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कर्मकाण्ड

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शान्ति स्तोत्र

शान्ति स्तोत्र 

रुद्रयामलतन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्यम् के पटल २१ में शान्ति स्तोत्र और वीरवन्दनस्तोत्र के विषय में बतलाया गया है।

शान्ति स्तोत्र

रुद्रयामलतन्त्रोक्तं श्रीदेवीरहस्यम् एकविंशः पटलः शान्तिस्तोत्रम्

Shri Devi Rahasya Patal 21   

रुद्रयामलतन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य इक्कीसवाँ पटल शान्ति स्तोत्र

रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्यम् एकविंश पटल

श्रीदेवीरहस्य पटल २१ शान्तिस्तोत्र

अथैकविंशः पटलः

श्रीभैरव उवाच

देवि वक्ष्यामि पूजान्ते शान्तिस्तोत्रमनुत्तमम् ।

वीरा येन परानन्दपदं प्राप्स्यन्ति निःस्पृहाः ॥ १ ॥

शान्तिस्तोत्र श्री भैरव ने कहा कि हे देवि! अब मैं पूजा के अन्त में पठनीय उत्तम स्तोत्र को बतलाता हूँ, जिससे वीर साधक परमानन्द पद प्राप्त करके निःस्पृह हो जाते हैं और जिन्हें कोई कामना नहीं रह जाती है ।। १ ।।

अथ शान्तिस्तोत्रम्

योगिनीचक्रमध्यस्थं मातृमण्डलवेष्टितम् ।

नमामि शिरसा नाथं भैरवं भैरवीप्रियम् ॥ २ ॥

अनादिघोरसंसार-व्याधिध्वंसैकहेतवे ।

नमः श्रीनाथवैद्याय कुलौषधप्रदायिने ॥ ३ ॥

आपदो दुरितं रोगाः समयाचारलङ्घनात् ।

ते सर्वेऽत्र व्यपोहन्तु दिव्यचक्रस्य मेलनात् ॥४॥

आयुरारोग्यमैश्वर्यं कीर्तिर्लाभः सुखं जयः ।

कान्तिर्मनोरथश्चास्तु पान्तु सर्वाश्च देवताः ॥५ ॥

सम्पूजकानां प्रतिपालकानां

यतीन्द्रयोगीन्द्रतपोधनानाम् ।

देशस्य राष्ट्रस्य कुलस्य राज्ञः

करोतु शान्तिं भगवान् कुलेशः ॥६॥

स्तोत्र - मातृमण्डल वेष्टित योगिनीचक्र के मध्य में स्थित भैरव और भैरवी को मैं शिर नवाकर नमस्कार करता हूँ। अनादि घोर संसार में व्याधिविनाश के लिये कुलौषध- प्रदायी श्रीनाथ वैद्य को प्रणाम करता हूँ। समयाचार के लङ्घन से उत्पन्न आपदा और कठिन रोगों का इस दिव्य चक्र के मेलन से विनाश करता हूँ। सभी देवता आयु-आरोग्य ऐश्वर्य- कीर्तिलाभ, सुख, जय, कान्ति और सभी मनोरथों की रक्षा करें। सपूजकों, प्रतिपालकों, यतीन्द्रों, योगीन्द्रों, तपोधनों की, देश को, राष्ट्र को राजकुल को भगवान कुलेश शान्ति प्रदान करें।। २६ ।

नन्दन्तु साधककुलान्वयदर्शका ये

सृष्ट्याद्यनाख्यचतुरुक्तमहान्वया ये ।

नन्दन्तु सर्वकुलकौलरताः परे येsप्यन्ये

विशेषपद भेदकशाम्भवा ये ॥७॥

नन्दन्तु सिद्धगुरवः स्वगुरुक्रमौघा

ज्येष्ठानुगाः समयिनो वटुकाः कुमार्यः ।

षड्योगिनीप्रवरवीरकुलप्रसूता

नन्दन्तु भूमिपतिगोद्विजसाधुलोकाः ॥८ ॥

नन्दन्तु नीतिनिपुणा निरवद्यनिष्ठा

निर्मत्सरा निरुपमा निरुपद्रवाश्च ।

नित्या निरन्तररता गुरवो निरीहा:

