recent

Slide show

[people][slideshow]

Ad Code

Responsive Advertisement

JSON Variables

Total Pageviews

Blog Archive

Search This Blog

Fashion

3/Fashion/grid-small

Text Widget

Bonjour & Welcome

Tags

Contact Form






Contact Form

Name

Email *

Message *

Followers

Ticker

6/recent/ticker-posts

Slider

5/random/slider

Labels Cloud

Translate

Lorem Ipsum is simply dummy text of the printing and typesetting industry. Lorem Ipsum has been the industry's.

Pages

कर्मकाण्ड

Popular Posts

शिवमहापुराण – विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 15

शिवमहापुराण विद्येश्वरसंहिता अध्याय 15

इससे पूर्व आपने शिवमहापुराण विद्येश्वरसंहिता अध्याय 14 पढ़ा, अब शिवमहापुराण विद्येश्वरसंहिता अध्याय 15 पन्द्रहवाँ अध्याय देश, काल, पात्र और दान आदि का विचार।

शिवमहापुराण – विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 15

शिवमहापुराण विद्येश्वरसंहिता अध्याय 15

शिवपुराणम्/ विद्येश्वरसंहिता /अध्यायः १५

शिवपुराणम् | संहिता १ (विश्वेश्वरसंहिता)

ऋषय ऊचुः

देशादीन्क्रमशो ब्रूहि सूत सर्वार्थवित्तम्

ऋषिगण बोले समस्त पदार्थों के ज्ञाताओं में श्रेष्ठ हे सूतजी ! अब आप क्रमशः देश, काल आदि का वर्णन करें ॥ १/२ ॥

सूत उवाच

शुद्धं गृहं समफलं देवयज्ञादिकर्मसु १

ततो दशगुणं गोष्ठं जलतीरं ततो दश

ततो दशगुणं बिल्वतुलस्यश्वत्थमूलकम् २

सूतजी बोले हे महर्षियो ! देवयज्ञ आदि कर्मों में अपना शुद्ध गृह समान फल देनेवाला होता है अर्थात् अपने घर में किये हुए देवयज्ञ आदि शास्त्रोक्त कर्म फल को सममात्रा में देनेवाले होते हैं । गोशाला का स्थान घर की अपेक्षा दसगुना फल देता है । जलाशय का तट उससे भी दसगुना महत्त्व रखता है तथा जहाँ बेल, तुलसी एवं पीपलवृक्ष का मूल निकट हो, वह स्थान जलाशय से भी दस गुना अधिक फल देनेवाला होता है ॥ १-२ ॥

ततो देवालयं विद्यात्तीर्थतीरं ततो दश

ततो दशगुणं नद्यास्तीर्थनद्यास्ततो दश ३

सप्तगंगानदीतीरं तस्या दशगुणं भवेत्

गंगा गोदावरी चैव कावेरी ताम्रपर्णिका ४

सिंधुश्च सरयू रेवा सप्तगंगाः प्रकीर्तिताः

ततोऽब्धितीरं दश च पर्वताग्रे ततो दश ५

सर्वस्मादधिकं ज्ञेयं यत्र वा रोचते मनः

देवालय को उससे भी दस गुना महत्त्व का स्थान जानना चाहिये । तीर्थभूमि का तट देवालय से भी दस गुना महत्त्व रखता है और उससे दसगुना श्रेष्ठ है नदी का किनारा । उससे दस गुना उत्कृष्ट है तीर्थनदी का तट और उससे भी दस गुना महत्त्व रखता है सप्तगंगा नामक नदियों का तीर्थ । गंगा, गोदावरी, कावेरी, ताम्रपर्णी, सिन्धु, सरयू और नर्मदा इन सात नदियों को सप्तगंगा कहा गया है । समुद्र के तट का स्थान इनसे भी दस गुना अधिक पवित्र माना गया है और पर्वत के शिखर का प्रदेश समुद्रतट से भी दस गुना पावन है । सबसे अधिक महत्त्व का वह स्थान जानना चाहिये, जहाँ मन लग जाय [यहाँ तक देश का वर्णन हुआ, अब काल का तारतम्य बताया जाता है-] ॥ ३-५१/२ ॥

