कामकलाकाली त्रैलोक्य मोहन कवच
महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल ९
में त्रैलोक्यमोहन कवच का विवेचन है। पार्वती ने भगवान् महाकाल से इस कवच के विषय
में प्रश्न किया । महाकाल ने कहा कि इस कवच से समस्त सिद्धियाँ हस्तगत होती हैं।
शिष्य को उसका उपदेश करने वाला गुरु मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। चूँकि मेरी
मृत्यु नहीं होती अतः मैं तुमको इसका उपदेश करूंगा। तत्पश्चात् महाकाल ने इस कवच
के ऋषि छन्द देवता आदि का वर्णन किया । कवच का भी उल्लेख प्रस्तुत पटल में है। इस
कवच से अवगुण्ठित व्यक्ति को प्राप्त होने वाले फल की चर्चा कर अन्त में इसकी
गोपनीयता बतलायी गयी है।
कामकलाकाली त्रैलोक्य मोहन कवच
Kaam Kalaa Kaali Trailokya mohan kavach
कामकला काली त्रैलोक्यमोहन कवचम्
कामकला काली त्रैलोक्यविजयं कवच स्तोत्रम्
महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल ९
- कामकलाकाली त्रैलोक्य मोहन कवच
कामकलाकाली खण्ड
नवमः पटल:
त्रैलोक्यमोहनकवचस्यावतरणम्
देव्युवाच-
महायोगिन्महाकाल करुणाम्बुनिधे शिव
।
षोढान्यासः श्रुतस्त्वत्तो
महासिद्धिर्महाफलः ॥ १ ॥
यत्नेन विधृतश्चापि मया
भक्तिप्रवीणया ।
त्रैलोक्यमोहनं नाम कवचं मेऽधुना वद
॥ २ ॥
कवचत्वेन यद् देवी शिवायादात् स्वयं
मुदा ।
तत् कीदृशं हि भविता तत्र कौतूहलं
मम ॥ ३ ॥
यदि प्रसन्नोऽसि मयि तदेदं वद
सुव्रत ।
सर्वस्मादधिकं ह्येतत् त्वयैव
समुदीरितम् ॥ ४ ॥
नित्यमामुञ्चसि त्वं च जातो मम
तदाग्रहः ।
त्रैलोक्यमोहनकवच-वर्णन-
देवी ने कहा- हे महायोगिन् ! हे महाकाल ! हे करुणानिधे! हे शिव! मैंने आपसे
महासिद्धि और महाफल को प्रदान करने वाले षोढान्यास को सुना। भक्तिप्रवीण मैंने
प्रयत्नपूर्वक उसको धारण भी कर लिया । अब आप मुझे त्रैलोक्यमोहन कवच का उपदेश
दीजिये। जिसको कि देवी ने प्रसन्न होकर स्वयं शिव को दिया। वह किस प्रकार का है?
