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कर्मकाण्ड

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ज्येष्ठब्रह्म सूक्त

ज्येष्ठब्रह्म सूक्त

प्रस्तुत ज्येष्ठब्रह्म सूक्त अथर्ववेद के १०वें मण्डल के ८ वें सूक्त में १-४४ में दिया गया है, यह पूर्णब्रह्म को समर्पित है। यद्यपि ब्रह्मशब्द के अर्थ प्रकृति के भी हैं, ब्रह्म बड़े को भी कहते हैं, इस प्रकार पृथिव्यादि लोक-लोकान्तरों का नाम भी ब्रह्म है, तथापि मुख्य नाम ब्रह्म परमात्मा का ही है, जैसा कि तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः। तदेव शुक्रं तद्ब्रह्म। यजु० अ० ३२।१॥ इसमें अग्नि, आदित्य, वायु, चन्द्रमा, शुक्र, ब्रह्म ये सब परमात्मा के नाम हैं। एवं यो भूतञ्च भव्यञ्च सर्वं यश्चाधितिष्ठति। स्वर्यस्य च केवलं तस्मै ज्यैष्ठाय ब्रह्मणे नमः॥ अथ० १०।८।४।१॥ यहाँ (ज्येष्ठ) सबसे बड़ा ब्रह्म कह कर ब्रह्म शब्द को ब्रह्मवाचक सिद्ध किया है। एवं देवास्तं सर्वे धूर्वन्तु ब्रह्म वर्म्म ममान्तरम्॥ साम० ९।२१।३ ॥ इस मन्त्र में ब्रह्म शब्द ईश्वर के लिये आया है।

ज्येष्ठब्रह्म सूक्त

ज्येष्ठ ब्रह्म सूक्त

अथर्ववेदत:-

ज्येष्ठब्रह्मसूक्तम्

Jyeshtha Brahma suktam

ज्येष्ठब्रह्मसूक्त

यो भूतं च भव्यं च सर्वं यश्चाधितिष्ठति ।

स्वर्यस्य च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥ १ ॥

जो भूतकाल के और भविष्यकाल के तथा वर्तमानकाल के भी जो सब पर अधिष्ठाता होकर रहता है, जिसका केवल प्रकाशमय स्वरूप है, उस ज्येष्ठ ब्रह्म के लिये नमस्कार है ॥ १ ॥

स्कम्भेनेमे विष्टाभिते द्यौश्च भूमिश्च तिष्ठतः ।

स्कम्भ इदं सर्वमात्मन्वद्यत्प्राणन्निमिषच्च यत् ॥ २ ॥

इस सर्वाधार परमात्मा में थोपे हुए द्युलोक और भूमि ये ठहरे हैं, जो प्राण धारण करता है और जो आँखें झपकता है, यह सब आत्मा से युक्त विश्व स्कंभ में है ॥ २ ॥

तिस्रो ह प्रजा अत्यायमायन् न्यन्या अर्कमभितोऽविशन्त ।

बृहन् ह तस्थौ रजसो विमानो हरितो हरिणीरा विवेश ॥ ३ ॥

तीन प्रकार की प्रजाएं अतिक्रमण को प्राप्त होती है, एक प्रकार की (सत्त्वगुणीप्रजा) सूर्य को प्राप्त होती है, दूसरी बड़े रजोलोक को मापती हुई रहती है, और तीसरी हरण करनेवाली हरिद्वर्ण को प्रविष्ट होती है ॥ ३ ॥

द्वादश प्रधयश्चक्रमेकं त्रीणि नभ्यानि क उ तच्चिकेत ।

तत्राहतास्त्रीणि शतानि शङ्कवः षष्टिश्च खीला अविचाचला ये ॥ ४ ॥

बारह प्रधियां हैं, एक चक्रं है, तीन नाभियां हैं, कौन भला उसे जानता है? उस चक्र में तीन सौ साठ खूटियां लगायी हैं और उतने ही खील लगाये हैं, जो हिलने वाले नहीं हैं ॥ ४ ॥

इदं सवितर्वि जानाहि षड्यमा एक एकजः ।

तस्मिन् हापित्वमिच्छन्ते य एषामेक एकजः ॥ ५ ॥

हे सविता ! यह आप जान ले कि यहाँ छः समूल (जोड़े) हैं और एक अकेला है। जो इनमें अकेला एक है उसमें निश्चय से अपना सम्बन्ध जोड़ने की इच्छा अन्य करते हैं ॥ ५ ॥

