क्रम स्तोत्र

क्रम स्तोत्र

इसमें कुल तीस श्लोक हैं किन्तु तीसवाँ श्लोक आचार्य अभिनवगुप्त के द्वारा रचित इस स्तोत्र के समय का ज्ञान कराता है । इस प्रकार केवल उन्तिस श्लोक ही वास्तविक रूप से 'क्रमस्तोत्र' से सम्बद्ध हैं । काश्मीर की घाटी में तीन प्रकार की दर्शन विद्या प्रवाहित थीक्रम, कुल और प्रत्यभिज्ञा । इस दर्शन के अनुसार मुक्ति क्रमिक है । यह सहसा नहीं प्राप्त की जा सकती । अपनी सम्पूर्ण अन्तः एवं बाह्य क्रियाओं और विचारों को पूर्णतः शुद्ध करके क्रमशः मोक्ष को अथवा शिवत्व को प्राप्त किया जा सकता है। काश्मीर शैव दर्शन में प्रतिपादित चारों उपायों में शाक्तोपाय को मान्यता देनेवाला दर्शन है । मन्त्रोच्चारण, ध्यान, समाधि, जप, तप, व्रतानुष्ठानादि ही वे क्रमिक अवस्थायें हैं जिनसे मुक्ति प्राप्त की जा सकती है ।

क्रमस्तोत्रम्

क्रमस्तोत्रम्

Kramastotram

क्रमस्तोत्र

अयं दुःखव्रातव्रतपरिगमे पारणविधि-

महासौख्यासारप्रसरणरसे दुर्दिनमिदम् ।

यदन्यन्यक्कृत्या विषमविशिखप्लोषणगुरो-

विभोः स्तोत्रे शश्वत्प्रतिफलति चेतो गतभयम् ॥ १ ॥

दुःख के समूहरूपी व्रत के समाप्त होने पर यह पारणविधि है। महासुख के समूह के प्रसरण रस के विषय में यह दुर्दिन है कि अन्य सभी को तिरस्कृत कर मेरा मन निर्भय होकर कष्टरूपी बाणों को नष्ट करनेवाले गुरु भगवान् शङ्कर के स्तोत्र में निरन्तर लगा हुआ है ॥ १ ॥

विमृश्य स्वात्मानं विमृशति पुनः स्तुत्यचरितं

तथा स्तोता स्तोत्रे प्रकटयति भेदैकविषये ।

विमृष्टश्च स्वात्मा निखिलविषयज्ञानसमये

तदित्थं त्वत्स्तोत्रेऽहमिह सततं यत्नरहितः ॥ २ ॥

कोई भी स्तोता अपने विषय में विचार कर पुनः स्तुत्यचरितवाले भगवान् का विमर्श करता है तो इस प्रकार वह स्तोत्र में भेद प्रकट करता है और जब सम्पूर्ण विषय के ज्ञान के समय में अपनी आत्मा का विमर्श होता है तो हे भगवान्! इस प्रकार तुम्हारे स्तोत्र में मैं यत्नरहित हो जाता हूँ ॥ २ ॥

अनामृष्टः स्वात्मा न हि भवति भावप्रमितिभाक्

नामृष्टः स्वात्मेत्यपि हि न विनाऽऽमर्शनविधेः ।

शिवश्चासौ स्वात्मा स्फुरदखिलभावैकसरस-

स्ततोऽहं त्वत्स्तोत्रे प्रवणहृदयो नित्यसुखितः ॥ ३ ॥

जिस आत्मा का विमर्श नहीं हुआ वह आप (ज्ञान) की प्रभा का विषय नहीं बनता और बिना आमर्श के आत्मा अनामृष्ट रहता है। शिव और आत्मा दोनों जब स्फुरणयुक्त समस्तभावों से एकरस हो जाते हैं तो हे भगवान् ! तब मैं प्रणवहृदयवाला होकर आपके स्तोत्र में नित्य सु:खी होता हूँ ॥ ३ ॥

