मृतसञ्जीवन स्तोत्रम्
इस मृतसञ्जीवन कवच स्तोत्रम् को भगवान
राम के गुरु महर्षि वशिष्ठ जी द्वारा रचित है महर्षि वशिष्ठ जी ने अपने शिष्यों को इसे जिस
रूप में सुनाया वह यहाँ वर्णित है-
॥ मृतसञ्जीवन स्तोत्रम्॥
मृतसञ्जीवन कवच स्तोत्रम्
एवमाराध्य गौरीशं देवं
मृत्युञ्जयेश्वरम् ।
मृतसञ्जीवनं नाम्ना कवचं
प्रजपेत्सदा ॥ १॥
गौरीपति मृत्युञ्जयेश्वर भगवान् शंकर की विधिपूर्वक आराधना करने के पश्चात् भक्त को सदा मृतसञ्जीवन नामक कवच का
सुस्पष्ट पाठ करना चाहिये।
सारात्सारतरं पुण्यं
गुह्याद्गुह्यतरं शुभम् ।
महादेवस्य कवचं मृतसञ्जीवनाभिधम् ॥
२॥
महादेव भगवान् शङ्कर का यह
मृतसञ्जीवन नामक कवच तत्त्व का भी तत्त्व है, पुण्यप्रद
है गुह्य और मङ्गल प्रदान करनेवाला है।
समाहितमना भूत्वा श्रृणुष्व कवचं
शुभम् ।
श्रृत्वैतद्दिव्य कवचं रहस्यं कुरु
सर्वदा ॥ ३॥
[आचार्य शिष्य को उपदेश करते हैं कि
–
हे वत्स! ] अपने मन को एकाग्र करके इस मृतसञ्जीवन कवच को सुनो । यह
परम कल्याणकारी दिव्य कवच है । इसकी गोपनीयता सदा बनाये रखना।
वराभयकरो यज्वा सर्वदेवनिषेवितः ।
मृत्युञ्जयो महादेवः प्राच्यां मां
पातु सर्वदा ॥ ४॥
जरा से अभय करनेवाले,
निरन्तर यज्ञ करनेवाले, सभी देवताओं से आराधित
हे मृत्युञ्जय महादेव ! आप पूर्व-दिशा में मेरी सदा रक्षा करें।
दधानः शक्तिमभयां त्रिमुखं षड्भुजः
प्रभुः ।
सदाशिवोऽग्निरूपी मामाग्नेय्यां
पातु सर्वदा ॥ ५॥
अभय प्रदान करनेवाली शक्ति को धारण
करनेवाले,
तीन मुखोंवाले तथा छ: भुजाओंवाले, अग्रिरूपी
प्रभु सदाशिव अग्रिकोण में मेरी सदा रक्षा करें।
अष्टादशभुजोपेतो दण्डाभयकरो विभुः ।
यमरूपी महादेवो दक्षिणस्यां सदाऽवतु
॥ ६॥
अट्ठारह भुजाओं से युक्त,
हाथ में दण्ड और अभयमुद्रा धारण करनेवाले, सर्वत्र
व्याप्त यमरुपी महादेव शिव दक्षिण-दिशा में मेरी सदा रक्षा करें।
खड्गाभयकरो धीरो रक्षोगणनिषेवितः ।
रक्षोरूपी महेशो मां नैरृत्यां
सर्वदाऽवतु ॥ ७॥
हाथ में खड्ग और अभयमुद्रा धारण
करनेवाले,
धैर्यशाली, दैत्यगणों से आराधित रक्षोरुपी
महेश नैर्ऋत्यकोण में मेरी सदा रक्षा करें।
पाशाभयभुजः सर्वरत्नाकरनिषेवितः ।
वरूणात्मा महादेवः पश्चिमे मां
सदाऽवतु ॥ ८॥
हाथ में अभयमुद्रा और पाश धारण
करनेवाले,
सभी रत्नाकरों से सेवित, वरुणस्वरूप महादेव
भगवान् शंकर पश्चिम- दिशा में मेरी सदा रक्षा करें।
गदाभयकरः प्राणनायकः सर्वदागतिः ।
वायव्यां मारुतात्मा मां शङ्करः
पातु सर्वदा ॥ ९॥
हाथों में गदा और अभयमुद्रा धारण
करनेवाले,
प्राणों के रक्षक, सर्वदा गतिशील वायुस्वरूप
शंकरजी वायव्यकोण में मेरी सदा रक्षा करें।
शङ्खाभयकरस्थो मां नायकः परमेश्वरः
।
सर्वात्मान्तरदिग्भागे पातु मां
शङ्करः प्रभुः ॥ १०॥