कृते पूर्णफलं ज्ञेयं यज्ञदानादिकं तथा ६

त्रेतायुगे त्रिपादं च द्वापरेऽर्धं सदा स्मृतम्

कलौ पादं तु विज्ञेयं तत्पादोनं ततोर्द्धके ७

सत्ययुग में यज्ञ, दान आदि कर्म पूर्ण फल देनेवाले होते हैं ऐसा जानना चाहिये । त्रेतायुग में उसका तीन चौथाई फल मिलता है । द्वापर में सदा आधे ही फल की प्राप्ति कही गयी है । कलियुग में एक चौथाई ही फल की प्राप्ति समझनी चाहिये और आधा कलियुग बीतने पर उस फल में से भी एक चतुर्थांश कम हो जाता है ॥ ६-७ ॥

शुद्धात्मनः शुद्धदिनं पुण्यं समफलं विदुः

तस्माद्दशगुणं ज्ञेयं रविसंक्रमणे बुधाः ८

विषुवे तद्दशगुणमयने तद्दश स्मृतम्

तद्दश मृगसंक्रांतौ तच्चंद्र ग्रहणे दश ९

ततश्च सूर्यग्रहणे पूर्णकालोत्तमे विदुः

जगद्रूपस्य सूर्यस्य विषयोगाच्च रोगदम् १०

अतस्तद्विषशांत्यर्थं स्नानदानजपांश्चरेत्

विषशांत्यर्थकालत्वात्स कालः पुण्यदः स्मृतः ११

शुद्ध अन्तःकरणवाले पुरुष को शुद्ध एवं पवित्र दिन सम फल देनेवाला होता है । हे विद्वान् ब्राह्मणो ! सूर्यसंक्रान्ति के दिन किया हुआ सत्कर्म पूर्वोक्त शुद्ध दिन की अपेक्षा दस गुना फल देनेवाला होता है यह जानना चाहिये । उससे भी दस गुना अधिक महत्त्व उस कर्म का है, जो विषुव [ज्योतिष के अनुसार वह समय जबकि सूर्य विषुव रेखा पर पहुँचता है और दिन तथा रात दोनों बराबर होते हैं । यह वर्ष में दो बार आता है एक तो सौर चैत्रमास की नवमी तिथि या अँगरेजी दिनांक २१ मार्च को और दूसरा आश्विन की नवमी तिथि या अँगरेजी दिनांक २२ सितम्बर को ।] नामक योग में किया जाता है । दक्षिणायन आरम्भ होने के दिन अर्थात् कर्क की संक्रान्ति में किये हुए पुण्यकर्म का महत्त्व विषुव से भी दस गुना अधिक माना गया है । उससे भी दसगुना अधिक मकर-संक्रान्ति में और उससे भी दस गुना अधिक चन्द्रग्रहण में किये हुए पुण्य का महत्त्व है । सूर्यग्रहण का समय सबसे उत्तम है । उसमें किये गये पुण्यकर्म का फल चन्द्रग्रहण से भी अधिक और पूर्णमात्रा में होता है इस बात को विज्ञ पुरुष जानते हैं । जगरूपी सूर्य का राहुरूपी विष से संयोग होता है, इसलिये सूर्यग्रहण का समय रोग प्रदान करनेवाला है । अतः उस विष की शान्ति के लिये उस समय स्नान, दान और जप करना चाहिये । वह काल विष की शान्ति के लिये उपयोगी होने के कारण पुण्यप्रद माना गया है ॥ ८-११ ॥

जन्मर्क्षे च व्रतांते च सूर्यरागोपमं विदुः

महतां संगकालश्च कोट्यर्कग्रहणं विदुः १२

जन्म-नक्षत्र के दिन तथा व्रत की पूर्ति के दिन का समय सूर्यग्रहण के समान ही समझा जाता है । परंतु महापुरुषों के संग का काल करोड़ों सूर्यग्रहण के समान पावन है ऐसा ज्ञानी पुरुष मानते हैं ॥ १२ ॥

