महामृत्युञ्जयकवचम्
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्यम् उत्तरार्द्ध
के पटल ४३ में मृत्युञ्जयपञ्चाङ्ग निरूपण अंतर्गत महामृत्युञ्जयकवचम् के
विषय में बतलाया गया है।
महामृत्युञ्जय कवचम्
रुद्रयामलतन्त्रोक्तं देवीरहस्यम् त्रयश्चत्वारिंश
पटल:
Shri Devi Rahasya Patal 43
देवीरहस्य पटल ४३ मृत्युञ्जय कवच
अथ त्रयश्चत्वारिंशः पटल:
महामृत्युञ्जयकवचम्
श्री भैरव उवाच
शृणुष्व परमेशानि कवचं मन्मुखोदितम्
।
महामृत्युञ्जयस्यास्य न देयं
परमाद्भुतम् ॥ १ ॥
यं धृत्वा यं पठित्वा च श्रुत्वा च
कवचोत्तमम् ।
त्रैलोक्याधिपतिर्भूत्वा
सुखितोऽस्मि महेश्वरि ॥२॥
तदेव वर्णयिष्यामि तव प्रीत्या
वरानने ।
तथापि परमं तत्त्वं न दातव्यं
दुरात्मने ॥ ३ ॥
श्री भैरव ने कहा कि हे परमेशानि!
मेरे मुख से निःसृत महामृत्युञ्जय के परम अद्भुत कवच को सुनिये इसे किसी को भी
नहीं बताना चाहिये। हे महेश्वरि! जिस उत्तम कवच को धारण करके,
इसका पाठ करके, इसका श्रवण करके मैं तीनों
लोकों का अधिपति होकर सुखपूर्वक रहता हूँ। हे वरानने! तुम्हारी प्रीति के कारण उसी
उत्तम कवच का वर्णन मैं करता हूँ। तुम भी इस परम तत्त्व को दुष्टों को मत बतलाना
।।१-३।।
मृत्युञ्जयकवच विनियोगः
अस्य श्रीमहामृत्युञ्जयकवचस्य
श्रीभैरव ऋषिः, गायत्र्यं छन्दः,
श्रीमहामृत्युञ्जयो महारुद्रो देवता, ॐ बीजं,
जुं शक्तिः, सः कीलकं, हमिति
तत्त्वं, चतुर्वर्गसाधने मृत्युञ्जयकवचपाठे विनियोगः ।
विनियोग —
इस महामुत्युञ्जय कवच के श्रीभैरव ऋषि हैं, गायत्री
छन्द है, श्रीमहामृत्युञ्जय महारुद्र देवता हैं, ॐ बीज है, जुं शक्ति है, सः
कीलक है, हुं तत्त्व है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्षरूप चतुर्वर्ग
की साधना हेतु पाठ में इस कवच का विनियोग किया जाता है।
मृत्युञ्जय ध्यानम्
चन्द्रमण्डलमध्यस्थं रुद्रं भाले
विचिन्त्य तम् ।
तत्रस्थं चिन्तयेत् साध्यं मृत्युं
प्राप्तोऽपि जीवति ॥ १ ॥
ध्यान - रुद्र के मस्तक पर शोभित
चन्द्रमण्डल के मध्य में रुद्र के स्थित होने के रूप में चिन्तन करने से मृतक भी
जीवित हो जाता है ।। १ ।।
महामृत्युञ्जयकवचम्
अथ मृत्युञ्जयकवचम्
ॐ जूं सः हौं शिरः पातु देवो
मृत्युञ्जयो मम ।
ॐ श्रीं शिवो ललाटं मे ॐ हौं भ्रुवौ
सदाशिवः॥ २ ॥
नीलकण्ठोऽवतान्नेत्रे कपर्दी
मेऽवताच्छुती ।
त्रिलोचनोऽवताद् गण्डौ नासां मे
त्रिपुरान्तकः ॥३॥
मुखं पीयूषघटभृदोष्ठौ मे
कृत्तिकाम्बरः ।
हनुं मे हाटकेशानो मुखं वटुकभैरवः ॥
४ ॥
ॐ जूं सः हौं मृत्युञ्जय देव मेरे
शिर की रक्षा करें। ॐ श्रीं शिव मेरे ललाट की रक्षा करें। ॐ ह्रौं सदाशिव मेरे
भ्रुवों की रक्षा करें। नीलकण्ठ नेत्रों की रक्षा करें। कपर्दी मेरे कानों की
