परमार्थद्वादशिका
परमार्थद्वादशिका में कुल तेरह
श्लोक हैं । इसमें परमार्थ का विवेचन है । परम शिव ही परम अर्थ अर्थात् परमार्थ है
। इस संसार में भेद-अभेद, द्वैत-अद्वैत आदि
जो कुछ भी प्रतीत होता है वह ज्ञान के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है । परमार्थ की
महिमा से उसी में सम्पूर्ण सृष्टि का उदय और लय दोनों है । इस स्तोत्र में आचार्य अभिनवगुप्त ने ज्ञान से मुक्ति की बात कही है। जिस प्रकार आत्मा के अतिरिक्त किसी
भी पदार्थ की सत्ता नहीं उसी प्रकार परम चैतन्य के भीतर भी कुछ नहीं है ।
आत्मतत्त्व के अतिरिक्त जो कुछ भी प्रतीत होता है वह केवल रस्सी में सर्प के समान
(मोह) भ्रम ही है ।
परमार्थद्वादशिका
Paramarthadvādaśikā
परमार्थ द्वादशिका
शान्तिं सम्भज
नित्यमल्पवचनैर्जल्पक्रमं संहर
तत्संहारगमेन किं कथमिदं कोऽसीति मा
चीक्लृपः ।
भावाभावविभागभासनतया
यद्भात्यभग्नक्रमं
तच्छून्यं शिवधाम वस्तु परमं
ब्रह्मात्र कोऽर्थग्रहः ॥ १ ॥
शान्ति धारण करो,
प्रतिदिन अल्प वचनों के द्वारा अधिक बोलने की स्थिति को कम करो,
उस कम करने के द्वारा यह क्या है? कैसे है?
तुम कौन हो ? ऐसी कल्पना मत करो । भावाभाव के
विभाग के आभास के रूप में जो क्रम को भङ्ग न करते हुए प्रतिमान होता है वही शून्य,
शिवधाम, वास्तविक वस्तु है । वही परब्रह्म है
। इस विषय में कुछ भी विचारणीय नहीं है ॥ १ ॥
यद्यतत्त्वपरिहारपूर्वकं तत्त्वमेषि
तदतत्त्वमेव हि ।
यद्यतत्त्वमथ तत्त्वमेव वा
तत्त्वमेव ननु तत्त्वमीदृशम् ॥ २ ॥
यदि अतत्त्व का परिहार न करते हुए
तुम किसी तत्त्व को प्राप्त करते हो तो वह अतत्त्व ही है । यदि अतत्त्व को भी
तत्त्व समझते हो तो तत्त्व इसी प्रकार होता है ॥ २॥
यद्यद्भाति न भानतः पृथगिदं भेदोऽपि
भातीति चेत्
भाने सोऽपि न भाति किं जहि ततस्तद्भंगिभङ्गग्रहम्
।
स्वप्ने स्वप्नतया प्रथां गतवती
क्रीडैव नो भीतिकृ-
च्छस्त्राघातजलावपातहुतभुङ्निर्घातबन्धादिकम्
॥ ३ ॥
जो-जो प्रतीत होता है वह ज्ञान के
अतिरिक्त और कुछ नहीं है । यदि यह कहते हो कि भेद भी हमको प्रतीत होता है तो ज्ञान
में भी क्या वह (भेद) प्रतीत नहीं होता? अतः
उस भङ्गी के भङ्ग के ज्ञान को छोड़ो। (जिस प्रकार ) स्वप्न में स्वप्न के रूप में
विस्तार को प्राप्त क्रीडा भय का कारण नहीं बनती उसी प्रकार शस्त्राघात, जल की गहराई में गिरना, अग्नि में जलना और बन्धनादि
का भय नहीं उत्पन्न करते ॥ ३ ॥
ज्ञानक्रियाकलनपूर्वकमध्यवस्ये-
द्यद्यद्भवान् कथय कोऽस्य
जडाद्विशेषः ।