तपोनिष्ठा ज्ञाननिष्ठा योगिनो यतयस्तथा

पूजायाः पात्रमेते हि पापसंक्षयकारणम् १३

चतुर्विंशतिलक्षं वा गायत्र्या जपसंयुतः

ब्राह्मणस्तु भवेत्पात्रं संपूर्णफलभोगदम् १४

पतनात्त्रायत इति पात्रं शास्त्रे प्रयुज्यते

दातुश्च पातकात्त्राणात्पात्रमित्यभिधीयते १५

तपोनिष्ठ योगी और ज्ञाननिष्ठ यति ये पूजा के पात्र हैं; क्योंकि ये पापों के नाश में कारण होते हैं । जिसने चौबीस लाख गायत्री का जप कर लिया हो, वह ब्राह्मण भी पूजा का पात्र है; उसका पूजन सम्पूर्ण फलों और भोगों को देने में समर्थ है । जो पतन से त्राण करता अर्थात् नरक में गिरने से बचाता है, उसके लिये [इसी गुण के कारण शास्त्र में] पात्र शब्द का प्रयोग होता है । वह दाता को पाप से त्राण प्रदान करने के कारण पात्र कहलाता है ॥ १३-१५ ॥

गायकं त्रायते पाताद्गायत्रीत्युच्यते हि सा

यथाऽर्थहिनो लोकेऽस्मिन्परस्यार्थं न यच्छति १६

अर्थवानिह यो लोके परस्यार्थं प्रयच्छति

स्वयं शुद्धो हि पूतात्मा नरान्संत्रातुमर्हति १७

गायत्रीजपशुद्धो हि शुद्धब्राह्मण उच्यते

तस्माद्दाने जपे होमे पूजायां सर्वकर्मणि १८

दानं कर्तुं तथा त्रातुं पात्रं तु ब्राह्मणोर्हति

गायत्री अपना गान करनेवाले का अधोगति से त्राण करती है, इसलिये वह गायत्री कहलाती है । जैसे इस लोक में जो धनहीन है, वह दूसरे को धन नहीं दे सकता जो यहाँ धनवान् है, वही दूसरे को धन दे सकता है, उसी तरह जो स्वयं शुद्ध और पवित्रात्मा है, वही दूसरे मनुष्यों का त्राण या उद्धार कर सकता है । जो गायत्री का जप करके शुद्ध हो गया है, वही शुद्ध ब्राह्मण कहा जाता है । इसलिये दान, जप, होम, पूजा इन सभी कर्मों के लिये वही शुद्ध पात्र है । ऐसा ब्राह्मण ही दान लेने तथा रक्षा करने की पात्रता रखता है ॥ १६-१८१/२ ॥

