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गुरु गीता
भगवान् शिव और माँ भगवती पार्वती का
यह संवाद स्कन्द पुराण का अंग है। स्कन्द-भगवान् कार्तिकेय माँ पार्वती और भवान
शिव के पुत्र हैं। स्कन्द पुराण में भगवान् शिव ने गुरु की महत्ता का बखान किया
है। गुरु और उसकी महत्ता की व्याख्या, गुरु
का स्वरूप, गुरु पूजा करने की विधि, गुरु
गीता को पढने के लाभ आदि का वर्णन इस महान ग्रन्थ में किया गया है।
सद्गुरु कौन हो सकता है,
उसकी कैसी महिमा है। शिष्य की योग्यता, उसकी
मर्यादा, व्यवहार, अनुशासन आदि को भी
पूर्ण रूपेण जानना नितान्त आवश्यक है। गुरु की शरण में जाने से शिष्य को पूर्णत्व
प्राप्त होता है तथा वह स्वयं ब्रह्मरूप हो जाता है। उसके सभी धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य आदि समाप्त हो जाते हैं तथा केवल एकमात्र चैतन्य ही शेष रह जाता
है। वह गुणातीत व रूपातीत हो जाता है, जो कि उसकी अन्तिम गति
है। यही उसका गन्तव्य है, जहाँ वह पहुँच जाता है। यही उसका
स्वरूप है, जिसे वह प्राप्त कर लेता है।
गुरु गीता
श्री गणेशायनमः।
श्री सरस्वत्यै नमः।
श्री गुरुभ्योनमः।
विनियोगः
ॐ अस्य श्रीगुरुगीतास्तोत्रमंत्रस्य
भगवान् सदाशिवऋषिः। नानाविधानि छंदांसि। श्री गुरुपरमात्मा देवता। हं बीजं। सः
शक्तिः। सोऽहं कीलकं। श्रीगुरुप्रसादसिद्धयर्थे जपे विनियोगः॥
अथ करन्यासः
ॐ हं सां सूर्यात्मने अंगुष्ठाभ्यां
नमः।
ॐ हं सीं सोमात्मने तर्जनीभ्यां
नमः।
ॐ हं सूं निरंजनात्मने मध्यमाभ्यां
नमः।
ॐ हं सैं निराभासात्मने
अनामिकाभ्यां नमः।
ॐ हं सौं अतनुसूक्ष्मात्मने कनिष्ठिकाभ्यां
नमः।
ॐ हं सः अव्यक्तात्मने
करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।
इति करन्यासः।
अथ हृदयादिन्यासः
ॐ हं सां सूर्यात्मने हृदयाय नमः।
ॐ हं सीं सोमात्मने शिरसे स्वाहा।
ॐ हं सूं निरंजनात्मने शिखायै वषट्।
ॐ हं सैं निराभासात्मने कवचाय हुं।
ॐ हं सौं अतनुसूक्ष्मात्मने नेत्रत्रयाय
वौषट्।
ॐ हं सः अव्यक्तात्म्ने अस्राय फट्।
ॐ ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोमिति
दिग्बन्धः।
इति हृदयादिन्यासः।
अथ गुरु गीता प्रथमोऽध्यायः
अचिन्त्याव्यक्तरूपाय निर्गुणाय
गुणात्मने।
समस्त जगदाधारमूर्तये ब्रह्मणे नमः॥1.1॥
जो ब्रह्म अचिन्त्य,
अव्यक्त, तीनों गुणों (सत्, रज़ और तम) से रहित (फिर भी देखनेवालों के अज्ञान की उपाधि से)
त्रिगुणात्मक और समस्त जगत का अधिष्ठान रूप है, ऐसे ब्रह्म
को नमस्कार हो।
ऋषयः ऊचुः
सूत सूत महाप्राज्ञ निगमागमपारग।
गुरुस्वरूपमस्माकं ब्रूहि
सर्वमलापहम्॥1.2॥
ऋषियों ने कहा :- हे महाज्ञानी,
