अग्निपुराण अध्याय १२६
अग्निपुराण
अध्याय १२६ में नक्षत्र सम्बन्धी पिण्ड का वर्णन है।
अग्निपुराणम् षड्विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः
Agni puran chapter 126
अग्निपुराण एक सौ छब्बीसवाँ अध्याय
अग्नि पुराण अध्याय १२६
अग्निपुराणम् अध्यायः १२६– नक्षत्रनिर्णयः
अथ षड्विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः
ईश्वर उवाच
वक्ष्याम्यृक्षात्मकं
पिण्डं शुभाशुभविबुद्धये ।
यस्मिन्नृक्षे
भवेत्सूर्यस्तदादौ त्रीणि मूर्धनि ॥१॥
एकम्मुखे
द्वयन्नेत्रे हस्तपादे चतुष्टयं ।
हृदि पञ्च
सुते जानौ आयुर्बुद्धिं विचिन्तयेत् ॥२॥
शिरस्थे तु
भवेद्राज्यं पिण्डतो वक्त्रयोगतः ।
नेत्रयोः
कान्तसौभाग्यं हृदये द्रव्यसङ्ग्रहः ॥३॥
हस्ते धृतं
तस्करत्वङ्गतासुरध्वगः पदे ।
शंकरजी कहते
हैं- देवि! अब मैं प्राणियों के शुभाशुभ फल की जानकारी के लिये नाक्षत्रिक पिण्ड का
वर्णन करूँगा। (जिस राजा या मनुष्य के लिये शुभाशुभ फल का ज्ञान करना हो, उसकी प्रतिकृतिरूप से एक मनुष्य का आकार
बनाकर ) सूर्य जिस नक्षत्र में हों, उससे तीन नक्षत्र उसके
मस्तक में, एक मुख में, दो नेत्रों में,
चार हाथ और पैर में, पाँच हृदय में और पाँच
जानु में लिखकर आयु वृद्धि का विचार करना चाहिये। सिरवाले नक्षत्रों में संग्राम
(कार्य) करने से राज्य की प्राप्ति होती है। मुखवाले नक्षत्र में सुख, नेत्रवाले नक्षत्रों में सुन्दर सौभाग्य, हृदयवाले
नक्षत्रों में द्रव्यसंग्रह, हाथवाले नक्षत्रों में चोरी और
पैरवाले नक्षत्रों में मार्ग में ही मृत्यु - इस तरह क्रमशः फल होते हैं ॥१-३अ॥
कुम्भाष्टके
भानि लिख्य सूर्यकुम्भस्तु रिक्तकः ॥४॥
अशुभः
सूर्यकुम्भः स्याच्छुभः पूर्वादिसंस्थितः ।
'(अब 'कुम्भ-चक्र' कह रहे हैं -) आठ कुम्भ को पूर्वादि आठ
दिशाओं में स्थापित करना चाहिये । प्रत्येक कुम्भ में तीन-तीन नक्षत्रों की
स्थापना करने पर आठ कुम्भों में चौबीस नक्षत्रों का निवेश हो जाने पर चार नक्षत्र
शेष रह जायँगे। इन्हें ही 'सूर्यकुम्भ' कहते हैं। यह सूर्यकुम्भ अशुभ होता है। शेष पूर्वादि दिशाओं वाले
कुम्भ-सम्बन्धी नक्षत्र शुभ होते हैं। (इसका उपयोग नाम नक्षत्र से दैनिक नक्षत्र तक
गिनकर उसी संख्या से करना चाहिये ।) ॥ ४अ ॥
फणिराहुं
प्रवक्ष्यामि जयाजयविवेकदं ॥५॥
अष्टाविंशांल्लिखेद्विन्दून्
पुनर्भाज्यस्त्रिभिस्त्रिभिः ।
अथ ऋक्षाणि
चत्वारि रेखास्तत्रैव दापयेत् ॥६॥
यस्मिन्नृक्षे
स्थितो राहुस्तदृक्षं फणिमूर्धनि ।
तदादि
विन्यसेद्भानि सप्तविंशक्रमेण तु ॥७॥
अब मैं
संग्राम में जय-पराजय का विवेक प्रदान करनेवाले सर्पाकार राहुचक्र का वर्णन करता