अन्नस्य क्षुधितं पात्रं नारीनरमयात्मकम् १९

ब्राह्मणं श्रेष्ठमाहूय यत्काले सुसमाहितम्

तदर्थं शब्दमर्थं वा सद्बोधकमभीष्टदम् २०

इच्छावतः प्रदानं च संपूर्णफलदं विदुः

यत्प्रश्नानंतरं दत्तं तदर्धं फलदं विदुः २१

यत्सेवकाय दत्तं स्यात्तत्पादफलदं विदुः

जातिमात्रस्य विप्रस्य दीनवृत्तेर्द्विजर्षभाः २२

दत्तमर्थं हि भोगाय भूर्लोकेदशवार्षिकम्

वेदयुक्तस्य विप्रस्य स्वर्गे हि दशवार्षिकम् २३

स्त्री हो या पुरुष-जो भी भूखा हो, वही अन्नदान का पात्र है । श्रेष्ठ ब्राह्मण को समय पर बुलाकर उसे धन अथवा उत्तम वाणी से सन्तुष्ट करना चाहिये, इससे अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है । जिसको जिस वस्तु की इच्छा हो, उसे वह वस्तु बिना माँगे ही दे दी जाय, तो दाता को उस दान का पूरा-पूरा फल प्राप्त होता है ऐसी महर्षियों की मान्यता है । जो याचना करने के बाद दिया गया हो, वह दान आधा ही फल देनेवाला बताया गया है । अपने सेवक को दिया हुआ दान एक चौथाई फल देनेवाला कहा गया है । हे विप्रवरो ! जो जातिमात्र से ब्राह्मण है और दीनतापूर्ण वृत्ति से जीवन बिताता है, उसे दिया हुआ धन का दान दाता को इस भूतल पर दस वर्षों तक भोग प्रदान करनेवाला होता है । वही दान यदि वेदवेत्ता ब्राह्मण को दिया जाय, तो वह स्वर्गलोक में देवताओं के दस वर्षों तक दिव्य भोग देनेवाला होता है ॥ १९-२३ ॥

गायत्रीजपयुक्तस्य सत्ये हि दशवार्षिकम्

विष्णुभक्तस्य विप्रस्य दत्तं वैकुंठदं विदुः २४

शिवभक्तस्य विप्रस्य दत्तं कैलासदं विदुः

तत्तल्लोकोपभोगार्थं सर्वेषां दानमिष्यते २५

गायत्री-जापक ब्राह्मण को दान देने से सत्यलोक में दस वर्षों तक पुण्यभोग प्राप्त होता है और विष्णुभक्त ब्राह्मण को दिया गया दान वैकुण्ठ की प्राप्ति करानेवाला जाना जाता है । शिवभक्त विप्र को दिया हुआ दान कैलास की प्राप्ति कराने वाला कहा गया है । इस प्रकार सबको इन लोकों में भोगप्राप्ति के लिये दान देना चाहिये ॥२४-२५॥

दशांगमन्नं विप्रस्य भानुवारे ददन्नरः

परजन्मनि चारोग्यं दशवर्षं समश्नुते २६

बहुमानमथाह्वानमभ्यंगं पादसेवनम्

वासो गंधाद्यर्चनं च घृतापूपरसोत्तरम् २७

षड्रसं व्यंजनं चैव तांबूलं दक्षिणोत्तरम्

नमश्चानुगमश्चैव स्वन्नदानं दशांगकम् २८

रविवार के दिन ब्राह्मण को दशांग अन्न देनेवाला मनुष्य दूसरे जन्म में दस वर्षों तक निरोग रहता है । बहुत सम्मानपूर्वक बुलाना, अभ्यंग (चन्दन आदि), पादसेवन, वस्त्र, गन्ध आदि से पूजन, घी के मालपुए आदि सुन्दर भोजन, छहों रस, व्यंजन, दक्षिणासहित ताम्बूल, नमस्कार और (जाते समय) अनुगमन ये अन्नदान के दस अंग कहे गये हैं ॥ २६-२८ ॥