विचित्रैर्जात्यादिभ्रमणपरिपाटीपरिकरै-

रवाप्तं सार्वज्ञं हृदय यदयनेन भवता ।

तदन्तस्त्वद्बोधप्रसरसरणीभूतमहसि

स्फुटं वाचि प्राप्य प्रकटय विभोः स्तोत्रमधुना ॥ ४ ॥

हे हृदय ! विचित्र जन्मादि में भ्रमण परम्परा के विचित्र समूह के द्वारा जो आपने बिना प्रयत्न के सर्वज्ञता प्राप्त कर ली, उस अपने बोधप्रसरण की सरणीभूत तेज में तुम अब मेरी वाणी में परमात्मा के स्तोत्र को प्रकट करो ॥ ४ ॥

विधुन्वानो बन्धाभिमतभवमार्गस्थितिमिमां

रसीकृत्यानन्तस्तुति हुतवहप्लोषितभिदाम् ।

विचित्रस्वस्फारस्फुरितमहिमारम्भरभसात्

पिबन् भावानेतान् वरद मदमत्तोऽस्मि सुखितः ॥ ५ ॥

हे प्रभो! हे वरदान देनेवाले भगवान्! मैं बन्धन के रूप में आकस्मिक संसार की इस मार्गस्थिति को नष्ट करता हुआ, अनन्त स्तुतिरूपी अग्नि में भेद को जलाकर सरस बनाता हुआ विचित्र आत्मस्फुरण के द्वारा स्फुरित महिमा के आरम्भ के वेग से इन भावों का पान करता हुआ सुखी और मदमत्त हूँ ॥ ५ ॥

भवप्राज्यैश्वर्यप्रथितबहुशक्तेर्भगवतो

विचित्रं चरित्रं हृदयमधिशेते यदि ततः ।

कथं स्तोत्रं कुर्यादथ च कुरुते तेन सहसा

शिवैकात्म्यप्राप्तौ शिवनतिरुपायः प्रथमकः ॥ ६ ॥

संसार के विपुल ऐश्वर्य के रूप में विस्तृत बहुत शक्तिवाले भगवान् का विचित्र चरित्र यदि हृदय में विराजमान हो तो ऐसा मनुष्य कैसे स्तुति करे? और यदि करता है तो शिव से एकात्म्य भाव की प्राप्ति के विषय में शिव को प्रणाम पहला उपाय है ॥ ६ ॥

ज्वलद्रूपं भास्वत्पचनमथ दाहं प्रकटनम्

विमुच्यान्यद्वह्नेः किमपि घटते नैव हि वपुः ।

स्तुवे संविद्रश्मीन् यदि निजनिजांस्तेन स नुतो

भवेन्नान्य: कश्चिद् भवति परमेशस्य विभवः ॥ ७ ॥

जलना, चमकना, पकाना, जलाना और प्रकाश करना इन सबको छोड़कर अग्नि का कोई दूसरा स्वरूप नहीं होता। मैं यदि व्यक्तिगत संविद्ररश्मियों की पूजा करता हूँ तो उससे परमेश्वर के वैभव की ही पूजा होती है, किसी अन्य की नहीं ॥ ७ ॥

विचित्रारम्भत्वे गलितनियमे यः किल रसः

परिच्छेदाभावात् परमपरिपूर्णत्वमसमम् ।

स्वयं भासां योगः सकलभवभावैकमयता

विरुद्धैर्धर्मौघैः परचितिरनर्घोचितगुणा ॥ ८ ॥

विचित्र प्रारम्भ होने तथा नियमों के टूट जाने पर जो आनन्द होता है वह असीम होने के कारण परमपरिपूर्ण और अतुलनीय है । स्वयं प्रकाशों का सम्बन्ध और संसार के समस्त पदार्थों का तादात्म्य, परस्पर विरुद्ध धर्मों के द्वारा संग्रह, ये सब आपके अमूल्य गुणों के परिणाम हैं ॥ ८ ॥