इस विषय में मुझे कौतूहल हो रहा है। हे सुव्रत ! यदि आप मुझ पर
प्रसन्न हैं तो उसे मुझको बतलाइये । आपने ही इसको सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कहा है और
आप उसको प्रतिदिन धारण करते हैं; इसलिये मेरा आग्रह हुआ है ॥
१-५ ॥
महाकाल उवाच-
ममैव दोषो देवेशि महांस्ते
नाणुरप्यहो ॥ ५ ॥
यत्पूर्वमेव पुरतस्तव तस्या भिदा
कृता ।
नो चेत् किमर्थमप्राक्षीरतो निन्दे
स्वमात्मना ॥ ६ ॥
मम चेतस्यभूदित्थं त्वयेदं विस्मृतं
भवेत् ।
न विस्मरन्त्युक्तगुप्तं स्त्रियो
होति श्रुतिप्रथाः ॥ ७ ॥
त्वं हि सर्वोत्तमा स्त्रीणां कथं
नैव स्मरिष्यसि ।
अतः परमिदं गोप्यं मया त्वत्तः कथं
भवेत् ॥ ८ ॥
शरीरार्द्ध च भवसि कथमात्मनि गोपनम्
।
तस्मात् तव प्रवक्ष्यामि नो चेत्
(द्रक्ष्यसि) मां कथम् ॥ ९ ॥
श्रद्धां भक्तिं तव प्रेक्ष्य
विवक्षा मम जायते ।
महाकाल ने कहा- हे देवेशि ! इसमें
मेरा ही बहुत बड़ा दोष है । तुम्हारा दोष रञ्चमात्र भी नहीं है जो मैंने पहले
तुम्हारे सामने उसका अभेद किया (अर्थात् उसको तुमसे छिपाये रखा) अन्यथा तुम मुझसे
पूछती ही क्यों । इसलिये मैं स्वयं अपने से अपनी ही निन्दा कर रहा हूँ। मेरे मन
में यह बात आयी कि सम्भवतः तुम इसे भूल गयी होगी । किन्तु उक्त गुप्त बात को
श्रुतिपरम्परा वाली स्त्रियाँ कभी नहीं भूलतीं. यह निश्चित है। फिर तुम तो
स्त्रियों में सर्वोत्तम हो तो क्यों नहीं स्मरण करोगी। इसलिये यह परम गोपनीय
(कवच) तुमसे मैं किस प्रकार से छिपा सकता हूँ । तुम मेरी शरीरार्द्ध हो । अपने से
ही इसे किस प्रकार छिपाया जा सकता है। इसलिये मैं यह तुमको बतलाऊँगा अन्यथा तुम
मुझे देखोगी कैसे। तुम्हारी श्रद्धा और भक्ति देखकर मेरे मन में विवक्षा हो रही है
॥ ५-१० ॥
कामकला काली त्रैलोक्यमोहन कवचम् कवच
का माहात्म्य
[ त्रैलोक्यमोहनकवचस्य फलाभिधानम्
]
देवि नैतादृशाः काश्चित् सिद्धयः
सन्ति भूतले ॥ १० ॥
त्रैलोक्यमोहनेऽधीते या नैव स्युः
करस्थिताः ।
पुनरेकं मया प्रोच्यमानं देवि
निशामय ॥ ११ ॥
हे देवि! इस पृथिवी पर ऐसी कोई
सिद्धियाँ नहीं है जो त्रैलोक्यमोहन कवच के जानने पर करस्थ न हों। फिर मेरे द्वारा
कहे जाने वाले इसको सुनो।
कर्मानुरूपं जन्म स्याद् देहो
जन्मनि जन्मनि ।
देहे देहे तथा प्राणास्तथा
सर्वेन्द्रियाणि च ॥ १२ ॥
कर्म के अनुरूप जन्म होता है।
प्रत्येक जन्म में देह मिलती है। प्रत्येक देह में प्राण और इन्द्रियाँ होती हैं।
तेषु तेषु धनं राज्यं भोगा रत्नं
स्त्रियो गृहम् ।