स्फूर्जन्जडोऽपि न किमद्वयबोधधाम
निस्सीमनित्यनिरवग्रहसत्यरूपम् ॥ ४
॥
जिस-जिस वस्तु का निश्चय आप ज्ञान,
क्रिया और कलन के बाद करते हैं बतलाइये उस वस्तु का जड़ से क्या भेद
है? स्फुरित होने वाला जड़ भी क्या असीम, नित्य, बन्धनरहित, सत्स्वरूप
अद्वयबोधधाम नहीं है ? ॥ ४ ॥
भावानामवभासकोऽसि यदि तैर्मोहः
किमातन्यते
किं ते तद्यदि भान्ति हन्त
भवतस्तत्राप्यखण्डं महः ।
नोचेन्नास्ति तदेवमप्युभयथा
निर्व्याजनिर्यन्त्रणा-
त्रुट्यद्विभ्रमनित्यतृप्तमहिमा
नित्यं प्रबुद्धोऽसि भोः ॥ ५ ॥
यदि तुम भावों के अवभासक हो तो उनके
द्वारा मोह का विस्तार क्यों करते हो ? यदि
वे भासित होते हैं तो उससे आप का क्या लाभ? वहाँ भी आपका ही
अखण्ड तेज भासित हो रहा है । यदि ऐसा नहीं है तो वह पदार्थ भी नहीं है । इस प्रकार
दोनों पक्षों से तुम स्वाभाविक रूप से यन्त्रणा - रहित होकर क्रम का विनाश होने पर
नित्य तृप्त महिमावाला होकर नित्य प्रबुद्ध हो ॥ ५ ॥
दृष्टिं बहिः प्रहिणु
लक्ष्यपथातिरिक्तं
स्याद्भैरवानुकरणं वत वञ्चनेयम् ।
निर्द्वन्द्वबोधगगनस्य न बाह्यमस्ति
नाभ्यन्तरं निरवकाशविकासधाम्नः ॥ ६
॥
दृष्टि को बाहर ले जाओ,
लक्ष्य-मार्ग के अतिरिक्त यदि भैरव का अनुकरण करते हो तो यह
केवल आत्मवञ्चना ही है । निर्द्वन्द्वबोधगगनस्वरूप आत्मतत्त्व के अतिरिक्त कुछ भी
नहीं है और इसी प्रकार नित्याकाश विकाश तेज के भीतर भी कुछ नहीं है ॥ ६ ॥
वासनाप्रसरविभ्रमोदये यद्यदुल्लसति
तत्तदीक्ष्यताम् ।
आदिमध्यनिधनेषु तत्र चेत् भासि भासि
तव लीयते जगत् ॥ ७ ॥
वासनाप्रसर के विभ्रम का उदय होने
पर जो-जो उल्लसित होता है उसका ईक्षण करो । यदि तुम उस आदि,
मध्य और निधन में भासित होते हो तो तुम्हारे आभास में यह संसार लीन
होजाता है ॥ ७ ॥
मोहो दुःखवितर्कतर्कणघनो हेतुप्रथानन्तर-
प्रोद्यद्विभ्रमशृङ्खलातिबहुलो
गन्धर्वपूः सन्निभः ।
द्वैताद्वैतविकल्पनाश्रयपदे चिद्वयोम्नि
नाभाति चेत्
कुत्रान्यत्र चकास्तु कास्तु परमा
निष्ठाप्यनेकात्मना ॥ ८ ॥
यह मोह दुःख के वितर्क के तर्क से
व्याप्त है । हेतु के विस्तार के बाद उठनेवाली विभ्रमरूपी शृङ्खला से भरा हुआ है।
साथ ही यह मोह गन्धर्वनगर के समान है । यदि यह मोह द्वैताद्वैत विकल्पना के
आश्रयभूत चिदाकाश में प्रकाशित नहीं होता तो यह कहाँ प्रकाशित हो और अनेकरूप से
इसकी परमनिष्ठा (अन्तिम सीमा) क्या है?॥८॥
स्वप्ने तावदसत्यमेव सरणं सौसुप्तधाम्नि
प्रथा
नैवास्यास्ति तदुत्तरे निरुपधौ
चिद्व्योम्नि कोऽस्य ग्रहः ।
जाग्रत्येव धरावदर्थनिचयः
स्याच्चेत् क्षणे कुत्रचित्
