कामकलाकाली साधना
महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल १० कामकलाकाली साधना में पहले कामकला काली के रावणविरचित स्तोत्र का वर्णन है । आगे चलकर प्रसन्नाकलश और शक्तिसामरस्य के विधान की प्रस्तुति है । समस्त मनुष्य इसके अधिकारी हैं । जहाँ तक मुहूर्त का प्रश्न है विशिष्ट पर्व के साथ सभी दिन इसके लिये ग्राह्य हैं। उपवास या भोजन का कोई नियम नहीं है । इतना अवश्य है कि इसका अनुष्ठान महानिशा में होता है। इस अनुष्ठान में प्रयोज्य बारह प्रकार की सुरा सभी यजमानों के लिए ग्राह्य है । शक्ति (स्त्री) के विषय में कहा गया है कि यदि परकीया उपलब्ध न हो तो स्वकीया शक्ति का उपयोग करना चाहिये। ब्राह्मण साधक के लिए चारो वर्ण की स्त्रियाँ ग्राह्य हैं। क्षत्रिय के लिये ब्राह्मणीवर्जित त्रिवर्ण की वैश्य के लिये ब्राह्मणक्षत्रियावर्जित द्विवर्ण की और शूद्र साधक के लिये उपर्युक्त तीनो स्त्रियाँ वर्जित होकर केवल शूद्रा स्त्री ग्राह्य हैं । विकलाङ्गी आदि स्त्रियाँ भी त्याज्य मानी गयी हैं। सुरा के लिए प्रयोज्य पाँचों स्थान का वर्णन करने के बाद समस्त पीठों की स्थापनविधि का निर्वचन है । मन्त्रोच्चारपूर्वक मण्डलरचना को बतलाने के बाद शक्ति की चर्चा है। स्नानोत्तर वस्त्रालङ्कार धारण की हुई शक्ति के शरीर पर स्थित वस्त्र का मन्त्रोच्चारणपूर्वक विमोचन कराकर उसे नग्न करने तथा मन्त्रपूर्वक उसकी गोद में कलश रखने को कहा गया है । तत्पश्चात् अन्य कृत्यों की चर्चा कर आठ शक्तियों की पूजा का विधान वर्णित है । मन्त्र का उच्चारण करते हुए कुल द्रव्य अर्थात् सुरा का शापविमोचन कर उसके अन्दर आनन्द भैरव और आनन्द भैरवी का ध्यान तत्पश्चात् सुधा देवी का ध्यान बतलाकर त्रिकोणचक्रलेखन की चर्चा की गयी है । अन्त में अमृतीकरण अमृतन्यास आदि करने का उल्लेख है ।
कामकलाकाली साधना
Mahakaal samhita kaam kalaa kaali khanda patal
10
महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल १० कामकलाकाली साधना
महाकालसंहिता कामकलाकालीखण्ड: दशमः
पटलः
महाकालसंहिता कामकलाखण्ड दशम पटल कामकलाकाली साधना
महाकालसंहिता कामकलाकालीखण्ड दसवाँ पटल
महाकालसंहिता
कामकलाखण्ड:
(कामकलाकालीखण्ड:)
दशमः पटल:
कामकलाकाली साधना
कामकलाकाली खण्ड पटल १० -
प्रसन्नाकलशस्य शक्तिसामरस्यस्य च विध्योरभिधानम्
देव्युवाच- महायोगिन् महाकाल
करुणाम्बुनिधे शिव ।
अत्यद्भुतमिदं त्वत्तः श्रुतं
कवचमुत्तमम् ॥ १ ॥
विशेषेण श्रुतं सर्वं मया
चैतन्महेश्वर ।
इदानीं श्रोतुमिच्छामि मम प्रीतिकरं
प्रिय ॥ २ ॥
कीदृशेन विधानेन आशु सा च प्रसीदति
।
तत् कथयस्व देवेश यदि स्नेहोऽस्ति
ते मयि ॥ ३ ॥
प्रसन्नाकलश और
शक्तिसामरस्य विधि- देवी ने कहा- हे महायोगिन् ! हे
महाकाल ! हे करुणासागर शिव! मैंने आप से यह अत्यन्त अद्भुत और उत्तम कवच
सुना । हे महेश्वर ! मैंने सम्पूर्ण इस (कवच) को विशेष रूप से सुना। हे प्रिय ! अब
मैं अपना प्रीतिकारक (विषय) सुनना चाहती हूँ कि किस विधान के कहने पर वह (देवी)
शीघ्र प्रसन्न हो जाती है। हे देवेश ! यदि मेरे प्रति आपका स्नेह है तो उसे
बतलाइये ॥ १-३ ॥
महाकाल उवाच-
अथ सर्वप्रयोगाणां राजानं व्याहरामि
ते ।
यदेकवारकरणात् कृतकृत्योऽभिजायते ॥
४ ॥
महागोप्यतमं देवि प्रसन्नाकलशं
विधिम् ।
विशेषतस्तथा शक्तिसामरस्यकरं विधिम्
॥ ५ ॥
गुरुदैवतमन्त्राणां यथैकत्वं
फलप्रदम् ।
तीर्थदैवतशक्तीनां तथैकत्वं महाफलम्
॥ ६ ॥
क्षत्रविट्शूद्रजातीनामेष एव
विधिर्मतः ।
देवस्य मध्यतोल्लेखादुभयत्र समा
क्रिया ॥ ७ ॥
महाकाल ने कहा—अब मैं तुम्हें समस्त प्रयोगों का राजा बतला रहा हूँ जिसको एक बार करने से
(मनुष्य) कृतकृत्य हो जाता है। हे देवि ! यह प्रसन्नाकलश विधि महा गोपनीय है। इसके
अतिरिक्त शक्तिसामरस्यकर विधि भी विशेषतया (गोपनीय ) है । जिस प्रकार गुरु देवता
और मन्त्र का एकत्व फलप्रद होता है उसी प्रकार तीर्थ देवता और शक्ति की एकता महाफल
वाली होती है। क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र
जातियों के लिये यही विधि निर्दिष्ट है। चूँकि देवता का उल्लेख दोनों में है
इसलिये दोनों (विधियों) में क्रिया समान होती है ॥ ४-७ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल १० -
उपर्युक्तविध्योरधिकारिणो निर्देश:
द्विजातेः केवलं तीर्थे नाधिकारः
प्रशस्यते ।
निन्दा तु प्राणनाशाय त्यागात्
सिद्धिक्रियाऽफला ॥ ८ ॥
निन्दात्यागौ न कर्त्तव्यौ देवि
सिद्धिमभीप्सता ।
दोनों विधियों के अधिकारी
काल और प्रकार—अधिकारी तीर्थ के विषय में केवल
ब्राह्मण का अधिकार नहीं है। (तीर्थ की) निन्दा मृत्युकारिणी होती है और (उसके
त्याग से सिद्धि के लिये की जाने वाली क्रिया निष्फल होती है। इसलिये हे देवि !
