शिवमहापुराण – विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 10

शिवमहापुराण विद्येश्वरसंहिता अध्याय 10  

इससे पूर्व आपने शिवमहापुराण विद्येश्वरसंहिता अध्याय 09 पढ़ा, अब शिवमहापुराण विद्येश्वरसंहिता अध्याय 10 दसवाँ अध्याय सृष्टि, स्थिति आदि पाँच कृत्यों का प्रतिपादन, प्रणव एवं पंचाक्षर-मन्त्र की महत्ता, ब्रह्मा विष्णु द्वारा भगवान् शिव की स्तुति तथा उनका अन्तर्धान होना ।

शिवमहापुराण – विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 10

शिवपुराणम्विद्येश्वरसंहिता अध्यायः १०

शिवपुराणम् | संहिता १ (विश्वेश्वरसंहिता)

शिवमहापुराण विद्येश्वरसंहिता अध्याय 10

ब्रह्मविष्णू ऊचतुः

सर्गादिपंचकृत्यस्य लक्षणं ब्रूहि नौ प्रभो॥१क  

ब्रह्मा और विष्णु बोले हे प्रभो ! हम दोनों को सृष्टि आदि पाँच कृत्यों का लक्षण बताइये ॥ १/२ ॥

शिव उवाच

मत्कृत्यबोधनं गुह्यं कृपया प्रब्रवीमि वाम् ॥ १

सृष्टिः स्थितिश्च संहारस्तिरोभावोऽप्यनुग्रहः

पंचैव मे जगत्कृत्यं नित्यसिद्धमजाच्युतौ ॥ २

सर्गः संसारसंरंभस्तत्प्रतिष्ठा स्थितिर्मता

संहारो मर्दनं तस्य तिरोभावस्तदुत्क्रमः ॥ ३

तन्मोक्षोऽनुग्रहस्तन्मे कृत्यमेवं हि पंचकम्

कृत्यमेतद्वहत्यन्यस्तूष्णीं गोपुरबिंबवत् ॥ ४

शिवजी बोले मेरे कृत्यों को समझना अत्यन्त गहन है, तथापि मैं कृपापूर्वक तुम दोनों को उनके विषयमें बता रहा हूँ। हे ब्रह्मा और अच्युत ! सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह ये पाँच ही मेरे जगत्-सम्बन्धी कार्य हैं, जो नित्यसिद्ध हैं । संसार की रचना का जो आरम्भ है, वह सर्गहै । मुझसे पालित होकर सृष्टि का सुस्थिररूप से रहना ही उसकी स्थितिकहा गया है । उसका विनाश ही संहारहै । प्राणों का उत्क्रमण ही तिरोभावहै । इन सबसे छुटकारा मिल जाना ही मेरा अनुग्रहहै । इस प्रकार मेरे पाँच कृत्य हैं । इन मेरे कर्तव्यों को चुपचाप अन्य पंचभूतादि वहन करते रहते हैं, जैसे जल में पड़नेवाले गोपुर-बिम्ब में आवागमन होता रहता है ॥ १-४ ॥

सर्गादि यच्चतुष्कृत्यं संसारपरिजृंभणम्

पंचमं मुक्तिहेतुर्वै नित्यं मयि च सुस्थिरम् ॥ ५

तदिदं पंचभूतेषु दृश्यते मामकैर्जनैः

सृष्टिर्भूमौ स्थितिस्तोये संहारः पावके तथा ॥ ६

तिरोभावोऽनिले तद्वदनुग्रह इहाम्बरे

सृज्यते धरया सर्वमद्भिः सर्वं प्रवर्द्धते॥ ७

अर्द्यते तेजसा सर्वं वायुना चापनीयते

व्योम्नानुगृह्यते सर्वं ज्ञेयमेवं हि सूरिभिः ॥ ८

सृष्टि आदि जो चार कृत्य हैं, वे संसार का विस्तार करनेवाले हैं । पाँचवाँ कृत्य अनुग्रह मोक्ष का हेतु है । वह सदा मुझमें ही अचल भाव से स्थिर रहता है । मेरे भक्तजन इन पाँचों कृत्यों को पाँचों भूतों में देखते हैं । सृष्टि भूतल में, स्थिति जल में, संहार अग्नि में, तिरोभाव वायु में और अनुग्रह आकाश में स्थित है । पृथ्वी से सबकी सृष्टि होती है, जल से सबकी वृद्धि होती है, आग सबको जला जाती है और आकाश सबको अनुगृहीत करता है यह विद्वान् पुरुषों को जानना चाहिये ॥ ५-८ ॥

