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परमहंसगीता श्रीमद्भागवतमहापुराण के
पंचम स्कन्ध के १०-१४ अन्तर्गत रहूगणोपाख्यान के रूप में प्राप्त होती है। इसमें
परमहंस अवस्था में विचरण करते परमज्ञानी ब्राह्मण भरत की सिन्धुनरेश रहूगण से भेंट
होने तथा उनके द्वारा राजा को दिये गये गूढ़ तात्त्विक उपदेशों का वर्णन है। भरत
नामक वे ब्राह्मण श्रेष्ठ सर्वदा अद्वैतभाव में स्थित रहने के कारण बाह्यतः जड़
प्रतीत होते थे, अतः उन्हें जडभरत भी कहा जाता
है। इस गीता में दस इन्द्रियाँ तथा अहंकार- ये ग्यारह वृत्तियाँ मन की बतायी गयी
हैं, जो माया के वशीभूत होकर सुख-दुःख का अनुभव कराती हैं।
जब ज्ञानोदय द्वारा माया का तिरस्कारकर आसक्ति को छोड़ने से आत्मतत्त्व का ज्ञान
होता है, तब मनुष्य सुख-दुःख से परे हो जाता है, वह सदा परम आत्मानन्द में डूबा रहता है। इस गीता में विषयवार्ता का त्याग,
आत्मानुसन्धान, अनासक्ति तथा गुरु एवं श्रीहरि
के चरणों का आश्रय ही माया से बचने के उपाय बताये गये हैं। पुनर्जन्मविषयक
संक्षिप्त दृष्टान्त तथा भवाटवी के विस्तृत रूपक के कारण यह गीता रोचक तथा सुबोध
भी हो गयी है। पाँच अध्यायोंवाली यह गीता यहाँ सानुवाद प्रस्तुत की जा रही
है-
परमहंसगीता अध्याय १
Paramahans geeta
परमहंस गीता पहला अध्याय
जडभरत और राजा रहूगण की भेंट
परमहंस गीता प्रथमोऽध्यायः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
॥ प्रथमोऽध्यायः ॥
[ जडभरत- रहूगण-संवाद ]
श्रीशुक उवाच
अथ सिन्धुसौवीरपते रहूगणस्य व्रजत
इक्षुमत्यास्तटे तत्कुलपतिना
शिबिका-
वाहपुरुषान्वेषणसमये दैवेनोपसादितः
स द्विजवर उपलब्ध एष पीवा युवा
संहननाङ्गो गोखरवद्धुरं वोढुमलमिति
पूर्वविष्टिगृहीतैः सह गृहीतः
प्रसभमतदर्ह
उवाह शिबिकां स महानुभावः ॥ १॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं - [राजन्!]
एक बार सिन्धुसौवीर देश का स्वामी राजा रहूगण पालकी पर चढ़कर जा रहा था। जब वह इक्षुमती
नदी के किनारे पहुँचा, तब उसकी पालकी
उठानेवाले कहारों के जमादार को एक कहार की आवश्यकता पड़ी। कहार की खोज करते समय
दैववश उसे ये ब्राह्मण देवता मिल गये। इन्हें देखकर उसने सोचा, 'यह मनुष्य हृष्ट-पुष्ट, जवान और गठीले अंगोंवाला है।
इसलिये यह तो बैल या गधे के समान अच्छी तरह बोझा ढो सकता है।' यह सोचकर उसने बेगार में पकड़े हुए अन्य कहारों के साथ इन्हें भी बलात्
पकड़कर पालकी में जोड़ दिया। महात्मा भरतजी यद्यपि किसी प्रकार इस कार्य के योग्य
नहीं थे, तो भी वे बिना कुछ बोले चुपचाप पालकी को उठा ले चले