सिद्धि चाहने वाले को निन्दा और त्याग दोनों ही नहीं करना चाहिये ॥८-९ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल १० -
उपर्युक्तविध्योः कालाभिधानम्
प्रत्यष्टम्यां चतुर्दश्यां
सङ्क्रान्तौ मङ्गलेऽहनि ॥ ९ ॥
व्यतीपातोपरागे च स्वेच्छा यस्मिन्
दिनेऽपि वा ।
कल्पितार्चादिसम्भारः
कृतनित्यक्रियो दिवा ॥ १० ॥
भुक्तान्नो वाप्यभुक्तान्नो विधिं
कुर्य्यान्महानिशि ।
काल-
प्रत्येक अष्टमी, चतुर्दशी, सङ्क्रान्ति, मङ्गल का दिन, व्यतीपात
योग, ग्रहण में अथवा जिस किसी भी दिन पूजा आदि की सामग्री
एकत्रित कर नित्य क्रिया सम्पन्न कर दिन में भोजन करके अथवा उपवास करके यह विधि
महानिशा (= मध्यरात्रि का दो प्रहर अर्थात् रात्रि ९.३० से ३.३० तक के समय) में इस
विधि को करना चाहिये ॥ ९-११ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल १० -
तीर्थस्य द्वादशप्रकाराभिधानम्
तीर्थशक्त्योर्भिदां वच्मि तत्र
चेतो निवेशय ॥ ११ ॥
माध्वीका पानसी चैव खार्जूरी च
मधूकिका ।
गौडी ताली चतुर्जाता तण्डुली
पुष्पसम्भवा ॥ १२ ॥
माध्वीका च गौधूमी तथौषधिशिफात्मिका
।
क्षत्रविट्शूद्रजातीनां प्रशस्ता
द्वादशैव हि ॥ १३ ॥
मधु क्षीरं तथाज्यं च नारिकेलोदकं
प्रिये ।
ब्राह्मणानामिदं शस्तं फलानां च
रसास्तथा ॥ १४ ॥
तीर्थ (= मद्य) के बारह
प्रकार- अब मैं तीर्थ और शक्ति के भेद को बतला रहा हूँ
उसमें मन लगाओ। महुआ, कटहल, खजूर, मधु, गुड़, ताड़, चातुर्जात, चावल,
फूल, गेहूँ, औषधि और शेफाली
से बनी हुई बारह प्रकार की सुरा क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के
लिये प्रशस्त है । हे प्रिये ! ब्राह्मणों के लिये मधु, दूध,
घी, नारियल का पानी और फलों का रस सेवनीय कहा
गया है ।। ११-१४ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल १० -
शक्तेः प्रकाराभिधानम्
शक्तिश्च द्विविधा प्रोक्ता स्वकीया
परकीयका ।
अभावे परकीयायाः स्वीयां शक्तिं
प्रकल्पयेत् ॥ १५ ॥
न व्यङ्गीं नाधिकाङ्गी च न रूक्षां
न शिरालिनीम् ।
न पिङ्गां नाधिकां श्यामां जरन्तीं
न करालिनीम् ॥ १६ ॥
नादृष्टरजसं कन्यां नार्त्तवं
समुपागताम् ।
नान्तर्वलीं न वा बालां नापत्यां न
गलत्कुचाम् ॥ १७ ॥
गौराङ्गीं युवतीं रम्यां
पीनोन्नतपयोधराम् ।
विशालजघनां
चारुदन्तपङ्क्तिविराजिताम् ॥ १८ ॥
दीक्षितां कुलमार्गेषु
भक्तिश्रद्धापरायणाम् ।
सदा वचस्कारिणीं च भयहीनां
हसन्मुखीम् ॥ १९ ॥
सर्वजातीर्द्विजः कुर्याद् विप्रां
त्यक्त्वा तु भूमिपः ।
उभे विहाय वैश्यश्च तिस्रः शूद्रश्च
वर्जयेत् ॥ २० ॥
भक्तौ दृढायां जातायां सर्वा
सर्वेषु शस्यते ।
शक्ति के प्रकार-शक्ति
(= तान्त्रिक साधना में प्रयोज्य स्त्री) दो प्रकार की होती है—
स्वकीया और परकीया। परकीया के न मिलने पर अपनी शक्ति (पत्नी) को
प्रयोग में लाना चाहिये। यह शक्ति न अङ्गहीन, न अधिक
अङ्गवाली, न रुक्ष, न शिरालिनी (= उभरी
हुई नसों वाली) न पिङ्ग ( = बहुत गोरी) न बहुत काली. न वृद्धा. न कर्कशा, न कन्या, न रजस्वला, न गर्भवती,
न बाला, न निःसन्तान, न
ढीले स्तनवाली होनी चाहिये। गोरी, युवती, रमणीय, पीन उन्नत स्तनों वाली, विशाल जघन वाली, सुन्दर दाँतों की पति वाली, दीक्षित, कुल की परम्परा में भक्ति और श्रद्धा वाली,
सदा वचन का निर्वाह करने वाली, निर्भय,
हँसमुख स्त्री होनी चाहिये । ब्राह्मण सभी जातियों की स्त्री को
शक्ति बना सकता है। क्षत्रिय ब्राह्मणी को छोड़कर, वैश्य
ब्राह्मणी तथा क्षत्रिया को छोड़कर (वैश्य और शूद्रा को) तथा शूद्र (ब्राह्मणी
आदि) तीनों को छोड़कर (केवल शूद्रा को प्रयोग में ला सकता है) । दृढ भक्ति होने पर