दशांगमन्नं विप्रेभ्यो दशभ्यो वै ददन्नरः

अर्कवारे तथाऽऽरोग्यं शतवर्षं समश्नुते २९

सोमवारादिवारेषु तत्तद्वारगुणं फलम्

अन्नदानस्य विज्ञेयं भूर्लोके परजन्मनि ३०

सप्तस्वपि च वारेषु दशभ्यश्च दशांगकम्

अन्नं दत्त्वा शतं वर्षमारोग्यादिकमश्नुते ३१

एवं शतेभ्यो विप्रेभ्यो भानुवारे ददन्नरः

सहस्रवर्षमारोग्यं शर्वलोके समश्नुते ३२

सहस्रेभ्यस्तथा दत्त्वाऽयुतवर्षं समश्नुते

एवं सोमादिवारेषु विज्ञेयं हि विपश्चिता ३३

दस ब्राह्मणों को रविवार के दिन दशांग अन्न का दान करनेवाला सौ वर्ष तक निरोग रहता है । सोमवार आदि विभिन्न वारों में अन्नदान का फल उन-उन वारों के अनुसार दूसरे जन्म में इस पृथ्वीलोक में प्राप्त होता है ऐसा जानना चाहिये । सातों वारों में दस-दस ब्राह्मणों को दशांग अन्नदान करने से सौ वर्ष तक आरोग्यादि फल प्राप्त होते हैं । इस प्रकार रविवार के दिन ब्राह्मणों को अन्नदान करने वाला मनुष्य हजार वर्षों तक शिवलोक में आरोग्यलाभ करता है । इसी प्रकार हजार ब्राह्मणों को अन्नदान करके मनुष्य दस हजार वर्षों तक आरोग्यभोग करता है । विद्वान् को सोमवार आदि दिनों के विषय में भी ऐसा ही जानना चाहिये ॥ २९-३३ ॥

भानुवारे सहस्राणां गायत्रीपूतचेतसाम्

अन्नं दत्त्वा सत्यलोके ह्यारोग्यादि समश्नुते ३४

अयुतानां तथा दत्त्वा विष्णुलोके समश्नुते

अन्नं दत्त्वा तु लक्षाणां रुद्र लोके समश्नुते ३५

रविवार को गायत्रीजप से पवित्र अन्तःकरणवाले एक हजार ब्राह्मणों को अन्नदान करके मनुष्य सत्यलोक में आरोग्यादि भोगों को प्राप्त करता है । इसी प्रकार दस हजार ब्राह्मणों को दान देने से विष्णुलोक में ऐसी प्राप्ति होती है और एक लाख ब्राह्मणों को अन्नदान करने से रुद्रलोक में भोगादि की प्राप्ति होती है ॥ ३४-३५ ॥

बालानां ब्रह्मबुद्ध्या हि देयं विद्यार्थिभिर्नरैः

यूनां च विष्णुबुद्ध्या हि पुत्रकामार्थिभिर्नरैः ३६

वृद्धानां रुद्र बुद्ध्या हि देयं ज्ञानार्थिभिर्नरैः

बालस्त्रीभारतीबुद्ध्या बुद्धिकामैर्नरोत्तमैः ३७

लक्ष्मीबुद्ध्या युवस्त्रीषु भोगकामैर्नरोत्तमैः

वृद्धासु पार्वतीबुद्ध्या देयमात्मार्थिभिर्जनैः ३८

विद्या की कामनावाले मनुष्यों को ब्रह्मबुद्धि से बालकों को दशांग अन्न का दान करना चाहिये, पुत्र की कामनावाले लोगों को विष्णुबुद्धि से युवकों को दान करना चाहिये और ज्ञानप्राप्ति की इच्छावालों को रुद्रबुद्धि से वृद्धजनों को दान देना चाहिये । इसी प्रकार बुद्धि की कामना करनेवाले श्रेष्ठ मनुष्यों को सरस्वतीबुद्धि से बालिकाओं को दशांग अन्न का दान करना चाहिये । सुखभोग की कामनावाले श्रेष्ठजनों को लक्ष्मीबुद्धि से युवतियों को दान देना चाहिये । आत्मज्ञान की इच्छावाले लोगों को पार्वतीबुद्धि से वृद्धा स्त्रियों को अन्नदान करना चाहिये ॥ ३६-३८ ॥

शिलवृत्त्योञ्छवृत्त्या च गुरुदक्षिणयार्जितम्

शुद्धद्रव्यमिति प्राहुस्तत्पूर्णफलदं विदुः ३९

ब्राह्मण के लिये शिल तथा उञ्छ * वृत्ति से लाया हुआ और गुरुदक्षिणा में प्राप्त हुआ अन्न-धन शुद्ध द्रव्य कहलाता है; उसका दान दाता को पूर्ण फल देनेवाला बताया गया है ॥ ३९ ॥

