शिवमहापुराण – विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 06
इससे पूर्व आपने शिवमहापुराण –
विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 05 पढ़ा, अब शिवमहापुराण –विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 06 छठा अध्याय ब्रह्मा और विष्णु के भयंकर
युद्ध को देखकर देवताओं का कैलास-शिखर पर गमन।
शिवमहापुराण–विद्येश्वरसंहिता–अध्याय 06
शिवपुराणम्- विद्येश्वरसंहिता -अध्यायः
०६
नंदिकेश्वर उवाच
पुरा कदाचिद्योगींद्र
विष्णुर्विषधरासनः
सुष्वाप परया भूत्या स्वानुगैरपि
संवृतः ॥१
नन्दिकेश्वर बोले —
हे योगीन्द्र ! प्राचीनकाल में किसी समय शेषशायी भगवान् विष्णु अपनी
पराशक्ति लक्ष्मीजी तथा अन्य पार्षदों से घिरे हुए शयन कर रहे थे ॥ १ ॥
यदृच्छया गतस्तत्र ब्रह्मा
ब्रह्मविदांवरः
अपृच्छत्पुंडरीकाक्षं शयनं
सर्वसुन्दरम् ॥२
कस्त्वं पुरुषवच्छेषे दृष्ट्वा
मामपि दृप्तवत्
उत्तिष्ठ वत्स मां पश्य तव
नाथमिहागतम् ॥३
आगतं गुरुमाराध्यं दृष्ट्वा यो
दृप्तवच्चरेत्
द्रो हिणस्तस्य मूढस्य
प्रायश्चित्तं विधीयते ॥४
उसी समय ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ
ब्रह्माजी ने अपनी इच्छा से वहाँ आकर उन परम सुन्दर कमलनेत्र विष्णु से पूछा —
तुम कौन हो, जो मुझे आया देखकर भी उद्धत पुरुष
के समान सो रहे हो ? हे वत्स ! उठो और यहाँ अपने प्रभु —
मुझे देखो । जो पुरुष अपने श्रेष्ठ गुरुजन को आया हुआ देखकर उद्धत
के समान आचरण करता है, उस मूर्ख गुरुद्रोही के लिये
प्रायश्चित्त का विधान किया गया है ॥ २-४ ॥
इति श्रुत्वा वचः क्रुद्धो बहिः
शांतवदाचरत्
स्वस्ति ते स्वागतं वत्स तिष्ठ
पीठमितो विश ॥५
किमु ते व्याघ्रवद्वक्त्रं विभाति
विषमेक्षणम्॥६क
[ब्रह्मा के] इस वचन को सुनकर
क्रोधित होने पर भी बाहर से शान्त व्यवहार करते हुए भगवान् विष्णु बोले —
हे वत्स ! तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हारा
स्वागत है । आओ, इस आसन पर बैठो । तुम्हारे मुखमण्डल से
व्यग्रता प्रदर्शित हो रही है और तुम्हारे नेत्र विपरीत भाव सूचित कर रहे हैं ॥ ५-६क
॥
ब्रह्मोवाच
वत्स विष्णो महामानमागतं कालवेगतः ॥६
पितामहश्च जगतः पाता च तव वत्सक॥७क
ब्रह्माजी बोले —
हे वत्स ! हे विष्णो ! काल के प्रभाव से तुम्हें बहुत अभिमान हो गया
है । हे वत्स ! मैं जगत् का पितामह और तुम्हारा रक्षक हूँ ॥ ६-७क ॥
विष्णुरुवाच
मत्स्थं जगदिदं वत्स मनुषे त्वं हि
चोरवत् ॥७
मन्नाभिकमलाज्जातः पुत्रस्त्वं
भाषसे वृथा॥८क
विष्णु बोले —
हे वत्स ! यह जगत् मुझमें ही स्थित है, तुम
केवल चोर के समान दूसरे की सम्पत्ति को व्यर्थ अपनी मानते हो ! तुम मेरे नाभिकमल
से उत्पन्न हो, अतः तुम मेरे पुत्र हो, तुम तो व्यर्थ बातें कह रहे हो ? ॥ ७-८क ॥
नंदिकेश्वर उवाच
एवं हि वदतोस्तत्र मुग्धयोरजयोस्तदा
॥८