हे वेद-वेदांगों के निष्णात! प्यारे सूत जी! सर्व पापों का नाश
करनेवाले गुरु का स्वरूप हमें सुनाओ।
यस्य श्रवणमात्रेण देही
दुःखाद्विमुच्यते।
येन मार्गेण मुनयः सर्वज्ञत्वं
प्रपेदिरे॥1.3॥
यत्प्राप्य न पुनर्याति नरः
संसारबन्धनम्।
तथाविधं परं तत्वं वक्तव्यमधुना
त्वया॥1.4॥
जिसको सुनने मात्र से मनुष्य दुःख
से विमुक्त हो जाता है, जिस उपाय से
मुनियों ने सर्वज्ञता प्राप्त की है, जिसको प्राप्त करके
मनुष्य फ़िर से संसार बन्धन में नहीं बँधता है, ऐसे परम तत्व
का कथन आप करें।
गुह्यादगुह्यतमं सारं गुरुगीता
विशेषतः।
त्वत्प्रसादाच्च श्रोतव्या तत्सर्वं
ब्रूहि सूत नः॥1.5॥
जो तत्व परम रहस्यमय एवं श्रेष्ठ
सारभूत है और विशेष कर जो गुरु गीता है, वह
आपकी कृपा से हम सुनना चाहते हैं। प्यारे सूतजी! वे सब हमें सुनाइये।
इति संप्राथितः सूतो
मुनिसंघैर्मुहुर्मुहुः।
कुतूहलेन महता प्रोवाच मधुरं वचः॥1.6॥
इस प्रकार बार-बार प्रार्थना किये
जाने पर सूत जी बहुत प्रसन्न होकर मुनियों के समूह से मधुर वचन बोले।
सूत उवाच
श्रृणुध्वं मुनयः सर्वे श्रद्धया
परया मुदा।
वदामि भवरोगघ्नीं गीता
मातृस्वरूपिणीम्॥1.7॥
सूतजी ने कहा :- हे सर्व मुनियों!
संसार रूपी रोग का नाश करने वाली, मातृ
स्वरूपिणी (माता के समान ध्यान रखने वाली) गुरु गीता कहता हूँ। उसको आप अत्यंत
श्रद्धा और प्रसन्नता से सुनिये।
पुरा कैलासशिखरे
सिद्धगन्धर्वसेविते।
तत्र
कल्पलतापुष्पमन्दिरेऽत्यन्तसुन्दरे॥1.8॥
व्याघ्राजिने समासिनं शुकादिमुनिवन्दितम्।
बोधयन्तं परं तत्वं
मध्येमुनिगणंक्वचित्॥1.9॥
प्रणम्रवदना
शश्वन्नमस्कुर्वन्तमादरात्।
दृष्ट्वा विस्मयमापन्ना पार्वती
परिपृच्छति॥1.10॥
प्राचीन काल में सिद्धों और
गन्धर्वों के आवास रूप कैलास पर्वत के शिखर पर कल्पवृक्ष के फूलों से बने हुए
अत्यंत सुन्दर मन्दिर में,
मुनियों के बीच व्याघ्रचर्म पर बैठे हुए, शुक
आदि मुनियों द्वारा वन्दन किये जानेवाले और परम तत्व का बोध देते हुए भगवान् शिव
को बार-बार नमस्कार करते देखकर, अतिशय नम्र मुख वाली पार्वती
ने आश्चर्य चकित होकर पूछा।
पार्वत्युवाच
ॐ नमो देव देवेश परात्पर जगदगुरो।
त्वां नमस्कुर्वते भक्त्या
सुरासुरनराः सदा॥1.11॥
पार्वती ने कहा :- हे ॐ कार के अर्थ
स्वरूप,
देवों के देव, श्रेष्ठों के श्रेष्ठ, हे जगदगुरो! आपको प्रणाम हो। देव दानव और मानव सब आपको सदा भक्तिपूर्वक
प्रणाम करते हैं।
विधिविष्णुमहेन्द्राद्यैर्वन्द्यः
खलु सदा भवान्।
नमस्करोषि कस्मै त्वं नमस्काराश्रयः
किलः॥1.12॥
आप ब्रह्मा,
विष्णु, इन्द्र आदि के नमस्कार के योग्य हैं।
ऐसे नमस्कार के आश्रयरूप होने पर भी आप किसको नमस्कार करते हैं!