सब जाति की स्त्रियाँ सब साधकों के लिये विहित हैं ।। १५-२१ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल १० -
तीर्थपात्राभिधानम्
तीर्थामत्रमथो वच्मि हैमं वा राजतं
तथा ॥ २१ ॥
पार्थिवं नारिकेलं वा रात्नीयं
सर्वसिद्धिदम् ।
तीर्थप्राप्तेषु पूजायामुभयत्रापि
युज्यते ॥ २२ ॥
तीर्थपात्र
- इसके बाद तीर्थ का अमत्र (= भोजनपात्र) बतला रहा हूँ। सोना चाँदी मिट्टी नारियल
या रत्न का पात्र सर्वसिद्धि देता है । (उपर्युक्त पात्र ) तीर्थ के लिये और पूजा
में दोनों जगह उपयुक्त माना गया है ।। २१-२२ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल १० -
उक्तविध्योः देशाभिधानम्
अथ कल्पितपूजादिसम्भारो भक्तितत्परः
।
शून्यागारे निर्जने च श्मशाने च
चतुष्पथे ॥ २३ ॥
गृहे वा निःशलाके स्याद् यत्र वा
मनसो रुचिः ।
कुर्याद् गोप्यतमं सर्वं
पशुर्नैवेक्ष्यते यथा ॥ २४ ॥
विधियों के लिये स्थान-
इसके बाद पूजा आदि की सामग्री को एकत्रित कर भक्तियुक्त होकर (साधक) शून्यघर,
निर्जन स्थान, श्मशान, चौराहा
अथवा निःशलाक (= खूँटी, कील, हड्डी आदि
से रहित) घर में जहाँ कहीं भी मन लगे वहाँ समस्त गोपनीय कार्य करे । यहाँ तक कि उस
स्थान को पशु भी न देख पाये ॥ २३-२४॥
कामकलाकाली खण्ड पटल १० -
उक्तविध्योः स्वरूपाभिधानम्
प्रक्षालिताङ्घ्रिराचान्त उत्तराभिमुखो
विभीः ।
दृढं पद्मासनं कृत्वा
व्याघ्रचर्म्मोपरि स्थितः ॥ २५ ॥
भूतापसारणं कृत्वा तालैर्दिग्बन्धनं
तथा ।
अङ्गन्यासं ततः कृत्वा
कराङ्गन्यासमाचरेत् ॥ २६ ॥
मातृकान्यासपीठादिन्यासं कुर्यात्
पुरोक्तवत् ।
अर्घ्यस्थापनपर्यन्तं सर्वं
कुर्यादतन्द्रितः ॥ २७ ॥
विधि का स्वरूप-पैर
धुल कर आचमन कर निर्भय होकर उत्तराभिमुख होकर बाघ के चर्म पर बैठ कर पद्मासन लगाये
। भूतों का अपसारण कर ताली लगाकर दिग्बन्ध करे । उसके बाद अङ्गन्यास करने के
पश्चात् कराङ्गन्यास करे । पूर्वोक्त विधि के अनुसार मातृकान्यास पीठ आदि का न्यास
करे । अर्घ्यस्थापना तक समस्त अनुष्ठान (साधक) तन्द्रारहित होकर करे ।। २५-२७ ।।
कामकलाकाली खण्ड पटल १० -
समन्त्रः पीठस्थापनविधिः
ततो गोमयलिप्तायां भूमौ
स्वस्तिकताजुषि ।
स्थापयेत् क्षालितं पीठं दारवं
धातुमत्तथा ॥ २८ ॥
वक्ष्यमाणेन मन्त्रेण
गोमयालिप्तभूपरि ।
आदौ तारत्रयं प्रोच्य मायायाः
पञ्चकं ततः ॥ २९ ॥
कूर्चाङ्कुशमहाक्रोधामृतगुह्यारतिप्रियाः
।
कापाल भैरवी नीलचामुण्डाशक्तिमानसाः
॥ ३० ॥
योगिनी (शाकिनी) काली
कामगारुडविघ्नतः ।
भारुण्डा खेचरी कामलक्ष्मी: ( एता)
त्रिशक्तय: ॥ ३१ ॥
सद्योजातादिकाः पञ्च कूटाश्च
तदनन्तरम् ।
दानवाधारधनदाकूर्मानन्तविषामराः ॥
३२ ॥
एह्येहि भगवत्येवं ततः पदमुदीरयेत्
।
ततः कामकलाकालि सर्वशक्तिपदं ततः ॥
३३ ॥
समन्विते इति प्रोच्य
प्रसन्नापदमुच्चरेत् ।
शक्तिभ्यां सामरस्यं च तत
उद्गारयेत्सुधीः ॥ ३४ ॥
कुरुद्वन्द्वं मम ततः पूजां गृह्ण
युगं वदेत् ।
शत्रून् हन युगं प्रोच्य युगं
मर्द्दय पातय ॥ ३५ ॥
राज्यं मे(च) समुद्धृत्य देहि दापय
युग्मकम् ।
शाकिनी योगिनी कूर्चस्त्रीहियां
नवकं वदेत् ॥ ३६ ॥
पञ्चचत्वारिंशबीजमेवं भवति भाविनि ।
फट्यान्ते हृच्छिरोभ्यां मन्त्रः
सर्वशुभावहः ॥ ३७ ॥
उच्चार्य्यामुं मनुं पीठं स्थापयेत्
स्थण्डिलोपरि ।
पीठ स्थापन मन्त्र
- गोबर से लिपी हुई भूमि पर स्वस्तिक बनाये। उसके ऊपर लकड़ी या धातु के बने हुए
पीठ को धुल कर रखे। (रखने के समय) निम्नलिखित मन्त्र पढ़ना चाहिये । पहले तीन तार,
फिर माया बीज पाँच बार तत्पश्चात् कूर्च अङ्कुश महाक्रोध अमृत,
गुह्या, रति, प्रिया,
कपालभैरवी, नील, चामुण्डा,
शक्ति, मानस, योगिनी
(शाकिनी), काली, काम, गरुड, विघ्न, भारुण्डा,