सर्वं नरस्य सुलभं न तु
त्रैलोक्यमोहनम् ॥ १३ ॥
उन इन्द्रियों के लिये धन,
राज्य, भोग, रत्न,
स्त्रियाँ, गृह आदि सब कुछ मनुष्य के लिये
सुलभ हैं, किन्तु त्रैलोक्यमोहन नहीं ।
चिच्छेदिषूणां मूर्द्धानं सर्वस्वं
ददतामपि ।
राज्यं धनं स्त्रियः
प्राणानुपढौकयतामपि ॥ १४ ॥
सर्वथा देवि नाख्येयं त्रिसत्यं ते
ब्रवीम्यहम् ।
शिष्यस्य सिद्धिः कथिते गुरोस्तु
मरणं भवेत् ॥ १५ ॥
शिर काटने की इच्छा वाले (अर्थात्
आततायी,
अथवा शिर काट कर समर्पण करने वाले भक्तों), सर्वस्व
देने वाले, राज्य धन स्त्री प्राण को अर्पित करने वालों को
भी हे देवि! (यह कवच) नहीं बतलाना चाहिये यह मैं तुम्हें दृढ सत्य कह रहा हूँ ।
इसके बतलाये जाने पर शिष्य को तो सिद्धि मिल जाती है। किन्तु गुरु का मरण हो जाता
हैं ।
समासादुपदेशोऽयं मया ते समुदीरितः ।
मृत्युर्न मम तस्मात्तु
उपदेक्ष्यामि सुव्रते ॥ १६ ॥
यह मैंने संक्षेप में इसका
माहात्म्य बतलाया । मेरी मृत्यु नहीं होती इसलिये हे सुव्रते! तुमको इसका उपदेश
करूँगा ।
लोभादन्ये ये प्रदद्युर्मृत्युवक्त्रं
विशन्ति ते ।
उपदेशं विना ये वै
त्रैलोक्याकर्षणस्य हि ॥ १७ ॥
त्रैलोक्यमोहनं नाम पठन्ति कवचं
त्विदम् ।
सद्यस्ते मरणं यान्ति भक्षिता
योगिनीगणैः ॥ १८ ॥
जो अन्य लोग लोभवश इसका उपदेश करते
हैं वे मृत्यु के मुख में चले जाते हैं और जो लोग त्रैलोक्याकर्षण के उपदेश के
बिना इस त्रैलोक्यमोहन कवच का पाठ करते हैं वे शीघ्र ही योगिनियों के द्वारा
भक्षित होकर मृत्यु को प्राप्त होते हैं ।। १०-१८ ॥
[ त्रैलोक्यमोहनकवचोपदेशः
]
उपदेक्ष्यामि तस्मात्त्वां
बध्यतामञ्जलिः प्रिये ।
सावधाना स्थिरा भूत्वा गदतोऽनुगदस्व
मे ॥ १९ ॥
त्रैलोक्यमोहन कवच
- इस कारण हे प्रिये! मैं तुमको उपदेश दूँगा । हाथ जोड़ लो । स्थिर और सावधान होकर
बोलते हुए मेरे पीछे बोलो ।
त्रैलोक्यमोहनस्यास्य कवचस्य
महेश्वरि ।
त्रिपुरारिः ऋषिः प्रोक्तो विराट्
छन्द उदीरितम् ॥ २० ॥
देवी (भगवती) कामकलाकाली
प्रकीर्तिता ।
फ्रें बीजं बीजमुद्दिष्टं कामार्णं
कीलकं मतम् ॥ २१ ॥
योगिनी शक्तिरुद्दिष्टा डाकिनी
तत्त्वमुच्यते ।
विनियोगोऽस्य कथितः
पुरुषार्थचतुष्टये ॥ २२ ॥
देवीकामकलाकालीप्रीत्यर्थे च
विशेषतः ।
शत्रुक्षयार्थे राज्याप्त्यै
प्रयोगोऽस्य वरानने ॥ २३ ॥
हे महेश्वरि! इस त्रैलोक्यमोहन कवच
के ऋषि त्रिपुरारि हैं; छन्द विराट् है;
भगवती कामकलाकाली देवता है; फ्रें बीज बीज है;
काम बीज कीलक है, योगिनी शक्ति है; डाकिनी तत्त्व है । इसका विनियोग पुरुषार्थचतुष्टय के लिये और विशेष रूप