अहमेव वरो न त्वमहं प्रभुरहं प्रभुः
परस्परं हंतुकामौ चक्रतुः
समरोद्यमम् ॥९
नन्दिकेश्वर बोले —
[हे मुने!] उस समय वे अजन्मा ब्रह्मा और विष्णु मोहवश ‘मैं श्रेष्ठ हूँ, मैं स्वामी हूँ, तुम नहीं’ — इस प्रकार बोलते-बोलते परस्पर एक-दूसरे
को मारने की इच्छा से युद्ध करने के लिये उद्यत हो गये ॥ ८-९ ॥
युयुधातेऽमरौ वीरौ हंसपक्षींद्र
वाहनौ
वैरंच्या वैष्णवाश्चैवं मिथो
युयुधिरे तदा ॥१०
हंस और गरुड पर आरूढ होकर वे दोनों
वीर ब्रह्मा और विष्णु युद्ध करने लगे, तब
ब्रह्मा और विष्णु के गण भी परस्पर युद्ध करने लगे ॥ १० ॥
तावद्विमानगतयः सर्वा वै देवजातयः
दिदृक्षवः समाजग्मुः समरं तं
महाद्भुतम् ॥११
क्षिपंतः पुष्पवर्षाणि पश्यंतः
स्वैरमंबरे
सुपर्णवाहनस्तत्र क्रुद्धो वै
ब्रह्मवक्षसि ॥१२
मुमोच बाणानसहानस्त्रांश्च
विविधान्बहून्॥१३क
उस समय सभी देवगण उस परम अद्भुत
युद्ध को देखने की इच्छा से विमान पर चढ़कर वहाँ पहुँच गये । [वहाँ आकर] आकाश में
अवस्थित हो पुष्प की वृष्टि करते हुए वे युद्ध देखने लगे । गरुडवाहन भगवान् विष्णु
ने क्रुद्ध होकर ब्रह्मा के वक्षःस्थल पर अनेक प्रकार के असंख्य दुःसह बाणों और
अस्त्रों से प्रहार किया ॥ ११-१३क ॥
मुमोचाऽथ विधिः क्रुद्धो
विष्णोरुरसि दुःसहान् ॥१३
बाणाननलसंकाशानस्त्रांश्च बहुशस्तदा
तदाश्चर्यमिति स्पष्टं तयोः
समरगोचरम् ॥१४
समीक्ष्य दैवतगणाः
शशंसुर्भृशमाकुलाः॥१५क
तब विधाता भी क्रुद्ध होकर विष्णु
के हृदय पर अग्नि के समान बाण और अनेक प्रकार के अस्त्रों को छोड़ने लगे । उस समय
देवगण उन दोनों का वह अद्भुत युद्ध देखकर अतिशय व्याकुल हो गये और ब्रह्मा तथा
विष्णु की प्रशंसा करने लगे ॥ १३-१५क ॥
ततो विष्णुः सुसंक्रुद्धः
श्वसन्व्यसनकर्शितः ॥१५
माहेश्वरास्त्रं मतिमान् संदधे
ब्रह्मणोपरि
ततो ब्रह्मा भृशं क्रुद्धः
कंपयन्विश्वमेव हि ॥१६
अस्त्रं पाशुपतं घोरं संदधे
विष्णुवक्षसि
ततस्तदुत्थितं व्योम्नि तपनायुतसन्निभम्
॥१७
सहस्रमुखमत्युग्रं चंडवातभयंकरम्
अस्त्रद्वयमिदं तत्र
ब्रह्मविष्ण्वोर्भयंकरम् ॥१८
तत्पश्चात् युद्ध में तत्पर
महाज्ञानी विष्णु ने अतिशय क्रोध के साथ श्रान्त हो दीर्घ नि:श्वास लेते हुए
ब्रह्मा को लक्ष्य कर भयंकर माहेश्वर अस्त्र का संधान किया । ब्रह्मा ने भी अतिशय
क्रोध में आकर विष्णु के हृदय को लक्ष्य कर ब्रह्माण्ड को कम्पित करते हुए भयंकर
पाशुपत अस्त्र का प्रयोग किया । ब्रह्मा और विष्णु के सूर्य के समान हजारों
मुखवाले,
अत्यन्त उग्र तथा प्रचण्ड आँधी के समान भयंकर दोनों अस्त्र आकाश में
प्रकट हो गये ॥ १५-१८ ॥
इत्थं बभूव समरो ब्रह्मविष्ण्वोः
परस्परम्
ततो देवगणाः सर्वे विषण्णा
भृशमाकुलाः
ऊचुः परस्परं तात राजक्षोभे यथा
द्विजाः ॥१९
सृष्टिः स्थितिश्च संहारस्तिरो
भावोप्यनुग्रहः
यस्मात्प्रवर्तते तस्मै ब्रह्मणे च
त्रिशूलिने ॥२०