खेचरी, कामलक्ष्मी – ये
तीन शक्तियाँ, ततः सद्योजात आदि पाँच कूट, उसके बाद दानव आधार धनदा कूर्म अनन्त विष अमर कहने के बाद 'एहि एहि भगवति' कहकर 'कामकलाकालि
सर्वशक्तिसमन्विते' कहे । फिर 'प्रसन्नाशक्तिभ्याँ
सामरस्यं' कहे। 'कुरु' को दो बार फिर 'मम पूजां' कहने
के बाद 'गृह' को दो बार कहे । 'शत्रून्' कहने के पश्चात् दो बार 'हन' कहे। 'मर्दय पातय' को दो-दो बार कहकर 'राज्य देहि में दापय' कहने के बाद शाकिनी योगिनी कूर्च स्त्रीं ह्रीं बीजों को नव नव बार कहे ।
हे भामिनि ! इस प्रकार यह मन्त्र पैंतालिस अक्षरों वाला है (मन्त्र — ॐ ॐ ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं हूं क्रों क्षं ग्लूं क्ष्लप्रै क्लूं
रच्रां थ्रीं सौः ज्रौं क्रैं क्रीं क्लीं फ्लक्रौं प्रीं ख्रौं क्लीं श्रीं क्रू
ब्लूं ठ्रीं छ्रीं हक्लह्रवडकखऐं कसवहलक्षमऔ वक्रम्लबलक्लऊं क्ष्लह्रमव्यऊं
लक्षमहजरक्रव्यऊं श्रीं मैं क्ष्रूं व्रीं खैं ज्रं य्लैं एह्येहि भगवति
कामकलाकालि सर्वशक्तिसमन्विते प्रसन्नाशक्तिभ्यां सामरस्यं कुरु कुरु मम पूजां
गृह्ण गृह्ण शत्रून् हन हन मर्दय मर्दय पातय पातय राज्यं मे देहि देहि दापय दापय
फ्रें फ्रें फ्रें फ्रें फ्रें फ्रें फ्रें फ्रें फ्रें छ्रीं छ्रीं छ्रीं छ्रीं
छ्रीं छ्रीं छ्रीं छीं छ्रीं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं स्त्रीं स्त्रीं
स्त्रीं स्त्री स्त्रीं स्त्रीं स्त्री स्त्री स्त्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं
ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं फट् फट् फट् नमः स्वाहा ॥२८-३८॥
कामकलाकाली खण्ड पटल १० -
समन्त्रमण्डलारचनविध्यभिधानम्
पुनर्गृहीत्वा सिन्दूरं प्रशस्तं
प्रसृतित्रयम् ॥ ३८ ॥
वक्ष्यमाणेन मन्त्रेण पीठे
मण्डलमाचरेत् ।
प्रणवं शाकिनीबीजं फेत्कारी
योगिनीमपि ॥ ३९ ॥
चण्डं भूतं परां नादं रौद्रमानन्दमङ्कुशम्
।
फट्पञ्चकं कामकलाकालीसम्बोधनं ततः ॥
४० ॥
घोररावे इति ततो विकटदंष्ट्र इत्यपि
।
कालि कापालि इति च..॥ ४१ ॥
नररुधिर इत्युक्त्वा वसामांस इतीति
च ।
भोजनप्रिय इत्युक्त्वा भगप्रिय
इतीरयेत् ॥ ४२ ॥
भगाङ्कुश इति प्रोच्य भगमालिनि
चोद्धरेत् ।
भगोन्मादिनि इत्युक्त्वा भगात्तव
(भगोत्तमे) इतीरयेत् ॥ ४३ ॥
इहागच्छ युगात्तिष्ठ सन्निधिं कुरु
च द्वयम् ।
ततश्च भरतोपास्यागुह्यकाल्याश्च
षोडशी ॥ ४४ ॥
ततः कामकलाकाल्यास्त्रैलोक्याकर्षणो
मनुः ।
शाकिनी
डाकिनीबीजात्फेत्कारीबीजमुद्धरेत् ॥ ४५ ॥
कूर्चं वधूं योगिनीं च प्रणवस्य च
पञ्चकम् ।
फडन्ते हृच्छिरश्चापि
महामन्त्रोऽयमीरितः ॥ ४६ ॥
अनेन पीठोपरि हि सिन्दूरैर्मण्डलं
चरेत् ।
मण्डलरचना विधि
- पुनः तीन पसर अच्छा सिन्दूर लेकर पीठ पर वक्ष्यमाण- मन्त्र से मण्डल बनाये ।
प्रणव,
शाकिनी बीज, फेत्कारी, योगिनी,
चण्ड, भूत, परा, नाद, रौद्र, आनन्द, अङ्कुश, पाँच फट्, कामकलाकाली
का सम्बोधन, फिर 'घोरंरावे
विकटदंष्ट्रे कालि कापालि नररुधिरवसामांसभोजनप्रिये' कहकर 'भगप्रिये' कहना चाहिये। 'भगाङ्कुशे'
कहकर 'भगमालिनि भगोन्मादिनि भगोत्तमे कहना
चाहिये । 'इह आगच्छ' दो बार 'आतिष्ठ सन्निधिं' कहने के बाद 'कुरु' दो बार ततः भरतोपास्या और गुह्यकाली का षोडशी
मन्त्र फिर कामकलाकाली का त्रैलोक्याकर्षण मन्त्र इसके बाद शाकिनी फेत्कारी बीज,
कूर्च वधू योगिनी, पाँच प्रणव और 'फट्' के बाद हृदय और शिर यह महामन्त्र कहा गया। (
मन्त्र — ॐ फ्रें ह्स्ख्फ्रें छ्रीं फ्रों स्फों ... (
परा) ब्रीं द्रैं भ्रूं क्रों फट् फट् फट् फट् फट् कामकलाकालि घोररावे
विकटदंष्ट्रे कालि कापालि नररुधिरवसामांसभोजनप्रिये भगप्रिये भगाङ्कुशे भगमालिनि