भगवन् सर्वधर्मज्ञ व्रतानां
व्रतनायकम्।
ब्रूहि मे कृपया शम्भो
गुरुमाहात्म्यमुत्तमम्॥1.13॥
हे भगवान्! हे सर्व धर्मों के
ज्ञाता! हे शम्भो! जो व्रत सब व्रतों में श्रेष्ठ है,
ऐसा उत्तम गुरु-माहात्म्य कृपा करके मुझे कहें।
इति संप्रार्थितः शश्वन्महादेवो
महेश्वरः।
आनंदभरितः स्वान्ते
पार्वतीमिदमब्रवीत्॥1.14॥
इस प्रकार (पार्वती देवी द्वारा)
बार-बार प्रार्थना किये जाने पर महादेव ने अंतर से खूब प्रसन्न होते हुए पार्वती
से इस प्रकार कहा।
महादेव उवाच
न वक्तव्यमिदं देवि
रहस्यातिरहस्यकम्।
न कस्यापि पुरा प्रोक्तं
त्वद्भक्त्यर्थं वदामि तत्॥1.15॥
श्री महादेव जी ने कहा :- हे देवी!
यह तत्व रहस्यों का भी रहस्य है, इसलिए कहना
उचित नहीं। पहले किसी से भी नहीं कहा। फिर भी तुम्हारी भक्ति देखकर वह रहस्य कहता
हूँ।
मम् रूपासि देवि त्वमतस्तत्कथयामि
ते।
लोकोपकारकः प्रश्नो न केनापि कृतः
पुरा॥1.16॥
हे देवी! तुम मेरा ही स्वरूप हो
इसलिए (यह रहस्य) तुमको कहता हूँ। तुम्हारा यह प्रश्न लोक का कल्याण कारक है। ऐसा
प्रश्न पहले कभी किसी ने नहीं किया।
यस्य देवे परा भक्ति,
यथा देवे तथा गुरौ
त्स्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते
महात्मनः॥1.17॥
जिसको ईश्वर में उत्तम भक्ति होती
है,
जैसी ईश्वर में वैसी ही भक्ति जिसको गुरु में होती है, ऐसे महात्माओं को ही यहाँ कही हुई बात समझ में आयेगी।
यो गुरु स शिवः प्रोक्तो,
यः शिवः स गुरुस्मृतः।
विकल्पं यस्तु कुर्वीत स नरो
गुरुतल्पगः॥1.18॥
जो गुरु हैं वे ही शिव हैं,
जो शिव हैं वे ही गुरु हैं। दोनों में जो अन्तर मानता है वह गुरु
पत्नी गमन करने वाले के समान पापी है।
वेद्शास्त्रपुराणानि चेतिहासादिकानि
च।
मंत्रयंत्रविद्यादिनिमोहनोच्चाटनादिकम्॥1.19॥
शैवशाक्तागमादिनि ह्यन्ये च बहवो
मताः।
अपभ्रंशाः समस्तानां जीवानां
भ्रांतचेतसाम्॥1.20॥
जपस्तपोव्रतं तीर्थं यज्ञो दानं
तथैव च।
गुरु तत्वं अविज्ञाय सर्वं व्यर्थं
भवेत् प्रिये॥1.21॥
हे प्रिये! वेद,
शास्त्र, पुराण, इतिहास
आदि मंत्र, यंत्र, मोहन, उच्चाट्न (खींचकर हटाना, उखाड़ना) आदि विद्या शैव,
शाक्त, आगम और अन्य सर्व मत मतान्तर, ये सब बातें गुरु तत्व को जाने बिना भ्रान्त चित्त वाले जीवों को पथ
भ्रष्ट करनेवाली हैं और जप-तप, व्रत, तीर्थ,
यज्ञ, दान, ये सब व्यर्थ
हो जाते हैं।
गुरुबुध्यात्मनो नान्यत् सत्यं
सत्यं वरानने।
तल्लभार्थं प्रयत्नस्तु कर्त्तवयशच
