट् ॥ १९८ २०१ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ८ - एकपञ्चाशद् देवीनां नामानि

आदौ नाम वदाम्यासां मन्त्रध्याने ततः परम् ॥ २०१ ॥

कथयिष्यामि विधिवत् सावधानं मनः कुरु ।

आदौ ज्ञेया महालक्ष्मीस्ततो वागीश्वरी मता ॥ २०२ ॥

अश्वारूढा च मातङ्गी नित्यक्लिन्ना ततः परम् ।

भुवनेशी तथोच्छिष्टचाण्डाली भैरवी ततः ॥ २०३ ॥

शूलिनी वनदुर्गा च त्रिपुटा त्वरिता ततः ।

अघोरा जयलक्ष्मीश्च वज्रप्रस्तारिणी ततः ॥ २०४ ॥

पद्मावत्यन्नपूर्णा च कालसङ्कर्षणी ततः ।

धनदा कुक्कुटी भोगवती च शबरेश्वरी ॥ २०५ ॥

कुब्जिका सिद्धिलक्ष्मीश्च बाला च त्रिपुरा ततः ।

तारा दक्षिणकाली च छिन्नमस्ता त्रिकण्टकी ॥ २०६ ॥

ततो नीलपताका च चण्डघण्टा ततः परम् ।

चण्डेश्वरी भद्रकाली गुह्यकाली ततः परम् ॥ २०७ ॥

अनङ्गमाला चामुण्डा वाराही वगलापि च ।

जयदुर्गा नारसिंही ब्रह्माणी वैष्णवी ततः ॥ २०८ ॥

माहेश्वरी तथेन्द्राणी हरसिद्धा ततोऽपि च ।

फेत्कारी लवणेशी च नाकुली मृत्युहारिणी ॥ २०९ ॥

ततः कामकलाकालीत्येकपञ्चाशदीरिताः ।

एकैकस्या महादेव्या मूलमन्त्रेण साधकः ॥ २१० ॥

अकारादिक्षकारान्तस्थानेषु न्यसनं चरेत् ।

अथासां मूलमन्त्रांस्तान् क्रमादुद्धारयाम्यहम् ॥ २११ ॥

ध्यानं च मन्त्रानुपदं यथाऽऽम्नायेषु कीर्तितम् ।

इक्यावन देवियों के नाम-पहले इन देवियों के नाम बाद में मन्त्र और ध्यान को विधिवत् बतलाऊँगा । मन को सावधान रखो। पहले महालक्ष्मी उसके बाद वागीश्वरी फिर अश्वारूढा, मातङ्गी, नित्यक्लिन्ना, भुवनेश्वरी, उच्छिष्टचाण्डालिनी, भैरवी, शूलिनी, वनदुर्गा, त्रिपुरा, त्वरिता, अघोरा, जयलक्ष्मी, वज्रप्रस्तारिणी, पद्मावती, अन्नपूर्णा, कालसङ्कर्षिणी, धनदा, कुक्कुटी, भोगवती, शबरेश्वरी, कुब्जिका, सिद्धिलक्ष्मी, बाला, त्रिपुरा, तारा, दक्षिणकाली, छिन्नमस्ता, त्रिकण्टकी, नीलपताका, चण्डघण्टा, चण्डेश्वरी, भद्रकाली, गुह्यकाली, अनङ्गमाला, चामुण्डा, वाराही, बगला, जयदुर्गा, नारसिंही, ब्रह्माणी, वैष्णवी, माहेश्वरी, इन्द्राणी, हरसिद्धा, फेत्कारी, लवणेशी, नाकुली, मृत्युहारिणी और कामकलाकाली ये इक्यावन देवियाँ कही गयी हैं। साधक को चाहिये कि वह मूलमन्त्र से एक-एक देवी का अकार से लेकर क्षकार पर्यन्त स्थानों में न्यास करे। अब जैसा कि शास्त्रों में कहे गये हैं वैसे इनके मूल मन्त्रों को और मन्त्रों के बाद ध्यान को क्रम से बतला रहा हूँ ।। २०१-२१२ ॥

शेष भाग आगे जारी ........

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