महाकाल स्तुति

महाकाल स्तुति

महाकाल स्तुतिः महाकालेश्वर महिमा की अनंत है इन्हें भोलेनाथ, भगवान शिवशंकर, महाकाल आदि कई नामों से पुकारा जाता है।

अवन्तिकायां विहितावतारं

मुक्ति प्रदानाय च सज्जनानाम्‌

अकालमृत्योः परिरक्षणार्थं

वन्दे महाकाल महासुरेशम॥

'अर्थात जिन्होंने अवन्तिका नगरी (उज्जैन) में संतजनों को मोक्ष प्रदान करने के लिए अवतार धारण किया है, अकाल मृत्यु से बचने हेतु मैं उन 'महाकाल' नाम से सुप्रतिष्ठित भगवान आशुतोष शंकर की आराधना, अर्चना, उपासना, वंदना करता हूँ।

इस दिव्य पवित्र मंत्र से निःसृत अर्थध्वनि भगवान शिव के सहस्र रूपों में सर्वाधिक तेजस्वी, जागृत एवं ज्योतिर्मय स्वरूप सुपूजित श्री महाकालेश्वर की असीम, अपार महत्ता को दर्शाती है।

शिव पुराण की 'कोटि-रुद्र संहिता' के सोलहवें अध्याय में तृतीय ज्योतिर्लिंग भगवान महाकाल के संबंध में सूतजी द्वारा जिस कथा को वर्णित किया गया है, उसके अनुसार अवंती नगरी में एक वेद कर्मरत ब्राह्मण हुआ करता था। वह ब्राह्मण पार्थिव शिवलिंग निर्मित कर उनका प्रतिदिन पूजन किया करता था। उन दिनों रत्नमाल पर्वत पर दूषण नामक राक्षस ने ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त कर समस्त तीर्थस्थलों पर धार्मिक कर्मों को बाधित करना आरंभ कर दिया।

वह अवंती नगरी में भी आया और सभी ब्राह्मणों को धर्म-कर्म छोड़ देने के लिए कहा किन्तु किसी ने उसकी आज्ञा नहीं मानी। फलस्वरूप उसने अपनी दुष्ट सेना सहित पावन ब्रह्मतेजोमयी अवंतिका में उत्पात मचाना प्रारंभ कर दिया। जन-साधारण त्राहि-त्राहि करने लगे और उन्होंने अपने आराध्य भगवान शंकर की शरण में जाकर प्रार्थना, स्तुति शुरू कर दी। तब जहाँ वह सात्विक ब्राह्मण पार्थिव शिव की अर्चना किया करता था, उस स्थान पर एक विशाल गड्ढा हो गया और भगवान शिव अपने विराट स्वरूप में उसमें से प्रकट हुए।

विकट रूप धारी भगवान शंकर ने भक्तजनों को आश्वस्त किया और गगनभेदी हुंकार भरी, 'मैं दुष्टों का संहारक महाकाल हूँ...' और ऐसा कहकर उन्होंने दूषण व उसकी हिंसक सेना को भस्म कर दिया। तत्पश्चात उन्होंने अपने श्रद्धालुओं से वरदान माँगने को कहा। अवंतिकावासियों ने प्रार्थना की-

'महाकाल, महादेव! दुष्ट दंड कर प्रभो

मुक्ति प्रयच्छ नः शम्भो संसाराम्बुधितः शिव॥

अत्रैव्‌ लोक रक्षार्थं स्थातव्यं हि त्वया शिव

स्वदर्श कान्‌ नरांछम्भो तारय त्वं सदा प्रभो॥

अर्थात हे महाकाल, महादेव, दुष्टों को दंडित करने वाले प्रभु! आप हमें संसार रूपी सागर से मुक्ति प्रदान कीजिए, जनकल्याण एवं जनरक्षा हेतु इसी स्थान पर निवास कीजिए एवं अपने (इस स्वयं स्थापित स्वरूप के) दर्शन करने वाले मनुष्यों को अक्षय पुण्य प्रदान कर उनका उद्धार कीजिए।

इस प्रार्थना से अभिभूत होकर भगवान महाकाल स्थिर रूप से वहीं विराजित हो गए और समूची अवंतिका नगरी शिवमय हो गई।

अनेकानेक प्राचीन वांग्मय महाकाल की व्यापक महिमा से आपूरित हैं क्योंकि वे कालखंड, काल सीमा, काल-विभाजन आदि के प्रथम उपदेशक व अधिष्ठाता हैं। इन्ही भगवान महाकाल की श्रीस्कन्दमहापुराण के ब्रह्मखण्ड से स्तुति पाठकों के लाभार्थ दिया जा रहा है।

महाकाल स्तुति

महाकालस्तुतिः

ब्रह्मोवाच -

नमोऽस्त्वनन्तरूपाय नीलकण्ठ नमोऽस्तु ते ।

अविज्ञातस्वरूपाय कैवल्यायामृताय च ॥ १॥

ब्रह्माजी बोले-हे नीलकण्ठ! आपके अनन्त रूप हैं, आपको बार-बार नमस्कार है । आपके स्वरूप का यथावत् ज्ञान किसी को नहीं है, आप कैवल्य एवं अमृतस्वरूप हैं, आपको नमस्कार है ॥ १॥