आविः सन्निहितं गुहा जरन्नाम महत्पदम् ।

तत्रेदं सर्वमर्पितमेजत्प्राणत्प्रतिष्ठितम् ॥ ६ ॥

गुहा में संचार करने वाला जो बड़ा प्रसिद्ध स्थान है, वह प्रकट होने योग्य संनिध भी है, जो कांपनेवाला और प्राणवाला है, वह वहीं उस गुहा में समर्पित और प्रतिष्ठित है ॥ ६ ॥

एकचक्रं वर्तत एकनेमि सहस्राक्षरं प्र पुरे नि पश्चा ।

अर्धेन विश्वं भुवनं जजान यदस्यार्धं क्व तद्वभूव ॥ ७ ॥

एक चक्र एक ही मध्यनाभि वाला है, जो हजारों आरों से युक्त आगे और पीछे होता है। आधे से सब भुवन बनाये हैं और जो इसका आधा भाग है, वह कहाँ रहा है ॥ ७ ॥

पञ्चवाही बहत्यग्रेमेषां प्रष्टयो युक्ता अनुसंवहन्ति ।

अयातमस्य ददृशे न यातं परं नेदीयोऽवरं दवीयः ॥ ८ ॥

इनमें जो पाँचो से उठायी जाने वाली है, वह अन्त तक पहुँचती है। जो घोड़े जोते हैं, वे ठीक प्रकार उठा रहे हैं। इसका न चलना ही दीखता है।परन्तु चलना नहीं दीखता। तथा बहुत दूर का बहुत समीप है और जो पास हैं, वही अति दूर है॥८॥

तिर्यग्बिलश्चमस ऊर्ध्वबुध्नस्तस्मिन् यशो निहितं विश्वरूपम् ।

तदासत ऋषयः सप्त साकं ये अस्य गोपा महतो बभूवुः ।। ९ ।।

तिरछे मुखवाला और ऊपर पृष्ठभाग वाला एक पात्र है उसनें नाना रूपवाला यश रखा है। वहाँ साथ साथ सात ऋषि बैठे हैं जो इस महानुभाव के संरक्षक हैं ।। ९ ।।

या पुरस्ताद्युज्यते या च पश्चाद्या विश्वतो युज्यते या च सर्वतः ।

यया यज्ञः प्राङ्तायते तां त्वा पृच्छामि कतमा सर्चाम् ॥ १० ॥

जो आगे और पीछे जुड़ी रहती है, जो चारों ओर से सब प्रकार जुड़ी रहती हैं। जिससे यज्ञ पूर्व की ओर फैलाया जाता है, उस विषय में मैं तुझे पूछता हूँ ऋचाओं में वह कौन सी है ? ॥ १० ॥

यदेजति पतति यच्च तिष्ठति प्राणदप्राणनिमिषच्च यद्भवत् ।

तद्दाधार पृथिवीं विश्वरूपं तत्संभूय भवत्येकमेव ॥ ११ ॥

जो कांपता है, गिरता है और जो स्थिर रहता है, जो प्राण धारण करने वाला प्राणरहित और जो निमेषोन्मेष करता है और जो होता है, वह विश्वरूपी सत्त्व इस पृथ्वी का धारण करता है वह सब मिलकर एक ही होता है ॥ ११ ॥

अनन्तं विततं पुरुत्रानन्तमन्तवच्चा समन्ते ।

ते नाकपालश्चरति विचिन्वन्विद्वान्भूतमुत भव्यमस्य ॥ १२ ॥

अनन्त चारों ओर फैला है, अनन्त और अन्तवाला ये दोनों एक दूसरे से मिले हैं। इसके भूतकालीन और भविष्यकालीन तथा वर्तमानकालीन सब वस्तु मात्र के सम्बन्ध में विवेक करता हुआ और पश्चात् सबको जानता हुआ, सुखपालक चलता है ॥ १२ ॥

प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरदृश्यमानो बहुधा वि जायते ।

अर्धेन विश्वं भुवनं जजान यदस्यार्धं कतमः स केतुः ॥ १३ ॥

प्रजापति अदृश्य होता हुआ गर्भ के अन्दर संचार करता है, और वह अनेक प्रकार से उत्पन्न होता है। आधे भाग से सब भुवनों को उत्पन्न करता है, जो इसका दूसरा आधा है, उसकी निशानी क्या है ? ॥ १३ ॥

ऊर्ध्वं भरन्तमुदुकं कुम्भेनेवोदहार्यम् ।

पश्यन्ति सर्वे चक्षुषा न सर्वे मनसा विदुः ॥ १४ ॥

जैसा घड़े से जल को भरकर ऊपर लाने वाला कहार होता है । सब आँख से देखते हैं, परन्तु सब मन से नहीं जानते॥१४॥