इतीदृक्षै रूपैर्वरद विविधं ते किल वपु-

र्विभाति स्वांशेऽस्मिन् जगति गतभेदं भगवतः ।

तदेवैतत्स्तोतुं हृदयमथ गीर्बाह्यकरण-

प्रबन्धाश्च स्युर्मे सततमपरित्यक्तरभसः ॥ ९ ॥

हे वरद भगवन्! इस प्रकार के स्वरूपों के द्वारा आपका अनेक प्रकार का शरीर आपके अंशभूत इस जगत् में भेदरहित होकर प्रकाशित हो रहा है । उसी इस रूप की स्तुति करने के लिए मेरा हृदय, मेरी वाणी, बाह्येन्द्रियां और प्रबन्ध निरन्तर सफलता के साथ लगे रहें ॥ ९ ॥

तवैवैकस्यान्तः स्फुरितमहसो बोधजलधे-

र्विचित्रोर्मिव्रातप्रसरणरसो यः स्वरसतः ।

त एवामी सृष्टिस्थितिलयमयस्फूर्जितरुचां

शशाङ्कार्काग्नीनां युगपदुदयापायविभवाः ॥ १० ॥

बोधरूपी समुद्र के समान तथा अद्वितीय आपके अन्दर स्वभावतः स्फुरित होनेवाले विचित्र तरङ्ग समूहों के प्रकाश का जो आनन्द है, वही सृष्टि, स्थिति प्रलय से भरे हुए तथा दीप्यमान कान्तिवाले चन्द्र, सूर्य और अग्नि के एक साथ घटित होनेवाले उत्थान और पतन हैं ॥ १० ॥

अतश्चित्राचित्रक्रमतदितरादिस्थितिजुषो

विभोः शक्तिः शश्वद् व्रजति न विभेदं कथमपि ।

तदेतस्यां भूमावकुलमिति ते यत्किल पदं

तदेकाग्रीभूयान्मम हृदयभूभैरव विभो ॥ ११ ॥

इसलिए चित्र - अचित्र, क्रम और अक्रम की स्थितिवाले परमात्मा की शक्ति कभी भेद को नहीं प्राप्त करती । इसलिए इस भूमि पर जो तुम्हारा अकुल नाम है, हे भैरव !, हे विभो ! वह मेरे हृदय में एकाग्र हो जाय ॥ ११ ॥

अमुष्मात् सम्पूर्णात् वत रसमहोल्लाससरसा-

निजां शक्तिं भेदं गमयसि निजेच्छाप्रसरतः ।

अनर्घं स्वातन्त्र्यं तव तदिदमत्यद्भुतमयीं

भवच्छक्तिं स्तुन्वन् विगलितभयोऽहं शिवमयः ॥ १२ ॥

इस सम्पूर्ण रसमहोल्लास से सरस अपनी इच्छा के प्रसार से अपनी शक्ति को भेदमयी बनाते हो। आपका स्वातन्त्र्य अनर्घ है। अतः इस अत्यन्त अद्भुत आपकी शक्ति की स्तुति करता हुआ मैं भयरहित और शिवमय हो गया हूँ ॥ १२ ॥

इदन्तावद्रूपं तव भगवतः शक्तिसरसं

क्रमाभावादेव प्रसभविगलत्कालकलनम्।

मनः शक्त्या वाचाप्यथ करणचक्रैर्बहिरथो

घटाद्यैस्तद्रूपं युगपदधितिष्ठेयमनिशम् ॥ १३ ॥

हे भगवन्! आपकी इस शक्ति ने सरस रूपक्रम के अभाव के कारण हठात् काल की कलना को नष्ट कर दिया है। मन की शक्ति, वाणी, इन्द्रियसमूह और बाह्य घटादि के द्वारा मैं एक साथ सर्वदा मन में धारण करूं ॥ १३ ॥

क्रमोल्लासं तस्यां भुवि विरचयन् भेदकलनां

स्वशक्तीनां देव प्रथयसि सदा स्वात्मनि ततः ।

क्रियाज्ञानेच्छाख्यां स्थितिलयमहासृष्टिविभवां

त्रिरूपां भूयासं समधिशयितुं व्यग्रहृदयः॥१४ ॥

हे देव! उस भूमि पर आप अपनी शक्तियों की भेदमयी रचना और क्रमिक उल्लास को विरचित करते हुए भी सदा अपने स्वरूप में स्थित रहते हुए उसका विस्तार करते हैं । आपकी कृपा से मैं क्रिया, ज्ञान, इच्छा नामक स्थिति, लय और महासृष्टिवाले त्रिरूप को धारण करने में सदा व्यग्र हृदयवाला हूँ ॥ १४ ॥

