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कर्मकाण्ड

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श्रीहरि स्तुति

श्रीहरि स्तुति

श्रीनरसिंहपुराण के अध्याय ३१ में वर्णित ध्रुवकृत इस श्रीहरि स्तुति का पाठ करने से सभी मनोरथ पूर्ण हो जाता है।

श्रीहरि स्तुति

श्रीहरि: स्तुति

shri Hari stuti

ध्रुवकृत श्रीहरि स्तुति

श्रीहरि स्तवन

श्रीहरि स्तुति:

ध्रुव उवाच

अखिलमुनिजननिवहनमितचरणः ।

खरकदनकरः । चपलचरितः ।

देवाराधितपादजलः ।

सजलजलधरश्यामः शमितसौभपतिशाल्बधामा ।

ध्रुव बोला - समस्त मुनिगण जिनके चरणकमलों की वन्दना करते हैं, जो खर राक्षस अथवा गर्दभरुपधारी धेनुकासुर का संहार करनेवाले हैं, जिनकी बाललीलाएँ चपलता से पूर्ण हैं, देवगण जिनके चरणोदक (गङ्गाजी) - की आराधना करते हैं, सजल मेघ के समान जिनका श्याम वर्ण है, सौभ विमान के अधिपति शाल्व के धाम (तेज) - को जिन्होंने सदा के लिये शान्त कर दिया है,

अभिरामरामातिविनयकृतनवरस-

रसापहतेन्द्रियसुरमणीविहितान्तः

करणानन्दः । अनादिनिधनः ।

जिन्होंने सुन्दर गोपवनिताओं के अत्यन्त विनयवश नूतन प्रेमरसमय रासलीला को प्रकट किया और उससे मोहित होनेवाली देववनिताओं के अन्तः करण में भी आनन्द का संचार किया, जिनका आदि और अन्त नहीं है,

अधननिजद्विजमित्रोद्धरणधीरः ।

अवधीरितसुरनाथनाथितविपक्षपक्षः ।

जिन्होंने अपने निर्धन मित्र सुदामा नामक ब्राह्मण का धीरतापूर्वक दैन्यदुःख से उद्धार किया, देवराज इन्द्र की प्रार्थना से जिन्होंने उनके शत्रुपक्ष को पराजित किया,

ऋक्षराजबिलप्रवेशापहतस्यमन्तकापमार्जित-

निजापवाददुरितहतत्रैलोक्यभारः ।

द्वारकावासनिरतः ।

ऋक्षराज जाम्बवान की गुहा में प्रवेश करके खोयी हुई स्यमन्तक मणि को लाकर जिन्होंने अपने ऊपर लगे हुए कलङ्करुप दुरित को दूर करके त्रिभुवन का भार हल्का किया है, जो द्वारकापुरी में नित्य निवास करते हैं,

स्वरितमधुरवेणुवादनश्रवणामृत-

प्रकटितातीन्द्रियज्ञानः । यमुनातटचरः ।

द्विजधेनुभृङ्गगणैस्त्यक्तनिजनिजाहारः ।

जो अपनी मधुर मुरली बजाकर श्रुतिमधुर अतीन्द्रिय-ज्ञान को प्रकट करते तथा यमुनातट पर विचरते हैं जिनके वंशीनाद को सुनने के लिये पक्षी, गौ और भृङ्गगण अपना-अपना आहार त्याग देते हैं,

संसारदुस्तरपारावारसमुत्तारणाङ्घिपोतः ।

स्वप्रतापानलहुतकालयवनः ।

वनमालाधरवरमणिकुण्डलालंकृतश्रवणः ।

जिनके चरणकमल दुस्तर संसार सागर से पार करने के लिये जहाजरूप हैं, जिन्होंने अपनी प्रतापाग्रि में कालयवन को होम दिया है, जो वनमालाधारी हैं, जिनके श्रवण सुन्दर मणिमय कुण्डलों से अलंकृत हैं,

नानाप्रसिद्धाभिधानः ।

निगमविबुधमुनिजनवचनमनोऽगोचरः ।

कनकपिशङ्गकौशेयवासोभगवान्

भृगुपदकौस्तुभविभूषितोरः स्थलः ।

जिनके अनेक प्रसिद्ध नाम हैं, जो वेदवाणी तथा देवता और मुनियों के भी मन- वाणी के अगोचर हैं, जो भगवान् सुवर्ण के समान पीत रेशमी वस्त्र धारण करते हैं, जिनका वक्षः स्थल भृगुजी के चरण- चिह्न तथा कौस्तुभमणि से अलंकृत है,