मनीषिभिः॥1.22॥
हे सुमुखी! आत्मा में गुरु बुद्धि
के सिवा अन्य कुछ भी सत्य नहीं है, इसलिये
इस आत्म ज्ञान को प्राप्त करने के लिये बुद्धिमानों को प्रयत्न करना चाहिये।
सुमुखी - सुन्दर मुखवाली स्त्री,
दर्पण, संगीत में एक प्रकार की मूर्च्छना,
सवैया छंद का तीसरा भेद जिसके प्रत्येक चरण में सात जगण और तब लघु
और गुरु वर्ण होता है। मदिरा सवैया के आदि में लघु वर्ण जोड़ने से यह छंद बनता है।
इसमें 11 और 12 वर्णों पर यति होती है,
नीली अपराजिता।
गूढाविद्या जगन्माया
देहशचाज्ञानसम्भवः।
विज्ञानं यत्प्रसादेन गुरुशब्देन
कथयते॥1.23॥
जगत गूढ़ अविद्यात्मक माया रूप है और
शरीर अज्ञान से उत्पन्न हुआ है। इनका विश्लेषणात्मक ज्ञान जिनकी कृपा से होता है,
उस ज्ञान को गुरु कहते हैं।
देही ब्रह्म भवेद्यस्मात्
त्वत्कृपार्थंवदामि तत्।
सर्वपापविशुद्धात्मा श्रीगुरोः
पादसेवनात्॥1.24॥
जिस गुरु देव के पाद सेवन से मनुष्य
सर्व पापों से विशुद्धात्मा होकर ब्रह्म रूप हो जाता है,
वह तुम पर कृपा करने के लिये कहता हूँ।
शोषणं पापपंकस्य दीपनं ज्ञानतेजसः।
गुरोः पादोदकं सम्यक्
संसारार्णवतारकम्॥1.25॥
श्री गुरुदेव का चरणामृत पाप रूपी
कीचड़-दलदल का सम्यक् शोषक है, ज्ञान तेज का
सम्यक् उद्यीपक है और संसार सागर का सम्यक तारक है।
अज्ञानमूलहरणं जन्मकर्मनिवारकम्।
ज्ञानवैराग्यसिद्ध्यर्थं
गुरुपादोदकं पिबेत्॥1.26॥
अज्ञान की जड़ को उखाड़ने वाले,
अनेक जन्मों के कर्मों को निवारने वाले, ज्ञान
और वैराग्य को सिद्ध करने वाले श्री गुरुदेव के चरणा मृत का पान करना चाहिये।
स्वदेशिकस्यैव च नामकीर्तनम्भ
वेदनन्तस्यशिवस्य कीर्तनम्।
स्वदेशिकस्यैव च नामचिन्तनम्भ
वेदनन्तस्यशिवस्य नामचिन्तनम्॥1.27॥
अपने गुरुदेव के नाम का कीर्तन अनंत
स्वरूप भगवान् शिव का ही कीर्तन है। अपने
गुरुदेव के नाम का चिंतन अनंत स्वरूप भगवान्
शिव का ही चिंतन है।
काशीक्षेत्रं निवासश्च जाह्नवी
चरणोदकम्।
गुरुर्विश्वेश्वरः साक्षात् तारकं
ब्रह्मनिश्चयः॥1.28॥
गुरुदेव का निवास स्थान काशी
क्षेत्र है। श्री गुरुदेव का पादोदक गंगा जी है। गुरुदेव भगवान् विश्वनाथ और निश्चय ही साक्षात् तारक ब्रह्म
हैं।
गुरुसेवा गया प्रोक्ता देहः
स्यादक्षयो वटः।
तत्पादं विष्णुपादं स्यात्
तत्रदत्तमनस्ततम्॥1.29॥
गुरुदेव की सेवा ही तीर्थराज गया
है। गुरुदेव का शरीर अक्षय वटवृक्ष है। गुरुदेव के श्री चरण भगवान् विष्णु के श्री चरण हैं। वहाँ लगाया हुआ मन
