स्वयम्भू स्तव
बौद्धसाहित्य में वर्णित इस
स्वयम्भू स्तव का जो श्रद्धालु पुरुष नित्य पाठ करते हैं वे चक्रवर्ति-पद अर्थात् समग्र
ऐच्छिक सुख प्राप्त होता है ।
चातुर्महाराजकृत स्वयम्भूस्तवः
स्वयम्भू स्तव
स्वयम्भू स्तव स्तोत्र
नमस्ते विश्वरूपाय ज्योतीरूपाय ते
नमः ।
नमः स्वयम्भुवे नित्यं
जगदुद्धारहेतवे ॥ १ ॥
हे विश्वरूप ! हे ज्योतिःस्वरूप !
आपको प्रणाम है। हे स्वयम्भो ! आप इस जगत् के एकमात्र उद्धारक हैं,
अतः आपको प्रणाम है ॥ १ ॥
त्वं बुद्धस्त्वं च धर्मो
दशबलतनयस्त्वं तथा बोधिसत्त्वस्त्वं
भिक्षुः श्रावकस्त्वं कुलिशवरधरस्त्वं
तथा धर्मधातुः ।
त्वं ब्रह्मा त्वं च विष्णुः
प्रमथगणपतिस्त्वं महेन्द्रो यमस्त्वं
त्वं पाशी त्वं धनेशस्त्वमनलपवनौ
नैऋतस्त्वं महेशः ॥ २ ॥
हे भगवन्! आप ही बुद्ध हैं,
आप ही तदुपदिष्ट धर्मरूप हैं, आप बुद्धपुत्र
(बुद्धशिष्य) हैं, आप बोधिसत्त्व हैं। आप ही भिक्षु हैं,
आप ही श्रावक हैं, आप ही वज्रधारी (इन्द्र)
हैं, आप ही धर्मधातु (बुद्धोपदेश) हैं। मैं तो आप को ही
ब्रह्मा, विष्णु तथा शङ्कर, इन्द्र,
यम, वरुण, कुबेर मानता
हूँ। मेरी दृष्टि में आप ही अग्नि तथा वायु हैं। आप ही निर्ऋति दिशा के अधिपति एवं
देवाधिदेव हैं ॥ २ ॥
भूताः प्रेताश्च तिर्यक्
त्वममरदितिर्मानवास्त्वं वयं च
चातुर्योनित्वमेव त्रिगुणवरतनुः
पञ्चज्ञानैकमूर्तिः ।
वर्णास्त्वं कालमासा दिनमपि रजनी
पञ्चभूतास्त्वमेव
अन्नं रत्नं च सर्वं मतिरिति महती
नः सदा त्वां नताः स्मः ॥ ३ ॥
हमारी बुद्धि (समझ) से आप ही भूत,
प्रेत, तिर्यग्योनिगत प्राणियों में व्याप्त
हैं। आप ही देवता राक्षस एवं मानव रूपों में हैं। हम सब में भी आप का ही रूप है।
चातुर्महाराजिकदेवों में भी आपका ही रूप है। आप त्रिगुणशरीरधारी हैं। आप
पञ्चज्ञानों के समष्टि आकार हैं। आप ही वर्ण (अक्षर) हैं। आप ही काल एवं मास,
दिन एवं रात्रि, यहाँ तक कि पाँचों महाभूत आप
ही हैं। भूमि से निकलने वाले सभी प्रकार के अन्न तथा खनिज पदार्थ हैं। अतः हम आपके
सम्मुख सदा प्रणत हैं ॥ ३ ॥
पञ्चज्ञानेन बुद्धान् सृजसि स्वयमथो
बोधिसत्वांश्च पञ्च-
भूतानेतान् गुणांस्त्रीनजहरिगिरिशान्
स्थावराञ्जङ्गमांश्च ।
सर्वेषां चेतसि स्थो नटयसि सकलं
सर्वतो रक्षकोऽसि
त्वं बीजं चाङ्कुरस्त्वं फलमपि
विटपी सर्वदा त्वां नताः स्मः ॥ ४ ॥
आप स्वयं पञ्चज्ञान के प्रभाव से
बुद्धों की तथा बोधिसत्त्वों की सृष्टि करते हो, इसी तरह पञ्चभूतों की, तीन गुणों की, ब्रह्मा विष्णु शङ्कर - तीन देवों की, स्थावर जङ्गम
प्राणियों की सृष्टि आप ही करते हो। सभी प्राणियों के हृदय में विराजमान होकर
उन्हें स्व स्व प्रारब्धानुसार आप ही नचाते हो। आप सबके प्रतिपालक हो । आप ही इस
समग्र सृष्टि के बीज भी हो अङ्कुर भी; आप ही संसार, वृक्ष हो। आप ही इसके फल हो। अतः हम आपको सर्वदा प्रणाम करते हैं ॥ ४ ॥
श्रेष्ठं क्षेत्रं त्वमस्मिन्
प्रभवसि भगवान् सर्वतः सर्वदेवान्
ग्रामाँस्तीर्थानि देशान्
नृपसहितनरान् नैगमांश्चापि सर्वान् ।
द्वीपेष्वन्येष्वपि त्वं विभजसि
सकलं ज्योतिषां संविभागम्
बीजी भूतैकदीपोऽस्यखिलमपि
जगद्व्यापकस्त्वां नताः स्मः ॥ ५ ॥
आप ही इस समस्त सृष्टि के उचित
क्षेत्र हैं। सामर्थ्यशाली आप ही सर्वत्र इन सब देवों को,
ग्रामों को, तीर्थों को, देशों को, राजा सहित प्रजा को, सभी निगम जनपदों की रचना करते हैं। इसी तरह आप अन्य द्वीपों में भी समग्र
तारागण एवं नक्षत्रसमूहों की विभागशः रचना करते हैं। अतः आप इस समस्त संसार के
एकमात्र बीज (आदिकारण) हैं, प्रकाशस्तम्भ हैं। आप सर्वजगत्
में व्याप्त हैं, अतः आपको हमारा सादर प्रणाम है ॥ ५ ॥
ज्योतिस्त्वदीयं परितो विसारि
सितारुणश्यामकपीतरक्तम्।
दृष्टं ततः सर्वमिदं भवन्तं
मन्यामहे त्वां प्रणताः स्म नित्यम् ॥ ६ ॥
आप का ही प्रकाश सब तरफ फैला हुआ
है। कहीं वह श्वेत हैं तो कहीं अरुण या फिर काला या पीला। इन सबकी रचना में भी हम
आप को ही कारण मानते हैं। अतः हम आपको नित्य प्रणाम करते हैं ।। ६ ।।
नुतिं महाराजकृतां ये पठिष्यन्ति
मानवाः ।
चक्रवर्तिपदं प्राप्य ते हि
मुक्तिमवाप्नुयुः ॥ ७ ॥
इस तरह चातुर्महाराज देव (दिक्पाल)
द्वारा इस स्तोत्र का जो श्रद्धालु पुरुष नित्य पाठ करेंगे वे पहले चक्रवर्ति-पद
प्राप्त कर (समग्र ऐहिक सुख भोगकर) अन्त में इस भवबन्धन से मुक्ति (मोक्ष) अवश्य
ही प्राप्त कर लेंगे ॥ ७ ॥
श्री चातुर्महाराजकृतं स्वयम्भूस्तवं समाप्तम् ॥
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