परा सृष्टिर्लीना हुतवहमयी यात्र विलसत्-

परोल्लासौन्मुख्यं व्रजति शशिसंस्पर्शसुभगा ।

हुताशेन्दुस्फारोभयविभवभाग् भैरवविभो

तवेयं सृष्ट्याख्या मम मनसि नित्यं विलसतात् ॥ १५ ॥

अग्नि से अभिन्न परासृष्टि जो यहाँ लीन थी यह चन्द्रमा के संस्पर्श से सुभग होकर परमोल्लास के औन्मुख्य को प्राप्त होती है । अग्नि और चन्द्रमा दोनों की विभववाली तुम्हारी यह सृष्टि, हे भैरव !, हे विभो ! मेरे मन में नित्य विराजमान रहे ॥ १५ ॥

विसृष्टे भावांशे बहिरतिशयास्वादविरसे

यदा तत्रैव त्वं भजसि रभसाद् रक्तिमयताम् ।

तदा रक्ता देवी तव सकलभावेषु ननु मां

क्रियाद्रक्तापानक्रमघटितगोष्ठीगतघृणम् ॥ १६ ॥

बाहर से अतिशय स्वादहीन भावों की रचना करने के बाद जब उसी में तुम हठात् अनुराग का अनुभव करते हो तब रक्तादेवी तुम्हारे समस्त पदार्थों में तुम्हें रक्तापानक्रम से घटित गोष्ठी में (मुक्त) घृणारहित बनाती हैं ॥ १६ ॥

बहिर्वृत्तिं हातुं चितिभुवमुदारां निवसितुं

यदा भावाभेदं प्रथयसि विनष्टोर्मिचपलः ।

स्थितेर्नाशं देवी कलयति तदा सा तव विभो

स्थिते: सांसारिक्याः कलयतु विनाशं मम सदा ॥ १७ ॥

बाहर की वृत्ति का त्याग एवं चित्सत्ता में निवास करने के लिए जब आप ऊर्मि की चपलता को छोड़कर भावों में अभेद का विस्तार करते हैं तब हे प्रभो! वह देवी तुम्हारी स्थिति का नाश करती है। वह देवी सदा मेरी सांसारिक स्थिति का नाश करे ॥ १७ ॥

जगत्संहारेण प्रशमयितुकामः स्वरभसात्

स्वशङ्कातङ्काख्यं विधिमथ निषेधं प्रथयसि ।

इमं सृष्ट्वेत्थं त्वं पुनरपि च शङ्कां विदलयन्

महादेवी सेयं मम भवभयं संदलयताम् ॥ १८ ॥

संसार के संहार के द्वारा अपनी शङ्का के आतङ्क को दूर करने के लिए आप अपने बल से विधि तथा निषेध का विस्तार करते हैं । इस प्रकार इसका सृजन कर पुनः उस शङ्का को दूर करते हैं तो आपकी वह महादेवी शक्ति मेरे संसार के भय को नष्ट करे ॥ १८ ॥

विलीने शङ्कौघे सपदि परिपूर्णे च विभवे

गते लोकाचारे गलितविभवे शास्त्रनियमे ।

अनन्तं भोग्यौघं ग्रसितुमभितो लम्पटरसा

विभो संसाराख्या मम हृदि भिदांशं प्रहरतु ॥ १९ ॥

शङ्का के दूर होने पर और वैभव के शीघ्र पूर्ण होने पर, लोकाचार के नष्ट होने पर तथा शास्त्रीय नियम के वैभव के दूर होने पर, अनन्त भोग्यसमूह को चारों ओर से ग्रसित करने के लिए परमात्मा की संसार नामक शक्ति मेरे हृदय में भेद का नाश करे ॥ १९ ॥