तदाकार हो जाता है।
गुरुवक्त्रे स्थितं ब्रह्म
प्राप्यते तत्प्रसादतः।
गुरोर्ध्यानं सदा कुर्यात् पुरूषं
स्वैरिणी यथा॥1.30॥
ब्रह्म श्री गुरुदेव के मुखारविन्द
(वचनामृत) में स्थित है। वह ब्रह्म उनकी कृपा से प्राप्त हो जाता है। इसलिये जिस
प्रकार स्वेच्छाचारी स्त्री अपने प्रेमी पुरुष का सदा चिंतन करती है,
उसी प्रकार सदा गुरुदेव का ध्यान करना चाहिये।
स्वाश्रमं च स्वजातिं च स्वकीर्ति
पुष्टिवर्धनम्।
एतत्सर्वं परित्यज्य गुरुमेव
समाश्रयेत्॥1.31॥
अपने आश्रम (ब्रह्मचर्याश्रमादि)
जाति,
कीर्ति (पद प्रतिष्ठा), पालन-पोषण, ये सब छोड़ कर गुरुदेव का ही सम्यक् आश्रय लेना चाहिये।
गुरुवक्त्रे स्थिता विद्या
गुरुभक्त्या च लभ्यते।
त्रैलोक्ये स्फ़ुटवक्तारो
देवर्षिपितृमानवाः॥1.32॥
विद्या गुरुदेव के मुख में रहती है
और वह गुरुदेव की भक्ति से ही प्राप्त होती है। यह बात तीनों लोकों में देव,
ॠषि, पितृ और मानवों द्वारा स्पष्ट रूप से कही
गई है।
गुकारश्चान्धकारो हि रुकारस्तेज
उच्यते।
अज्ञानग्रासकं ब्रह्म गुरुरेव न
संशयः॥1.33॥
‘गु’ शब्द
का अर्थ है अंधकार (अज्ञान) और ‘रु’ शब्द
का अर्थ है प्रकाश (ज्ञान)।अज्ञान को नष्ट करनेवाल जो ब्रह्मरूप प्रकाश है वह गुरु
है। इसमें कोई संशय नहीं है।
गुकारश्चान्धकारस्तु
रुकारस्तन्निरोधकृत्।
अन्धकारविनाशित्वात्
गुरुरित्यभिधीयते॥1.34॥
‘गु’ कार
अंधकार है और उसको दूर करनेवाल ‘रु’ कार
है। अज्ञानरूपी अन्धकार को नष्ट करने के कारण ही गुरु कहलाते हैं।
गुकारश्च गुणातीतो रूपातीतो
रुकारकः।
गुणरूपविहीनत्वात्
गुरुरित्यभिधीयते॥1.35॥
‘गु’ कार से
गुणातीत कहा जाता है, ‘रु’ कार से
रूपातीत कहा जाता है। गुण और रूप से पर होने के कारण ही गुरु कहलाते हैं।
गुणातीत :: गुणों से अल्पित,
परे और भिन्न, जिसका सत्त्व, रज आदि गुणों से कोई सम्बन्ध न हो
और जो इन सब से परे हो, परमात्मा या ब्रह्म की संज्ञा,
परमात्मा; जो धीर मनुष्य दुःख-सुख में सम तथा
अपने स्वरूप में स्थित रहता है; जो मिट्टी के ढ़ेले, पत्थर और सोने में सम रहता है; जो प्रिय-अप्रिय में
सम रहता है, जो अपनी निंदा-स्तुति में सम रहता है; जो मान-अपमान में सम रहता है; जो मित्र-शत्रु के
पक्ष में सम रहता है और जो सम्पूर्ण कर्मों के आरम्भ का त्यागी है, वह मनुष्य गुणातीत कहा जाता है। जो मनुष्य प्रकृति जन्य गुणों से
दूर-उदासीन-सम-तटस्थ है, वह गुणातीत है;