से कामकलाकाली के प्रीत्यर्थ होता है । हे वरानने! इसका प्रयोग शत्रुनाश तथा राज्य
प्राप्ति के लिये भी होता है ।। १९-२३ ॥
अथ कामकलाकाली त्रैलोक्य मोहन कवच
विनियोगः
ॐ अस्य श्री त्रैलोकयमोहन रहस्य कवचस्य त्रिपुरारि ऋषिः विराट् छन्दः भगवति
कामकलाकाली देवता फ्रें बीजं योगिनी शक्तिः क्लीं कीलकं डाकिनि तत्त्वं भगवति श्री
कामकलाकाली अनुग्रह प्रसाद सिध्यर्थे जपे विनियोगः॥
कामकलाकाली त्रैलोक्यमोहन कवचम्
ॐ ऐं श्रीं क्लीं शिरः पातु फ्रें
ह्रीं छूीं मदनातुरा ।
स्त्रीं हूं क्षौं ह्रीं लं ललाटं
पातु ख्फ्रें क्रौं करालि (नी ) ॥ २४ ॥
आं हौं फ्रों क्षू मुखं पातु क्लूं
ड्रं श्रौं चण्डनायिका ।
हूं त्रैं चलूं मौः पातु दृशौ प्रीं
श्रीं श्रीं जगदम्बिका ॥ २५ ॥
कूं खूं घ्रीं चलीं पातु कर्णौ ज्रं
प्लैं रुः सौं सुरेश्वरी ।
गं प्रां श्रीं श्रीं हनू पातु अं
आं इ ईं श्मशानिनी ॥ २६ ॥
जूं डुं ऐं औँ भ्रुवौ पातु कं खं गं
घं प्रमाथिनी ।
चं छं जं झं पातु नासां टं ठं डं ढं
भगाकुला ॥ २७ ॥
तं थंदं धं पात्वधरमोष्ठं पं फं
रतिप्रिया ।
बं भं यं रं पातु दन्तान् लं वं शं
सं च कालिका ॥ २८ ॥
हं क्षं क्षं हं पातु जिह्वां संशं
वं लं रताकुला ।
वं यं भं वं च चिबुकं पातु फं पं
महेश्वरी ॥ २९ ॥
धं दं थं तं पातु कण्ठं ढं टं ठं टं
भगप्रिया ।
झं जं छं चं पातु कुक्षौ घं गं खं
कं महाजटा ॥ ३० ॥
ह्सौः हस्खौं पातु भुजौ क्ष्मूं मैं
मदनमालिनी ।
ङां जीं णूं रक्षताज्जत्रू नैं मौं
रक्तासवोन्मदा ॥ ३१ ॥
ह्रां ह्रीं हूं पातु कक्षौ मे हैं
ह्रौं निधुवनप्रिया ।
क्लां क्लीं क्लूं पातु हृदयं क्लैं
क्लौं मुण्डावतंसिका ॥ ३२ ॥
श्रां श्रीं श्रं रक्षतु करौ श्र
श्रौं फेत्कारराविणी ।
क्लां क्लीं क्लूं अङ्गुलीः पातु
क्लैं क्लौं च नारवाहिनी ॥ ३३ ॥
चां चीं चूं पातु जठरं चैं ब्रौं
संहाररूपिणी ।
छां छूीं छू रक्षतान्नाभिं छ्र छौं
सिद्धिकरालिनी ॥ ३४ ॥
स्त्रां स्त्रीं स्त्रं रक्षतात्
पार्श्वो स् स्त्रौं निर्वाणदायिनी ।
फ्रां फ्री फूं रक्षतात् पृष्ठं
फ्रैं फ्रौं ज्ञानप्रकाशिनी ॥ ३५ ॥
क्षां क्षीं क्षं रक्षतु कटिं क्षै
क्षौं नृमुण्डमालिनी ।
ग्लां ग्लीं ग्लूं रक्षतादूरू ग्लैं
ग्लौं विजयदायिनी ॥ ३६ ॥
ब्लां ब्लीं ब्लूं जानुनी पातु
ब्लें ब्लौं महिषमर्दिनी ।
प्रां प्रीं पूं रक्षताज्जङ्गे मैं
प्रौं मृत्युविनाशिनी ॥ ३७ ॥
श्रां श्रीं थ्रु चरणौ पातु श्रौं
संसारतारिणी ।
ॐ फ्रें सिद्धिकरालि ह्रीं ह्रीं
