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कर्मकाण्ड

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अनुत्तराष्ट्रिका

अनुत्तराष्ट्रिका

इस स्तोत्र का नाम 'अनुत्तराष्ट्रिका' इसलिए है क्योंकि इसमें आठ श्लोक हैं तथा अनुत्तर तत्त्व के विषय में वर्णन है। यह अनुत्तर तत्त्व अद्वैत वेदान्तियों के ब्रह्म के समान अद्वैत काश्मीर शैवदर्शन का परम शिव है। भैरवावतार अभिनवगुप्तपादाचार्य भी अद्वैतवादी शैव दार्शनिक हैं । इनके द्वारा रचित प्रायः सभी स्तोत्र भक्ति भावना से परिपूर्ण होते हुए भी दार्शनिक विचारों से ओतप्रोत है । यही ज्ञान की चरम सीमा है, अन्तिम सत्य है, यही परा है, पूर्ण संविद् है। इसके परे किसी भी पदार्थ की सत्ता नहीं" । यह सभी प्रकार की सीमाओं से रहित है । सम्पूर्ण विश्व और उसके परे ज्ञान, अज्ञान सर्वस्व इसी की इच्छाभिव्यक्ति मात्र है और कुछ नहीं । यह स्तोत्र यह कहता है कि सम्पूर्ण वैश्विक परिदृश्य उस परमसत्ता से अभिन्न है और उसी परमसत्ता अथवा अनुत्तरतत्त्व का साक्षात्कार ही मुक्ति का मार्ग है ।

अनुत्तराष्ट्रिका

अनुत्तराष्ट्रिका

Anuttaraṣṭika

अनुत्तराष्ट्रिका

संक्रामोsन न भावना न च कथायुक्तिर्न चर्चा न च

ध्यानं वा न च धारणा न च जपाभ्यासप्रयासो न च ।

तत्किं नाम सुनिश्चितं वद परं सत्यं च तच्छूयतां

न त्यागी न परिग्रही भज सुखं सर्वं यथावस्थितः ॥ १ ॥

इस संसार में न संक्रमण है, न कथायुक्ति, न चर्चा, न भावना, न ध्यान, न धारणा, न जप का अभ्यास अथवा प्रयास तो पुनः क्या है? इसको निश्चित रूप से बताओ । (तो उत्तर में कहा गया कि ) अन्तिम सत्य को सुनो, न त्यागी बनो, न गृहस्थ, स्वाभाविक स्थिति में रहते हुए सम्पूर्ण सुःखों का उपभोग करो ॥ १ ॥

संसारोऽस्ति न तत्त्वतस्तनुभृतां बन्धस्य वार्तैव का

बन्धो यस्य न जातु तस्य वितथा मुक्तस्य मुक्तिक्रिया ।

मिथ्यामोहकृदेष रज्जुभुजगच्छायापिशाचभ्रमो

मा किंचित्त्यज मा गृहाण विलस स्वस्थो यथावस्थितः ॥ २ ॥

शरीरधारियों के लिए वस्तुतः संसार नहीं है । पुनः बन्धन की क्या बात ? जिसका कभी बन्धन नहीं होता उस मुक्त शरीरधारी के लिए मुक्ति के लिए उपाय (कर्म, क्रिया) व्यर्थ है । यह संसार मिथ्या मोह के द्वारा बनाया गया है । यह रस्सी में सर्प अथवा छाया में पिशाच के समान भ्रम है इसलिए न किसी का त्याग करो, न किसी का ग्रहण, स्वस्थ और यथावस्थित होकर आनन्द करो ॥ २ ॥

पूजापूजकपूज्यभेदसरिणः केयं कथानुत्तरे

संक्रामः किल कस्य केन विदधे को वा प्रवेशक्रमः ।

मायेयं न चिदद्वयात्परतया भिन्नाप्यहो वर्तते

सर्वं स्वानुभवस्वभावविमलं चिन्तां वृथा मा कृथाः ॥ ३ ॥

पूजा, पूजक और पूज्य, अनुत्तर के विषय में यह कैसी कथा ? इसी प्रकार कौन किसके द्वारा अनुत्तर में संक्रमण कर सकता है? अथवा प्रवेश का मार्ग क्या है ? यहाँ तक कि यह माया भी अद्वैय परम चैतन्य से भिन्न नहीं है । सब अपने अनुभव, स्वभाव के कारण विमल है । अतः व्यर्थ की चिन्ता मत करो ॥ ३ ॥

