सुधाधारा काली स्तोत्र
श्रीआदिनाथ द्वारा विरचित महाकाल संहिता में देवी गुह्यकाली का यह सुधाधारा- स्तोत्र प्रकाशित किया गया है । इसके नित्य पाठ से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चतुर्वर्गकी प्राप्ति होती है और चारों पुरुषार्थं सिद्ध हो जाते हैं। गुह्यकाली वे आदि शक्ति हैं जो अपने भक्त साधकका सदा अभीष्ट पूर्ण किया करती हैं। इनकी उपासना करनेवाले साधककी भक्ति मैं निरन्तर वृद्धि होती जाती है और अन्त में उसे मोक्ष भी प्राप्त हो जाता है ।
सुधाधारास्तवः स्तोत्रम्
Sudha dhara stav stotram
श्रीगुह्यकाल्याः सुधाधारास्तवः
सुधाधाराकाली स्तोत्रम्
॥ श्रीगुह्येश्वर्येनमः ॥
श्रीगुह्येश्वरी देवी को प्रणाम है।
॥ महाकाल उवाच ॥
अचिन्त्यामिताकार शक्ति स्वरूपा
प्रतिव्यक्त्यधिष्ठान सत्त्वैकमूर्तिः ।
निराकार निर्द्वन्द्व बोधैकगम्या
त्वमेका परब्रह्मरूपेण सिद्धा ॥ १॥
महाकाल ने कहा-देवि ! आपका आकार,
आपकी शक्ति और आपका स्वरूप ऐसा निःसीम (अपार) है कि उसकी कोई कल्पना
तक नहीं कर पा सकता । आपकी मूर्ति प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में सत्व (आत्म) रूप से
विराजमान है। आप ऐसी अकारहीन और सब प्रकार के द्वन्द्वों (प्रपंचों) से रहित हैं
कि केवल ज्ञान से ही आपके स्वरूप का ठीक-ठीक बोध हो पाता है। आप तो परब्रह्म रूप से
ही सिद्ध हैं (आप साक्षात् परब्रह्म ही हैं ) ।। १ ।
अगोत्राकृतित्वा दनैकान्तिकत्वा
दलक्ष्यागमत्वा दशेषाकरत्वात् ।
प्रपञ्चाल सत्वा दनारम्भकत्वात्
त्वमेका परब्रह्मरूपेण सिद्धा ॥ २॥
आपका न कोई गोत्र है,
न आकार है, न आपकी पूर्णता का किसी को ज्ञान है,
न आपकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में ही कोई जान पाया है, न आपके सब आकरों (उत्पत्ति स्थानों ) का ही किसी को ज्ञान है, न आप किसी प्रपंच के फेर में पड़ती और न कुछ आरम्भ ही करती हैं क्योंकि आप
तो साक्षात् परब्रह्म स्वरूपवाली हैं ॥ २ ॥
असाधारणत्वा दसम्बन्धकत्वात्
दभिन्नाशश्रयत्वा दनाकारकत्वात् ।
अविद्यात्मकत्वा दनाद्यन्तकत्वात्
त्वमेका परब्रह्मरूपेण सिद्धा ॥ ३॥
आप साधारण (अलौकिक) हैं। आपका किसी से
कोई सम्बन्ध नहीं है। आपका सब में आवास हैं (आप सर्वव्यापिनी हैं।) आपका कोई आकार
नहीं है। आप सब विद्याओं से परे हैं और आपका कोई आदि और अन्त नहीं है क्योंकि आप
तो साक्षात् परब्रह्म ही हैं ।। ३ ।।
यदा नैव धाता न विष्णुर्न रुद्रो
न कालो न वा पञ्चभूतानि चात्मा ।
तदा कारणीभूत सत्त्वैकमूर्तिः
स्त्वमेका परब्रह्मरूपेण सिद्धा ॥ ४॥
जब न ब्रह्मा थे,
न विष्णु थे, न रुद्र थे, न काल था, न पंचभूत (पृथ्वी, जल,