रक्षा करें। त्रिलोचन मेरे कपोलों की रक्षा करें। त्रिपुरान्तक नाक की रक्षा करें।
घटधारी मुख की और कृत्तिकाम्बर ओठों की रक्षा करें। हाटकेश ठुड्डी की और मुख की
रक्षा वटुकभैरव करें ।। २-४ ।।
कन्धरां कालमथनो गलं गणप्रियोऽवतु ।
स्कन्धौ स्कन्दपिता पातु हस्तौ मे
गिरिशोऽवतु ॥ ५ ॥
नखान् मे गिरिजानाथः
पायादङ्गुलिसंयुतान् ।
स्तनौ तारापतिः पातु वक्षः
पशुपतिर्मम ॥६॥
कुक्षिं कुबेरवरदः पार्श्वों में
मारशासनः ।
शर्वः पातु तथा नाभिं शूली पृष्ठं
ममावतु ॥७॥
कालमथन कन्धों की,
गणप्रिय गले की रक्षा करें। स्कन्दपिता कन्धों की और गिरीश हाथों की
रक्षा करें। गिरिजानाथ नखों सहित अँगुलियों की रक्षा करें। तारापति स्तनों की और
पशुपति वक्ष की रक्षा करें। कुबेर वरद कुक्षि की एवं मारशासन पार्श्वों की रक्षा
करें। शर्व मेरे नाभि की और शूली पीठ की रक्षा करें।।५-७।।
शिश्नं मे शङ्करः पातु गुह्यं
गुह्यकवल्लभः ।
कटिं कालान्तकः पायादूरू
मेऽन्धकघातकः ॥८ ॥
जागरूकोऽवताज्जानू जङ्घे मे
कालभैरवः ।
गुल्फौ पायाज्जटाधारी पादौ
मृत्युञ्जयोऽवतु ॥९॥
पादादिमूर्धपर्यन्तमघोरः पातु मे
सदा ।
शिरसः पादपर्यन्तं सद्योजातो ममावतु
।। १० ।।
रक्षाहीनं नामहीनं वपुः पात्वमृतेश्वरः
।
शङ्कर मेरे शिश्न की और गुह्यकवल्लभ
गुह्य की रक्षा करें। कालान्तक कमर की रक्षा करें। अन्धकपातक ऊरुओं की रक्षा करें।
जागरूक जानुओं की रक्षा करें। कालभैरव जड़ों की रक्षा करें। जटाधारी गुल्फों की और
मृत्युञ्जय पैरों की रक्षा करें। पाँवों से लेकर मूर्धा तक अघोर मेरी सदा रक्षा
करें। शिर से पैरों तक की रक्षा सद्योजात करें। रक्षाहीन और नामहीन शरीर की रक्षा
अमृतेश्वर करें।।८-१० ।।
पूर्वे बलविकरणी दक्षिणे कालशासनः ॥
११ ॥
पश्चिमे पार्वतीनाथो ह्युत्तरे मां
मनोन्मनः ।
ऐशान्यामीश्वरः
पायादाग्नेय्यामग्निलोचनः ॥ १२ ॥
नैर्ऋत्यां शम्भुरव्यान्मां
वायव्यां वायुवाहनः ।
उर्ध्वे बलप्रमथनः पाताले परमेश्वरः
।।१३।।
दशदिक्षु सदा पातु महामृत्युञ्जयश्च
माम् ।
पूर्व में बलविकरण और दक्षिण में
कालशासन मेरी रक्षा करें। पश्चिम में पार्वतीनाथ और उत्तर में मेरी रक्षा मनोन्मन
करें। ईशान में ईश्वर और आग्नेय में अग्निलोचन मेरी रक्षा करें। नैर्ऋत्य में
अव्यय शम्भु और वायव्य में वायुवाहन रक्षा करें। ऊपर में बलप्रथमन और पाताल में
परमेश्वर मेरी रक्षा करें। दशो दिशाओं में सर्वदा मेरी रक्षा महामृत्युञ्जय करें।।
११-१३।।
रणे राजकुले द्यूते विषमे
प्राणसंशये ॥ १४ ॥
पायाद् ॐ जुं महारुद्रो देवदेवो
दशाक्षरः।
प्रभाते पातु मां ब्रह्मा मध्याह्ने
भैरवोऽवतु ॥ १५ ॥
सायं बलप्रमथनो निशायां नित्यचेतनः
।
अर्धरात्रे महादेवो निशान्ते मां