दूरे पूर्णेन वसति दूर ऊनेन हीयते ।

महद्यक्षं भुवनस्य मध्ये तस्मै बलिं राष्ट्रभृतो भरन्ति ।। १५ ।।

पूर्ण होने पर भी दूर रहता है, न्यून होने पर भी दूर ही रहता है। विश्व के बीच में बड़ा पूज्य देव है, उसके लिये राष्ट्र सेवक अपना बलिदान करते हैं ॥ १५ ॥

यतः सूर्य उदेत्यस्तं यत्र च गच्छति ।

तदेव मन्येऽहं ज्येष्ठं तदु नात्येति किं चन ॥ १६ ॥

जहाँ से सूर्य उगता है और जहाँ अस्त को जाता है, वही श्रेष्ठ है, ऐसा मैं मानता हूँ, उसका अतिक्रमण कोई नहीं करता ॥ १६ ॥

ये अर्बाङ् मध्य उत वा पुराणं वेदं विद्वांसमभितो वदन्ति ।

आदित्यमेव ते परि वदन्ति सर्वे अग्निं द्वितीयं त्रिवृतं च हंसम् ॥ १७ ॥

जो उरेवाले बीच के अथवा पुराने वेदवेत्ता की चारों ओर से प्रशंसा करते हैं, वे सव आदित्य की ही प्रशंसा करते हैं दूसरा अग्नि और त्रिवृत हंस की ही प्रशंसा करते हैं ॥ १७ ॥

सहस्त्राह्णयं वियतावस्य पक्षौ हरेर्हसस्य पततः स्वर्गम् ।

स देवान्त्सर्वानुरस्युपदद्य संपश्येन् याति भुवनानि विश्वा ॥ १८ ॥

स्वर्ग को जाते हुए इसके दोनों पक्ष सहस्र दिनों तक फैलाये रहते हैं। वह सब देवों को अपनी छाती पर लेकर सब भुवनों को देखता हुआ जाता है ॥ १८ ॥

सत्येनोर्ध्वस्तपति ब्रह्मणाऽर्वाङ्वि पश्यति ।

प्राणेन तिर्यङ् प्राणति यस्मिन् ज्येष्ठमधि श्रितम् ॥ १९ ॥

सत्य के साथ ऊपर तपता है, ज्ञान से नीचे देखता है। प्राण से तिरछा प्राण लेता है, जिसमें श्रेष्ठ ब्रह्म रहता है ॥ १९ ॥

यो वै ते विद्यादुरणी याभ्यो निर्मथ्यते वसु ।

स विद्वान् ज्येष्ठं मन्येत स विद्याद् ब्राह्मणं महत् ॥ २० ॥

जो उन दोनों अरणियों को जानता हैं, जिससे वसु निर्माण किया जाता है। वह ज्ञानी ज्येष्ठ ब्रह्म को जानता है और वह बड़े ब्रह्म को भी जानता है ॥ २० ॥

अपादग्रे समभवत् सो अग्रे स्व राभरत् ।

चतुष्पाद् भूत्वा भोग्यः सर्वमादत्त भोजनम् ॥ २१ ॥

प्रारम्भ में पादरहित आत्मा एक ही था। वह प्रारम्भ में स्वात्मानन्द भरता रहा। वही चार पांव वाला भोग्य होकर सब भोजन को प्राप्त करने लगा ॥ २१ ॥

भोग्यो भवदथो अन्नमदद्वहु ।

यो देवमुत्तरावन्तमुपासातै सनातनम् ॥ २२ ॥

वह भोग्य हुआ बहुत अन्न खाने लगा। जो सनातन और श्रेष्ठ देव की उपासना करता है ॥ २२ ॥

सनातनमेनमाहुरुताद्य स्यात्पुनर्णवः ।

अहोरात्रे प्र जायेते अन्यो अन्यस्य रूपयोः ॥ २३ ॥

इसे सनातन कहते हैं और वह आज ही फिर नया होता है। इससे परस्पर के रूप के दिन और रात्रि होते हैं ॥२३॥

शतं सहस्त्रमयुतं न्यर्बुदमसंख्येयं स्वमस्मिन्निविष्टम् ।

तदस्य घ्रन्त्यभिपश्यत एव तस्माद्देवो रोचत एष एतत् ॥ २४ ॥

सौ, हजार, दस हजार, लाख अथवा असंख्य स्वत्व इसमें हैं। इसके देखते ही वह सत्त्व आघात करता है इससे यह देव इसको प्रकाशित करता है॥ २४ ॥