भगोन्मादिनि (भगोत्तमे) इह आगच्छ आगच्छ सन्निधिं कुरु कुरु ॐ फ्रें सिद्धिकरालि
ह्रीं छ्रीं हूं स्त्रीं फ्रें नमः स्वाहा, क्लीं क्रीं हूं
क्रों स्फ्रों कामकलाकालि स्फ्रों क्रों हूं क्रीं क्लीं स्वाहा, फ्रें ख्फ्रें ह्स्ख्फ्रें हूं स्त्री छ्रीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ फट् नमः स्वाहा। इस मन्त्र के द्वारा पीठ के ऊपर सिन्दूर से मण्डल बनाये ॥ ३८-४७ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल १० -
समन्त्रं शक्तेः वस्त्रविमोचनविध्यभिधानम्
ततः स्नातां शुचिं शक्तिं
सर्वालङ्कारभूषिताम् ॥ ४७ ॥
आनीयानेन मन्त्रेण तस्या वस्त्रं
विमोचयेत् ।
तारप्रासादवेतालरुद्रद्रावणभैरवीः॥
४८ ॥
शाङ्करब्रह्मभारुण्डाचामुण्डाकालगारुडा:
।
पराकालीरतिक्षेत्रपालकामरमाहियः॥ ४९
॥
फेत्कारी विंशतितमां नमः
स्वाहान्तगो मनुः ।
चतुर्विंशत्यक्षरेण तां नग्नां
कारयेत्सुधीः ॥ ५० ॥
शक्तिवस्त्रविमोचन विधि
एवं मन्त्र - इसके बाद स्नान की हुई पवित्र
सर्वालङ्कारभूषित शक्ति को लाकर अधोलिखित मन्त्र से उसके कपड़े हटाये । तार
प्रासाद,
वेताल, रुद्र, द्रावण,
भैरवी, शङ्कर, ब्रह्मा,
भारुण्डा, काल, गरुड,
परा- काली, रति, क्षेत्रपाल,
काम, रमा, ह्रीं,
फेत्कारी के बाद अन्त में 'नमः स्वाहा'
कहे। ( मन्त्र — ॐ हौं सफहलक्षूं फहलक्षीं
हभ्रीं सौः ख्फ्रीं रढ्रीं प्रीं क्रैं जूं क्रौं ह्स्ख्फ्रें सहक्लह्रीं क्रीं क्लूं
क्षौं क्लीं श्रीं ह्रीं ह्स्ख्फ्रें नमः स्वाहा ) ।
चौबीस अक्षर वाले इस मन्त्र से विद्वान् स्त्री को नग्न कर दे ।। ४७-५० ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल १० -
शक्त्यङ्के कलशस्थापनविधेः समन्त्रमभिधानम्
सिन्दूरमण्डलस्योर्ध्वं
कृतपद्मासनां स्त्रियम् ।
उपवेश्य तदङ्के तु पूर्वोक्तं कलशं
क्षिपेत् ॥ ५१ ॥
वक्ष्यमाणेन मनुना योनिमण्डलमध्यगम्
।
तारं षड्दीर्घको हश्चः
प्रासादाङ्कुशपाशकाः ॥ ५२ ॥
कूर्चं भूतश्च धनदा हयग्रीवकुमारकौ
।
त्रिशक्तिस्तापिनीतत्त्वं कूर्मद्रावणदानवाः
॥ ५३ ॥
ततो जय जयेत्युक्त्वा भगवत्यपि संवदेत्
।
ततः कामकलाकालि सर्वेश्वरि पदं ततः
॥ ५४ ॥
इहागत्य चिरं तिष्ठ तिष्ठेति
तदनन्तरम् ।
ततश्च प्रोद्धरेद् देवि यावत्पूजां
करोम्यहम् ॥ ५५ ॥
ततस्त्रयं हि बीजानां पञ्चानां
समनूद्धरेत् ।
शाकिनीयोगिनीक्रोधह्रीवधूनां पृथक्
पृथक् ॥ ५६ ॥
अन्ते फट् पञ्च च स्वाहा कलशस्थापने
मनुः ।
इमं मन्त्रं गृणन् जुष्टं तस्या
योन्युपरि न्यसेत् ॥ ५७ ॥
शक्ति की गोद में
कलशस्थापन एवं मन्त्र - सिन्दूरमण्डल के ऊपर
पद्मासन लगाकर स्त्री को बैठाने के बाद पूर्वोक्त कलश को उसकी गोद में रखे। यह कलश
योनिमण्डल के मध्य में रखा जाता है। तार, छह
दीर्घ ह्र, प्रासाद, अङ्कुश, पाश, कूर्च, भूत, धनदा, हयग्रीव, कार्त्तिकेय,
त्रिशक्ति, तापिनी तत्त्व, कूर्म द्रावण, दानव बीजों को कहकर फिर 'जय जय' कहे । तदनन्तर 'भगवति
कामकलाकालि सर्वेश्वरि इहागत्य चिरं तिष्ठ तिष्ठ' कहे। इसके
बाद हे देवि ! 'यावत् पूजां करोम्यहम्' कहकर शाकिनी योगिनी क्रोध, लज्जा और वधू इन पाँच
बीजों को तीन-तीन बार तथा 'फट्' को
पाँच बार कहने के बाद 'स्वाहा' कहे
(मन्त्र - ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्र: हौं क्रों आं स्फ्रें क्ष्रूं
क्रूं ह्रः क्रू म्रां स्हें घ्रीं ह्भ्रीं श्रीं जय जय भगवति कामकलाकालि
सर्वेश्वरि इहागत्य चिरं तिष्ठ तिष्ठ यावत् पूजां करोम्यहं फ्रें फ्रें फ्रें छ्री
छ्रीं छ्रीं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं स्त्रीं स्त्रीं स्त्रीं फट् फट् फट्