तदित्थं देवीभिः सपदि दलिते भेदविभवे

विकल्पप्राणासौ प्रविलसति मातृस्थितिरलम् ।

अतः संसारांशं निजहृदि विमृश्य स्थितिमयी

प्रसन्ना स्यान्मृत्युप्रलयकरणी मे भगवती ॥ २० ॥

तो इस प्रकार देवियों के द्वारा भेदसमूह के शीघ्र नष्ट होने पर विकल्पक प्राणवाली यह मातृस्थिति अत्यन्त शोभायमान होती है । अतः संसार संसारांश का अपने हृदय में विमर्श करती हुई स्थितिमयी भगवती प्रसन्न होकर मेरी मृत्यु का नाश करे ॥ २० ॥

तदित्थं ते तिस्रो निजविभवविस्फारणवशा-

दवाप्ताः षट्चक्रं क्रमकृतपदं शक्तय इमाः ।

क्रमादुन्मेषेण प्रविदधति चित्रां भुवि दशा-

मिमाभ्यो देवीभ्यः प्रवणहृदयः स्यां गतभयः ॥ २१ ॥

आपके वैभव के प्रकाशन के कारण आपकी ये तीनों शक्तियां क्रमश: भिन्न होनेवाले षट्चक्रों को प्राप्त की (अथवा क्रमशास्त्रानुसार षट्चक्र का भेदन की) । उसके बाद क्रमश: इस पृथिवी पर आपके उन्मेष के द्वारा विचित्र अवस्था को प्राप्त करती है । मैं निर्भय होकर इन देवियों के लिए प्रणत हृदय वाला हो जाऊँ ॥ २१ ॥

इमां रुन्धे भूमिं भवभयभिदातङ्ककरणीं

इमां बोधैकान्तद्रुतिरसमयीं चापि विदधे ।

तदित्थं सम्बोधद्रुतिमथ विलुप्याशुभतती-

र्यथेष्टं चाचारं भजति लसतात् सा मम हृदि ॥ २२ ॥

संसार के भय को नष्ट करने में आतङ्क उत्पन्न करनेवाली इस भूमि को मैं रोक दूँ तथा इस धरा को सर्वथा चिन्मय बोध के प्रवण के रस से युक्त कर दूँ। जो आपकी शक्ति अशुभ समूह को लुप्त कर सम्बोधद्रुति तथा यथेष्ट आचार का क्रियान्वयन करती है, वह मेरे हृदय में देदीप्यमान हो ॥ २२ ॥

क्रियाबुद्ध्यक्षादेः परिमितपदे मानपदवी-

मवाप्तस्य स्फारं निजनिजरुचा संहरति या ।

इयं मार्तण्डस्य स्थितिपदयुज: सारमखिलं

हठादाकर्षन्ती कृषतु मम भेदं भवभयात् ॥ २३ ॥

सीमित वस्तुओं के विषय में प्रमाण स्वरूप आपकी जो शक्ति अपनी कान्ति के द्वारा क्रिया, ज्ञान और इन्द्रिय के विस्तार को नष्ट कर देती है । स्थितिपद प्राप्त करनेवाले सूर्य के समस्त सार को बलात् आकृष्ट करनेवाली आपकी यह शक्ति संसार के भय के कारण, भेद को दूर करे ॥ २३ ॥

समग्रामक्षालीं क्रमविरहितामात्मनि मुहु-

र्निवेश्यानन्तान्तर्बहलितमहारश्मिनिवहा ।

परा दिव्यानन्दं कलयितुमुदारादरवती

प्रसन्ना मे भूयात् हृदयपदवीं भूषयतु च ॥ २४ ॥

जो बारम्बार सम्पूर्ण इन्द्रियसमूह को बिना क्रम के (अर्थात् एक साथ) अपने अन्दर समाहित करके अपने अन्दर अनन्त आदरणीय महारश्मि-समूह को धारण करती है । उदार आदरयुक्त वह पराशक्ति दिव्य आनन्द देने के लिए मेरे ऊपर प्रसन्न हो जाय और हृदय को अलंकृत करे (अर्थात् हृदय में निवास करे) ॥ २४ ॥