शुक्लप्रतिग्रहाद्दत्तं मध्यमं द्रव्यमुच्यते

कृषिवाणिज्यकोपेतमधमं द्रव्यमुच्यते ४०

शुद्ध (शुक्ल) प्रतिग्रह (दान)-में मिला हुआ द्रव्य मध्यम द्रव्य कहा जाता है और खेती, व्यापार आदि से प्राप्त धन अधम द्रव्य कहा जाता है ॥ ४० ॥

क्षत्रियाणां विशां चैव शौर्यवाणिज्यकार्जितम्

उत्तमं द्रव्यमित्याहुः शूद्राणां भृतकार्जितम् ४१

स्त्रीणां धर्मार्थिनां द्रव्यं पैतृकं भर्तृकं तथा

क्षत्रियों का शौर्य से कमाया हुआ, वैश्यों का व्यापार से कमाया हुआ और शूद्रों का सेवावृत्ति से प्राप्त किया हुआ धन भी उत्तम द्रव्य कहलाता है । धर्म की इच्छा रखनेवाली स्त्रियों को जो धन पिता एवं पति से मिला हुआ हो, उनके लिये वह उत्तम द्रव्य है ॥ ४११/२ ॥

गवादीनां द्वादशीनां चैत्रादिषु यथाक्रमम् ४२

संभूय वा पुण्यकाले दद्यादिष्टसमृद्धये

गोभूतिलहिरण्याज्यवासोधान्यगुडानि च ४३

रौप्यं लवणकूष्मांडे कन्याद्वादशकं तथा

गौ आदि बारह वस्तुओं का चैत्र आदि बारह महीनों में क्रमशः दान करना चाहिये अथवा किसी पुण्यकाल में एकत्रित करके अपनी अभीष्ट प्राप्ति के लिये इनका दान करना चाहिये । गौ, भूमि, तिल, सुवर्ण, घी, वस्त्र, धान्य, गुड़, चाँदी, नमक, कोंहड़ा और कन्या ये ही वे बारह वस्तुएँ हैं ॥ ४२-४३१/२ ॥

गोदानाद्दत्तगव्येन गोमयेनोपकारिणा ४४

धनधान्याद्याश्रितानां दुरितानां निवारणम्

जलस्नेहाद्याश्रितानां दुरितानां तु गोजलैः ४५

कायिकादित्राणां तु क्षीरदध्याज्यकैस्तथा

तथा तेषां च पुष्टिश्च विज्ञेया हि विपश्चिता ४६

गोदान में दी हुई गाय के उपकारी गोबर से धनधान्यादि ठोस पदार्थों के आश्रय से टिके पापों का नाश होता है और उसके गोमूत्र से जल-तेल आदि तरल पदार्थों में रहनेवाले पापों का नाश होता है । उसके दूध-दही और घी से कायिक, वाचिक तथा मानसिक तीनों प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं । उनसे कायिक आदि पुण्यकर्मों की पुष्टि भी होती है ऐसा बुद्धिमान् मनुष्य को जानना चाहिये ॥ ४४-४६ ॥