शाक्ताश्च शान्तमनसो हृतशोकशङ्काः ॥ ९ ॥

जो साधक कुलान्वय-दर्शक हैं, जो सृष्टि के आदि अनाख्य चतुरुक्त महान्वय हैं, वे आनन्दित हो । सभी कुल-कौलनिरत या इससे परे जो हों या अन्य कोई भी विशेष "पदभेदक शाम्भव हों, वे सभी आनन्दित हो । सिद्ध गुरुवृन्द मेरे गुरुक्रम और मुझसे बड़े गुरुभाई, समयाचारी, वटुक, कुमारी आनन्दित हों प्रवर वीर कुलोत्पन्न षड्योगिनियाँ, भूपति, गो, द्विज, साधु और सभी लोक आनन्दित हों। नीतिनिपुण, निरवद्यनिष्ठ, अद्वेषी, अद्वितीय, उपद्रवरहित नित्य, निरञ्जनरत गुरु, निरीह शाक्त, शान्त मनस्वी सभी शोक और शंका से रहित हों। शंका और शोक से मुक्त आनन्दित हों ।। ७-९ ।।

नन्दन्तु योगनिरताः कुलयोगयुक्ता

आचार्यसामयिकसाधकपुत्रकाश्च ।

गावो द्विजा युवतयो यतयः कुमार्यो

धर्मे भवन्तु निरता गुरुभक्तियुक्ताः ॥ १० ॥

नन्दन्तु साधककुला ह्यणिमादिनिष्ठाः

शापा: पतन्तु द्विषत: कुलयोगिनीनाम् ।

सा शाम्भवी स्फुरतु कापि ममाप्यवस्था

यस्यां गुरोश्चरणपङ्कजमेव लभ्यम् ।। ११ ।।

योगलग्न, कुलयोगगामी, आचार्य सामयिक, साधकपुत्र, गो, द्विज, युवती, यति, कुमार, सभी गुरुभक्तियुक्त धर्म में निरत होकर आनन्दित हों। साधक कुल, अणिमादि सिद्धियों में निष्ठावानों के शाप विनष्ट हो । कुलयोगिनियों के द्वेषियों का विनाश हो। सबों में मेरे समान शाम्भवी अवस्था का स्फुरण हो। उन्हें गुरुचरणकमल का लाभ हो ।।१०-११।।

याश्चक्रक्रम भूमिकावसतयो नाडीषु याः संस्थिता

या कायद्गुरोमकूपनिलया याः संस्थितो धातुषु ।

उच्छ्वासोर्मिमरुत्तरङ्गनिलया निःश्वासवासाश्च

यास्ता देव्यो रिपुभक्षणोद्यमपरास्तृप्यन्तु कौलार्चिताः ॥ १२ ॥

या दिव्यक्रमपालिकाः क्षितिगता या देवतास्तोयगा

या नित्यं प्रथितप्रभाः शिखिगता या मातरिश्वाश्रयाः ।

या व्योमामृतमण्डलामृतमया याः सर्वदा सर्वगास्ताः

सर्वाः कुलमार्गपालनपराः शान्तिं प्रयच्छन्तु मे ॥ १३ ॥

जिनकी नाड़ियों में चक्रक्रमभूमिका का वास हो या जो उसमें संस्थित हो या जिनके शरीरवृक्ष के रोमकूपों में, धातुओं में या जिनके श्वासोच्छ्वासों की तरंगों में देवी का वासस्थान हो, उनके शत्रुओं का भक्षण करके कौलार्चिता परा देवी तृप्त हों। जो दिव्य क्रमपालिका भूमिगत हो या देवनदी गङ्गा के जल में हों, जो नित्य प्रथित प्रभा शिखीगत हो या अग्नि में हो या जो आकाश अमृतमण्डल के अमृत से अमृतमय हो, जो सदैव सर्व दिग्गामी हों, वे सभी कुलमार्गपालन में तत्पर होकर मुझे शान्ति प्रदान करें ।। १२-१३।।