पंचकृत्यमिदं वोढुं ममास्ति मुखपंचकम्

चतुर्दिक्षु चतुर्वक्त्रं तन्मध्ये पंचमं मुखम् ॥ ९

युवाभ्यां तपसा लब्धमेतत्कृत्यद्वयं सुतौ

सृष्टिस्थित्यभिधं भाग्यं मत्तः प्रीतादतिप्रियम् ॥ १०

तथा रुद्र महेशाभ्यामन्यत्कृत्यद्वयं परम्

अनुग्रहाख्यं केनापि लब्धुं नैव हि शक्यते ॥ ११  

इन पाँच कृत्यों का भार वहन करने के लिये ही मेरे पाँच मुख हैं । चार दिशाओं में चार मुख हैं और इनके बीच में पाँचवाँ मुख है । हे पुत्रो ! तुम दोनों ने तपस्या करके प्रसन्न हुए मुझ परमेश्वर से भाग्यवश सृष्टि और स्थिति नामक दो कृत्य प्राप्त किये हैं । ये दोनों तुम्हें बहुत प्रिय हैं । इसी प्रकार मेरे विभूतिस्वरूप रुद्र और महेश्वर ने दो अन्य उत्तम कृत्य-संहार और तिरोभाव मुझसे प्राप्त किये हैं, परंतु अनुग्रह नामक कृत्य कोई नहीं पा सकता ॥ ९-११ ॥

तत्सर्वं पौर्विकं कर्म युवाभ्यां कालविस्मृतम्

न तद्रुद्र महेशाभ्यां विस्मृतं कर्म तादृशम् ॥ १२

रूपे वेशे च कृत्ये च वाहने चासने तथा

आयुधादौ च मत्साम्यमस्माभिस्तत्कृते कृतम् ॥ १३

उन सभी पहले के कर्मों को तुम दोनों ने समयानुसार भुला दिया । रुद्र और महेश्वर अपने कर्मों को नहीं भूले हैं, इसलिये मैंने उन्हें अपनी समानता प्रदान की है । वे रूप, वेष, कृत्य, वाहन, आसन और आयुध आदि में मेरे समान ही हैं ॥ १२-१३ ॥

मद्ध्यानविरहाद्वत्सौ मौढ्यं वामेवमागतम्

मज्ज्ञाने सति नैवं स्यान्मानं रूपे महेशवत् ॥ १४

तस्मान्मज्ज्ञानसिद्ध्यर्थं मंत्रमॐकारनामकम्

इतः परं प्रजपतं मामकं मानभंजनम् ॥ १५

हे पुत्रो ! मेरे ध्यान से शून्य होने के कारण तुम दोनों में मूढ़ता आ गयी है, मेरा ज्ञान रहने पर महेश के समान अभिमान और स्वरूप नहीं रहता । इसलिये मेरे ज्ञान की सिद्धि के लिये मेरे ओंकार नामक मन्त्र का तुम दोनों जप करो, यह अभिमान को दूर करनेवाला है ॥ १४-१५ ॥