बालादेकमणीयस्कमुतैकं नैव दृश्यते ।

ततः परिष्वजीयसी देवता सा मम प्रिया ॥ २५ ॥

एक बाल से भी सूक्ष्म है, और दूसरा दीखता ही नहीं। उससे जो दोनों को आलिंगन देने वाली देवता है; वह मुझे प्रिय है ॥ २५ ॥

इयं कल्याण्यजरा मर्त्यस्मामृता गृहे ।

यस्मै कृता शये स यश्चकार जजार सः ।। २६ ।।

यह कल्याण करने वाली अक्षय है, मरनेवाले के घर में अमर है। जिसके लिये की जाती है, वह लेटता है और जो करता है वह वृद्ध होता है ॥ २६ ॥

त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी ।

त्वं जीर्णो दण्डेन वञ्चसि त्वं जातो भवसि विश्वतोमुखः ॥ २७ ॥

तू स्त्री है और तू ही पुरुष है। तू लड़का है और लड़की भी तू ही है। तू वृद्ध होने पर दण्ड के सहारे चलता है। तू प्रकट होकर सब ओर मुखवाला होता है ॥ २७ ॥

उतैषां पितोत वा पुत्र एषामुतैषां ज्येष्ठ उत वा कनिष्ठः ।

एको ह देवो मनसि प्रविष्टः प्रथमो जातः स उ गर्भ अन्तः ॥ २८ ॥

इनका पिता, और इनका पुत्र इनमें ज्येष्ठ अथवा कनिष्ठ, यह सब एक ही देव मन में प्रविष्ट होकर पहिले जो हुआ था, वही गर्भ में आता है ॥ २८ ॥

पूर्णात्पूर्णमुदचति पूर्णं पूर्णेन सिच्यते ।

उतो तदद्य विद्याम यतस्तत्परिषिच्यते ॥ २९ ॥

पूर्ण से पूर्ण होता है, पूर्ण ही पूर्ण के द्वारा सींचा जाता है, अब आज वह हम जाने, कि जहाँ से वह सींचा जाता है २९

एषा सनत्नी सनमेव जातैषा पुराणी परि सर्वे बभूव ।

मही देव्युषसो विभाती सैकेनैकेन मिषता वि चष्टे ॥ ३० ॥

यह सनातन शक्ति है, सनातन काल से विद्यमान है, यही पुरानी शक्ति सब कुछ बनी है, यही बड़ी देवी उषाओं को प्रकाशित करती है, वह अकेले अकेले प्राणी के साथ दीखती है ॥ ३० ॥

अविर्वै नाम देवतर्तेनास्ते परीवृता ।

तस्या रूपेणेमे वृक्षा हरिता हरितस्त्रजः ॥ ३१ ॥

रक्षणकर्त्री नामक एक देवता है, वह सत्य से घिरी हुई है। उसके रूप से ये सब वृक्ष हरे और हरे फूलों वाले हुए हैं ॥३१॥

अन्ति सन्तं न जहात्यन्ति सन्तं न पश्यति ।

देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीयति ॥ ३२ ॥

समीप होने पर भी वह छोड़ता नहीं और वह समीप होने पर भी दीखता भी नहीं। इस देव का यह काव्य देखो, जो नहीं मरता और नहीं जीर्ण होता है ॥ ३२ ॥

अपूर्वेणेषिता वाचस्ता वदन्ति यथायथम् ।

वदन्तीर्यत्र गच्छन्ति तदाहुर्ब्राह्मणं महत् ॥ ३३ ॥

जिसके पूर्व कोई नहीं है, इस देवता ने प्रेरित की ये वाचाएँ हैं, वह वाणियां यथायोग्य वर्णन करती हैं। बोलती हुई जहाँ पहुँचती हैं, वह बड़ा ब्रह्म हैं, ऐसा कहते हैं ॥ ३३ ॥

यत्र देवाश्च मनुष्याश्चारा नाभाविव श्रिताः ।

अपां त्वा पुष्पं पृच्छामि यत्र तन्मायया हितम् ॥ ३४ ॥

देव और मनुष्य नाभि में लगे हुए आरे के समान जहाँ आश्रि हुए हैं, उस आप-तत्त्व के पुष्प को मैं आपसे पूछता हूँ, कि जहाँ वह माया से आच्छादित होकर रहता है ॥ ३४॥

येभिर्वात इषितः प्रवाति ये ददन्ते पञ्च दिशः सध्रीचीः ।

य आहुतिमत्यमेन्यन्त देवा अपां नेतारः कतमे त आसन् ।। ३५ ॥

जिनसे प्रेरित हुआ वायु बहता हैं, जो मिली-जुली पाँचों दिशायें धारण करते हैं, जो देव आहुति को अधिक मानते हैं, वे जलों के नेता कौन से हैं ? ॥ ३५ ॥