॥ १ ॥
यदा हि
द्विजवरस्येषुमात्रावलोकानुगतेर्न
समाहिता पुरुषगतिस्तदा विषमगतां
स्वशिबिकां रहूगण उपधार्य
पुरुषानधिवहत
आह हे वोढारः साध्वतिक्रमत किमिति
विषममुह्यते यानमिति ॥ २॥
वे द्विजवर,
कोई जीव पैरों तले दब न जाय–इस डर से आगे की एक
बाण पृथ्वी देखकर चलते थे। इसलिये दूसरे कहारों के साथ उनकी चाल का मेल नहीं खाता
था; अतः जब पालकी टेढ़ी-सीधी होने लगी, तब यह देखकर राजा रहूगण ने पालकी उठानेवालों से कहा - ' अरे कहारो ! अच्छी तरह चलो, पालकी को इस प्रकार
ऊँची-नीची करके क्यों चलते हो?' ॥ २ ॥
अथ त ईश्वरवचः सोपालम्भमुपाकर्ण्यो-
पायतुरीयाच्छङ्कितमनसस्तं
विज्ञापयां बभूवुः ॥ ३॥
तब अपने स्वामी का यह आक्षेपयुक्त
वचन सुनकर कहारों को डर लगा कि कहीं राजा उन्हें दण्ड न दें। इसलिये उन्होंने राजा
से इस प्रकार निवेदन किया ॥ ३ ॥
न वयं नरदेव प्रमत्ता भवन्नियमानुपथाः
साध्वेव वहामः अयमधुनैव नियुक्तोऽपि
न द्रुतं व्रजति नानेन सह वोढुमु ह
वयं
पारयाम इति ॥ ४॥
'महाराज ! यह हमारा प्रमाद नहीं
है, हम आपकी नियम- मर्यादा के अनुसार ठीक-ठीक ही पालकी ले चल
रहे हैं। यह एक नया कहार अभी-अभी पालकी में लगाया गया है तो भी यह जल्दी-जल्दी
नहीं चलता। हमलोग इसके साथ पालकी नहीं ले जा सकते' ॥ ४ ॥
सांसर्गिको दोष एव नूनमेकस्यापि
सर्वेषां
सांसर्गिकाणां भवितुमर्हतीति
निश्चित्य
निशम्य कृपणवचो राजा रहूगण उपासित-
वृद्धोऽपि निसर्गेण बलात्कृत
ईषदुत्थित-
मन्युरविस्पष्टब्रह्मतेजसं
जातवेदसमिव
रजसाऽऽवृतमतिराह ॥ ५॥
कहारों के ये दीन वचन सुनकर राजा
रहूगण ने सोचा, 'संसर्ग से उत्पन्न होनेवाला
दोष एक व्यक्ति में होने पर भी उससे सम्बन्ध रखनेवाले सभी पुरुषों में आ सकता है।
इसलिये यदि इसका प्रतीकार न किया गया तो धीरे-धीरे ये सभी कहार अपनी चाल बिगाड़
लेंगे।' ऐसा सोचकर राजा रहूगण को कुछ क्रोध हो आया। यद्यपि
उसने महापुरुषों का सेवन किया था तथापि क्षत्रियस्वभाववश बलात् उसकी बुद्धि रजोगुण
से व्याप्त हो गयी और वह उन द्विजश्रेष्ठ से, जिनका
ब्रह्मतेज भस्म से ढके हुए अग्नि के समान प्रकट नहीं था, इस
प्रकार व्यंग्य भरे वचन कहने लगा- ॥ ५ ॥
अहो कष्टं
भ्रातर्व्यक्तमुरुपरिश्रान्तो दीर्घ-
मध्वानमेक एव ऊहिवान् सुचिरं
नातिपीवा
न संहननाङ्गो जरसा चोपद्रुतो भवान्
सखे
नो एवापर एते सङ्घट्टिन इति बहु
विप्रलब्धो-
ऽप्यविद्यया रचितद्रव्यगुणकर्माशयस्व-
चरमकलेवरेऽवस्तुनि संस्थानविशेषे-
ऽहंममेत्यनध्यारोपितमिथ्याप्रत्ययो
ब्रह्मभूतस्तूष्णीं शिबिकां
पूर्ववदुवाह ॥ ६॥