भूदानं तु प्रतिष्ठार्थमिह चाऽमुत्र च द्विजाः

तिलदानं बलार्थं हि सदा मृत्युजयं विदुः ४७

हिरण्यं जाठराग्नेस्तु वृद्धिदं वीर्यदं तथा

आज्यं पुष्टिकरं विद्याद्वस्त्रमायुष्करं विदुः ४८

धान्यमन्नं समृद्ध्यर्थं मधुराहारदं गुडम्

रौप्यं रेतोभिवृद्ध्यर्थं षड्रसार्थं तु लावणम् ४९

सर्वं सर्वसमृद्ध्यर्थं कूष्मांडं पुष्टिदं विदुः

प्राप्तिदं सर्वभोगानामिह चाऽमुत्र च द्विजाः ५०

यावज्जीवनमुक्तं हि कन्यादानं तु भोगदम्

हे ब्राह्मणो ! भूमि का दान इहलोक और परलोक में प्रतिष्ठा (आश्रय)-की प्राप्ति करानेवाला है । तिल का दान बलवर्धक एवं मृत्यु का निवारक कहा गया है । सुवर्ण का दान जठराग्नि को बढ़ानेवाला तथा वीर्यदायक है । घी के दान को पुष्टिकारक जानना चाहिये । वस्त्र का दान आयु की वृद्धि करानेवाला है ऐसा जानना चाहिये । धान्य का दान अन्न की समृद्धि में कारण होता है । गुड़ का दान मधुर भोजन की प्राप्ति करानेवाला होता है । चाँदी के दान से वीर्य की वृद्धि होती है । लवण का दान षड्रस भोजन की प्राप्ति कराता है । सब प्रकार का दान सम्पूर्ण समृद्धि की सिद्धि के लिये होता है । विज्ञ पुरुष कूष्माण्ड के दान को पुष्टिदायक मानते हैं । कन्या का दान आजीवन भोग देनेवाला कहा गया है । हे ब्राह्मणो ! वह लोक और परलोक में भी सम्पूर्ण भोगों की प्राप्ति करानेवाला है ॥ ४७-५०१/२ ॥

पनसाम्रकपित्थानां वृक्षाणां फलमेव च ५१

कदल्याद्यौषधीनां च फलं गुल्मोद्भवं तथा

माषादीनां च मुद्गानां फलं शाकादिकं तथा ५२

मरीचिसर्षपाद्यानां शाकोपकरणं तथा

यदृतौ यत्फलं सिद्धं तद्देयं हि विपश्चिता ५३

कटहल-आम, कैथ आदि वृक्षों के फल, केला आदि ओषधियों के फल तथा जो फल लता एवं गुल्मों से उत्पन्न हुए हों, मुष्ट (आवरणयुक्त) फल जैसे नारियल, बादाम आदि, उड़द, मूंग आदि दालें, शाक, मिर्च, सरसों आदि, तेल-मसाले और ऋतुओं में तैयार होनेवाले फल समय-समय पर बुद्धिमान् व्यक्ति द्वारा दान किये जाने चाहिये ॥ ५१-५३ ॥

श्रोत्रादींद्रियतृप्तिश्च सदा देया विपश्चिता

शब्दादिदशभोगार्थं दिगादीनां च तुष्टिदा ५४

वेदशास्त्रं समादाय बुद्ध्वा गुरुमुखात्स्वयम्

कर्मणां फलमस्तीति बुद्धिरास्तिक्यमुच्यते ५५

बंधुराजभयाद्बुद्धिश्रद्धा सा च कनीयसी

विद्वान् पुरुष को चाहिये कि जिन वस्तुओं से श्रवण आदि इन्द्रियों की तृप्ति होती है, उनका सदा दान करे । श्रोत्र आदि दस इन्द्रियों के जो शब्द आदि दस विषय हैं, उनका दान किया जाय, तो वे भोगों की प्राप्ति कराते हैं । तथा दिशा आदि इन्द्रिय देवताओं को [श्रवणेन्द्रिय के देवता दिशाएँ, नेत्र के सूर्य, नासिका के अश्विनीकुमार, रसनेन्द्रिय के वरुण, त्वगिन्द्रिय के वायु, वागिन्द्रिय के अग्नि, लिंग के प्रजापति, गुदा के मित्र, हाथों के इन्द्र और पैरों के देवता विष्णु हैं।] सन्तुष्ट करते हैं। वेद और शास्त्र को गुरुमुख से ग्रहण करके गुरु के उपदेश से अथवा स्वयं ही बोध प्राप्त करने के पश्चात् जो बुद्धि का यह निश्चय होता है कि कर्मों का फल अवश्य मिलता है’, इसी को उच्चकोटि की आस्तिकताकहते हैं । भाई-बन्धु अथवा राजा के भय से जो आस्तिकता-बुद्धि या श्रद्धा होती है, वह कनिष्ठ श्रेणी की आस्तिकता है ॥ ५४-५५१/२ ॥