इमामेषां पृथिवीं वस्त एकोऽन्तरिक्षं पर्येको बभूव ।

दिवप्रेषां ददते यो विधर्ता विश्वा आशाः प्रति रक्षन्त्येके ।। ३६ ॥

इनमें से एक इस पृथ्वी पर रहता है एक अन्तरिक्ष में व्यापता है, इनमें जो धारक है, वह द्युलोक को धारण करता है, और सब कुछ दिशाओं की रक्षा करते हैं ॥ ३६ ॥

यो विद्यात्सूत्रं विततं यस्मिन्नोताः प्रजा इमाः ।

सूत्रं सूत्रस्य यो विद्यात्स विद्याद् ब्राह्मणं महत् ॥ ३७ ॥

जिसमें यह सब प्रजा पिरोयी हैं, जो इस फैले सूत्र को जानता है, और सूत्र के सूत्र को जानता है, वह बड़े ब्रह्म को जानता है ॥ ३७ ॥

वेदाहं सूत्रं विततं यस्मिन्नोताः प्रजा इमाः ।

सूत्रं सूत्रस्याहं वेदार्थो यद्ब्राह्मणं महत् ॥ ३८ ॥

जिसमें ये प्रजाएँ पिरोयी है, मैं यह फैला हुआ सूत्र जानता हूँ । सूत्र का सूत्र भी मैं जानता हूँ और जो बड़ा ब्रह्मा है, वह भी मैं जानता हूँ ॥ ३८ ॥

यदन्तरा द्यावापृथिवी अग्निरैत्प्रदहन्विश्वदाव्यः ।

यत्रातिष्ठन्नेकपत्नीः परस्तात् क्वेवासीन्मातरिश्वा तदानीम् ॥ ३९ ॥

जो द्युलोक और पृथ्वी के बीच में विश्व को चलानेवाला अग्रि होता है, जहाँ दूर तक एक पत्नी ही रहती हैं, उस समय वायु कहाँ था ? ॥ ३९ ॥

अप्स्वासीन्मातरिश्वा प्रविष्टः प्रविष्टा देवाः सलिलान्यासन् ।

बृहन्ह तस्थौ रजसो विमानः पवमानो हरित आ विवेश ॥ ४० ॥

वायु जलों में प्रविष्ट था, सब देव जलों में प्रविष्ट थे, उस समय वह ही रज का विशेष प्रमाण था, और वायु सूर्यकिरणों के साथ था ॥ ४० ॥

उत्तरेणेव गायत्रीममृतेऽधि वि चक्रमे ।

साम्ना ये सामे संविदुरजस्तद्ददृशे क्व ॥ ४१ ॥

उच्चतर रूप से अमृत में गायत्री को विशेष रीति से प्राप्त करते हैं। जो साम से साम जानते हैं, वह अजन्मा ने कहाँ देखा ? ।। ४१ ॥

निवेशनः संगमनो वसूनां देव इव सविता सत्यधर्मा ।

इन्द्रो न तस्थौ समरे धनानाम् ॥ ४२ ॥

सत्य के धर्म से युक्त सविता देव के समान सब धनों का देनेवाला और निवास का हेतु है वह धनों के युद्ध में इन्द्र के समान स्थिर रहता है ॥ ४२ ॥

पुण्डरीकं नवद्वारं त्रिभिर्गुणेभिरावृतम् ।

तस्मिन्यद्यक्षमात्मन्वत्तद्वै ब्रह्मविदो विदुः ॥ ४३ ॥

नव द्वारवाला कमल सत्त्व-रज-तम इन तीन गुणों से घिरा हुआ है। उसमें जो आत्मावाला पूज्य देव है उसे ब्रह्मज्ञानी जानते हैं ॥ ४३ ॥

अकामो धीरो अमृतः स्वयंभू रसेन तृप्तो न कुतश्चनोनः ।

तमेव विद्वान्न बिभाय मृत्योरात्मानं धीरमजरं युवानम् ॥ ४४ ॥

निष्काम, धीर, अमर, स्वयंभू रस से संतुष्ट वह देव कहाँ से भी न्यून नहीं है, उसे जानने वाला ज्ञानी मृत्यु से डरता नहीं; क्योंकि वही धीर, अजर, युवा आत्मा है ॥ ४४ ॥

ज्येष्ठब्रह्मसूक्त समाप्त ॥

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