'अरे भैया ! बड़े दुःख की बात है,
अवश्य ही तुम बहुत थक गये हो। ज्ञात होता है, तुम्हारे
इन साथियों ने तुम्हें तनिक भी सहारा नहीं लगाया। इतनी दूर से तुम अकेले ही बड़ी
देर से पालकी ढोते चले आ रहे हो। तुम्हारा शरीर भी तो विशेष मोटा-ताजा और हट्टा-
कट्टा नहीं है, और मित्र ! बुढ़ापे ने अलग तुम्हें दबा रखा
है।' इस प्रकार बहुत ताना मारने पर भी वे पहले की ही भाँति
चुपचाप पालकी उठाये चलते रहे! उन्होंने इसका कुछ भी बुरा न माना; क्योंकि उनकी दृष्टि में तो पंचभूत, इन्द्रिय और
अन्तःकरण का संघात यह अपना अन्तिम शरीर अविद्या का ही कार्य था। वह विविध अंगों से
युक्त दिखायी देने पर भी वस्तुतः था ही नहीं, इसलिये उसमें
उनका मैं- मेरेपन का मिथ्या अध्यास सर्वथा निवृत्त हो गया था और वे ब्रह्मरूप हो
गये थे ॥ ६ ॥
अथ पुनः स्वशिबिकायां विषमगतायां
प्रकुपित उवाच
रहूगणः किमिदमरे त्वं
जीवन्मृतो मां कदर्थीकृत्य
भर्तृशासन-
मतिचरसि प्रमत्तस्य च ते करोमि
चिकित्सां दण्डपाणिरिव जनताया
यथा प्रकृतिं स्वां भजिष्यस इति ॥
७॥
(किन्तु) पालकी अब भी सीधी चाल से
नहीं चल रही है- यह देखकर राजा रहूगण क्रोध से आग-बबूला हो गया और कहने लगा,
'अरे! यह क्या? क्या तू जीता ही मर गया है?
तू मेरा निरादर करके (मेरी) आज्ञा का उल्लंघन कर रहा है ! मालूम
होता है, तू सर्वथा प्रमादी है। अरे! जैसे दण्डपाणि यमराज
जनसमुदाय को उसके अपराधों के लिये दण्ड देते हैं, उसी प्रकार
मैं भी अभी तेरा इलाज किये देता हूँ। तब तेरे होश ठिकाने आ जायँगे ' ॥ ७ ॥
एवं बह्वबद्धमपि भाषमाणं
नरदेवाभिमानं
रजसा तमसानुविद्धेन मदेन
तिरस्कृताशेष-
भगवत्प्रियनिकेतं पण्डितमानिनं स
भगवान्
ब्राह्मणो ब्रह्मभूतः
सर्वभूतसुहृदात्मा
योगेश्वरचर्यायां
नातिव्युत्पन्नमतिं स्मयमान
इव विगतस्मय इदमाह ॥ ८॥
रहूगण को राजा होने का अभिमान था,
इसलिये वह इसी प्रकार बहुत-सी अनाप-शनाप बातें बोल गया। वह अपने को
बड़ा पण्डित समझता था, अतः रज-तमयुक्त अभिमान के वशीभूत होकर
उसने भगवान् के अनन्य प्रीतिपात्र भक्तवर भरतजी का तिरस्कार कर डाला । योगेश्वरों की
विचित्र कहनी करनी का तो उसे कुछ पता ही न था । उसकी ऐसी कच्ची बुद्धि देखकर वे
सम्पूर्ण प्राणियों के सुहृद् एवं आत्मा, ब्रह्मभूत ब्राह्मण
देवता मुसकराये और बिना किसी प्रकार का अभिमान किये इस प्रकार कहने लगे ॥ ८ ॥
ब्राह्मण उवाच
त्वयोदितं व्यक्तमविप्रलब्धं
भर्तुः स मे स्याद्यदि वीर भारः ।
गन्तुर्यदि स्यादधिगम्यमध्वा
पीवेति राशौ न विदां प्रवादः ॥ ९॥
जडभरत ने कहा- राजन् ! तुमने जो कुछ