स्वदयिताक्रूरनिजजननीगोकुलपालक-

चतुर्भूजशङ्खचक्रगदापद्मतुलसी-

नवदलदामहारकेयूरकटकमुकुटालंकृतः ।

जो अपने प्रिय भक्त अक्रूर, माता देवकी और गोकुल के पालक हैं तथा जो अपनी चारों भुजाओं में शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म धारण किये नूतन तुलसीदल की माला, मुक्ताहार, केयूर, कड़ा और मुकुट आदि से विभूषित हैं,

सुनन्दनादिभागवतोपासितविश्वरुपः ।

पुराणपुरुषोत्तमः । उत्तमश्लोकः ।

लोकावासो वासुदेवः ।

सुनन्दन आदि भगवद्भक्त जिन विश्वरुप हरि की उपासना करते हैं, जो पुराण- पुरुषोत्तम हैं, पुण्ययशवाले हैं तथा समस्त लोकों के आवास- स्थान वासुदेव हैं,

श्रीदेवकीजठरसम्भूतः ।

भूतपतिविरञ्चिनतचरणारविन्दः ।

वृन्दावनकृतकेलिगोपिकाजनश्रमापहः ।

जो देवकीके उदर से प्रकट हुए हैं, भूतनाथ शिव तथा तथा ब्रह्मजी ने जिनके चरणारविन्दों पर मस्तक झुकाया है, जो वृन्दावन में की गयी लीला से थकी हुई गोपियों के श्रम को दूर करनेवाले हैं,

सततं सम्पादितसुजनकामः ।

कुन्दनिभशङ्खधरमिन्दुनिभवक्त्रं

सुन्दरसुदर्शनमुदारतरहासं नतोऽस्मि ।

सज्जनों के मनोरथों को जो सर्वदा पूर्ण किया करते हैं, ऐसी महिमावाले हे सर्वेश्वर ! जो कुन्द के समान उज्ज्वल शङ्ख धारण करते हैं, जिसका चन्द्रमा के समान सुन्दर मुख हैं, सुन्दर नेत्र हैं तथा अत्यन्त मनोहर मुसकान है,

स्थानाभिकामी तपसि स्थितोऽहं

त्वां दृष्टवान् साधुमुनीन्द्रगुह्यम् ।

काचं विचिन्वन्निव दिव्यरत्नं

स्वामिन् कृतार्थोऽस्मि वरान्न याचे ॥९०॥

ऐसे अत्यन्त हृदयहारी आपके इस रुप को, जो ज्ञानियों द्वारा वन्दित है, मैं प्रणाम करता हूँ ।  मैं उत्तम स्थान प्राप्त करने की इच्छा से तपस्या में प्रवृत्त हुआ और बड़े- बड़े मुनीश्वरों के लिये भी जिनका दर्शन पाना असम्भव है, उन्हीं आप परमेश्वर का दर्शन पा गया ठीक उसी तरह, जैसे काँच की खोज करनेवाला कोई मनुष्य भाग्यवश दिव्य रत्न हस्तगत कर ले ।

अपूर्वदृष्टे तव पादपद्मे दृष्ट्वा

दृढं नाथ नहि त्यजामि ।

कामान् न याचे स हि कोऽपि मूढो

यः कल्पवृक्षात् तुषमात्रमिच्छेत् ॥९१॥

स्वामिन् ! मैं कृतार्थ हो गया, अब मैं कोई वर नहीं माँगता ।   हे नाथ ! जिनका दर्शन अपूर्व है - पहले कभी उपलब्ध नहीं हुआ है, उन आपके चरणकमलों का दर्शन पाकर अब मैं इन्हें छोड़ नहीं सकता । मैं अब भोगों की याचना नहीं करुँगा; ऐसा कोई मूर्ख ही होगा, जो कल्पवृक्ष से केवल भूसी पाना चाहेगा?

त्वां मोक्षबीजं शरणं प्रपन्नः

शक्नोमि भोक्तुं न बहिः सुखानि ।

रत्नाकरे देव सति स्वनाथे

विभूषणं काचमयं न युक्तम् ॥९२॥

देव ! आज मैं मोक्ष के कारणभूत आप परमेश्वर की शरण में आ पड़ा हूँ, अब बाह्य विषय- सुखों को मैं नहीं भोग सकता । जब रत्नों की खान समुद्र अपना मालिक हो जाय, तब काँच का भूषण पहनना कभी उचित नहीं हो सकता ।

अतो न याचे वरमीश

युष्मतपादाब्जभक्तिं सततं ममास्तु ।

इमं वरं देववर प्रयच्छ

पुनः पुनस्त्वामिदमेव याचे ॥९३॥

अतः ईश ! अब मैं दूसरा कोई वर नहीं माँगता;आपके चरण- कमलों में मेरी सदा भक्ति बनी रहे, देववर ! मुझे यही वर दीजिये । मैं बारंबार आपसे यही प्रार्थना करता हूँ 

इति श्रीनरसिंहपुराणे श्रीहरि: स्तुति: नाम एकत्रिंशोऽध्यायः ॥

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