अग्नि, वायु, आकाश) थे,
न आत्मा था, उस समय सबका कारण बनी हुई (सबको
उत्पन्न करनेवाली) एक मात्र आपकी ही सत्य-रूपा मूर्ति थी (केवल आपका ही अस्तित्व
था) । ऐसी परब्रह्म रूपा कोई हैं तो एक आप ही हैं ॥ ४ ॥
न मीमांसका नैव काणाद तर्का
न साङ्ख्या न योगा न वेदान्तवेदाः ।
न देवा विदुस्ते निराकार भावं
त्वमेका परब्रह्मरूपेण सिद्धा ॥ ५॥
देवि ! आपके निराकार भाव (रूप) को
मीमांसक,
काणाद (वैशेषिक दर्शनवाले), तर्कवादी
(न्यायशास्त्रवाले), सांख्यवादी, योगवादी,
वेदान्ती, वेद और देवता कोई भी नहीं जान सका
क्योंकि आप तो परब्रह्म स्वरूपा हैं॥५॥
न ते नामगोत्रे न ते जन्ममृत्यू
न ते धामचेष्टे न ते दुःखसौख्ये ।
न ते मित्रशत्रू न ते बन्धमोक्षौ
त्वमेका परब्रह्मरूपेण सिद्धा ॥ ६॥
न आपका कोई नाम या गोत्र है,
न आपका कभी जन्म होता न मृत्यु होती, न आपका
कोई धाम है न आपकी कोई चेष्टा (क्रिया) ही है, न आपको दुःख होता
न सुख, न आपके शत्रु हैं न मित्र और न आपका बन्ध होता न मोक्ष,
क्योंकि आप तो एक मात्र परब्रह्म स्वरूपा है ।। ६ ॥
न बाला न च त्वं वयस्का न वृद्धा
न च स्त्री न षण्ढः पुमान्नैव च त्वम् ।
न च त्वं सुरी नासुरी किन्नरी वा
त्वमेका परब्रह्मरूपेण सिद्धा ॥ ७॥
न आप बाला हैं,
न युवती हैं, न वृद्धा हैं, न स्त्री हैं, न नपुंसक हैं, न
पुरुष हैं, न देवी हैं, न आसुरी
(राक्षसी) हैं और न किन्नरी हैं। आप तो साक्षात् एक मात्र परब्रह्म स्वरूपा हैं ॥
७ ॥
जले शीतलत्वं शुचौ दाहकत्वं
विधौ निर्मलत्वं रवौ तापकत्वम् ।
त्वमेवाम्बिके यस्य कस्यापि शक्तिः
त्वमेका परब्रह्मरूपेण सिद्धा ॥ ८॥
अंबिके ! आप ही जल में शीतलता,
अग्नि में दाहकता (जलाने की शक्ति), चन्द्रमा में
निर्मलता और सूर्य में ताप रूप से हैं। संसार में जिस किसी की जो भी शक्ति है वह
सब आप ही हैं क्योंकि आप ही एक मात्र परब्रह्म स्वरूपा हैं ।। ८ ।।
पपौ क्ष्वेडमुग्रं पुरा यन्महेशः
पुनः संहरत्यन्तकाले जगच्च ।
तवैव प्रसादान्न च स्वस्य शक्त्या
त्वमेका परब्रह्मरूपेण सिद्धा ॥ ९॥
महेश्वर शिव ने जो (समुद्र मन्थन के
समय) प्रचंड विष पी डाला था और फिर अन्त में जो शिव सब जगत् का संहार कर डालते हैं
वह सब काम वे अपनी शक्ति से नहीं वरन आपके प्रसाद से ही कर पाते हैं क्योंकि एक
मात्र परब्रह्म-स्वरूपा यदि कोई हैं तो आप ही हैं ॥ ९ ॥
करालाकृतीन्याननान्या श्रयन्ती
भजन्ती करेष्वस्रबाहुल्यमित्थम् ।
जगत्प्रीणनायासुराणां वधाय
त्वमेका परब्रह्मरूपेण सिद्धा ॥ १०॥
आप जो अनेक प्रकार की कराल मुखवाली
मूर्तियाँ बना बैठती हैं और हाथ में अनेक अस्त्र उठाए रहती हैं वह आप केवल संसार को
