स्वयम्भू स्तोत्र

स्वयम्भू स्तोत्र

बौद्धसाहित्य में वर्णित इस स्वयम्भू स्तोत्र का जो भक्त नित्य पाठ करते हैं, उन्हे  धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति होता है ।

स्वयम्भू स्तोत्र

स्वयम्भू स्तोत्र

बौद्धसाहित्यत:

स्वयम्भूस्तोत्रम्

जगत्कृते स्वयम्भुवमनादिलीनमव्ययम् ।

तनोर्विपज्जरात्मकृत्स्वयम्भुवं नमाम्यहम् ॥ १ ॥

जो जगत् के लिये आदिपुरुष है, स्वयं अनादि है, अविनाशी है। जो प्राणियों को शरीरों के लिये विपत्ति (दुःख) एवं जरा (जीर्णता) का कर्त्ता है ऐसे स्वयम्भु विधाता को मेरा प्रणाम है ॥ १ ॥

सहस्रपत्रपङ्कजं लसत्सुकर्णिकोद्भवम् ।

समस्त कामनाप्रदं स्वयम्भुवं नमाम्यहम् ॥ २ ॥

सहस्रदल कमल की कर्णिकाओं से उत्पन्न, भक्तों की सभी कामनाओं के पूरक भगवान् ब्रह्मा को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ २ ॥

सहस्त्रभानुरञ्जनं नियुतचन्द्रनन्दनम् ।

सुरादिलोकवन्दनं स्वयम्भुवं नमाम्यहम् ॥ ३ ॥

हजारों सूर्यों की कान्ति वाले तथा लाखों चन्द्रमाओं की आभा वाले एवं देवलोक आदि सभी लोकों से वन्दित भगवान् ब्रह्मा (स्वयम्भु) को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ३ ॥

त्वमेव राजसे गुणैर्भुवि स्थितो विराजसे ।

त्रिधातुकं विभावसे स्वयम्भुवं नमाम्यहम् ॥ ४ ॥

सत्त्व, रजस्, तमस्- इन तीनों गुणों से आप युक्त हैं। इन्हीं के सहारे से आप विश्व में शोभित होते हैं। आप त्रैधातुक (वात, कफ, पित्तयुक्त) हैं, अतः हे ब्रह्मन् ! आपको प्रणाम है ॥ ४ ॥

अयं क इत्ययं हृदा मीमांसितुं न शक्तवान् ।

प्रघासमात्रमीक्षितः स्वयम्भुवं नमाम्यहम् ॥ ५ ॥

आप के विषय में आप वास्तव में क्या हैं ?'- इस पर बहुत अधिक विचार करने पर भी मैं अभी तक कुछ भी नहीं समझ पाया। मैं तो जीवनपर्यन्त अपनी उदरपूर्ति में ही लगा रहा। अतः विवश होकर हे विधातः! आपको प्रणाम करता हूँ॥५॥

पठन्ति ये नरा मुदा स्वयम्भुवः स्तुतिं सदा । 

त्रिवर्गसिद्धिमाप्य ते लभन्ति मुक्तिमेव ताम् ॥ ६ ॥

जो भक्त प्रसन्न मन से स्वयम्भू के इस स्तोत्र का नित्य पाठ करते हैं, वे धर्म, अर्थ, काम- इस त्रिवर्ग की प्राप्ति के साथ साथ मोक्ष भी अधिगत कर लेते हैं ॥ ६ ॥

श्री बृहत्स्वयम्भुपुराणोद्धृतं शिखिनिर्मितं स्वयम्भूस्तोत्रं समाप्तम् ॥

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