ऊर्ध्वं ब्रह्माण्डतो वा दिवि भुवनतले भूतले निस्तले वा

पाताले वा तले वा पवनसलिलयोर्यत्र कुत्र स्थिता वा ।

क्षेत्रे पीठोपपीठादिषु च कृतपदा धूपदीपादिमांसैः

प्रीत्या देव्यः सदा वः शुभबलिविधिना पान्तु वीरेन्द्रवन्द्याः ॥ १४ ॥

ऊपरी ब्रह्माण्ड तक या दिव्य भुवन तल में या भूतल पर, निष्कल या पाताल में या तल में या पवन में जल में या जहाँ कहीं स्थित क्षेत्र में, पीठ उपपीठों में जो साधक धूप-दीप-मांस शुभ बलि से विधिवत् देवीभक्ति में लग्न हो, उन सबों की रक्षा वीरवन्द्या परा देवी सदैव करे ।। १४ ।।

ब्रह्मा श्रीशेषदुर्गागुहवटुकगणा भैरवाः क्षेत्रपाला

वेतालादित्यरुद्रग्रहवसुमनुसिद्धाप्सरोगुह्यकाद्याः ।

भूता गन्धर्वविद्याधरऋषिपितृयक्षासुराहिप्रभूता

योगीशाश्चारणाः किंपुरुषमुनिसुराश्चक्रगाः पान्तु सर्वे ।। १५ ।।

ब्रह्मा, श्रीशेष, दुर्गा, कार्तिकेय, वटुकगण, भैरव, क्षेत्रपाल, वेताल, आदित्य, रुद्र-ग्रह, वसुगण, मन्त्र, सिद्ध, अप्सरा, गुह्यकादि, भूत, गन्धर्व, विद्याधर, ऋषि, पितर, यक्ष, असुर, नागजाति, योगीश, चारण, किम्पुरुष, मुनि और देवता सभी चक्रार्चनरत साधकों की रक्षा करें।। १५ ।।

सत्यं चेद्गुरुवाक्यमेव पितरो देवाश्च चेद्योगिनी-

प्रीतिश्चेत् परदेवता च यदि चेद्वेदाः प्रमाणाश्च चेत् ।

शाक्तेयं यदि दर्शनं भवति चेदाज्ञेयमेषा (माशा) स्ति चेत्

सन्त्यत्रापि च कौलिकाश्च यदि चेत् स्यान्मे जयः सर्वदा ॥ १६ ॥

गुरुवाक्य यदि सत्य है, पितर देवता योगिनी में यदि भक्ति है, अन्य देवताओं के बारे में यदि वेद प्रमाण हैं, शाक्तों का यदि दर्शन है, उनकी आज्ञाओं में यदि अनुशासन है, यदि कौलों में सन्त हो तब मुझे सदैव जय की प्राप्ति हो ।। १६ ।।

तृप्यन्तु मातरः सर्वाः समुद्राः सगणाधिपाः ।

योगिन्यः क्षेत्रपालाश्च मम देहे व्यवस्थिताः ॥ १७ ॥

शिवाद्यवनिपर्यन्तं ब्रह्मादिस्तम्बसंयुतम् ।

कालाग्न्यादिशिवान्तं च जगद्यज्ञेन तृप्यतु ॥ १८ ॥

पठित्वेदं नमेद् वीरान् वीरवन्दनमाचरेत् ।

स्तवेद् वीरान्नमेद् वीरान् मन्त्रसिद्धिः प्रजायते ॥ १९ ॥

सभी मातृकायें तृप्त हों, सभी सागर, गणाधिप, योगिनी, क्षेत्रपाल मेरे शरीर में व्यवस्थित हों। शिव से पृथ्वी तक के तत्त्व, ब्रह्मा से लेकर कीट तक, कालाग्नि से शिव तक जो भी हों, सभी तृप्त हों। इस स्तोत्र का पाठ करके वीर साधकों को नमस्कार करें। वीरों की वन्दना करे। इस स्तोत्र से वीरसाधक वीरों को नमन करे तो मन्त्र सिद्ध होते हैं ।। १७-१९।।

इति शान्तिस्तोत्रम् ॥

शेष आगे जारी............... श्रीदेवीरहस्य पटल 21 वीरवन्दनस्तोत्रम्

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