प्रसन्न और असुरों का वध करने के लिये ही धारण करती हैं। यों आप तो साक्षात्
परब्रह्म-स्वरूपा ही हैं।।१०।।
महाचण्ड - योगेश्वरी गुह्यकाली
कराली महाडामरी चंडहासा ।
जगद्ग्रासिनी चंडकापालिनी च
त्वमेका परब्रह्मरूपेण सिद्धा ॥ ११॥
यों तो आपके महाचण्ड- योगेश्वरी,
गुह्यकाली, कराली, महाडामरी,
चंडहासा, जगद्ग्रासिनी, चंडकापालिनी
आदि अनेक नाम हैं, पर वास्तव में आप तो एक मात्र
परब्रह्म-स्वरूपा ही हैं ।। ११ ।।
रवन्ती शिवाभिर्वहन्ती कपालं
जयन्ती सुरारीन् दमन्ती प्रमत्तान् ।
नटन्ती तपन्ती चलन्ती हसन्ती
त्वमेका परब्रह्मरूपेण सिद्धा ॥ १२॥
शिवाओं (शिव की शक्तियों सियारिनों)
के साथ चिल्लाती हुई, हाथ में कपाल लिए
हुई, देवताओं के शत्रुओं को जीतती हुई, दुष्टों का दमन करती हुई, नाचती हुई, ताप देती हुई, चलती और हँसती हुई भी आप एक मात्र
परब्रह्म- स्वरूपा ही हैं ।। १२ ।।
यथा विश्वमेकं वेरम्बरस्थं
प्रतिच्छायया तावदेवोदकेषु ।
समुद्भासतेऽनेकरूपं तथा वै
त्वमेका परब्रह्मरूपेण सिद्धा ॥ १३॥
जैसे आकाश में चमकनेवाले सूर्य की
प्रतिच्छाया (प्रतिबिम्ब) - से इस एक विश्व के ही अनेक रूप दिखाई देने लगते हैं
तथा जल में सूर्य के भी अनेक रूप दिखाई देने लगते हैं (किन्तु सूर्य तो एक ही है)
उसी प्रकार आप भी एक मात्र परब्रह्म स्वरूपा ही हैं ।। १३ ।।
अपादापि वाताधिकं धावसि त्वं
श्रुतिभ्यां विहीनाऽपि शब्दं शृणोषि ।
अनासापि जिघ्रस्यनेत्रापि पश्य-
स्यजिह्वाऽपि नानारसस्वाद विज्ञा
॥ १४॥
पैर न होने पर भी आप वायु से भी
अधिक तीव्र गति से दौड़ सकती हैं, कान न होने पर
भी सभी शब्द सुन सकती हैं, नाक न होने पर भी सब कुछ सूंघ
सकती हैं, आँख न होने पर भी सब कुछ देख सकती हैं और जीभ न
होने- पर भी सब रसों का स्वाद जान पा सकती हैं क्योंकि आप तो एक मात्र
परब्रह्मस्वरूपा है न ॥ १४ ॥
यथा भ्रामयित्वा मृदं चक्रमध्ये
कुलालो विधत्ते शरावं घटं च ।
महायन्त्रमध्ये च भूतान्यदृष्टे
सुरान्मानुषाঁस्त्वं सृजस्यादिसर्गे ॥ १५ ॥
जैसे कुम्हार ने चाकर मिट्टी चढ़ाकर
और चाक घुमाकर कसोरे और घड़े बना डालता है वैसे ही आप भी अपने महायन्त्र में
सृष्टि के आरम्भ में देवताओं और मनुष्यों की ऐसी रचना किया करती हैं जिसे कोई भी
प्राणी देख नहीं पाता ।। १५ ।।
यथा रङ्गरज्वर्क धृष्णिष्वकस्मा-
न्नृणां रौप्यदर्वीकराम्बुभ्रमः स्यात् ।
जगत्यत्र तत्तन्मये तद्वदेव ।
त्वमेकैव तत्तन्निवृत्तौ समस्तम् ॥ १६॥
जैसे राँगे में चाँदी का,
रस्सी में साँप का और सूर्य को किरणों में जल (मृगजल) का भ्रम होने लगता है उसी प्रकार संसार में भी लोगों को उस-उस