उपादिशं निजं मंत्रमॐकारमुरुमंगलम्

ॐकारो मन्मुखाज्जज्ञे प्रथमं मत्प्रबोधकः ॥ १६

वाचकोऽयमहं वाच्यो मंत्रोऽयं हि मदात्मकः

तदनुस्मरणं नित्यं ममानुस्मरणं भवेत् ॥ १७

पूर्वकाल में मैंने अपने स्वरूपभूत मन्त्र का उपदेश किया है, जो ओंकार के रुप में प्रसिद्ध है । वह महामंगलकारी मन्त्र है । सबसे पहले मेरे मुख से ओंकार (ॐ) प्रकट हुआ, जो मेरे स्वरूप का बोध करानेवाला है । ओंकार वाचक है और मैं वाच्य हूँ । यह मन्त्र मेरा स्वरूप ही है । प्रतिदिन ओंकार का निरन्तर स्मरण करने से मेरा ही सदा स्मरण होता रहता है ॥ १६-१७ ॥

अकार उत्तरात्पूर्वमुकारः पश्चिमाननात्

मकारो दक्षिणमुखाद्बिंदुः प्राण्मुखतस्तथा ॥ १८

नादो मध्यमुखादेवं पंचधाऽसौ विजृंभितः

एकीभूतः पुनस्तद्वदोमित्येकाक्षरो भवेत् ॥ १९

नामरूपात्मकं सर्वं वेदभूतकुलद्वयम्

व्याप्तमेतेन मंत्रेण शिवशक्त्योश्च बोधकः ॥ २०

पहले मेरे उत्तरवर्ती मुख से अकार, पश्चिम मुख से उकार, दक्षिण मुख से मकार, पूर्ववर्ती मुख से बिन्दु तथा मध्यवर्ती मुख से नाद उत्पन्न हुआ । इस प्रकार पाँच अवयवों से युक्त होकर ओंकार का विस्तार हुआ है । इन सभी अवयवों से एकीभूत होकर वह प्रणव ॐ नामक एक अक्षर हो गया । यह नाम-रूपात्मक सारा जगत् तथा वेद-वर्णित स्त्री-पुरुषवर्गरूप दोनों कुल इस प्रणवमन्त्र से व्याप्त हैं । यह मन्त्र शिव और शक्ति दोनों का बोधक है ॥ १८-२० ॥

अस्मात्पंचाक्षरं जज्ञे बोधकं सकलस्यतत्

आकारादिक्रमेणैव नकारादियथाक्रमम् ॥ २१

अस्मात्पंचाक्षराज्जाता मातृकाः पंचभेदतः

तस्माच्छिरश्चतुर्वक्त्रात्त्रिपाद्गाय त्रिरेव हि ॥ २२

वेदः सर्वस्ततो जज्ञे ततो वै मंत्रकोटयः

तत्तन्मंत्रेण तत्सिद्धिः सर्वसिद्धिरितो भवेत् ॥ २३

अनेन मंत्रकंदेन भोगो मोक्षश्च सिद्ध्यति

सकला मंत्रराजानः साक्षाद्भोगप्रदाः शुभाः ॥ २४

इसी प्रणव से पंचाक्षर-मन्त्र की उत्पत्ति हुई है, जो मेरे सकल रूप का बोधक है । वह अकारादि क्रम से और नकारादि क्रम से क्रमशः प्रकाश में आया है । [ॐ नमः शिवाय] इस पंचाक्षरमन्त्र से मातृकावर्ण प्रकट हुए हैं, जो पाँच भेदवाले हैं (अ इ उ ऋ लृ ये पाँच मूलभूत स्वर हैं तथा व्यंजन भी पाँच-पाँच वर्णों से युक्त पाँच वर्गवाले हैं।) । उसीसे शिरोमन्त्र तथा चार मुखों से त्रिपदा गायत्री का प्राकट्य हुआ है । उस गायत्री से सम्पूर्ण वेद प्रकट हुए हैं और उन वेदों से करोड़ों मन्त्र निकले हैं । उन-उन मन्त्रों से भिन्न-भिन्न कार्यों की सिद्धि होती है, परंतु इस प्रणव एवं पंचाक्षर से सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि होती है । इस मूलमन्त्र से भोग और मोक्ष दोनों ही सिद्ध होते हैं । मेरे सकल स्वरूप से सम्बन्ध रखनेवाले सभी मन्त्रराज साक्षात् भोग प्रदान करनेवाले और शुभकारक हैं ॥ २१-२४ ॥