गुकारः
प्रथमो वर्णो मायादि गुणभासकः।
रुकारोऽस्ति परं ब्रह्म
मायाभ्रान्तिविमोचकम्॥1.36॥
गुरु शब्द का प्रथम अक्षर गु माया
आदि गुणों का प्रकाशक है और दूसरा अक्षर रु कार माया की भ्रान्ति से मुक्ति
देनेवाला पर ब्रह्म है।
सर्वश्रुतिशिरोरत्नविराजितपदांबुजम्।
वेदान्तार्थप्रवक्तारं
तस्मात्संपूजयेद् गुरुम्॥1.37॥
गुरु सर्व श्रुति रूप श्रेष्ठ
रत्नों से सुशोभित चरण कमल वाले हैं और वेदान्त के अर्थ के प्रवक्ता हैं। इसलिये
श्री गुरुदेव की पूजा करनी चाहिये।
यस्यस्मरणमात्रेण ज्ञानमुत्पद्यते
स्वयम्।
सः एव सर्वसम्पत्तिः
तस्मात्संपूजयेद् गुरुम्॥1.38॥
जिनके स्मरण मात्र से ज्ञान अपने आप
प्रकट होने लगता है और वे ही सर्व (शम-दमादि) सम्पदा रूप हैं। अतः श्री गुरुदेव की
पूजा करनी चाहिये।
शम-दमादि गुण - इनका आधार योगाभ्यास
में तत्पर योगी अपनी योग विद्या के प्रचार से योग विद्या चाहने वालों का आत्म बल
बढ़ाता हुआ सब जगह सूर्य के समान प्रकाशित होता है। मर्यादा-भक्ति में
भगवद्प्राप्ति शमदमादि साधनों से होती है, किंतु
पुष्टि-भक्ति में भक्त को किसी साधन की आवश्यकता न होकर मात्र भगवद्कृपा का आश्रय
होता है। मर्यादा-भक्ति स्वीकार्य करते हुए भी पुष्टि-भक्ति ही श्रेष्ठ मानी गई
है।
संसारवृक्षमारूढ़ाः पतन्ति
नरकार्णवे।
यस्तानुद्धरते सर्वान् तस्मै
श्रीगुरवे नमः॥1.39॥
संसार रूपी वृक्ष पर चढ़े हुए लोग
नरक रूपी सागर में गिरते हैं। उन सबका उद्धार करने वाले गुरुदेव को नमस्कार हो।
एक एव परो बन्धुर्विषमे समुपस्थिते।
गुरुः सकलधर्मात्मा तस्मै श्रीगुरवे
नमः॥1.40॥
जब विकट परिस्थिति उपस्थित होती है,
तब वे ही एक मात्र परम बान्धव
हैं और सब धर्मों के आत्म स्वरूप हैं।
ऐसे गुरुदेव को नमस्कार हो।
भवारण्यप्रविष्टस्य
दिड्मोहभ्रान्तचेतसः।
येन सन्दर्शितः पन्थाः तस्मै
श्रीगुरवे नमः॥1.41॥
संसार रूपी अरण्य में प्रवेश करने
के बाद दिग्मूढ़ की स्थिति में (जब कोई मार्ग नहीं दिखाई देता है),
चित्त भ्रमित हो जाता है, उस समय जिसने मार्ग
दिखाया उन गुरुदेव को नमस्कार हो।
तापत्रयाग्नितप्तानां
अशान्तप्राणीनां भुवि।
गुरुरेव परा गंगा तस्मै श्रीगुरुवे
नमः॥1.42॥
इस पृथ्वी पर त्रिविध ताप (आधि,
व्याधि, उपाधि) रूपी अग्नी से जलने के कारण
अशांत हुए प्राणियों के लिए गुरुदेव ही एक मात्र उत्तम गँगा जी हैं। ऐसे गुरुदेव को
नमस्कार हो।
तीन प्रकार के दुःख :- आधि,
व्याधि एवं उपाधि।
