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अग्निपुराण अध्याय १२४
अग्निपुराण
अध्याय १२४ में युद्धजयार्णवीय ज्यौतिषशास्त्र का सार का
वर्णन है।
अग्निपुराणम् चतुर्विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः
Agni puran chapter 124
अग्निपुराण एक सौ चौबीसवाँ अध्याय
अग्नि पुराण अध्याय १२४
अग्निपुराणम् अध्यायः १२४ – युद्धजयार्णवीयज्योतिःशास्त्रसारः
अथ
चतुर्विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः
अग्निरुवाच
ज्योतिःशास्त्रादिसारञ्च
वक्ष्ये युद्धजयार्णवे ।
विना
मन्त्रोषधाद्यञ्च यथ्योमामीश्वरोऽब्रवीत् ॥१॥
अग्निदेव कहते
हैं- अब मैं युद्धजयार्णव- प्रकरण में ज्योतिषशास्त्र की सारभूत वेला (समय), मन्त्र और औषध आदि वस्तुओं का उसी प्रकार
वर्णन करूँगा, जिस तरह शंकरजी ने पार्वतीजी से कहा था ॥ १ ॥
देव्युवाच
देवैर्जिता
दानवाश्च येनोपायेन तद्वद ।
शुभाशुभविवेकाद्यं
ज्ञानं युद्धजयार्णवं ॥२॥
पार्वतीजी ने
पूछा— भगवन्! देवताओं ने (देवासुर संग्राम में)
दानवों पर जिस उपाय से विजय पायी थी, उसका तथा
युद्धजयार्णवोक्त शुभाशुभ- विवेकादि रूप ज्ञान का वर्णन कीजिये ॥ २ ॥
ईश्वर उवाच
मूलदेवेच्चया
जाता शक्तिः पञ्चादशाक्षरा ।
चराचरं ततो
जातं यामाराध्याखिलार्थवित् ॥३॥
मन्त्रपीठं
प्रवक्ष्यामि पञ्चमन्त्रसमुद्भवं ।
ते मन्त्राः
सर्वमन्त्राणां जीविते मरणे स्थिताः ॥४॥
ऋग्यजुःसामाथर्वाख्यदेवमन्त्राः
क्रमेण ते ।
सद्योजातादयो
मन्त्रा ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रकः ॥५॥
ईशः सप्तशिखा
देवाः शक्राद्याः पञ्च च स्वराः ।
अ+इ+उ+ए+ओ
कलाश्च मूलं ब्रह्मेति कीर्तितं ॥६॥
शंकरजी बोले-
मूलदेव (परमात्मा) - की इच्छा से पंद्रह अक्षरवाली एक शक्ति पैदा हुई । उसी से
चराचर जीवों की सृष्टि हुई। उस शक्ति की आराधना करने से मनुष्य सब प्रकार के
अर्थों का ज्ञाता हो जाता है। अब पाँच मन्त्रों से बने हुए मन्त्रपीठ का वर्णन
करूँगा। वे मन्त्र सभी मन्त्रों के जीवन-मरण में अर्थात् 'अस्ति' तथा 'नास्ति' रूप सत्ता में स्थित हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद-इन
चारों वेदों के मन्त्रों को प्रथम मन्त्र कहते हैं। सद्योजातादि मन्त्र द्वितीय
मन्त्र हैं एवं ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र-ये तृतीय मन्त्र
के स्वरूप हैं। ईश (मैं), सात शिखावाले अग्नि तथा इन्द्रादि
देवता—ये चौथे मन्त्र के स्वरूप हैं। अ, इ, उ, ए, ओ -ये पाँचों स्वर पञ्चम मन्त्र स्वरूप हैं। इन्हीं स्वरों को मूलब्रह्म
भी कहते हैं ॥ ३-६॥
काष्ठमध्ये
तथा वह्निरप्रवृद्धो न दृश्यते ।
विद्यमाना तथा
देहे शिवशक्तिर्न दृश्यते ॥७॥
आदौ शक्तिः
समुत्पन्ना ओङ्कारस्वरभूषिता ।
ततो
बिन्दुर्महादेवि एकारेण व्यवस्थितः ॥८॥
जातो नाद
उकारस्तु नदते हृदि संस्थितः ।
अर्धचन्द्र
इकारस्तु मोक्षमार्गस्य बोधकः ॥९॥