हाथों में शंख और अभयमुद्रा धारण
करनेवाले नायक (सर्वमार्गद्रष्टा) सर्वात्मा सर्वव्यापक परमेश्वर भगवान् शिव समस्त
दिशाओं के मध्य में मेरी रक्षा करें।
शूलाभयकरः सर्वविद्यानमधिनायकः ।
ईशानात्मा तथैशान्यां पातु मां
परमेश्वरः ॥ ११॥
हाथों में शंख और अभयमुद्रा धारण
करनेवाले,
सभी विद्याओं के स्वामी, ईशानस्वरूप भगवान्
परमेश्वर शिव ईशानकोण में मेरी रक्षा करें।
ऊर्ध्वभागे ब्रह्मरूपी
विश्वात्माऽधः सदाऽवतु ।
शिरो मे शङ्करः पातु ललाटं
चन्द्रशेखरः ॥ १२॥
ब्रह्मरूपी शिव मेरी ऊर्ध्वभाग में
तथा विश्वात्मस्वरूप शिव अधोभाग में मेरी सदा रक्षा करें । शंकर मेरे सिर की और
चन्द्रशेखर मेरे ललाट की रक्षा करें।
भ्रूमध्यं सर्वलोकेशस्त्रिनेत्रो
लोचनेऽवतु ।
भ्रूयुग्मं गिरिशः पातु कर्णौ पातु
महेश्वरः ॥ १३॥
मेरे भौंहों के मध्य में सर्वलोकेश
और दोनों नेत्रों की त्रिनेत्र भगवान् शंकर रक्षा करें,
दोनों भौंहों की रक्षा गिरिश एवं दोनों कानों की रक्षा भगवान्
महेश्वर करें।
नासिकां मे महादेव ओष्ठौ पातु
वृषध्वजः ।
जिह्वां मे
दक्षिणामूर्तिर्दन्तान्मे गिरिशोऽवतु ॥ १४॥
महादेव मेरी नासिका की तथा वृषभध्वज
मेरे दोनों ओठों की सदा रक्षा करें । दक्षिणामूर्ति मेरी जिह्वा की तथा गिरिश मेरे
दाँतों की रक्षा करें।
मृतुय्ञ्जयो मुखं पातु कण्ठं मे
नागभूषणः ।
पिनाकी मत्करौ पातु त्रिशूली हृदयं
मम ॥ १५॥
मृत्युञ्जय मेरे मुख की एवं नागभूषण
भगवान् शिव मेरे कण्ठ की रक्षा करें । पिनाकी मेरे दोनों हाथों की तथा त्रिशूली
मेरे हृदय की रक्षा करें।
पञ्चवक्त्रः स्तनौ पातु उदरं
जगदीश्वरः ।
नाभिं पातु विरूपाक्षः पार्श्वौ मे
पार्वतीपतिः ॥ १६॥
पञ्चवक्त्र मेरे दोनों स्तनो की और
जगदीश्वर मेरे उदर की रक्षा करें । विरूपाक्ष नाभि की और पार्वतीपति पार्श्वभाग की
रक्षा करें।
कटिद्वयं गिरीशो मे पृष्ठं मे
प्रमथाधिपः ।
गुह्यं महेश्वरः पातु ममोरू पातु
भैरवः ॥ १७॥
गिरीश मेरे दोनों कटिभाग की तथा
प्रमथाधिप पृष्ठभाग की रक्षा करें । महेश्वर मेरे गुह्यभाग की और भैरव मेरे दोनों
ऊरुओं की रक्षा करें।
जानुनी मे जगद्धर्ता जङ्घे मे जगदम्बिका
।
पादौ मे सततं पातु लोकवन्द्यः
सदाशिवः ॥ १८॥
जगद्धर्ता मेरे दोनों घुटनों की,
जगदम्बिका मेरे दोनों जंघो की तथा लोकवन्दनीय सदाशिव निरन्तर मेरे
दोनों पैरों की रक्षा करें।
गिरिशः पातु मे भार्यां भवः पातु
सुतान्मम ।
मृत्युञ्जयो ममायुष्यं चित्तं मे गणनायकः
॥ १९॥
गिरीश मेरी भार्या की रक्षा करें
तथा भव मेरे पुत्रों की रक्षा करें । मृत्युञ्जय मेरे आयु की गणनायक मेरे चित्त की
रक्षा करें।
सर्वाङ्गं मे सदा पातु कालकालः
सदाशिवः ।
एतत्ते कवचं पुण्यं देवतानां च
दुर्लभम् ॥ २०॥
कालों के काल सदाशिव मेरे सभी अंगो की