अशक्यमन्यैर्यदनुग्रहं विना
तृणक्षयोप्यत्र यदृच्छया क्वचित्॥२१
इस प्रकार ब्रह्मा और विष्णु का आपस
में भयंकर युद्ध होने लगा । हे तात ! उस युद्ध को देखकर सभी देवगण राजविप्लव के
समय ब्राह्मणों के समान अतिशय दुखी और व्याकुल होकर परस्पर कहने लगे —
जिसके द्वारा सृष्टि, स्थिति, प्रलय, तिरोभाव तथा अनुग्रह होता है और जिसकी कृपा
के बिना इस भूमण्डल पर अपनी इच्छा से एक तृण का भी विनाश करने में कोई भी समर्थ
नहीं है, उन त्रिशूलधारी ब्रह्मस्वरूप महेश्वर को नमस्कार है
॥ १९-२१ ॥
इति देवाभयं कृत्वा विचिन्वंतः
शिवक्षयम्
जग्मुः कैलासशिखरं यत्रास्ते चंद्र
शेखरः ॥२२
भयभीत देवतागण इस प्रकार सोचते हुए
चन्द्रशेखर महेश्वर जहाँ विराजमान थे, उस
शिवस्थान कैलास शिखर पर गये ॥ २२ ॥
दृष्ट्वैवममरा हृष्टाः
पदंतत्पारमेश्वरम्
प्रणेमुः प्रणवाकारं
प्रविष्टास्तत्र सद्मनि ॥२३
शिव के उस प्रणवाकार स्थान को देखकर
वे देवता प्रसन्न हुए और प्रणाम करके भवन में प्रविष्ट हुए ॥ २३ ॥
तेपि तत्र सभामध्ये मंडपे
मणिविष्टरे
विराजमानमुमया ददृशुर्देवपुंगवम् ॥२४
सव्योत्तरेतरपदं तदर्हितकरां बुजम्
स्वगणैः सर्वतो जुष्टं
सर्वलक्षणलक्षितम् ॥२५
वीज्यमानं विशेषजैः
स्त्रीजनैस्तीव्रभावनैः
शस्यमानं सदावेदैरनुगृह्णंतमीश्वरम्
॥२६
दृष्ट्वैवमीशममराः संतोषसलिलेक्षणाः
दंडवद्दूरतो वत्स
नमश्चक्रुर्महागणाः ॥२७
उन्होंने वहाँ सभा के मध्य में
स्थित मण्डप में देवी पार्वती के साथ रत्नमय आसन पर विराजमान देवश्रेष्ठ शंकर का
दर्शन किया । वे वाम चरण के ऊपर दक्षिण चरण और उसके ऊपर वाम करकमल रखे हुए थे,
समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न थे और चारों ओर शिवगण उनकी सेवामें
तत्पर थे, शिव के प्रति उत्तम भक्तिभाववाली कुशल रमणियाँ
उनपर चँवर डुला रही थीं, वेद निरन्तर उनकी स्तुति कर रहे थे
और वे अनुग्रह की दृष्टि से सबको देख रहे थे । हे वत्स ! उन महेश्वर शिव को देखकर
आनन्दाश्रु से परिपूर्ण नेत्रोंवाले देवताओं ने दूर से ही उन्हें दण्डवत् प्रणाम
किया ॥ २४-२७ ॥
तानवेक्ष्य पतिर्देवान्समीपे
चाह्वयद्गणैः
अथ संह्लादयन्देवान्देवो
देवशिखामणिः
अवोचदर्थगंभीरं वचनं मधुमंगलम् ॥२८
॥इति श्रीशिवमहापुराणे
विद्येश्वरसंहितायां षष्ठोऽध्यायः ६॥
भगवान् शंकर ने उन देवों को देखकर
अपने गणों से उन्हें समीप बुलवाया और देवशिरोमणि महादेव उन देवताओं को आनन्दित
करते हुए अर्थगम्भीर, मंगलमय तथा सुमधुर
वचन कहने लगे ॥ २८ ॥
॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के
अन्तर्गत प्रथम विद्येश्वरसंहिता में देवताओं की कैलासयात्रा का वर्णन नामक छठा
अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६ ॥
शेष जारी .............. शिवपुराणम् विश्वेश्वरसंहिता-अध्यायः ०७
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