प्रमाणे संलीने शिवपदलसद्वैभववशा-

च्छरीरं प्राणादिर्मितकृतकमातृस्थितिमयः ।

यदा कालोपाधिः प्रलयपदमासादयति ते

तदा देवी यासौ लसति मम सा स्ताच्छिवमयी ॥ २५ ॥

शिवपद के कान्तिमान् वैभव के कारण प्रमाण के लीन अर्थात् लुप्त होने पर शरीर, प्राणादि कृत्रिम प्रमाता की स्थिति को प्राप्त करते हैं और जब आपका काल नामक उपाधि प्रलय को प्राप्त होती है तब जो देवी देदीप्यमान होती हैं वह मेरे लिए कल्याण करनेवाली हो ॥ २५ ॥

प्रकाशाख्या संवित् क्रमविरहिता शून्यपदतो

बहिर्लीनात्यन्तं प्रसरति समाच्छादकतया ।

ततोऽप्यन्तः सारे गलितरभसादक्रमतया

महाकाली सेयं मम कलयतां कालमखिलम् ॥ २६ ॥

प्रकाश नामक संवित् क्रमरहित होकर शून्यपद से आच्छादक के रूप में बाहर अत्यन्त प्रसरण करती है। इसके साथ ही अन्दर की ओर भी क्रम रहित होकर बिना परिश्रम के अन्दर की ओर प्रसरण करती है । वह महाकाली मेरे सम्पूर्ण काल (अर्थात् मृत्यु ) का ग्रहण करे ॥ २६ ॥

ततो देव्यां यस्यां परमपरिपूर्णस्थितिजुषि

क्रमं विच्छिद्याशु स्थितिमतिरसात्संविदधति ।

प्रमाणं मातारं मितिमथ समग्रं जगदिदं

स्थितां क्रोडीकृत्य श्रयति मम चित्तं चितिमिमाम् ॥ २७ ॥

परम परिपूर्ण स्थितिवाली जिस देवी के अन्दर यह संसार प्रमाता, प्रमेय और प्रमाण के रूप में क्रमरहित होकर अत्यन्त आनन्द के साथ रहता है । मेरा मन ऐसे संसार को अपनी गोद में रखनेवाली इस चित्शक्ति का आश्रय ग्रहण करे ॥ २७ ॥

अनर्गलस्वात्ममये महेशे तिष्ठन्ति यस्मिन् विभुशक्तयस्ताः ।

तं शक्तिमन्तं प्रणमामि देवं मन्थानसंज्ञं जगदेकसारम् ॥ २८ ॥

निर्बाध स्वात्ममय जिस ईश्वर के अन्दर की व्यापिनी शक्तियाँ विराजमान रहती है । संसार के एकमात्र सारभूत मन्थान नामक उस शक्तिमान् देव को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ २८ ॥

इत्थं स्वशक्तिकिरणौघनुतिप्रबन्धान्

आकर्ण्य देव यदि मे व्रजसि प्रसादम् ।

तेनाशु सर्वजनतां निजशासनांशु-

संशान्तिताखिलतम: पटलां विधेयाः ॥ २९ ॥

हे देव! यदि आपकी शक्तिकिरणों के समूह को प्रणाम करनेवाले ऐसे प्रबन्धों को सुनकर आप मेरे ऊपर प्रसन्न होते तो शीघ्र ही समस्त लोगों को अपने उपदेश की किरणों के द्वारा समस्त अन्धकारसमूह को शान्ति से युक्त बनाइये ॥ २९ ॥

षट्षष्ठिनामके वर्षे नवम्यामसितेऽहनि ।

मयाऽभिनवगुप्तेन मार्गशीर्षे स्तुतः शिवः ॥ ३० ॥

संवत् ११६६ मार्गशीर्ष कृष्णपक्ष में मुझ अभिनवगुप्त के द्वारा शिव की स्तुति की गयी ॥ ३० ॥

॥ इति श्रीअभिनवगुप्तपादाचार्यकृतं क्रमस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

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