वस्तु का भ्रम होता रहता है किन्तु उन सबकी निवृत्ति होने पर वास्तव में एक आप ही विश्वरूप में शेष रहती हैं ।। १६ ।।
महाज्योतिराकारसिहासनं यत्-
स्वकीयान् सुरान् वाहयस्युग्र मूर्तिः
।
अवष्टभ्य पद्भ्यां शिवं भैरवं च
स्थिता तत्र मध्ये भवस्येव मुख्या ॥ १७ ॥
महाज्योति के समान प्रकाशमान जो छाप
का सिंहासन है उसे आप उग्रमूर्ति बनकर अपने देवताओं से ढुवाती हो और शिव तथा भैरव को
पैरों तले दबाकर उस सिंहासन के बीच प्रधान बनकर विराजमान हो जाती हो ॥ १७ ॥
क्व योगासनं योगमुद्रादिनीतिः
क्व गोमायुपोतः क्व कालानलश्च ।
जगन्मातरीदॄक् तवापूर्वलीला
कथं कारमस्मद्विधैर्देवि गम्या ॥ १८ ॥
कहाँ तो योगासन लगाकर योगमुद्रा आदि
धारण करके आपको प्राप्त करने का कठिन प्रयास और कहाँ उस कालानल (प्रलयाग्नि) के
सम्मुख सियार का बच्चा । उसी प्रकार हे जगन्माता ! हमारे जैसे लोग आपकी पूर्व लीला
को कैसे समझ पा सकते हैं ।। १८ ।।
विशुद्धा परा चिन्मयी स्वप्रकाशा-
मृतानन्दरूपा जगद्व्यापिका च ।
तवेदॄग्विधा या निराकारमूर्तेः
किमस्माभिरन्तर्हृदि ध्यायितव्यम् ॥ १९॥
माता ! आप तो विशुद्धा,
परा, चिन्मयी, अपने ही
प्रकाश से प्रकाशित, अमृता, (मोक्षदायिनी)
आनन्दरूपा और संसार में व्याप्त हैं। ऐसी
निराकार मूर्तिवाली आपका ध्यान भला हम जैसे लोग अपने हृदय के भीतर कैसे कर पा सकते
हैं ।। १९ ।।
महाघोरकालानल ज्वालजाला-
हिता व्यक्तवासा महाट्टाट्टहासा ।
जटाभारकाला महामुण्डमाला
विशाला त्वमीदृङ्मया ध्यायसेऽम्ब ॥ २०॥
माता! आप प्रलय की महाघोर अग्नि की
लपटों से घिरी रहती हैं, नग्न रहती हैं,
प्रचंड अट्टाहास करती रहती हैं, आपके सिर पर
विशाल जटाओं का जूड़ा है और आपके गले में विशाल नरमुंड माला पड़ी है। आपके ऐसे
(भयंकर) रूप का भला हमसे कैसे ध्यान किया जा सकेगा ॥ २० ॥
तपो नैव कुर्वन् वपुः खेदयामि
व्रजन्नापि तीर्थं पदे खञ्जयामि ।
पठन्नापि वेदं जनिं पावयामि
त्वदङ्घ्रिद्वये मङ्गलं साधयामि ॥ २१॥
मैं न तो तप करके अपना शरीर सुखाता
हूँ,
न तीर्थों में घूमकर अपने पैर ही थकाता हूँ और न वेद पढ़कर अपना
जीवन ही पवित्र किया करता हूँ। मैं तो बस आपके चरण-कमलों में ही अपना मंगल
(कल्याण) साधे चला जा रहा हूँ ।। २१ ।।
तिरस्कुर्वतोऽन्यामरोपासनां वै
परित्यक्तधर्माध्वरस्यास्य जन्तोः ।
त्वदाराधने न्यस्तचित्तस्य किं मे
करिष्यन्त्यमी धर्मराजस्य दूताः ॥ २२॥
मैंने अन्य सब देवताओं की उपासना
दूर कर छोड़ी है, धर्म-यज्ञों को भी
कभी से छोड़ चुका हूँ, मैं तो बस आपकी आराधना ही चित्त
एकाग्र किए बैठा हूँ, तब भला यम के दूत मेरा क्या कर लेंगे
।। २२ ।।
नमस्ये हरिं नैव धातारमीशं