फट् फट् स्वाहा ) यह कलशस्थापन का मन्त्र है। इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए
कलश को उस स्त्री की योनि के ऊपर रखे ॥ ५१-५७ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल १० -
अन्येषामिह कर्तव्याणामभिधानम्
ततः पूर्वोदितं तीर्थं
भिन्नपात्रस्थितं पुरः ।
आनीयाच्छाद्य हस्ताभ्यां
त्रैलोक्याकर्षणं जपेत् ॥ ५८ ॥
दशकृत्वस्ततो धेनुमुद्रया
चावगुण्ठनम् ।
दिग्बन्धनं छोटिकया कुर्य्याच्च
तदनन्तरम् ॥ ५९ ॥
तस्योपरिष्टात् क्रमशो नवमुद्राः
प्रदर्शयेत् ।
शक्तिं कपालं योनिं च सामरस्यं ततः
परम् ॥ ६० ॥
मुद्रास्वदर्शितास्वेवं सर्वं
तद्विफलं भवेत् ।
अन्य कर्त्तव्य
- इसके बाद अलग पात्र में स्थित तीर्थ (=सुरा) को सामने लाकर दोनों हाथों से ढँक
कर त्रैलोक्याकर्षण मन्त्र का दश बार जप करना चाहिए । तदनन्तर धेनुमुद्रा से
अवगुण्ठन और चुटकी बजा कर दिग्बन्धन करना चाहिए। फिर उसके ऊपर क्रमशः नव मुद्राओं
का प्रदर्शन करे। इसके बाद शक्ति कपाल योनि सामरस्य मुद्रा दिखलाये । इन मुद्राओं
के न दिखाये जाने पर सब कर्त्तव्य व्यर्थ हो जाता है ।। ५८-६१ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल १० -
अष्टशक्तीनां पूजाविध्यभिधानम्
तत्र दिक्षु विदिक्ष्वेवं शक्तीरष्ट
प्रपूजयेत् ॥ ६१ ॥
इच्छा क्रिया सिद्धिर्ऋद्धिः स्वाहा
भीमा करालिनी ।
चण्डसङ्कर्षणी चेति दिक्ष्वष्टसु
पृथक् स्थितम् ॥ ६२ ॥
मध्येऽनङ्गकुलां देवीं
गन्धपुष्पादिभिर्यजेत् ।
त्रैलोक्याकर्षणेनैव मध्ये
कामकलामपि ॥ ६३ ॥
तद्भक्ता गुह्यकालीं वा पूजयेयुर्हि
तत्स्थले ।
अष्टशक्तियों की पूजा
- वहाँ पर दिशाओं और विदिशाओं में निम्नलिखित आठ शक्तियों की पूजा करे। वे हैं-
इच्छा,
क्रिया, सिद्धि, ऋद्धि,
स्वाहा, भीमा, करालिनी
और चण्डसङ्कर्षिणी। ये पृथक् पृथक् आठ दिशाओं में स्थित हैं। इनके बीच में
अनङ्गकुला देवी की गन्ध पुष्प आदि से पूजा करे । मध्य में कामकलाकाली अथवा उसके
भक्त लोग गुह्यकाली का भी उस स्थल पर पूजन करे ।। ६१-६४ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल १० -
समन्वं कुलद्रव्यस्य शापमोक्षविध्यभिधानम्
कुर्यात्ततः शापमोक्षं कुलद्रव्यस्य
भाविनि ॥ ६४ ॥
वैदिकागममन्त्राभ्यां
द्रव्यशापविमोक्षणम् ।
तत्रादौ वैदिकं वच्मि कथयिष्ये ततः
परम् ॥ ६५ ॥
एकमेव परं ब्रह्म स्थूलसूक्ष्ममयं
ध्रुवम् ।
कचोद्भवां ब्रह्महत्यां तेन ते
नाशयाम्यहम् ॥ ६६ ॥
सूर्यमण्डलसम्भूते वरुणालयसम्भवे ।
अमाबीजमये देवि
शुक्रपाशापाद्विमुच्यताम् ॥ ६७ ॥
वेदानां प्रणवो बीजं ब्रह्मानन्दमयं
यदि ।
तेन सत्येन ते देवि ब्रह्महत्यां
व्यपोहतु ॥ ६८ ॥
इमं मन्त्रत्रयं देवि वैदिकं
परिकीर्त्तितम् ।
आगमोक्तं मन्त्रमपि मयोक्तमवधारय ॥
६९ ॥
तारं कूर्चं डाकिनीं च फेत्कारी
योगिनीमपि ।
लक्ष्मीमन्मथचामुण्डाभारुण्डाभैरवीतडित्
॥ ७० ॥
वामदेवं ततः कूटमीशानं च ततः परम् ।
ततः प्रसन्ने इति च प्रसन्ना
तदनन्तरम् ॥ ७१ ॥
रूपिण्यतो भगवति कालि कामकलाक्षरात्
।
शुक्रदत्तं शापमिति मुञ्च मुञ्चापय
द्वयम् ॥ ७२ ॥
परमानन्दात्सामरस्यकारिणीति
समुद्धरेत् ।
इदं ब्रह्मभूयादहं
ब्रह्मभूयासमित्यपि ॥ ७३ ॥
पठेद् वारत्रयमिदं बीजानीह त्रयोदश
।
व्युत्क्रमात् पठनीयानि फट् नमो
वह्निकामिनी ॥ ७४ ॥
एतन्मन्त्रेणाभिमन्त्र्य षड्दीधैरमृतं
स्मरेत् ।
ब्रह्मशापमोचितायै सुधादेव्यै नमो
वदेत् ॥ ७५ ॥
दशवारान् जपित्वैवं
कामषड्दीर्घमुच्चरेत् ।
कुलकृत्स्नमिति प्रोच्य शापं मोचय
युग्मकम् ॥ ७६ ॥
अमृतं स्त्रावय द्वन्द्वं
वह्निजायान्तगो मनुः ।
दशवारानि (मं) जप्त्वा
त्रैलोक्याकर्षणं जपेत् ॥ ७७ ॥
कुलद्रव्य का शापविमोचन