महोमयः ॥ १६ ॥
सर्वदा सर्वतः पातु ॐ जुं सः हौं
मृत्युञ्जयः ।
युद्ध में, राजदरबार में, जुए में, विषम प्राणसंशय में 'ॐ जुं महारुद्र देव देव' यह दशाक्षर मन्त्र मेरी रक्षा करे। प्रातः काल में मेरी रक्षा ब्रह्मा करें और मध्याह्न में भैरव करें। शाम में बलप्रमथन और रात में नित्य चेतन मेरी रक्षा करें। आधी रात में महादेव और निशान्त में मनोन्मन मेरी रक्षा करें सदैव सभी ओर मेरी रक्षा ॐ जूंसः हौं मृत्युञ्जय करें।।१४-१६।।
महामृत्युञ्जय कवचम् फलश्रुतिः
इतीदं कवचं पुण्यं त्रिषु लोकेषु
दुर्लभम् ॥१७॥
सर्वमन्त्रमयं गुह्यं सर्वतन्त्रेषु
गोपितम् ।
पुण्यं पुण्यप्रदं दिव्यं
देवदेवाधिदैवतम् ॥ १८ ॥
य इदं च पठेन्मन्त्री कवचं
वार्चयेत् ततः ।
तस्य हस्ते महादेवि
त्र्यम्बकस्याष्ट सिद्धयः ।। १९ ।।
रणे धृत्वा चरेद्युद्धं हत्वा
शत्रूञ्जयं लभेत् ।
जयं कृत्वा गृहं देवि संप्राप्स्यति
सुखी पुनः ॥ २० ॥
यह पुनीत कवच तीनों लोकों में
दुर्लभ है। सभी तन्त्रों में गोपित एवं सभी मन्त्रों से युक्त गुह्य है। यह पुनीत
पुण्यप्रद दिव्य देवदेव अधिदैवत है जो साधक इसका पाठ करता है या इससे अर्चन करता
है,
उसके हाथ में त्र्यम्बक की आठों सिद्धियाँ होती हैं। इसे धारण करके
जो युद्ध करता है, वह शत्रु पर विजय प्राप्त करता है। विजय प्राप्त
करके घर आकर फिर सुखी होता है।। १७-२० ।।
महाभये महारोगे महामारीभये तथा ।
दुर्भिक्षे शत्रुसंहारे पठेत्
कवचमादरात् ॥ २१ ॥
सर्वं तत् प्रशमं याति
मृत्युञ्जयप्रसादतः ।
धनं पुत्रान् सुखं लक्ष्मीमारोग्यं
सर्वसंपदः ॥ २२॥
प्राप्नोति साधकः सद्यो देवि सत्यं
न संशयः ।
इतीदं कवचं पुण्यं महामृत्युञ्जयस्य
तु ।
गोप्यं सिद्धिप्रदं गुह्यं गोपनीयं
स्वयोनिवत् ॥ २३ ॥
महाभय में,
महारोग में, महामारी के भय में, अकाल में, शत्रुसंहार में जो साधक इसका पाठ
आदरपूर्वक करता है, मृत्युञ्जय की कृपा से उन सबों का प्रशमन
हो जाता है धन, पुत्र, सुख, लक्ष्मी, आरोग्य एवं सभी सम्पत्तियों को साधक शीघ्र
प्राप्त करता है - यह सत्य है, शङ्काविहीन है। महामृत्युञ्जय
का यह कवच पुनीत, गोप्य एवं सिद्धि- प्रदायक है। अपनी योनि
के समान ही यह भी गोपनीय है ।। २१-२३ ।।
इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे
श्रीदेवीरहस्ये मृत्युञ्जयकवचनिरूपणं नाम त्रयश्चत्वारिंशः पटलः ॥४३॥
इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त
श्रीदेवीरहस्य की भाषा टीका में मृत्युञ्जयकवच निरूपण नामक त्रयश्चत्वारिंश पटल
पूर्ण हुआ।
आगे जारी............... रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य पटल 44
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