नंदिकेश्वर उवाच

पुनस्तयोस्तत्र तिरः पटं गुरुः प्रकल्प्य मंत्रं च समादिशत्परम्

निधाय तच्छीर्ष्णि करांबुजं शनैरुदण्मुखं संस्थितयोः सहांबिकः ॥ २५

नन्दिकेश्वर बोले तदनन्तर जगदम्बा पार्वती के साथ बैठे हुए गुरुवर महादेवजी ने उत्तराभिमुख बैठे हुए ब्रह्मा और विष्णु को परदा करनेवाले वस्त्र से आच्छादित करके उनके मस्तक पर अपना करकमल रखकर धीरे-धीरे उच्चारण करके उन्हें उत्तम मन्त्र का उपदेश दिया ॥ २५ ॥

त्रिरुच्चार्याग्रहीन्मंत्रं यंत्रतंत्रोक्तिपूर्वकम्

शिष्यौ च तौ दक्षिणायामात्मानं च समर्पयत् ॥ २६

प्रबद्धहस्तौ किल तौ तदंतिके तमेव देवं जगतुर्जगद्गुरुम् ॥ २७

यन्त्र-तन्त्र में बतायी हुई विधि के पालनपूर्वक तीन बार मन्त्र का उच्चारण करके भगवान् शिव ने उन दोनों शिष्यों को मन्त्र की दीक्षा दी । तत्पश्चात् उन शिष्यों ने गुरुदक्षिणा के रूप में अपने-आपको ही समर्पित कर दिया और दोनों हाथ जोड़कर उनके समीप खड़े हो उन देवश्रेष्ठ जगद्गुरु का स्तवन किया ॥ २६-२७ ॥

॥ ब्रह्माच्युतावूचतुः ॥

नमो निष्कलरूपाय नमो निष्कलतेजसे ।

नमः सकलनाथाय नमस्ते सकलात्मने ॥ २८ ॥

नमः प्रणववाच्याय नमः प्रणवलिंगिने ।

नमः सृष्ट्यादिकर्त्रे च नमः पंचमुखायते ॥ २९ ॥

पंचब्रह्मस्वरूपाय पंच कृत्यायते नमः ।

आत्मने ब्रह्मणे तुभ्यमनंतगुणशक्तये ॥ ३० ॥

सकलाकलरूपाय शंभवे गुरवे नमः ।

इति स्तुत्वा गुरुं पद्यैर्ब्रह्मा विष्णुश्च नेमतुः ॥३१॥

ब्रह्मा और विष्णु बोले — [हे प्रभो !] आप निष्कलरूप हैं; आपको नमस्कार है । आप निष्कल तेज से प्रकाशित होते हैं; आपको नमस्कार है । आप सबके स्वामी हैं; आपको नमस्कार है । आप सर्वात्मा को नमस्कार है अथवा सकल-स्वरूप आप महेश्वर को नमस्कार है । आप प्रणव के वाच्यार्थ हैं; आपको नमस्कार है । आप प्रणवलिंगवाले हैं; आपको नमस्कार है । सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह करनेवाले आपको नमस्कार है । आपके पाँच मुख हैं; आपको नमस्कार है । पंचब्रह्मस्वरूप पाँच कृत्यवाले आपको नमस्कार है । आप सबके आत्मा हैं, ब्रह्म हैं, आपके गुण और आपकी शक्तियाँ अनन्त हैं, आपको नमस्कार है । आपके सकल और निष्कल दो रूप हैं । आप सद्गुरु एवं शम्भु हैं, आपको नमस्कार है । इन पद्यों द्वारा अपने गुरु महेश्वर की स्तुति करके ब्रह्मा और विष्णु ने उनके चरणों में प्रणाम किया ॥ २८-३१ ॥

ईश्वर उवाच

वत्सकौ सर्वतत्त्वं च कथितं दर्शितं च वाम्

जपतं प्रणवं मंत्रं देवीदिष्टं मदात्मकम् ॥ ३२

ईश्वर बोले हे वत्सो ! मैंने तुम दोनों से सारा तत्त्व कहा और दिखा दिया । तुम दोनों देवी के द्वारा उपदिष्ट प्रणव (ॐ), जो मेरा ही स्वरूप हैका निरन्तर जप करो ॥ ३२ ॥