कहा वह यथार्थ है । उसमें कोई उलाहना नहीं है। यदि भार नाम की कोई वस्तु है तो
ढोनेवाले के लिये है, यदि कोई मार्ग है
तो वह चलनेवाले के लिये है। मोटापन भी उसी का है, यह सब शरीर
के लिये कहा जाता है, आत्मा के लिये नहीं । ज्ञानीजन ऐसी बात
नहीं करते ॥ ९ ॥
स्थौल्यं कार्श्यं व्याधय आधयश्च
क्षुत्तृड्भयं कलिरिच्छा जरा च ।
निद्रा रतिर्मन्युरहं मदः शुचो
देहेन जातस्य हि मे न सन्ति ॥ १०॥
स्थूलता,
कृशता, आधि, व्याधि,
भूख, प्यास, भय, कलह, इच्छा, बुढ़ापा, निद्रा, प्रेम, क्रोध, अभिमान और शोक – ये सब धर्म देहाभिमान को लेकर
उत्पन्न होनेवाले जीव में रहते हैं; मुझमें इनका लेश भी नहीं
है ॥ १० ॥
जीवन्मृतत्वं नियमेन राजन्
आद्यन्तवद्यद्विकृतस्य दृष्टम् ।
स्वस्वाम्यभावो ध्रुव ईड्य यत्र
तर्ह्युच्यतेऽसौ विधिकृत्ययोगः ॥
११॥
राजन् ! तुमने जो जीने-मरने की बात
कही-सो जितने भी विकारी पदार्थ हैं, उन
सभी में नियमितरूप से ये दोनों बातें देखी जाती हैं; क्योंकि
वे सभी आदि- अन्तवाले हैं। यशस्वी नरेश ! जहाँ स्वामी सेवकभाव स्थिर हो, वहीं आज्ञापालनादि का नियम भी लागू हो सकता है ॥ ११ ॥
विशेषबुद्धेर्विवरं मनाक्च
पश्याम यन्न व्यवहारतोऽन्यत् ।
क ईश्वरस्तत्र किमीशितव्यं
तथापि राजन् करवाम किं ते ॥ १२॥
'तुम राजा हो और मैं प्रजा हूँ'
इस प्रकार की भेदबुद्धि के लिये मुझे व्यवहार के सिवा और कहीं तनिक
भी अवकाश नहीं दिखायी देता। परमार्थदृष्टि से देखा जाय तो किसे स्वामी कहें और
किसे सेवक? फिर भी राजन्! तुम्हें यदि स्वामित्व का अभिमान
है तो कहो, मैं तुम्हारी क्या सेवा करूँ? ॥ १२ ॥
उन्मत्तमत्तजडवत्स्वसंस्थां
गतस्य मे वीर चिकित्सितेन ।
अर्थः कियान् भवता शिक्षितेन
स्तब्धप्रमत्तस्य च पिष्टपेषः ॥ १३॥
वीरवर! मैं मत्त,
उन्मत्त और जड़ के समान अपनी ही स्थिति में रहता हूँ। मेरा इलाज
करके तुम्हें क्या हाथ लगेगा? यदि मैं वास्तव में जड और
प्रमादी ही हूँ तो भी मुझे शिक्षा देना पिसे हुए को पीसने के समान व्यर्थ ही होगा
॥ १३ ॥
श्रीशुक उवाच
एतावदनुवादपरिभाषया प्रत्युदीर्य
मुनिवर
उपशमशील उपरतानात्म्यनिमित्त उपभोगेन
कर्मारब्धं व्यपनयन् राजयानमपि
तथोवाह ॥ १४॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं -
[परीक्षित्!] मुनिवर जडभरत यथार्थ तत्त्व का उपदेश करते हुए इतना उत्तर देकर मौन
हो गये। उनका देहात्मबुद्धि का हेतुभूत अज्ञान निवृत्त हो चुका था,
इसलिये वे परम शान्त हो गये थे । अतः इतना कहकर भोग द्वारा
प्रारब्धक्षय करने के लिये वे फिर पहले के ही समान उस पालकी को कन्धे पर लेकर चलने