न वह्निं न चार्कं न चेन्द्रादिदेवान् ।
शिवोदीरितानेकवाक्यप्रबन्धैः
स्त्वदर्चाविधिं केवलं किन्तु मन्ये ॥ २३ ॥
मैं विष्णु,
ब्रह्मा, शिव, अग्नि,
सूर्य, इन्द्र आदि किसी भी देवता के आगे नहीं
हूँ। मैं तो बस शिव के बताए हुए अनेक वाक्यों के द्वारा जो आपकी अर्चना की विधि है
केवल उसी को मानता हूँ ।। २३ ।।
न वा मां विनिन्दन्तु निन्दन्तु नाम
त्यजन्त्वम्ब वा ज्ञातयो मां त्यजन्तु ।
यमीया भटा नारके पातयन्तु
त्वमेका गतिर्मे त्वमेका गतिर्मे ॥ २४॥
माता ! चाहे कोई मेरी प्रशंसा करे
या निन्दा, मेरी जातिवाले भी मुझे छोड़ना
चाहें तो भले छोड़ दे और यम के दूत भी चाहे मुझे नरक में ही क्यों न ले जा पटके पर
मेरी तो एक मात्र गति (सहायिका ) आप ही हैं, आप ही हैं ।। २४
।।
सुधाधाराकाली स्तोत्रम् महात्म्य
महाकालरुद्रोदितं स्तोत्रमेतत्
सदा भक्तिभावेन योऽध्येति भक्तः ।
न चापन्न रोगो न शोको न मृत्यु
र्भवेत् सिद्धिरन्ते च कैवल्यलाभः ॥ २५॥
जो भक्त अत्यन्त भक्तिभाव से इस
महाकालरुद्र के बनाए हुए स्तोत्र का सदा पाठ करता रहेगा,
उस पर न कोई आपत्ति आवेगी, न उसे कोई कभी रोग
होगा, न शोक होगा और न उसको मृत्यु-कष्ट होगा । अन्त में उसे
सिद्धि प्राप्त हो जायगी और वह मुक्त हो जायगा ।। २५ ।।
इति ते कथितो दिव्यः सुधाधाराह्वयः
स्तवः ।
एतस्य सतताभ्यासात् सिद्धिः करतले
स्थिता ॥ २६ ॥
यह जो सुधाधार नाम का दिव्य स्तोत्र
कह सुनाया गया है इसका निरन्तर अभ्यास करते रहने से (पढ़ते रहने से) सारी सिद्धियां
हाथ में आ जाती हैं ॥ २६ ॥
॥ इत्यादिनाथविरचितायां
महाकालसंहितायां श्रीगुह्यकाल्याः सुधाधाराह्वयः स्तवः सम्पूर्णः ॥
गुह्यकाली मन्त्र
विश्वसारतन्त्र में गुह्यकाली की
उपासना की कथा, दीक्षा-प्रणाली और मन्त्रोद्धार
का विस्तार से विवरण दिया हुआ है। उनमें बताया गया है कि इनकी उपासना के लिये जप का
यह मन्त्र दिया गया है-
ॐ क्रीं क्रीं क्रीं हुं हुं ह्रीं
गुह्ये कालिके ।'
विश्वसारतन्त्र में ही लिखा है कि
यह मन्त्र किसी तान्त्रिक गुरु से लेना चाहिए। जो आठ बार शिष्य के कान में यह
मन्त्र कह दे । यदि काशी आदि क्षेत्रों में, शिवालय
में तीर्थ में अथवा ग्रहण काल में इस मन्त्र की दीक्षा ली जाय तो किसी प्रकार की
पूजा आदि की आवश्यकता नहीं होती, केवल आठ बार मन्त्र सुनाना
ही पर्याप्त होता है। इन सिद्ध देवी के लिये ही यह सुधाधारास्तव लिखा गया है जिसका
पाठ करनेवाले का निश्चय ही कल्याण होगा ।
॥ आदिनाथ द्वारा विरचित महाकाल- संहिता में गुह्यकाली का सुधाधारा नामक स्तोत्र पूर्ण हुआ ॥
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