आनन्दोऽत्र न वित्तमद्यमदवन्नैवाङ्गनासङ्गवत्

दीपार्केन्दुकृतप्रभाप्रकरवत् नैव प्रकाशोदयः ।

हर्षः संभृतभेदमुक्तिसुखभूर्भारावतारोपमः

सर्वाद्वैतपदस्य विस्मृतनिधेः प्राप्तिः प्रकाशोदयः ॥ ४ ॥

इस संसार में आनन्द न तो धन के मद के समान है और न तो स्त्री- समागम के समान है । इसके अन्दर दीप, सूर्य, चन्द्रमा के द्वारा किये गये प्रकाश की भाँति प्रकाश नहीं होता । यहाँ का आनन्द भेद से रहित सुख की भूमि के भार के अवतार के समान है । विस्मृत निधि की (प्राप्ति के समान) समस्त अद्वैतपद की प्राप्ति ही प्रकाश का उदय है ॥ ४ ॥

रागद्वेषसुखासुखोदयलयाहङ्कारदैन्यादयो

ये भावाः प्रविभान्ति विश्ववपुषो भिन्नस्वभावा न ते ।

व्यक्तिं पश्यसि यस्य यस्य सहसा तत्तत्तदेकात्मता-

संविद्रूपमवेक्ष्य किं न रमसे तद्भावनानिर्भरः ॥ ५ ॥

राग-द्वेष, सुःख-दुःख, उदय-अस्त, अहङ्कार- दीनता इत्यादि जो भी भाव लोगों को प्रतीत होते हैं वे विश्व शरीर अनुत्तर के स्वभाव से भिन्न नहीं हैं अपितु अनुत्तर के स्वभावरूप ही हैं । जिस-जिस भाव की अभिव्यक्ति तुम देखते हो वह सब एकरूप संवित् ही हैं । तो फिर उसकी भावना से परिपूर्ण होकर आनन्द क्यों नहीं उठाते ? ॥ ५ ॥

पूर्वाभावभवक्रिया हि सहसा भावाः सदाऽस्मिन्भवे

मध्याकारविकारसङ्करवतां तेषां कुतः सत्यता ।

निः सत्ये चपले प्रपञ्चनिचये स्वप्नभ्रमे पेशले

शङ्कातङ्ककलङ्कयुक्तिकलनातीतः प्रबुद्धो भव ॥ ६ ॥

इस संसार में जितने आकस्मिक भाव दिखाई दे रहे हैं वे पूर्ववर्ती शून्य से उत्पन्न हैं अर्थात् उनके पहले शून्य ही था और वे असत् थे । आकार-विकार से युक्त वे मध्य में कैसे सत्य हो सकते हैं? स्वप्न के समान भ्रम मनोहारी, असत्य और चञ्चल इस प्रपञ्च समूह के विषय में शङ्कारूपी आतङ्क के कलङ्क से युक्त मत बनो । ज्ञानवान् हो जाओ ॥ ६ ॥

भवानां न समुद्धवोऽस्ति सहजस्त्वद्धाविता भान्त्यमी

निःसत्या अपि सत्यतामनुभवभ्रान्त्या भजन्ति क्षणम् ।

त्वत्सङ्कल्पज एष विश्वमहिमा नास्त्यस्य जन्मान्यतः

तस्मात्त्वं विभवेन भासि भुवनेष्वेकोप्यनेकात्मकः ॥ ७ ॥

पदार्थ स्वभावतः उत्पन्न नहीं होते, आपके द्वारा प्रेरित होकर ये सबको प्रतीत होते हैं । असत्य होते हुए भी ये अनुभव की भ्रान्ति के कारण एक क्षण के लिए सत्य हो जाते हैं। यह विराट् विश्व आपके सङ्कल्प से उत्पन्न होता है । इसका जन्म किसी दूसरे कारण से नहीं होता, अतः एक होते हुए भी आप अपने वैभव से अनेक प्रतीत होते हैं ॥ ७ ॥

यत्सत्यं यदसत्यमल्पबहुलं नित्यं न नित्यं च यत्

यन्मायामलिनं यदात्मविमलं चिद्दर्पणे राजते ।

तत्सर्वं स्वविमर्शसंविदुदयाद् रूपप्रकाशात्मकं

ज्ञात्वा स्वानुभवाधिरूढमहिमा विश्वेश्वरत्वं भज ॥ ८ ॥

जो सत्य है तथा जो असत्य हैं, जो थोड़ा और अधिक है, नित्य है और अनित्य है, जो माया के कारण मलिन है अथवा आत्मा के कारण निर्मल है और चित्ररूपी दर्पण में दिखाई पड़ता है, वह सब अपने विमर्श- संवित् के उदय के कारण रूपात्मक प्रकाशात्मक है । ऐसा समझकर अपने अनुभव पर आरूढ़ महिमावाला बनकर तुम विश्वेश्वर बन जाओ ॥ ८ ॥

॥ इति श्रीमदाचार्याभिनवगुप्तपादैर्विरचितानुत्तराष्टिका समाप्ता ॥

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