- हे भव की स्त्री ! इसके बाद कुल द्रव्य का शापविमोचन करना चाहिये। इस द्रव्य के
शाप का विमोचन वैदिक एवं आगमिक दोनों मन्त्रों से करना चाहिये। उनमें से पहले
वैदिक (मन्त्र) को बतला रहा हूँ दूसरे को इसके बाद कहूँगा । वैदिक मन्त्र -
'एक ही परम ब्रह्म स्थूल सूक्ष्म रूपों वाला तथा ध्रुव है । उसके द्वारा
मैं कच से उत्पन्न ब्रह्महत्या का नाश करता हूँ । हे सूर्यमण्डल से उत्पन्न,
वरुणालय से सम्भूत, अमाबीजमय देवि ! शुक्र के
शाप से मुक्त हो जाओ । यदि प्रणव वेदों का बीज है और ब्रह्मानन्दमय है तो हे देवि
! उस सत्य से ब्रह्महत्या दूर हो जाय।' हे देवि! ये तीन
मन्त्र वैदिक बतलाये गये हैं । मेरे द्वारा उक्त आगमिक मन्त्र को अब मुझसे
सुनो। तार, कूर्च, डाकिनी, फेत्कारी, योगिनी, लक्ष्मी,
मन्मथ, चामुण्डा, भारुण्डा,
भैरवी, विद्युत्, वामदेव,
ईशान कूटों के बाद 'प्रसन्ने' फिर 'प्रसन्नारूपिणि भगवति कालि कामकले शुक्रदत्तं
शापं मुञ्च मुञ्चापय परमानन्दात् सामरस्यकारिणि इदं ब्रह्म भूयात् अहं ब्रह्म
भूयासम् इसको तीन बार पढ़े। फिर तेरह बीजों को पढ़े। अन्त में 'फट् नमः' और वह्निकामिनी को उल्टे क्रम से कहे । (
मन्त्र - ॐ हूं ख्फ्रें हंस्ख्फ्रें छ्रीं श्रीं क्लीं क्रैं प्रीं सौः ब्लौं
रजहलक्षमऊँ ब्रकम्लब्लक्लऊं प्रसन्ने प्रसन्नारूपिणि भगवति कामकलाकालि शुक्रदत्तं
शापं मुञ्च मुञ्चापय परमानन्दसामरस्यकारिणि इदं ब्रह्म भूयादहं ब्रह्म भूयासं इदं
ब्रह्मभूयादहं ब्रह्म भूयासं 'इदं ब्रह्मभूयादहं
ब्रह्म भूयासम् स्वाहा नमः फट् ) उक्त मन्त्र से (कुल
द्रव्य का) अभिमन्त्रण कर छह दीर्घस्वरों से युक्त अमृत का स्मरण करना चाहिये ।
इसके बाद 'ब्रह्मशापमोचितायै सुधादेव्यै नमः' कहे । (मन्त्र का स्वरूप इस प्रकार है- वां वीं वूं वैं वौं वः
ब्रह्मशापमोचितायै सुधादेव्यै नमः) । इसका दश बार जप करने के पश्चात् कामबीज
को छह दीर्घ स्वरों के साथ उच्चारित करे । तत्पश्चात् 'कुलकृत्स्नं'
कहकर 'शापं मोचय मोचय अमृतं स्रावय स्त्रावय
स्वाहा' कहे ( मन्त्र - क्लां क्लीं क्लूं क्लैं क्लौं
क्लः कुलकृत्स्नं शापं मोचय मोचय अमृतं स्रावय स्रावय स्वाहा ) । इसका दश बार
जप कर साधक को त्रैलोक्याकर्षण मन्त्र का जप करना चाहिये ॥ ६४-७७ ।।
कामकलाकाली खण्ड पटल १० -
आनन्दभैरव भैरव्योर्ध्यानम्
ततो द्रव्यस्य मध्ये तु
ध्यायेदानन्दभैरवम् ।
आनन्द भैरवीं चापि सामरस्यपदं गतौ ॥
७८ ॥
सूर्यकोटिप्रतीकाशं
चन्द्रकोटिसुशीतलम् ।
वृषारूढं नीलकण्ठं सर्वाभरणभूषितम्
॥ ७९ ॥
कपालखट्वाङ्गधरं घण्टाडमरुवादिनम् ।
पाशाङ्कुशधरं देवं गदामुशलधारिणम् ॥
८० ॥
खड्गखेटकचक्रर्ष्टिपर्शमुद्गरशूलिनम्
।
भुशुण्डीधारिणं घोरं वरदाभयपाणिकम्
॥ ८१ ॥
लोहितं देवदेवेशं भावयेद्
भैरवीयुतम् ।
एवं ध्यात्वा गुह्यबीजैर्वषट् तं
पूजयेत् त्रिधा ॥ ८२ ॥
आनन्द भैरव भैरवी का
ध्यान—इसके बाद सामरस्य पद को प्राप्त आनन्द भैरव और आनन्द भैरवी का कुलद्रव्य
(= मदिरा) के मध्य में ध्यान करना चाहिये । करोड़ सूर्य के समान (देदीप्यमान),
करोड़ चन्द्रमा के समान शीतल, बैल पर सवार
नीले कण्ठ वाले, समस्त आभरणों से भूषित, कपाल खट्वाङ्गधारी, घण्टा डमरू बजाने वाले, पाश अङ्कुशधारी, गदा मुसलधारी, खड्ग, खेटक, चक्र, ऋष्टि, परशु, मुद्गर, त्रिशूल, भुसुण्डी वरदमुद्रा अभयमुद्रा धारण किये
हुए लोहित एवं भैरवीसहित भैरव का ध्यान करना चाहिये। इस प्रकार ध्यान कर गुह्य बीज
(बी) एवं 'वषट्' से उनका तीन बार पूजन
करना चाहिये ॥ ७८-८२ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल १० -
सुधादेव्याः ध्यानम्
ततो ध्यायेत्सुधादेवी