नान्तं देवा विजानन्ति यस्य तस्मै नमो नमः ।

यं न वाचः प्रशंसन्ति नमस्तस्मै चिदात्मने ॥ २॥

जिनका अन्त देवता नहीं जानते, उन भगवान शिव को नमस्कार है, नमस्कार है । जिनकी प्रशंसा (गुणगान) करने में वाणी असमर्थ है, उन चिदात्मा शिव को नमस्कार है ॥ २॥

योगिनो यं हृदःकोशे प्रणिधानेन निशचलाः ।

ज्योतीरूपं प्रपश्यन्ति तस्मै श्रीब्रह्मणे नमः ॥ ३॥

योगी समाधि में निश्चल होकर अपने हृदयकमल के कोष में जिनके ज्योतिर्मय स्वरूप का दर्शन करते हैं, उन श्रीब्रह्म को नमस्कार है ॥ ३॥

कालात्पराय कालाय स्वेच्छया पुरुषाय च ।

गुणत्रयस्वरूपाय नमः प्रकृतिरूपिणे ॥ ४॥

जो काल से परे, कालस्वरूप, स्वेच्छा से पुरुषरूप धारण करनेवाले, त्रिगुणस्वरूप तथा प्रकृतिरूप हैं, उन भगवान शंकर को नमस्कार है ॥ ४॥

विष्णवे सत्त्वरूपाय रजोरूपाय वेधसे ।

तमोरूपाय रुद्राय स्थितिसर्गान्तकारिणे ॥ ५॥

हे जगत की स्थिति, उत्पत्ति और संहार करनेवाले, सत्त्वस्वरूप विष्णु, रजोरूप ब्रह्मा और तमोरूप रुद्र! आपको नमस्कार है ॥ ५॥

नमो नमः स्वरूपाय पञ्चबुद्धीन्द्रियात्मने ।

क्षित्यादिपञ्चरूपाय नमस्ते विषयात्मने ॥ ६॥

बुद्धि, इन्द्रियरूप तथा पृथ्वी आदि पंचभूत और शब्द-स्पर्शादि पंच विषयस्वरूप! आपको बार-बार नमस्कार है ॥ ६॥

नमो ब्रह्माण्डरूपाय तदन्तर्व्तिने नमः ।

अर्वाचीनपराचीनविश्वरूपाय ते नमः ॥ ७॥

जो ब्रह्माण्डस्वरूप हैं और ब्रह्माण्ड के अन्तः प्रविष्ट हैं तथा जो अर्वाचीन भी हैं और प्राचीन भी हैं एवं सर्वस्वरूप हैं, उन्हें नमस्कार है, नमस्कार है ॥ ७॥

अचिन्त्यनित्यरूपाय सदसत्पतये नमः ।

नमस्ते भक्तकृपया स्वेच्छाविष्कृतविग्रह ॥ ८॥

अचिन्त्य और नित्य स्वरूपवाले तथा सत्-असत् के स्वामिन्! आपको नमस्कार है । हे भक्तों के ऊपर कृपा करने के लिये स्वेच्छा से सगुण स्वरूप धारण करनेवाले! आपको नमस्कार है ॥ ८॥

तव निःश्वसितं वेदास्तव वेदोऽखिलं जगत् ।

विश्वभूतानि ते पादः शिरो द्यौः समवर्तत ॥ ९॥

हे प्रभो! वेद आपके निःश्वास हैं, सम्पूर्ण जगत् आपका स्वरूप है । विश्व के समस्त प्राणी आपके चरणरूप हैं, आकाश आपका सिर है ॥ ९॥

नाभ्या आसीदन्तरिक्षं लोमानि च वनस्पतिः ।

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यस्तव प्रभो ॥ १०॥

हे नाथ! आपकी नाभि से अन्तरिक्ष की स्थिति है, आपके लोम वनस्पति हैं । भगवन्! आपके मन से चन्द्रमा और नेत्रों से सूर्य की उत्पत्ति हुई है ॥ १०॥

त्वमेव सर्व त्वयि देव सर्वं

सर्वस्तुतिस्तव्य इह त्वमेव ।

ईश त्वया वास्यमिदं हि सर्वं

नमोऽस्तु भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥ ११॥

हे देव! आप ही सब कुछ हैं, आपमें ही सबकी स्थिति है । इस लोक में सब प्रकार स्तुतियों के द्वारा स्तवन करने योग्य आप ही हैं । हे ईश्वर! आपके द्वारा यह सम्पूर्ण विश्वप्रपंच व्याप्त है, आपको पुनः-पुनः नमस्कार है ॥ ११॥

॥ इति श्रीस्कन्दमहापुराणे ब्रह्मखण्डे महाकालस्तुतिः सम्पूर्णा ॥

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दमहापुराण के ब्रह्मखण्ड में महाकाल स्तुति सम्पूर्ण हुई ॥

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