आधि :- मानसिक कष्ट,
व्याधि :- शारीरिक कष्ट
उपाधि :- प्रकृति जन्य व समाज
द्वारा पैदा किया गया दुःख।
सप्तसागरपर्यन्तं तीर्थस्नानफलं तु
यत्।
गुरुपादपयोबिन्दोः सहस्रांशेन
तत्फलम्॥1.43॥
सात समुद्र पर्यन्त के सर्व तीर्थों
में स्नान करने से जितना फल मिलता है वह फल गुरुदेव के चरणामृत के एक बिन्दु के फल
का हजारवाँ हिस्सा है।
शिवे रुष्टे गुरुस्त्राता गुरौ
रुष्टे न कश्चन।
लब्ध्वा कुलगुरुं सम्यग्गुरुमेव
समाश्रयेत्॥1.44॥
यदि भगवान् शिव नारज़ हो जायें तो गुरुदेव
बचाने वाले हैं, किन्तु यदि गुरुदेव नाराज़ हो
जायें तो बचाने वाला कोई नहीं। अतः गुरुदेव को संप्राप्त करके सदा उनकी शरण में
रेहना चाहिए।
गुकारं च गुणातीतं रुकारं
रुपवर्जितम्।
गुणातीतमरूपं च यो दद्यात् स गुरुः
स्मृतः॥1.45॥
गुरु शब्द का गु अक्षर गुणातीत अर्थ
का बोधक है और रु अक्षर रूप रहित स्थिति का बोधक है। ये दोनों (गुणातीत और
रूपातीत) स्थितियाँ जो देते हैं, उनको गुरु
कहते हैं।
अत्रिनेत्रः शिवः साक्षात्
द्विबाहुश्च हरिः स्मृतः।
योऽचतुर्वदनो ब्रह्मा श्रीगुरुः
कथितः प्रिये॥1.46॥
हे प्रिये! गुरु ही त्रिनेत्र रहित
(दो नेत्र वाले) साक्षात् शिव हैं, दो
हाथ वाले भगवान् विष्णु हैं और एक मुख वाले ब्रह्मा जी हैं।
देवकिन्नरगन्धर्वाः पितृयक्षास्तु
तुम्बुरुः।
मुनयोऽपि न जानन्ति गुरुशुश्रूषणे
विधिम्॥1.47॥
देव, किन्नर, गंधर्व, पितृ, यक्ष, तुम्बुरु (गंधर्व का एक प्रकार) और मुनि लोग
भी गुरु सेवा की विधि नहीं जानते।
तार्किकाश्छान्दसाश्चैव
देवज्ञाः कर्मठः प्रिये।
लौकिकास्ते न जानन्ति गुरुतत्वं
निराकुलम्॥1.48॥
हे प्रिये! तार्किक,
वैदिक, ज्योतिषि, कर्म
काँडी तथा लौकिक जन निर्मल गुरुतत्व को नहीं जानते।
यज्ञिनोऽपि न मुक्ताः स्युः न
मुक्ताः योगिनस्तथा।
तापसा अपि नो मुक्त
गुरुतत्वात्पराड्मुखाः॥1.49॥
यदि गुरुतत्व से प्राड्मुख हो जाये
तो याज्ञिक मुक्ति नहीं पा सकते, योगी मुक्त
नहीं हो सकते और तपस्वी भी मुक्त नहीं हो सकते।
न मुक्तास्तु गन्धर्वः
पितृयक्षास्तु चारणाः।
ॠष्यः सिद्धदेवाद्याः
गुरुसेवापराड्मुखाः॥1.50॥
गुरु सेवा से विमुख गंधर्व,
पितृ, यक्ष, चारण,
ॠषि, सिद्ध और देवता आदि भी मुक्त नहीं होंगे।
इति श्री स्कान्दोत्तरखण्डे
उमामहेश्वरसंवादे श्री गुरुगीतायां प्रथमोऽध्यायः।
शेष जारी........ श्री गुरु गीता द्वितीयोऽध्यायः
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