ज्ञानं च सुस्थिरं भाग्यं सर्वं भवति शाश्वतम्

आद्रा र्यां! च चतुर्दश्यां तज्जाप्यं त्वक्षयं भवेत् ॥ ३३

सूर्यगत्या महाद्रा र्या!मेकं कोटिगुणं भवेत्

मृगशीर्षांतिमो भागः पुनर्वस्वादिमस्तथा ॥ ३४

आद्रा र्स!मः सदा ज्ञेयः पूजाहोमादितर्पणे

दर्शनं तु प्रभाते च प्रातःसंगवकालयोः ॥ ३५

 [इसके जप से] ज्ञान, स्थिर भाग्य सब कुछ सदा के लिये प्राप्त हो जाता है । आर्द्रा नक्षत्र से युक्त चतुर्दशी को प्रणव का जप किया जाय तो वह अक्षय फल देनेवाला होता है । सूर्य की संक्रान्ति से युक्त महा-आर्द्रा नक्षत्र में एक बार किया हुआ प्रणवजप कोटिगुने जप का फल देता है । मृगशिरा नक्षत्र का अन्तिम भाग तथा पुनर्वसु का आदिभाग पूजा, होम और तर्पण आदि के लिये सदा आर्द्रा के समान ही होता है यह जानना चाहिये । मेरा या मेरे लिंग का दर्शन प्रभातकाल में ही प्रातः तथा संगव (मध्याह्न के पूर्व)काल में करना चाहिये ॥ ३३-३५ ॥

चतुर्दशी तथा ग्राह्या निशीथव्यापिनी भवेत्

प्रदोषव्यापिनी चैव परयुक्ता प्रशस्यते ॥ ३६

लिंगं बेरं च मेतुल्यं यजतां लिंगमुत्तमम्

तस्माल्लिंगं परं पूज्यं बेरादपि मुमुक्षुभिः ॥ ३७

लिंगमॐकारमंत्रेण बेरं पंचाक्षरेण तु

स्वयमेव हि सद्द्रव्यैः प्रतिष्ठाप्यं परैरपि ॥ ३८

पूजयेदुपचारैश्च मत्पदं सुलभं भवेत्

इति शास्य तथा शिष्यौ तत्रैवांऽतर्हितः शिवः ॥ ३९

इति श्रीशिवमहापुराणे विद्येश्वरसंहितायां दशमोऽध्यायः १०॥

मेरे दर्शन-पूजन के लिये चतुर्दशी तिथि निशीथव्यापिनी अथवा प्रदोषव्यापिनी लेनी चाहिये; क्योंकि परवर्तिनी (अमावास्या) तिथि से संयुक्त चतुर्दशी की ही प्रशंसा की जाती है । पूजा करनेवालों के लिये मेरी मूर्ति तथा लिंग दोनों समान हैं, फिर भी मूर्ति की अपेक्षा लिंग का स्थान श्रेष्ठ है । इसलिये मुमुक्षु पुरुषों को चाहिये कि वे वेर (मूर्ति)-से भी श्रेष्ठ समझकर लिंग का ही पूजन करें । लिंग का ॐकारमन्त्र से और वेर का पंचाक्षरमन्त्र से पूजन करना चाहिये । शिवलिंग की स्वयं ही स्थापना करके अथवा दूसरों से भी स्थापना करवाकर उत्तम द्रव्यमय उपचारों से पूजा करनी चाहिये; इससे मेरा पद सुलभ हो जाता है । इस प्रकार उन दोनों शिष्यों को उपदेश देकर भगवान् शिव वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ ३६-३९ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत प्रथम विद्येश्वरसंहिता में ओंकारोपदेश का वर्णन नामक दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १० ॥ 

शेष जारी .............. शिवपुराणम् विश्वेश्वरसंहिता-अध्यायः ११  

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