हूँ। प्रथम अट्ठाईस बिन्दुओं को लिखे, उसमें तीन- तीन का विभाग कर दे, इस तरह
आठ विभाग कर देने पर चौबीस नक्षत्रों का निवेश हो जायगा । चार शेष रह जायेंगे। उस पर
रेखा करे। इस तरह करने पर 'सर्पाकार चक्र' बन जायगा। जिस नक्षत्र में राहु रहे, उसको सर्प के
फण में लिखे । उसके बाद उसी नक्षत्र से प्रारम्भ करके क्रमशः सत्ताईस नक्षत्रों का
निवेश करे ॥ ५-७ ॥
वक्त्रे
सप्तगते ऋक्षे म्रियते सर्व आहवे ।
स्कन्धे भङ्गं
विजानीयात्सप्तमेषु च मध्यतः ॥८॥
उदरस्थेन पूजा
च जयश्चैवात्मनस्तथा ।
कटिदेशे
स्थिते योधे आहवे हरते परान् ॥९॥
पुच्छस्थितेन
कीर्तिः स्याद्राहुदृष्टे च भे मृतिः ।
पुनरन्यं
प्रवक्ष्यामि रविराहुबलन्तव ॥१०॥
(सर्पाकार राहुचक्र का फल - ) मुखवाले सात
नक्षत्रों में संग्राम करने से मरण होता है, स्कन्धवाले सात नक्षत्रों में युद्ध करने से पराजय होती है,
पेटवाले सात नक्षत्रों में युद्ध करने से सम्मान तथा विजय की
प्राप्ति होती है, कटिवाले नक्षत्रों में संग्राम करने से
शत्रुओं का हरण होता है, पुच्छवाले नक्षत्रों में संग्राम
करने से कीर्ति होती है और राहु से दृष्ट नक्षत्र में संग्राम करने से मृत्यु होती
है। इसके बाद फिर सूर्य से राहुतक ग्रहों के बल का वर्णन करूँगा ॥ ८-१० ॥
रविः शुक्रो
बुधश्चैव सोमः सौरिर्गुरुस्तथा ।
लोहितः
सैंहिकश्चैव एते यामार्धभागिनः ॥११॥
सौरिं रविञ्च
राहुञ्च कृत्वा यत्नेन पृष्ठतः ।
स
जयेत्सैन्यसङ्घातं द्यूतमध्वानमाहवं ॥१२॥
(अर्धयामेश का वर्णन करते हैं -) जैसे चार प्रहर
का एक दिन होता है तो एक दिन में आठ अर्धप्रहर होंगे। यदि दिनमान बत्तीस दण्ड का
हो तो एक अर्ध प्रहर का मान चार दण्ड का होगा। दिनमान प्रमाण में आठ से भाग देने पर
जो लब्धि होगी, वही एक
अर्धप्रहर का मान होता है। रवि आदि सात वारों में प्रत्येक अर्धप्रहर का कौन ग्रह स्वामी
होगा- इस पर विचार करते हुए केवल रविवार के दिन प्रत्येक अर्धप्रहर के स्वामियों को
बता रहे हैं। जैसे रविवार में एक से लेकर आठ अर्धप्रहरों के स्वामी क्रमशः सूर्य,
शुक्र, बुध, सोम,
शनि, गुरु, मङ्गल और
राहु ग्रह होते हैं। (इनमें जिस विभाग का स्वामी शनि होता है, वह समय शुभ कार्यों में त्याज्य है और उसे ही 'वारवेला'
कहते हैं।) (विशेष रविवार के अर्धयामेशों को देखने से यह अनुमान
होता है कि रविवार के अतिरिक्त जिस दिन का अर्धयामेश जानना हो तो प्रथम अर्धयामेश
तो दिनपति ही होगा और बाद के अर्धयामों के स्वामी छः संख्यावाले ग्रह होंगे। इसी
आधार पर रविवार से लेकर शनिवारतक के अर्धयामों के स्वामी नीचे चक्र में दिये जा
रहे हैं*-
वार |
सू० |
चं० |
मं० |
बु० |
बृ० |
शु० |
श० |
|
४ दण्ड |
सू० |
चं० |
मं० |