ज्ञानेनाथ तदत्ययेऽपृथगिदं तत्रापि
का खण्डना ॥ ९ ॥
स्वप्नावस्था में संसार असत्य है,
सुषुप्तावस्था में इसका विस्तार नहीं होता । उसके ऊर्ध्ववर्ती,
उपाधिरहित चिदाकाश में इसका ज्ञान नहीं होता । तात्पर्य यह है कि
पार्थिव अर्थसमूह जागृत अवस्था में ही दिखलाई पड़ता है और वह भी कहीं कुछ क्षण के
लिए तत्त्वज्ञान के द्वारा इसका लोप होने पर यह परमतत्त्व से अपृथक् दिखाई देता है
फिर वहाँ खण्डन की क्या बात? ॥ ९ ॥
ये ये केsपि प्रकाशा मयि सति परमव्योम्नि लब्धावकाशाः
काशा ह्येतेषु नित्ये महिमनि मयि ते
निर्विभागं विभान्ति ।
सोऽहं
निर्व्याजनित्यप्रतिहतकलनानन्तसत्यस्वतन्त्र-
ध्वस्तद्वैताऽद्वयारिद्वयमयतिमिरापारबोधप्रकाशः
॥ १० ॥
जो कोई प्रकाश मेरे परमाकाश में
प्रकाशित होते हैं वे नित्य महिमा वाले मुझमें अभिन्नरूप से प्रकाशित होते हैं ।
वह मैं स्वभावतः द्वैत को ध्वस्त करनेवाले अद्वैत के शत्रुस्वरूप अन्धकार के पार
जानेवाला ज्ञानरूपी प्रकाश हूँ जो कि स्वभावत: नित्य रचना का विनाश करनेवाला अनन्त,
सत्य और स्वतन्त्र हूँ ॥ १० ॥
कालः सङ्कलयन्कलाः कलयतु स्रष्टा
सृजत्वादरा-
दाज्ञायाः परतन्त्रतामुपगतो मथ्नातु
वा मन्मथः ।
क्रीडाडम्बरमम्बराश्रयमिव
स्वोल्लेखरेखाक्रमं
देहाद्याश्रयमस्तु वैकृतमहामोहे न
पश्यामि किम् ॥ ११ ॥
काल, कला का सङ्कलन करते हुए रचना करें । स्रष्टा आदर के साथ सृष्टि करें ।
आज्ञा के परतन्त्र होकर कामदेव संसार का मन्थन करे। आकाश में देहादि के
क्रीडाम्बर की तरह ऊपर आत्मा का उल्लेख रेखाक्रम हो । इस विकृत महामोह में
मैं क्या नहीं देखता ? (अर्थात् सब कुछ अनुभव करता हूँ) ॥ ११
॥
कः कोऽत्र भोर्यं कवलीकरोमि
कः कोत्र भोर्यं सहसा निहीन्म ।
कः कोऽत्र भोर्यं परबोधधाम-
सञ्चर्वणोन्मत्ततनुः पिबामि ॥ १२ ॥
यहाँ कौन है जिसको मैं खा जाऊँ?,
यहाँ कौन है? जिसको मैं सहसा मार डालूँ?
और यहाँ कौन है? जिसको परबोधधाम के
सञ्चर्वणोन्मत्त शरीर वाला मैं पीजाऊँ ? ।। १२ ।
भवोत्थभयभङ्गदङ्गशृगालविद्रावणं
प्रबोधधुरिधीमतामपि
सकृद्यदुद्दीपनम् ।
सुधामगहनाटवीविहरणातितृप्त्युद्गमाद्
अभेदकरिबृंहितं व्यधित रम्यदेवो
हरिः ॥ १३ ॥
परमरमणीय देव भगवान् संसार में
उत्पन्न भय के अङ्ग को नष्ट करनेवाले शृगाल को मारनेवाले हैं प्रबोधयुक्त
बुद्धिमानों के उद्दीपन हैं । सुधामरूपी घने जङ्गल में विहार करने से अत्यन्त
तृप्त होने के कारण अभेदरूपी हाथी में वे उन्नत हैं ॥ १३ ॥
॥ इत्याचार्याभिनवगुप्तकृता परमार्थद्वादशिका भव्यायास्तुतराम् ॥
0 Comments