लगे ॥ १४ ॥
स चापि पाण्डवेय
सिन्धुसौवीरपतिस्तत्त्व-
जिज्ञासायां सम्यक्
श्रद्धयाधिकृताधिकार-
स्तद्धृदयग्रन्थिमोचनं द्विजवच
आश्रुत्य बहु
योगग्रन्थसम्मतं त्वरयावरुह्य शिरसा
पादमूलमुपसृतः क्षमापयन् विगत-
नृपदेवस्मय उवाच ॥ १५॥
परीक्षित्! सिन्धु-सौवीरनरेश रहूगण
भी अपनी उत्तम श्रद्धा कारण तत्त्वजिज्ञासा का पूरा अधिकारी था। जब उसने उन
द्विजश्रेष्ठ के अनेकों योग-ग्रन्थों से समर्थित और हृदय की ग्रन्थि का छेदन
करनेवाले ये वाक्य सुने, तब वह तत्काल पालकी
से उतर पड़ा। उसका राजमद सर्वथा दूर हो गया और वह उनके चरणों में सिर रखकर अपना
अपराध क्षमा कराते हुए इस प्रकार कहने लगा ॥ १५ ॥
कस्त्वं निगूढश्चरसि द्विजानां
बिभर्षि सूत्रं कतमोऽवधूतः ।
कस्यासि कुत्रत्य इहापि
कस्मात्क्षेमाय
नश्चेदसि नोत शुक्लः ॥ १६॥
[देव!] आपने द्विजों का चिह्न
यज्ञोपवीत धारण कर रखा है, बतलाइये इस प्रकार
प्रच्छन्नभाव से विचरनेवाले आप कौन हैं? क्या आप दत्तात्रेय
आदि अवधूतों में से कोई हैं? आप किसके पुत्र हैं, आपका कहाँ जन्म हुआ है और यहाँ कैसे आपका पदार्पण हुआ है? यदि आप हमारा कल्याण करने पधारे हैं तो क्या आप साक्षात् सत्त्वमूर्ति
भगवान् कपिलजी ही तो नहीं हैं ? ॥ १६ ॥
नाहं विशङ्के सुरराजवज्रान्न
त्र्यक्षशूलान्न यमस्य दण्डात् ।
नाग्न्यर्कसोमानिलवित्तपास्त्राच्छङ्के
भृशं ब्रह्मकुलावमानात् ॥ १७॥
मुझे इन्द्र के वज्र का कोई डर नहीं
है,
न मैं महादेवजी के त्रिशूल से डरता हूँ और न यमराज के दण्ड से मुझे
अग्नि, सूर्य, चन्द्र, वायु और कुबेर के अस्त्र-शस्त्रों का भी कोई भय नहीं है; परन्तु मैं ब्राह्मणकुल के अपमान से बहुत ही डरता हूँ ॥ १७ ॥
तद्ब्रूह्यसङ्गो जडवन्निगूढ-
विज्ञानवीर्यो विचरस्यपारः ।
वचांसि योगग्रथितानि साधो
न नः क्षमन्ते मनसापि भेत्तुम् ॥
१८॥
अतः कृपया बतलाइये,
इस प्रकार अपने विज्ञान और शक्ति को छिपाकर मूर्खो की भाँति
विचरनेवाले आप कौन हैं? विषयों से तो आप सर्वथा अनासक्त जान
पड़ते हैं। मुझे आपकी कोई थाह नहीं मिल रही है। हे साधो ! आपके योगयुक्त वाक्यों की
बुद्धि द्वारा आलोचना करने पर भी मेरा सन्देह दूर नहीं होता ॥ १८ ॥
अहं च योगेश्वरमात्मतत्त्वविदां
मुनीनां परमं गुरुं वै ।
प्रष्टुं प्रवृत्तः किमिहारणं
तत्साक्षाद्धरिं
ज्ञानकलावतीर्णम् ॥ १९॥
मैं आत्मज्ञानी मुनियों के परम गुरु
और साक्षात् श्रीहरि की ज्ञानशक्ति के अवतार योगेश्वर भगवान् कपिल से यह पूछने के
लिये जा रहा था कि इस लोक में एकमात्र शरण लेनेयोग्य कौन है ?