बु० |
बृ० |
शु० |
श० |
|
४ दण्ड |
शु० |
श० |
सू० |
चं० |
मं० |
बु० |
बु० |
|
४ दण्ड |
बु० |
बृ० |
शु० |
श० |
सू० |
चं० |
मं० |
|
४ दण्ड |
सो० |
मं० |
बु० |
बृ० |
शु० |
श० |
सू० |
|
४ दण्ड |
श० |
सू० |
च० |
म० |
बु० |
बृ० |
शु० |
|
४ दण्ड |
बृ० |
शु० |
श० |
सू० |
च० |
म० |
बु० |
|
४ दण्ड |
म० |
|
बृ० |
शु० |
श० |
सू० |
च० |
|
४ दण्ड |
रा० |
रा० |
रा० |
रा० |
रा० |
रा० |
रा० |
शनि सूर्य तथा
राहु को यत्न से पीठ पीछे करके जो संग्राम करता है, वह सैन्यसमुदाय पर विजय प्राप्त करता है तथा जूआ, मार्ग और युद्ध में सफल होता है ॥ ११-१२ ॥
* प्रत्येक दिन की अर्धयामेश संख्या आठ है तथा
दिनपति रवि से लेकर शनितक सात ही हैं। अतः आठवें अर्धयाम को ग्रन्थान्तरों में 'निरीश' माना
गया है। जैसे-
रविवारादिशन्यन्तं
गुलिकादिर्निरूप्यते ।
अष्टमांशो
निरीशः स्याच्छन्पंशो गुलिकः स्मृतः ॥
किंतु
यहाँ अग्निपुराण में प्रतिदिन राहु को अष्टमांश का स्वामी मान रहे हैं—यह विशेष बात है।
रोहिणी
चोत्तरास्तिस्रो मृगः पञ्च स्थिराणि हि ।
अश्विनी रेवती
स्वाती धनिष्ठा शततारका ॥१३॥
क्षिप्राणि
पञ्चभान्येव यात्रार्थी चैव योजयेत् ।
अनुराधाहस्तमूलं
मृगः पुष्यं पुनर्वसुः ॥१४॥
सर्वकार्येषु
चैतानि ज्येष्ठा चित्रा विशाखया ।
पूर्वास्तिस्रोऽग्निर्भरणी
मघार्द्राश्लेषदारुणाः ॥१५॥
स्थावरेषु
स्थिरं ह्यृक्षं यात्रायां क्षिप्रमुत्तमं ।
सौभाग्यार्थे
मृदून्येव उग्रेषूग्रन्तु कारयेत् ॥१६॥
दारुणे दारुणं
कुर्याद्वक्ष्ये चाधोमुखादिकं ।
(नक्षत्रों की
स्थिरादि संज्ञा तथा उसका प्रयोजन कहते हैं -) रोहिणी, तीनों उत्तराएँ, मृगशिरा-
इन पाँच नक्षत्रों की 'स्थिर' संज्ञा
है। अश्विनी, रेवती, स्वाती, धनिष्ठा, शतभिषा – इन पाँचों
नक्षत्रों की 'क्षिप्र' संज्ञा है।
इनमें यात्रार्थी को यात्रा करनी चाहिये। अनुराधा, हस्त,
मूल, मृगशिरा, पुष्य,
पुनर्वसु- इनमें प्रत्येक कार्य हो सकता है। ज्येष्ठा, चित्रा, विशाखा, तीनों
पूर्वाएँ, कृत्तिका, भरणी, मघा, आर्द्रा, आश्लेषा इनकी 'दारुण' संज्ञा है। स्थिर कार्यों में स्थिर
संज्ञावाले नक्षत्रों को लेना चाहिये। यात्रा में 'क्षिप्र'
संज्ञक नक्षत्र उत्तम माने गये हैं। 'मृदु'
संज्ञक नक्षत्रों में सौभाग्य का काम तथा 'उग्र'
संज्ञक नक्षत्रों में उग्र काम करना चाहिये। 'दारुण'
संज्ञक नक्षत्र दारुण (भयानक) काम के लिये उपयुक्त होते हैं ॥ १३ -
१६अ ॥
कृत्तिका
भरण्याश्लेषा विशाखा पितृनैर्ऋतम् ॥१७॥
पूर्वात्रयमधोवक्त्रं
कर्म चाधोमुखञ्चरेत् ।
एषु
कूपतडागादि विद्याकर्म भिषक्क्रिया ॥१८॥
स्थापनन्नौकाभूपादिविधानं
खननन्तथा ।
रेवती
चाश्विनी चित्रा हस्ता स्वाती पुनर्वसुः ॥१९॥