ह्रं स्त्रीं फ्रें नमः ॥ ३८ ॥
सर्वसन्धिषु सर्वाङ्ग गुह्यकाली
सदावतु ।
ॐ फ्रें सिद्धिं ह्स्खफ्रें ह्सफ्रें
ख्फ्रें करालि
ख्फ्रें हस्ख्फ्रें ह्सफ्रें फ्रें स्वाहा
॥ ३९ ॥
रक्षताद् घोरचामुण्डा तु कलेवरं
वहक्षमलवरयूं ।
अव्यात् सदा भद्रकाली
प्राणानेकादशेन्द्रियान् ॥ ४० ॥
ह्रीं श्रीं ॐ ख्फ्रें हस्ख्फ्रें
हक्षम्लब्रयूं
न्क्ष्रीं नज्च्रीं स्त्रीं छ्रीं ख्फ्रें
ठ्रीं घ्रीं नमः।
यत्रानुक्तस्थलं देहे यावत्तत्र च
तिष्ठति ॥ ४१ ॥
उक्तं वाऽप्यथवानुक्तं करालदशनावतू
।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं हूं स्त्रीं
ध्रीं फ्रें क्षं क्शौं
क्रौं ग्लूं ख्फ्रें प्रीं ठीं थीं
ट्रैं ब्लौं फट् नमः स्वाहा ॥ ४२ ॥
सर्वमापादकेशाग्रं काली कामकलावतु ॥
४३ ॥
इसके बाद तत्तद बीजाक्षरों के साथ
तत्तद् देवियों के द्वारा तत्तत् अङ्गों की रक्षा करने के लिये ही बतलाया गया है।
अङ्गों और रक्षिका देवियों की तालिका निम्नलिखित है—
अङ्ग रक्षिका देवी अङ्ग रक्षिका देवी
शिर -
मदनातुरा ललाट -
करालिनी
मुख - चण्डनायिका आँखें -
जगदम्बिका
दानों कान - सुरेश्वरी ठुड्डी (जबड़ा) - श्मशानिनी
दोनों भौंहें -
प्रमाथिनी नासिका
- भगाकुला
दो अधर - रतिप्रिया दाँत - कालिका
जिह्वा -
रताकुला चिबुक - महेश्वरी
कण्ठ - भगप्रिया कुक्षि - महाजटा
दोनों भुजायें - मदनमालिनी दोनों जत्रु - रक्तासवोन्मदा
कक्ष (बगलें) -
निधुवनप्रिया हृदय - मुण्डावतंसिका
दोनों हाँथ - फेत्कारराविणी अगुलियाँ - नारवाहिनी
जठर - संहाररूपिणी नाभि - सिद्धिकरालिनी
दोनों पार्श्व - निर्वाणदायिनी पीठ - ज्ञानप्रकाशिनी
कटि - नृमुण्डमालिनी दोनों ऊरू - विजयदायिनी
दोनों जानु - महिषमर्दिनी दोनों जङ्घा - मृत्युविनाशिनी
दोनों पैर - संसारतारिणी समस्त
सन्धियाँ - गुह्यकाली
शरीर - घोरचामुण्डा प्राण, एकादश इन्द्रियाँ- भद्रकाली
उक्त अनुक्त समस्त अवयव- करालदशना पैर से लेकर केशाग्र - कामकलाकाली
कामकलाकाली त्रैलोक्यमोहन कवचम् फलश्रुतिः
एतत्ते सर्वमाख्यातं यन्मां त्वं
परिपृच्छसि ।
एतेन कवचेनैव यदा भवति गुण्ठितः ॥
४४ ॥
वज्रात् सारतरं तस्य शरीरं जायते
तदा ।
शोकदुःखामयैर्मुक्तः सद्यो ह्यमरतां
व्रजेत् ॥ ४५ ॥
जो तुम मुझसे पूछती हो यह सब मैंने
तुम्हें बतला दिया । जब इस कवच से मनुष्य गुण्ठित होता है तब उसका शरीर वज्र से भी
कठोर हो जाता है। शोक-दुःख-रोग से मुक्त वह सद्यः अमर हो जाता है।
आमुच्यानेन देहं स्वं यत्र कुत्रापि
गच्छतु ।
युद्धे दावाग्निमध्ये च