रक्षा करें । [ हे वत्स ! ] देवताओं के लिये भी दुर्लभ इस पवित्र कवच का वर्णन
मैंने तुमसे किया है।
मृतसञ्जीवनं नाम्ना महादेवेन
कीर्तितम् ।
सहस्रावर्तनं चास्य पुरश्चरणमीरितम्
॥ २१॥
महादेवजी ने मृतसञ्जीवन नामक इस कवच
को कहा है । इस कवच की सहस्त्र आवृत्ति को पुरश्चरण कहा गया है।
यः पठेच्छृणुयान्नित्यं
श्रावयेत्सुसमाहितः ।
स कालमृत्युं निर्जित्य सदायुष्यं
समश्नुते ॥ २२॥
जो अपने मन को एकाग्र करके नित्य
इसका पाठ करता है, सुनता अथवा दूसरों को
सुनाता है, वह अकाल मृत्यु को जीतकर पूर्ण आयु का उपयोग करता
है।
हस्तेन वा यदा स्पृष्ट्वा मृतं
सञ्जीवयत्यसौ ।
आधयो व्याधयस्तस्य न भवन्ति कदाचन ॥
२३॥
जो व्यक्ति अपने हाथ से मरणासन्न
व्यक्ति के शरीर का स्पर्श करते हुए इस मृतसञ्जीवन कवच का पाठ करता है,
उस आसन्नमृत्यु प्राणी के भीतर चेतनता आ जाती है । फिर उसे कभी
आधि-व्याधि नहीं होतीं।
कालमृत्युमपि प्राप्तमसौ जयति
सर्वदा ।
अणिमादिगुणैश्वर्यं लभते मानवोत्तमः
॥ २४॥
यह मृतसञ्जीवन कवच काल के गाल में
गये हुए व्यक्ति को भी जीवन प्रदान कर देता है और वह मानवोत्तम अणिमा आदि गुणों से
युक्त ऐश्वर्य को प्राप्त करता है।
युद्धारम्भे
पठित्वेदमष्टाविंशतिवारकम् ।
युद्धमध्ये स्थितः शत्रुः सद्यः
सर्वैर्न दृश्यते ॥ २५॥
युद्ध आरम्भ होने के पूर्व जो इस
मृतसञ्जीवन कवच का २८ बार पाठ करके रणभूमि में उपस्थित होता है,
वह उस समय सभी शत्रुओं से अदृश्य रहता है।
न ब्रह्मादीनि चास्त्राणि क्षयं
कुर्वन्ति तस्य वै ।
विजयं लभते देवयुद्धमध्येऽपि सर्वदा
॥ २६॥
यदि देवताओं के भी साथ युद्ध छिड
जाय तो उसमें उसका विनाश ब्रह्मास्त्र भी नही कर सकते,
वह विजय प्राप्त करता है।
प्रातरुत्थाय सततं यः पठेत्कवचं
शुभम् ।
अक्षय्यं लभते सौख्यमिह लोके परत्र
च ॥ २७॥
जो प्रात:काल उठकर इस कल्याणकारी
कवच का सदा पाठ करता है, उसे इस लोक तथा
परलोक में भी अक्षय्य सुख प्राप्त होता है।
सर्वव्याधिविनिर्मृक्तः
सर्वरोगविवर्जितः ।
अजरामरणो भूत्वा सदा षोडशवार्षिकः ॥
२८॥
वह सम्पूर्ण व्याधियों से मुक्त हो
जाता है,
सब प्रकार के रोग उसके शरीर से भाग जाते हैं । वह अजर-अमर होकर सदा के
लिये सोलह वर्षवाला व्यक्ति बन जाता है।
विचरत्यखिलाँलोकान्प्राप्य भोगांश्च
दुर्लभान् ।
तस्मादिदं महागोप्यं कवचं
समुदाहृतम् ॥ २९॥
इस लोक में दुर्लभ भोगों को प्राप्त
कर सम्पूर्ण लोकों में विचरण करता रहता है । इसलिये इस महागोपनीय कवच को
मृतसञ्जीवन नाम से कहा है।
मृतसञ्जीवनं नाम्ना देवतैरपि
दुर्लभम् ॥ ३०॥
यह देवताओं के लिय भी दुर्लभ है।
॥ इति श्रीवसिष्ठप्रणितं मृतसञ्जीवन स्तोत्रम् सम्पूर्णम् ॥
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