अनुराधा मृगो
ज्येष्ठा नव वै पार्श्वतोमुखाः ।
एषु
राज्याभिषेकञ्च पट्टबन्धङ्गजाश्वयोः ॥२०॥
आरामगृहप्रासादं
प्राकारं क्षेत्रतोरणं ।
ध्वजचिह्नपताकाश्च
सर्वानेतांश्च कारयेत् ॥२१॥
द्वादशी
सूर्यदग्धा तु चन्द्रेणैकादशी तथा ।
भौमेन दशमी
दग्धा तृतीया वै बुधेन च ॥२२॥
षष्टी च
गुरुणा दग्धा द्वितीया भृगुणा तथा ।
सप्तमी
सूर्यपुत्रेण त्रिपुष्करमथो वदे ॥२३॥
(अब अधोमुख, तिर्यङ्मुख आदि नक्षत्रों का नाम तथा प्रयोजन कहता हूँ) -
कृत्तिका, भरणी, आश्लेषा, विशाखा, मघा, मूल, तीनों पूर्वाएँ — ये अधोमुख नक्षत्र हैं। इनमें
अधोमुख कर्म करना चाहिये। उदाहरणार्थ- कूप, तड़ाग, विद्याकर्म, चिकित्सा, स्थापन,
नौका निर्माण, कूपों का विधान, गड्ढा खोदना आदि कार्य इन्हीं अधोमुख नक्षत्रों में करना चाहिये। रेवती,
अश्विनी, चित्रा, हस्त,
स्वाती, पुनर्वसु, अनुराधा,
मृगशिरा, ज्येष्ठा- ये नौ नक्षत्र तिर्यड्मुख
हैं। इनमें राज्याभिषेक, हाथी तथा घोड़े को पट्टा बाँधना,
बाग लगाना, गृह तथा प्रासाद का निर्माण,
प्राकार बनाना, क्षेत्र, तोरण, ध्वजा, पताका लगाना- इन
सभी कार्यों को करना चाहिये। रविवार को द्वादशी, सोमवार को
एकादशी, मङ्गलवार को दशमी, बुधवार को
तृतीया, बृहस्पतिवार को षष्ठी, शुक्रवार
को द्वितीया, शनिवार को सप्तमी हो तो 'दग्धयोग'
होता है ॥ १७ - २३ ॥
द्वितीया
द्वादशी चैव सप्तमी वै तृतीयया ।
रविर्भौमस्तथा
शौरिः षडेतास्तु त्रिपुष्कराः ॥२४॥
विशाखा
कृत्तिका चैव उत्तरे द्वे पुनर्वसुः ।
पूर्वभाद्रपदा
चैव षडेते तु त्रिपुष्कराः ॥२५॥
लाभो
हानिर्जयो वृद्धिः पुत्रजन्म तथैव च ।
नष्टं भ्रष्टं
विनष्टं वा तत्सर्वन्त्रिगुणं भवेत् ॥२६॥
(अब त्रिपुष्कर योग बतलाते हैं) - द्वितीया, द्वादशी, सप्तमी -
तीन तिथियाँ तथा रवि, मङ्गल, शनि-तीन
वार- ये छ: 'त्रिपुष्कर' हैं तथा
विशाखा, कृत्तिका, दोनों उत्तराएँ,
पुनर्वसु, पूर्वाभाद्रपदा - ये छः नक्षत्र भी 'त्रिपुष्कर' हैं। अर्थात् रवि, शनि, मङ्गलवारों में द्वितीया, सप्तमी, द्वादशी में से कोई तिथि हो तथा उपर्युक्त
नक्षत्रों में से कोई नक्षत्र हो तो 'त्रिपुष्कर योग'
होता है। त्रिपुष्कर योग में लाभ, हानि,
विजय, वृद्धि, पुत्रजन्म,
वस्तुओं का नष्ट एवं विनष्ट होना-ये सब त्रिगुणित हो जाते हैं ॥ २४-
२६ ॥
अश्विनी भरणी
चैव अश्लेषा पुष्यमेव च ।
स्वातिश्चैव
विशाखा च श्रवणं सप्तमं पुनः ॥२७॥
एतानि
दृढचक्षूंषि पश्यन्ति च दिशो दश ।
यात्रासु
दूरगस्यापि आगमः पुण्यगोचरे ॥२८॥
आषाढे रेवती
चित्रा केकराणि पुनर्वसुः ।
एषु पञ्चसु
ऋक्षेषु निर्गतस्यागमो भवेत् ॥२९॥
कृत्तिका
रोहिणी सौम्यं फल्गुनी च मघा तथा ।
मूलं