सरित्पर्वतसिन्धुषु ॥ ४६ ॥
राजद्वारे च कान्तारे
चौरव्याघ्राकुले पथि ।
विवादे मरणे त्रासे महामारीगदादिषु
॥ ४७ ॥
दुःस्वप्ने बन्धने घोरे
भूतावेशग्रहोद्गतौ ।
विचर त्वं हि रात्रौ च
निर्भयेनान्तरात्मना ॥ ४८ ॥
अपने शरीर को इससे अवगुण्ठित कर तुम
युद्ध,
दावाग्नि के मध्य, नदी, पर्वत,
समुद्र, राजद्वार, जंगल,
चोर, व्याघ्र से भरे मार्ग में जहाँ कहीं भी
जा सकती हों, विवाद, मरण, भय, महामारी रोग आदि दुःस्वप्न, कारागार, भूत का आवेश, ग्रह का
प्रकोप, रात्रि में सर्वत्र निर्भयमन से विचरण करो ।
एकावृत्त्याघनाशः स्यात्
त्रिवृत्त्या चायुराप्नुयात् ।
शतावृत्त्या सर्वसिद्धिः सहस्त्रैः
खेचरो भवेत् ॥ ४९ ॥
मनुष्य एक बार पाठ करने से पापनाश
तथा तीन बार के पाठ से आयु प्राप्त करता है। सौ आवृत्ति से सर्वसिद्धि और एक हजार
आवृत्ति से खेचरत्व प्राप्त करता है।
वल्लभेऽयुतपाठेन शिव एव न संशयः ।
किं वा देवि ..... जानेः सत्यं
सत्यं ब्रवीमि ते ॥ ५० ॥
हे वल्लभे दश हजार पाठ से निःसन्देह
शिव हो जाता है। अथवा हे देवि ! मैं तुमसे सत्य कह रहा हूँ ।। ४४-५० ॥
चतुस्त्रैलोक्यलाभेन त्रैलोक्यविजयी
भवेत् ।
त्रैलोक्याकर्षणो
मन्त्रस्त्रैलोक्यविजयस्तदा ॥ ५१ ॥
त्रैलोक्यमोहनं चैतत्
त्रैलोक्यवशकृन्मनुः ।
एतच्चतुष्टयं देवि
संसारेष्वतिदुर्लभम् ॥ ५२ ॥
मनुष्य चार बार तीनों लोकों के लाभ
से त्रैलोक्यविजयी हो जाता है। हे देवि ! पहले त्रैलोक्याकर्षण मन्त्र फिर
त्रैलोक्य की विजय ततः त्रैलोक्यमोहन कवच और त्रैलोक्यवशीकरण मन्त्र - यह चार
संसार में अत्यन्त दुर्लभ है।
प्रसादात्कवचस्यास्य के सिद्धिं नैव
लेभिरे ।
संवर्ताद्याश्च ऋषयो मारुत्ताद्या
महीभुजः ॥ ५३ ॥
विशेषतस्तु भरतो लब्धवान्
यच्छृणुष्व तत् ।
इस कवच की कृपा से किन लोगों ने
सिद्धि नहीं प्राप्त की। संवर्त आदि ऋषिगण मारुत्त आदि राजा लोग विशेष रूप से भरत
ने जो प्राप्त किया उसको सुनो।
जाह्नवीयमुनारेवाकावेरीगोमतीष्वयम् ॥
५४ ॥
सहस्रमश्वमेधानामेकैकत्राजहार हि ।
याजयित्रे मातृपित्रे त्वेकैकस्मिन्
महाक्रतौ ॥ ५५ ॥
सहस्त्रं यत्र पद्मानां कण्वायादात्
सवर्म्मणाम् ।
सप्तद्वीपवतीं पृथ्वीं जिगाय
त्रिदिनेन यः ॥ ५६ ॥
इस भरत ने गङ्गा,
यमुना, नर्मदा, कावेरी,
गोमती तटों पर एक-एक स्थान में एक-एक हजार अश्वमेध यज्ञ किया ।
एक-एक यज्ञ में माता-पिता के यजमान होने पर कवच के सहित एक हजार स्वर्णकमल कण्व
ऋषि को दिया। तीन दिन में उन्होंने सम्पूर्ण पृथिवी जीत ली।
नवायुतं च वर्षाणां योऽजीवत्