॥ १९ ॥
स वै भवाँल्लोकनिरीक्षणार्थ-
मव्यक्तलिङ्गो विचरत्यपि स्वित् ।
योगेश्वराणां गतिमन्धबुद्धिः
कथं विचक्षीत गृहानुबन्धः ॥ २०॥
क्या आप वे कपिलमुनि ही हैं,
जो लोकों की दशा देखने के लिये इस प्रकार अपना रूप छिपाकर विचर रहे
हैं? भला, घर में आसक्त रहनेवाला
विवेकहीन पुरुष योगेश्वरों की गति कैसे जान सकता है? ॥ २० ॥
दृष्टः श्रमः कर्मत आत्मनो वै
भर्तुर्गन्तुर्भवतश्चानुमन्ये ।
यथासतोदानयनाद्यभावात्समूल
इष्टो व्यवहारमार्गः ॥ २१॥
मैंने युद्धादि कर्मों में अपने को
श्रम होते देखा है, इसलिये मेरा अनुमान
है कि बोझा ढोने और मार्ग में चलने से आपको भी अवश्य ही होता होगा। मुझे तो
व्यवहार मार्ग भी सत्य ही जान पड़ता है; क्योंकि मिथ्या घड़े
से जल लाना आदि कार्य नहीं होता ॥ २१ ॥
स्थाल्यग्नितापात्पयसोऽभिताप-
स्तत्तापतस्तण्डुलगर्भरन्धिः ।
देहेन्द्रियास्वाशयसन्निकर्षा-
त्तत्संसृतिः पुरुषस्यानुरोधात् ॥
२२॥
(देहादि के धर्मों का आत्मा पर कोई प्रभाव ही
नहीं होता, ऐसी बात भी नहीं है) चूल्हे पर
रखी हुई बटलोई जब अग्नि से तपने लगती है, तब उसका जल भी
खौलने लगता है और फिर उस जल से चावल का भीतरी भाग भी पक जाता है। इसी प्रकार अपनी
उपाधि के धर्मो का अनुवर्तन करने के कारण देह, इन्द्रिय,
प्राण और मन की सन्निधि से आत्मा को भी उनके धर्म श्रमादि का अनुभव
होता ही है॥ २२ ॥
शास्ताभिगोप्ता नृपतिः प्रजानां
यः किङ्करो वै न पिनष्टि पिष्टम् ।
स्वधर्ममाराधनमच्युतस्य
यदीहमानो विजहात्यघौघम् ॥ २३॥
आपने जो दण्डादि की व्यर्थता बतायी,
सो राजा तो प्रजा का शासन और पालन करने के लिये नियुक्त किया हुआ
उसका दास ही है। उसका उन्मत्तादि को दण्ड देना पिसे हुए को पीसने के समान व्यर्थ
नहीं हो सकता; क्योंकि अपने धर्म का आचरण करना भगवान् की
सेवा ही है, उसे करनेवाला व्यक्ति अपनी सम्पूर्ण पापराशि को
नष्ट कर देता है ॥ २३ ॥
तन्मे भवान् नरदेवाभिमानमदेन
तुच्छीकृतसत्तमस्य ।
कृषीष्ट मैत्री दृशमार्तबन्धो
यथा तरे सदवध्यानमंहः ॥ २४॥
दीनबन्धो ! राजत्व के अभिमान से
उन्मत्त होकर मैंने आप-जैसे परम साधु की अवज्ञा की है । अब आप ऐसी कृपा दृष्टि
कीजिये,
जिससे इस साधु-अवज्ञारूप अपराध से मैं मुक्त हो जाऊँ ॥ २४ ॥
न विक्रिया विश्वसुहृत्सखस्य
साम्येन वीताभिमतेस्तवापि ।
महद्विमानात्स्वकृताद्धि मादृ-
ङ्नङ्क्ष्यत्यदूरादपि शूलपाणिः ॥
२५॥
आप देहाभिमानशून्य और विश्वबन्धु
श्रीहरि के अनन्य भक्त हैं; इसलिये सब में समान
दृष्टि होने से इस मानापमान के कारण आपमें कोई विकार नहीं हो सकता तथापि एक
महापुरुष का अपमान करने के कारण मेरे जैसा पुरुष साक्षात् त्रिशूलपाणि महादेवजी के
समान प्रभावशाली होने पर भी, अपने अपराध से अवश्य थोड़े ही
काल में नष्ट हो जायगा ।। २५ ।।
॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे परमहंसगीतायां प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
आगे जारी........ परमहंस गीता
अध्याय 2
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