अकारो व्यक्त
उत्पन्नो भोगमोक्षप्रदः परः ।
अकार ऐश्वरे भूमिर्निवृत्तिश्च
कला स्मृता ॥१०॥
(अब पञ्च स्वरों की उत्पत्ति कह रहे हैं) - जिस
तरह लकड़ी में व्यापक अग्नि की प्रतीति बिना जलाये नहीं होती है, उसी तरह शरीर में विद्यमान शिव-शक्ति की
प्रतीति ज्ञान के बिना नहीं होती है। महादेवी पार्वती! पहले ॐकार स्वर से विभूषित
शक्ति की उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात् बिन्दु 'एकार' रूप में परिणत हुआ। पुनः ओंकार में शब्द पैदा हुआ, जिससे
'उकार' का उद्गम हुआ। यह 'उकार' हृदय में शब्द करता हुआ विद्यमान रहता है। 'अर्धचन्द्र' से मोक्ष मार्ग को बतानेवाले 'इकार' का प्रादुर्भाव हुआ। तदनन्तर भोग तथा मोक्ष
प्रदान करनेवाला अव्यक्त 'अकार' उत्पन्न
हुआ। वही 'अकार' सर्वशक्तिमान् एवं
प्रवृत्ति तथा निवृत्ति का बोधक है ॥ ७-१० ॥
गन्धो नबीजः
प्राणाख्य इडाशक्तिः स्थिरा स्मृता ।
इकारश्च
प्रतिष्ठाख्यो रसो पालश्च पिङ्गला ॥११॥
क्रूरा
शक्तिरीबीजः स्याद्धरबीजोऽग्निरूपवान् ।
विद्या समाना
गान्धारी शक्तिश्च दहनी स्मृता ॥१२॥
प्रशान्तिर्वार्युपस्पृशो
यश्चोदानश्चला क्रिया ।
ओङ्कारः
शान्त्यतीताख्यः खशब्दयूथपाणिनः ॥१३॥
पञ्च वर्गाः
स्वरा जाताः कुजज्ञगुरुभार्गवाः ।
शनिः
क्रमादकाराद्याः ककाराद्यास्त्वधः स्थिताः ॥१४॥
एतन्मूलमतः
सर्वं ज्ञायते सचराचरं ।
(अब शरीर में
पाँचों स्वरों का स्थान कह रहे हैं) - 'अ' स्वर शरीर में प्राण अर्थात् श्वासरूप
से स्थिर होकर विद्यमान रहता है। इसी का नाम 'इडा' है। 'इकार' प्रतिष्ठा नाम से
रहकर रसरूप में तथा पालक-स्वरूप में रहता है। इसे ही 'पिङ्गला'
कहते हैं। 'ई' स्वर को 'क्रूरा शक्ति' कहते हैं। 'हर
बीज' (उकार) स्वर शरीर में अग्निरूप से रहता है। यही 'समान-बोधिका विद्या' है। इसे 'गान्धारी'
कहते हैं। इसमें 'दहनात्मिका' शक्ति है। 'एकार' स्वर शरीर में
जलरूप से रहता है। इसमें शान्ति क्रिया है तथा 'ओकार स्वर
शरीर में वायुरूप से रहता है। यह अपान, व्यान, उदान आदि पाँच स्वरूपों में होकर स्पर्श करता हुआ गतिशील रहता है। पाँचों
स्वरों का सम्मिलित सूक्ष्म रूप जो 'ओंकार' है, वह 'शान्त्यतीत' नाम से बोधित होकर शब्द-गुणवाले आकाश-रूप में रहता है। इस तरह पाँचों स्वर
(अ, इ, उ, ए,
ओ) हुए, जिनके स्वामी क्रम से मङ्गल, बुध, गुरु, शुक्र तथा शनि ग्रह
हुए । ककारादि वर्ण इन स्वरों के नीचे होते हैं। ये ही संसार के मूल कारण हैं।
इन्हीं से चराचर सब पदार्थों का ज्ञान होता है ॥ ११ – १४अ ॥
विद्यापीठं
प्रवक्ष्यामि प्रणवः शिव ईरितः ॥१५॥
उमा सोमः
स्वयं शक्तिर्वामा ज्येष्ठा च रौद्र्यपि ।
ब्रह्मा
विष्णुः क्रमाद्रुद्रो गुणाः सर्गादयस्त्रयः ॥१६॥
रत्ननाडीत्रयञ्चैव
स्थूलः सूक्ष्मः परोऽपरः ।
चिन्तयेच्छ्वेतवर्णन्तं
मुञ्चमानं परामृतं ॥१७॥
प्लव्यमानं यथात्मानं
चिन्तयेत्तं दिवानिशं ।