पृथिवीपतिः ।
अव्याहतर थाध्वा यः
स्वर्गपातालमीयिवान् ॥ ५७ ॥
यह राजा नव हजार वर्षों तक जीवित
रहा। विना रुके रथवाला यह राजा स्वर्ग और पाताल में भी पहुँच गया।
एवमन्योऽपि फलवानेतस्यैव प्रसादतः ।
भक्तिश्रद्धापरायास्ते मयोक्तं
परमेश्वरि ॥ ५८ ॥
इसी प्रकार इसकी कृपा से अन्य व्यक्ति
ने भी फल प्राप्त किया । हे परमेश्वरि ! मैंने भक्ति और श्रद्धा से युक्त तुमको
इसे बतलाया ।। ५१-५८ ॥
कामकलाकाली
त्रैलोक्यमोहन कवचम् कवच की गोपनीयता
प्राणात्यये ( ऽपि) नो वाच्यं
त्वयान्यस्मै कदाचन ।
देव्यदात् त्रिपुरघ्नाय स मां
प्रादादहं तथा ॥ ५९ ॥
तुभ्यं संवर्त्तऋषये प्रादां सत्यं
ब्रवीमि ते ।
संवर्तो दास्यति प्रीतो देवि
दुर्वाससे त्विमम् ॥ ६० ॥
प्राणसङ्कट होने पर भी तुम इसको
किसी को कभी मत बतलाना । देवी ने इसे शिव को बतलाया, उन्होंने मुझको, मैंने तुमको और संवर्त्त ऋषि को
बतलाया। यह मैं तुमसे सत्य बतला रहा हूँ। हे देवि ! संवर्त्त ऋषि प्रसन्न होकर इसे
दुर्वासा ऋषि को प्रदान किये।
दत्तात्रेयाय स पुनरेवं लोके
प्रतिष्ठितम् ।
वक्त्राणां कोटिभिर्देवि वर्षाणामपि
कोटिभिः ॥ ६१ ॥
महिमा वर्णितुं शक्यः कवचस्यास्य नो
मया ।
पुनर्ब्रवीमि ते सत्यं मनो दत्वा
निशामय ॥ ६२ ॥
उन्होंने दत्तात्रेय को प्रदान किया
। और उन्होंने (अन्य को) । इस प्रकार यह लोक में प्रतिष्ठित हुआ । हे देवि !
करोड़ों मुखों से करोड़ों वर्षों में भी मैं इस कवच की महिमा का वर्णन नहीं कर
सकता । पुनः तुमसे एक सत्य कह रहा हूँ अब मन लगाकर सुनो।
इदं न सिद्ध्यते देवि
त्रैलोक्याकर्षणं विना ।
ग्रहीत्रे तुष्यते देवी दात्रे
कुप्यति तत्क्षणात् ॥ ६३ ॥
एतज्ज्ञात्वा यथाकर्तुमुचितं तत्
करिष्यसि ॥ ६४ ॥
त्रैलोक्याकर्षण के बिना यह कवच
सिद्ध नहीं होता । देवी ( कामकला काली) मन्त्र के ग्रहीता के ऊपर तो प्रसन्न होती
है किन्तु दाता के ऊपर उसी क्षण क्रुद्ध हो जाती है । यह जानकर जो करना उचित हो
उसे ही तुम करना ।। ५९-६४ ॥
॥ इत्यादिनाथविरचितायां
पञ्चशतसाहस्त्र्यां महाकालसंहितायां त्रैलोक्य-विजयकवचवर्णनं नाम नवमः पटलः ॥ ९ ॥
॥ इस प्रकार श्रीमद् आदिनाथविरचित
पचास हजार श्लोकों वाली महाकाल-संहिता के कामकलाकाली खण्ड के त्रैलोक्यविजयं कवचम्
नामक नवम पटल की आचार्य राधेश्याम चतुर्वेदी कृत 'ज्ञानवती' हिन्दी व्याख्या सम्पूर्ण हुई ॥९॥
आगे जारी ........ महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल 10
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