सर्वाभावे दरिद्र स्तु वाचा वा कर्मणा यजेत् ५६

वाचिकं यजनं विद्यान्मंत्रस्तोत्रजपादिकम्

तीर्थयात्राव्रताद्यं हि कायिकं यजनं विदुः ५७

येन केनाप्युपायेन ह्यल्पं वा यदि वा बहु

देवतार्पणबुद्ध्या च कृतं भोगाय कल्पते ५८

जो सर्वथा दरिद्र है, जिसके पास सभी वस्तुओं का अभाव है, वह वाणी अथवा कर्म (शरीर)-द्वारा यजन करे । मन्त्र, स्तोत्र और जप आदि को वाणी द्वारा किया गया यजन समझना चाहिये तथा तीर्थयात्रा और व्रत आदि को विद्वान् पुरुष शारीरिक यजन मानते हैं । जिस किसी भी उपाय से थोड़ा हो या बहुत, देवतार्पण-बुद्धि से जो कुछ भी दिया अथवा किया जाय, वह दान या सत्कर्म भोगों की प्राप्ति कराने में समर्थ होता है ॥ ५६-५८ ॥

तपश्चर्या च दानं च कर्तव्यमुभयं सदा

प्रतिश्रयं प्रदातव्यं स्ववर्णगुणशोभितम् ५९

देवानां तृप्तयेऽत्यर्थं सर्वभोगप्रदं बुधैः

इहाऽमुत्रोत्तमं जन्मसदाभोगं लभेद्बुधः

ईश्वरार्पणबुद्ध्या हि कृत्वा मोक्षफलं लभेत् ६०

तपस्या और दान-ये दो कर्म मनुष्य को सदा करने चाहिये तथा ऐसे गृह का दान करना चाहिये, जो अपने वर्ण (चमक-दमक या सफाई) और गुण (सुख-सुविधा)-से सुशोभित हो । बुद्धिमान् पुरुष देवताओं की तृप्ति के लिये जो कुछ देते हैं, वह अतिशय मात्रा में और सब प्रकार के भोग प्रदान करनेवाला होता है । उस दान से विद्वान् पुरुष इहलोक और परलोक में उत्तम जन्म और सदा सुलभ होनेवाला भोग पाता है । ईश्वरार्पण-बुद्धि से यज्ञ, दान आदि कर्म करके मनुष्य मोक्ष-फल का भागी होता है ॥ ५९-६० ॥

य इमं पठतेऽध्यायं यः शृणोति सदा नरः

तस्य वैधर्मबुद्धिश्च ज्ञानसिद्धिः प्रजायते ६१

इति श्रीशिवमहापुराणे विद्येश्वरसंहितायां पंचदशोध्यायः १५॥

जो मनुष्य इस अध्याय का सदा पाठ अथवा श्रवण करता है, उसे धार्मिक बुद्धि प्राप्त होती है तथा उसमें ज्ञान का उदय होता है ॥ ६१ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत प्रथम विद्येश्वरसंहिता में देश-काल-पात्र आदि का वर्णन नामक पन्द्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १५ ॥

* किसान के द्वारा खेत में बोये हुए अन्न को काटकर ले जाने के बाद उनसे गिरे हुए एक-एक दाने को दोनों अंगुलियों से चुनने (उठाने) को उञ्छतथा उक्त खेत में एक-एक बाल (धान्य के गुच्छों)-को चुनने को शिलकहते हैं — ‘उञ्छो धान्यकणादानं कणिशाद्यर्जनं शिलम्। मनुस्मृति के टीकाकार आचार्य श्रीराघवानन्दजी ने बाजार आदि में क्रय-विक्रय के अनन्तर गिरे हुए अन्न के दानों के चुनने को उञ्छऔर खेत कट जाने के बाद खेत में पड़े हुए धान्यादि की बालों को बीनना शिलकहा है । (मनु० ४।५ की व्याख्या)  

शेष जारी .............. शिवपुराणम् विश्वेश्वरसंहिता-अध्यायः १६ 

No comments:

vehicles

[cars][stack]

business

[business][grids]

health

[health][btop]