अजरत्वं
भवेद्देवि शिवत्वमुपगच्छति ॥१८॥
अङ्गुष्ठादौ
न्यसेदङ्गान्नेत्रं मध्येऽथ देहके ।
मृत्युञयं ततः
प्रार्च्य रणादौ विजयी भवेत् ॥१९॥
शून्यो
निरालयः शब्दः स्पर्शं तिर्यङ्नतं स्पृशेत् ।
रूपस्योर्ध्वगतिः
प्रोक्ता जलस्याधः समाश्रिता ॥२०॥
सर्वस्थानविनिर्मुक्तो
गन्धो मध्ये च मूलकं ।
अब मैं
विद्यापीठ का स्वरूप बतलाता हूँ, जिसमें 'ओंकार' शिवरूप से कहा
गया है और 'उमा' स्वयं सोम अर्थात्
अमृतरूप से है। इन्हीं को वामा, ज्येष्ठा तथा रौद्री शक्ति
भी कहते हैं। ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र- क्रमशः ये ही तीनों
गुण हैं एवं सृष्टि के उत्पादक, पालक तथा संहारक हैं। शरीर के
अंदर तीन रत्न नाड़ियाँ हैं, जिनका नाम स्थूल, सूक्ष्म तथा पर है। इनका श्वेत वर्ण है। इनसे सदैव अमृत टपकता रहता है,
जिससे आत्मा सदैव आप्लावित रहता है। इस प्रकार उसका दिन-रात ध्यान
करते रहना चाहिये। देवि! ऐसे साधक का शरीर अजर हो जाता है तथा उसे शिव सायुज्य की
प्राप्ति हो जाती है। प्रथमतः अङ्गुष्ठ आदि में, नेत्रों में
तथा देह में भी अङ्गन्यास करे, तत्पश्चात् मृत्युंजय की
अर्चना करके यात्रा करनेवाला संग्राम आदि में विजयी होता है। आकाश शून्य है,
निराधार है तथा शब्द- गुणवाला है। वायु में स्पर्श गुण है। वह तिरछा
झुककर स्पर्श करता है। रूप की अर्थात् अग्नि की ऊर्ध्वगति बतलायी गयी है तथा जल की
अधोगति होती है। सब स्थानों को छोड़कर गन्ध-गुणवाली पृथ्वी मध्य में रहकर सबके
आधार रूप में विद्यमान है ॥ १५ - २० ॥
नाभिमूले
स्थितं कन्दं शिवरूपन्तु मण्डितं ॥२१॥
शक्तिव्यूहेन
सोमोऽर्को हरिस्तत्र व्यवस्थितः ।
दशवायुसमोपेतं
पञ्चतन्मात्रमण्डितं ॥२२॥
कालानलसमाकारं
प्रस्फुरन्तं शिवात्मकं ।
तज्जीवं
जीवलोकस्य स्थावरस्य चरस्य च ॥२३॥
तस्मिन्नष्टे
मृतं मन्ये मन्त्रपीठेऽनिलात्मकम् ॥२४॥
नाभि के मूल में
अर्थात् मेरुदण्ड की जड़ में कंद के स्वरूप में श्रीशिवजी सुशोभित हैं। वहीँ पर
शक्ति समुदाय के साथ सूर्य, चन्द्रमा तथा भगवान् विष्णु रहते हैं और पञ्चतन्मात्राओं के साथ दस प्रकार
के प्राण भी रहते हैं। कालाग्नि के समान देदीप्यमान वह शिवजी की मूर्ति सदैव चमकती
रहती है। वही चराचर जीवलोक का प्राण है। उस मन्त्रपीठ के नष्ट होने पर वायुस्वरूप
जीव का नाश समझना चाहिये * ॥ २१ - २४ ॥
* यह विषय इस अध्याय के पूर्व अध्याय में 'स्वरचक्र' के
अन्तर्गत आ गया है।
इत्याग्नेये
महापुराणे युद्धजयार्णवे ज्योतिःशास्त्रसारो नाम चतुर्विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि
आग्नेय महापुराण में 'युद्धजयार्णव-सम्बन्धी ज्योतिष शास्त्र का सार- कथन' नामक एक सौ चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १२४ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 125
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