चन्द्रकोट्यमृतप्रभाम् ।
हिमकुन्देन्दुधवलां पञ्चवक्त्रां
त्रिलोचनाम् ॥ ८३ ॥
अष्टादशभुजैर्युक्तां
सर्वानन्दकरोद्यताम् ।
प्रहसन्ती विशालाक्षीं देवदेवस्य
सम्मुखे ॥ ८४ ॥
गुह्यबीजैः सुधादेव्यै वौषट्
सम्पूज्य पार्वति ।
सुधादेवी का ध्यान
—
इसके बाद हे पार्वति ! करोड़ चन्द्र एवं अमृत की प्रभावाली, हिम कुन्द इन्दु के समान धवल, पाँच मुखों और तीन
नेत्रों वाली, अट्ठारह भुजाओं से युक्त, सबको आनन्द प्रदान करने के लिये उद्यत (अथवा सर्वानन्द हाथ को ऊपर उठायी
हुई), हँसती हुई, विशाल नेत्रों वाली
देवाधिदेव के सम्मुख स्थित सुधा देवी का ध्यान एवं गुह्य बीजों (बी) एवं 'वौषट्' से पूजा करनी चाहिये ॥ ८३-८५ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल १० -
त्रिकोणचक्रलेखनविध्यभिधानम्
त्रिकोणचक्रं संलिख्य वामावर्त्तेन
वै दले ॥ ८५ ॥
कोणाच्च दक्षिणादूर्ध्वं
दक्षिणादुत्तरावधि ।
अकारादिक्षकारान्तं गुह्यबीजं
त्रिवारकम् ॥ ८६ ॥
विलिख्य शाकिनीबीजं दशकृत्वो
जपेत्तु तम् ।
त्रिकोणचक्र - लेखनविधि
- ( किसी ) पत्र पर वामावर्त्त से त्रिकोण चक्र लिखकर दक्षिण कोण से ऊपर की ओर तथा
दक्षिण से उत्तर की ओर अकार से लेकर क्षकार तक के (पचास) वर्णों को लिखना चाहिए।
इसके बाद गुह्यबीज (बी) को तीन बार लिखकर शाकिनी बीज (= फ्रें) को दश बार लिखकर
उसका तीन बार जप करना चाहिए ।। ८५-८७ ।।
कामकलाकाली खण्ड पटल १० -
अन्यकरणीयविध्यभिधानम्
ध्यात्वामृतत्वं द्रव्येऽस्मिन्
शिवशक्तिसमागमात् ॥ ८७ ॥
अमृतीकृत्य धेन्वा तद् वारुणं
चाष्टधा जपेत् ।
कुर्यात्ततोऽमृतन्यासं न्यासराजं
महोदयम् ॥ ८८ ॥
न्यासमेनं विना देवि
द्रव्यशुद्धिर्न जायते ।
पञ्चविंशतितत्त्वानि तावन्त्येव
स्थलानि च ॥ ८९ ॥
वक्ष्यमाणेन मन्त्रेण तेषु स्थानेषु
विन्यसेत् ।
विधाय पुरतो वस्तु वामहस्तकनिष्ठया
॥ ९० ॥
तृतीयपर्वाङ्गुष्ठस्य
योगान्मुद्राभिजायते ।
परमीनामतां स्पृष्ट्वा तया तत् तत्
स्थलं न्यसेत् ॥ ९१ ॥
आदाविरां ततः स्वाङ्गं ततः शक्तिं
ततो घटम् ।
मन्त्रपाठेन चैकेन न्यसेद् देवि
चतुर्ष्वपि ॥ ९२ ॥
अयमेव विधिर्ज्ञेयो न्यासे
निर्वाणनामनि ।
न्यासे तथा सामरस्ये किन्तु भिन्नं
स्थलं भवेत् ॥ ९३ ॥
अन्य करणीय विधि
- इस कुलद्रव्य में शिवशक्ति समागम के कारण अमृतत्व का ध्यान धेनुमुद्रा के द्वारा
इसका अमृतीकरण कर वरुण बीज का आठ बार जप करे । इसके बाद न्यासों के राजा,
महा उदय वाले अमृतन्यास का सम्पादन करना चाहिये। हे देवि! इस न्यास
के बिना द्रव्यशुद्धि नहीं होती । पच्चीस तत्त्वों और उतने ही स्थलों का वक्ष्यमाण
मन्त्र से उन स्थानों में न्यास करना चाहिये। वस्तु को (देवता) के) सामने रखकर
बायें हाथ की कनिष्ठा से अगूठे के तीसरे पर्व को जोड़ने से परमीनामता मुद्रा बनती
है। इसका स्पर्श कर उसके द्वारा तत्तत् स्थलों का न्यास करना चाहिये । पहले इरा (=
मदिरा, कुलद्रव्य) इसके बाद अपने अङ्ग, तत्पश्चात् शक्ति, फिर घट, हे
देवि! इन चारों का एक मन्त्रपाठ से न्यास करना चाहिये । निर्वाण नामक न्यास के
विषय में यही विधि होती है। न्यास और सामरस्य में विधि यही रहती है किन्तु स्थान
भिन्न-भिन्न होता है ।। ८७-९३ ॥
॥ इत्यादिनाथविरचितायां
पञ्चशतसाहस्त्र्यां महाकालसंहितायां पूजाविधिर्नाम दशमः पटलः ॥ १० ॥
॥ इस प्रकार श्रीमद् आदिनाथविरचित
पचास हजार श्लोकों वाली महाकालसंहिता के कामकलाकाली खण्ड के पूजाविधि नामक दशम पटल
की आचार्य राधेश्याम चतुर्वेदी कृत 'ज्ञानवती'
हिन्दी व्याख्या सम्पूर्ण हुई ॥ १० ॥
आगे जारी ........ महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल 11
Post a Comment