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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
कामकलाकाली त्रैलोक्य मोहन कवच
महाकालसंहिता के कामकलाखण्ड में पटलसंख्या
२४९ में देवी द्वारा त्रैलोक्य मोहन कवच को पूछे जाने पर महाकाल ने कामकलाकाली
त्रैलोक्य मोहन कवच का उपदेश कर रहे हैं । भगवती कामकालाकली की उपासना में
प्रतिदिन कवच का पाठ अवश्य करना चाहिये। जिसके प्रभाव से साधक का समस्त प्रकार से
कल्याण होता है एवं सर्वबाधाओं से मुक्ति मिलती है।
अथ कामकलाकाली त्रैलोक्य मोहन कवच
ॐ अस्य श्री त्रैलोकयमोहन रहस्य
कवचस्य ।
त्रिपुरारि ऋषिः विराट् छन्दः भगवति
कामकलाकाली देवता ।
फ्रें बीजं योगिनी शक्तिः क्लीं
कीलकं डाकिनि तत्त्वं
भ्गावती श्री कामकलाकाली अनुग्रह
प्रसाद सिध्यर्ते जपे विनियोगः॥
ॐ ऐं श्रीं क्लीं शिरः पातु फ्रें
ह्रीं छ्रीं मदनातुरा।
स्त्रीं ह्रूं क्षौं ह्रीं लं ललाटं
पातु ख्फ्रें क्रौं करालिनी॥ १
आं हौं फ्रों क्षूँ मुखं पातु क्लूं
ड्रं थ्रौं चण्डनायिका।
हूं त्रैं च्लूं मौः पातु दृशौ
प्रीं ध्रीं क्ष्रीं जगदाम्बिका॥ २
क्रूं ख्रूं घ्रीं च्लीं पातु कर्णौ
ज्रं प्लैं रुः सौं सुरेश्वरी।
गं प्रां ध्रीं थ्रीं हनू पातु अं
आं इं ईं श्मशानिनि॥ ३
जूं डुं ऐं औं भ्रुवौ पातु कं खं गं
घं प्रमाथिनी।
चं छं जं झं पातु नासां टं ठं डं ढं
भगाकुला॥ ४
तं थं दं धं पात्वधरमोष्ठं पं फं
रतिप्रिया।
बं भं यं रं पातु दन्तान् लं वं शं
सं चं कालिका॥ ५
हं क्षं क्षं हं पातु जिह्वां सं शं
वं लं रताकुला।
वं यं भं वं चं चिबुकं पातु फं पं
महेश्वरी॥ ६
धं दं थं तं पातु कण्ठं ढं डं ठं टं
भगप्रिया।
झं जं छं चं पातु कुक्षौ घं गं खं
कं महाजटा॥ ७
ह्सौः ह्स्ख्फ्रैं पातु भुजौ
क्ष्मूं म्रैं मदनमालिनी।
ङां ञीं णूं रक्षताज्जत्रू नैं मौं
रक्तासवोन्मदा ॥ ८
ह्रां ह्रीं ह्रूं पातु कक्षौ में
ह्रैं ह्रौं निधुवनप्रिया।
क्लां क्लीं क्लूं पातु हृदयं क्लैं
क्लौं मुण्डावतंसिका॥ ९
श्रां श्रीं श्रूं रक्षतु करौ श्रैं
श्रौं फेत्कारराविणी।
क्लां क्लीं क्लूं अङ्गुलीः पातु
क्लैं क्लौं च नारवाहिनी॥ १०
च्रां च्रीं च्रूं पातु जठरं च्रैं
च्रौं संहाररूपिणी।
छ्रां छ्रीं छ्रूं रक्षतान्नाभिं
छ्रैं छ्रौं सिद्धकरालिनी॥ ११
स्त्रां स्त्रीं स्त्रूं रक्षतात्
पार्श्वौ स्त्रैं स्त्रौं निर्वाणदायिनी।
फ्रां फ्रीं फ्रूं रक्षतात् पृष्ठं
फ्रैं फ्रौं ज्ञानप्रकाशिनी॥ १२
क्षां क्षीं क्षूं रक्षतु कटिं
क्षैं क्षौं नृमुण्डमालिनी।
ग्लां ग्लीं ग्लूं रक्षतादूरू ग्लैं
ग्लौं विजयदायिनी॥ १३
ब्लां ब्लीं ब्लूं जानुनी पातु
ब्लैं ब्लौं महिषमर्दिनी।
प्रां प्रीं प्रूं रक्षताज्जङ्घे
प्रैं प्रौं मृत्युविनाशिनी॥ १४
थ्रां थ्रीं थ्रूं चरणौ पातु थ्रैं
थ्रौं संसारतारिणी।
ॐ फ्रें सिद्ध्विकरालि ह्रीं छ्रीं
ह्रं स्त्रीं फ्रें नमः॥ १५
सर्वसन्धिषु सर्वाङ्गं गुह्यकाली
सदावतु।
ॐ फ्रें सिद्ध्विं हस्खफ्रें
ह्सफ्रें ख्फ्रें करालि ख्फ्रें हस्खफ्रें ह्स्फ्रें फ्रें ॐ स्वाहा॥ १६