ज्येष्ठानुराधा च धनिष्ठा शततारकाः ॥३०॥
पूर्वभाद्रपदा
चैव चिपिटानि च तानि हि ।
अध्वानं
व्रजमानस्य पुनरेवागमो भवेत् ॥३१॥
हस्त
उत्तरभाद्रश्च आर्द्राषाढा तथैव च ।
नष्टार्थाश्चैव
दृश्यन्ते सङ्ग्रामो नैव विद्यते ॥३२॥
(अब नक्षत्रों की स्वक्ष, मध्याक्ष, मन्दाक्ष
और अन्धाक्ष संज्ञा तथा प्रयोजन कहते हैं) - अश्विनी, भरणी,
आश्लेषा, पुष्य, स्वाती,
विशाखा, श्रवण, पुनर्वसु-
ये दृढ़ नेत्रवाले नक्षत्र हैं और दसों दिशाओं को देखते हैं। (इनकी संज्ञा 'स्वक्ष' है।) इनमें गयी हुई वस्तु तथा यात्रा में
गया हुआ व्यक्ति विशेष पुण्य के उदय होने पर ही लौटते हैं। दोनों आषाढ़ नक्षत्र
रेवती, चित्रा, पुनर्वसु-ये पाँच
नक्षत्र 'केकर' हैं, अर्थात् 'मध्याक्ष' हैं। इनमें
गयी हुई वस्तु विलम्ब से मिलती है। कृत्तिका, रोहिणी,
मृगशिरा, पूर्वाफाल्गुनी, मघा, मूल, ज्येष्ठा, अनुराधा, धनिष्ठा, शतभिषा,
पूर्वाभाद्रपदा ये नक्षत्र 'चिपिटाक्ष'
अर्थात् 'मन्दाक्ष' हैं।
इनमें गयी हुई वस्तु तथा मार्ग चलनेवाला व्यक्ति कुछ हो विलम्ब में लौट आता है।
हस्त, उत्तराभाद्रपदा, आर्द्रा,
पूर्वाषाढा - ये नक्षत्र 'अन्धाक्ष' हैं। इनमें गयी हुई वस्तु शीघ्र मिल जाती है, कोई
संग्राम नहीं करना पड़ता ॥ २७-३२ ॥
पुनर्वक्ष्यामि
गण्डान्तमृक्षमध्ये यथा स्थितम् ।
रेवत्यन्ते
चतुर्नाडी अश्विन्यादिचतुष्टयम् ॥३३॥
उभयोर्याममात्रन्तु
वर्जयेत्तत्प्रयत्नतः ।
अश्लेषान्ते
मघादौ तु घटिकानां चतुष्टयम् ॥३४॥
द्वितीयं
गण्डमाख्यातं तृतीयं भैरवि शृणु ।
ज्येष्ठाभमूलयोर्मध्ये
उग्ररूपन्तु यामकम् ॥३५॥
न
कुर्याच्छुभकर्माणि यदीच्छेदात्मजीवितं ।
दारके जातकाले
च म्रियेते पितृमातरो ॥३६॥
अब नक्षत्रों में
स्थित 'गण्डान्त' का निरूपण
करता हूँ-रेवती के अन्त के चार दण्ड और अश्विनी के आदिके चार दण्ड 'गण्डान्त' होते हैं। इन दोनों नक्षत्रों का एक प्रहर
शुभ कार्यों में प्रयत्नपूर्वक त्याग देना चाहिये। आश्लेषा के अन्त का तथा मघा के
आदि के चार दण्ड 'द्वितीय गण्डान्त' कहे
गये हैं। भैरवि ! अब 'तृतीय गण्डान्त को सुनो- ज्येष्ठा तथा
मूल के बीच का एक प्रहर बहुत ही भयानक होता है। यदि व्यक्ति अपना जीवन चाहता हो तो
उसे इस काल में कोई शुभ कार्य नहीं करना चाहिये। इस समय में यदि बालक पैदा हो तो उसके
माता-पिता जीवित नहीं रहते ॥ ३३-३६ ॥
इत्याग्नेये
महापुराणे नक्षत्रनिर्णयो नाम षड्विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि
आग्नेय महापुराण में 'नक्षत्रों के निर्णय का प्रतिपादन' नामक एक सौ
छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १२६ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 127
0 Comments