रक्षताद् घोरचामुण्डा तु कलेवरं
वहक्षमलवरयूं।
अव्यात् सदा भद्रकाली
प्राणानेकादशेन्द्रियान् ॥ १७
ह्रीं श्रीं ॐ ख्फ्रें ह्स्ख्फ्रें
हक्षम्लब्रयूं
न्क्ष्रीं नज्च्रीं स्त्रीं छ्रीं
ख्फ्रें ठ्रीं ध्रीं नमः।
यत्रानुक्त्तस्थलं देहे यावत्तत्र च
तिष्ठति॥ १८
उक्तं वाऽप्यथवानुक्तं करालदशनावतु
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं हूं स्त्रीं
ध्रीं फ्रें क्षूं क्शौं
क्रौं ग्लूं ख्फ्रें प्रीं ठ्रीं
थ्रीं ट्रैं ब्लौं फट् नमः स्वाहा॥ १९
सर्वमापादकेशाग्रं काली कामकलाऽवतु ॥
२०
कामकलाकाली त्रैलोक्य मोहन कवच फलश्रुति
एतत्ते सर्वमाख्यातं यन्मां त्वं
परिपृच्छसि।
एतेन कवचेनैव यदा भवति गुण्ठितः।।
वज्रात् सारतरं तस्य शरीरं जायते
तदा।
शोकदुःखामयैर्मुक्तः सद्यो ह्यमरतां
व्रजेत्।।
आमुच्यानेन देहं स्वं यत्र कुत्रापि
गच्छतु।
युद्धे दावाग्निमध्ये च
सरित्पर्वतसिन्धुषु।।
राजद्वारे च कान्तारे
चौरख्याघ्राकुले पथि।
विवादे मरणे त्रासे
महामारीगदादिषु।।
दुःस्वप्ने बन्धने घोरे
भूतावेशग्रहोद्गतौ।
विचर त्वं हि रात्रौ च
निर्भयेनान्तरात्मना।।
एकावृत्त्याघनाशः स्यात्
त्रिवृत्त्या चायुराप्नुयात्।
शतावृत्त्या सर्वसिद्धिः सहजैः
खेचरो भवेत्।।
वल्लेभऽयुतपाठेन शिव एव न संशयः।
किं वा देवि जानेः सत्यं सत्यं
ब्रवीमि ते।।
चतुस्त्रैलोक्यलाभेन त्रैलोक्यविजयी
भवेत्।
त्रैलोक्याकर्षणो
मन्त्रस्त्रैलोक्यविजयस्तदा।।
त्रैलोक्यमोहनं चैतत्
त्रैलोक्यवशकृन्मनुः।
एतच्चतुष्टयं देवि
संसारेष्वतिदुर्लभम्।।
प्रसादात्कवचस्यास्य के सिद्धिं नैव
लेभिरे।
संवर्ताद्याश्च ऋषयो मारुत्ताद्या
महीभुजः।।
विशेषतस्तु भरतो लब्धवान्
यच्छृणुष्व तत्।
जाह्नवी
यमुनारेवाकावेरीगोमतीष्वयम्।।
सहस्रमश्व मेधानामेकैकत्राजहार हि।
याजयित्रे मातृपित्रे त्वेकैकस्मिन्
महाक्रतौ।।
सहस्रं यत्र पद्मानां कण्वायादात्
सवर्मणाम्।
सप्तद्वीपवर्ती पृथ्वी जिगाय
त्रिदिनेन यः।।
नवायुतं च वर्षाणां योऽजीवत्
पृथिवीपतिः।
अव्याहतस्थाध्वा यः
स्वर्गपातालमीयिवान् ।।
एवमन्योऽपि फलवानेतस्यैव प्रसादातः।
भक्तिश्रद्धापरायास्ते मयोक्तं
परमेश्वरि।।
प्राणात्ययेऽपि नो वाच्यं
त्वयान्यस्मै कदाचन।
देव्यदात् त्रिपुरघ्नाय स मां
प्रादादहं तथा।।
तुभ्यं संवर्तऋषये प्रादां सत्यं
ब्रवीमि ते।
संवा दास्यति प्रीतो देवि दुर्वाससे
त्विमम्।।
दत्तात्रेयाय स पुनरेवं लोके
प्रतिष्ठितम्।
वक्त्राणां कोटिभिर्देवि वर्षाणामपि
कोटिभिः।।
महिमा वर्णितुं शक्यः कवचस्यास्य नो
मया।
पुनर्ब्रवीमि ते सत्यं मनो दत्वा
निशामय।।
इदं न सिद्धयते देवि
त्रैलोक्यकर्षणं विना।
ग्रहीत्रे तुष्यते देवी दात्रे
कुप्यति तत्क्षणात्।।
एतज् ज्ञात्वा यथाकर्तुमुचितं तत्
करिष्यसि।
इत्यादिनायविरचितायां महाकालसहितायां
त्रैलोक्यविजयं कवचम् नाम द्विशताधिकोन पञ्चाशत्तमः(२४९) पटलः ।।
कामकलाकाली त्रैलोक्य मोहन कवच समाप्त।।
कामकलाकाली महाकालसंहिता कामकलाखण्ड
जारी........क्रमशः
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