अग्निपुराण अध्याय १२८

अग्निपुराण अध्याय १२८     

अग्निपुराण अध्याय १२८ में कोटचक्र का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय १२८

अग्निपुराणम् अष्टाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः

Agni puran chapter 128         

अग्निपुराण एक सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय

अग्नि पुराण अध्याय १२८                          

अग्निपुराणम् अध्यायः १२८ – कोटचक्रम्

अथ अष्टाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः

ईश्वर उवाच

कोटचक्रं प्रवक्ष्यामि चतुरस्रं पुरं लिखेत् ।

चतुरस्रं पुनर्मध्ये तन्मध्ये चतुरस्रकम् ॥१॥

नाडीत्रितयचिह्नाढ्यं मेषाद्याः पूर्वदिङ्मुखाः ।

कृत्तिका पूर्वभागे तु अश्लेषाग्नेयगोचरे ॥२॥

भरणी दक्षिणे देया विशाखां नैर्ऋते न्यसेत् ।

अनुराधां पश्चिमे च श्रवणं वायुगोचरे ॥३॥

धन्बिष्ठाञ्चोत्तरे न्यस्य ऐशान्यां भरणीं तथा ।

वाह्यनाड्यां स्थितान्येव अष्टौ ह्यृक्षाणि यत्नतः ॥४॥

शंकरजी कहते हैं- अब मैं 'कोटचक्र' का वर्णन करता हूँ - पहले चतुर्भुज लिखे, उसके भीतर दूसरा चतुर्भुज, उसके भीतर तीसरा चतुर्भुज और उसके भीतर चौथा चतुर्भुज लिखे। इस तरह लिख देने पर 'कोटचक्र' बन जाता है। कोटचक्र के भीतर तीन मेखलाएँ बनती हैं, जिनका नाम क्रम से 'प्रथम नाड़ी', 'मध्यनाड़ी' और 'अन्तनाड़ी' है। कोटचक्र के ऊपर पूर्वादि दिशाओं को लिखकर मेषादि राशियों को भी लिख देना चाहिये। (कोटचक्र में नक्षत्रों का न्यास कहते हैं) - पूर्व भाग में कृत्तिका, अग्निकोण में आश्लेषा, दक्षिण में मघा, नैर्ऋत्य में विशाखा, पश्चिम में अनुराधा, वायुकोण में श्रवण, उत्तर में धनिष्ठा, ईशान में भरणी को लिखे। इस तरह लिख देने पर बाह्य नाड़ी में अर्थात् प्रथम नाड़ी में आठ नक्षत्र हो जायेंगे।

रोहिणीपुष्यफल्गुण्यः स्वाती ज्येष्ठा क्रमेण तु ।

अभिजिच्छततारा तु अश्विनी मध्यनाडिका ॥५॥

कोटमध्ये तु या नाडी कथयामि प्रयत्नतः ।

मृगश्चाभ्यन्तरे पूर्वं तस्याग्नेये पुनर्वसुः ॥६॥

उत्तराफल्गुनी याम्ये चित्रा नैर्ऋतसंस्थिता ।

मूलन्तु पश्चिमे न्यस्योत्तराषाढान्तु वायवे ॥७॥

पूर्वभाद्रपदा सौम्ये रेवती ईशगोचरे ।

कोटस्याभ्यन्तरे नाडी ह्यृक्षाष्टकसमन्विता ॥८॥

इसी तरह पूर्वादि दिशाओं के अनुसार रोहिणी, पुष्य, पूर्वाफाल्गुनी, स्वाती, ज्येष्ठा, अभिजित्, शतभिषा, अश्विनी ये आठ नक्षत्र, मध्यनाड़ी में हो जाते हैं। कोट के भीतर जो अन्तनाड़ी है, उसमें भी पूर्वादि दिशाओं के अनुसार पूर्व में मृगशिरा, अग्निकोण में पुनर्वसु, दक्षिण में उत्तराफाल्गुनी, नैर्ऋत्य में चित्रा, पश्चिम में मूल, वायव्य में उत्तराषाढ़ा, उत्तर में पूर्वाभाद्रपदा और ईशान में रेवती को लिखे । इस तरह लिख देने पर अन्तनाड़ी में भी आठ नक्षत्र हो जाते हैं।

आर्द्रा हस्ता तथाषाढा चतुष्कञ्चोत्तरात्रिकम् ।

मध्ये स्तम्भचतुष्कन्तु दद्यात्कोटस्य कोटरे ॥९॥

आर्द्रा, हस्त, पूर्वाषाढ़ा तथा उत्तराभाद्रपदा ये चार नक्षत्र कोटचक्र के मध्य में स्तम्भ होते हैं।*

* आर्द्रा.... कोटरे । ग्रन्थान्तर में भी ऐसा ही वर्णन है।

'नृपतिजयचर्या' नामक ग्रन्थ में समचतुरस्त्र कोटचक्र के प्रकरण में २३ में श्लोक में स्तम्भ चतुष्टय का वर्णन इस प्रकार किया गया है-

पूर्वे रौद्रं यमे हस्तं पूर्वाषाढा च वारुणे।

उत्तरे चोत्तराभाद्रा एतत् स्तम्भचतुष्टयम् ॥

एवं दुर्गस्य विन्यासं वाह्ये स्थानं दिशाधिपात् ।

आगन्तुको यदा योद्धा ऋक्षवान् स्यात्फलान्वितः ॥१०॥

कोटमध्ये ग्रहाः सौम्या यदा ऋक्षान्विताः पुनः ।

जयं मध्यस्थितानान्तु भङ्गमागामिनो विदुः ॥११॥

प्रवेशभे प्रवेष्टव्यं निर्गमभे च निर्गमेत् ।

भृगुः सौम्यस्तथा भौम ऋक्षान्तं सकलं यदा ॥१२॥

तदा भङ्गं विजानीयाज्जयमागन्तुकस्य च ।

प्रवेशर्क्षचतुष्के तु सङ्ग्रामञ्चारभेद्यदा ॥१३॥

तदा सिद्ध्यति तद्दुर्गं न कुर्यात्तत्र विस्मयम् ॥१४॥

इस तरह चक्र को लिख देने पर बाहर का स्थान दिशा के स्वामियों का होता है* । आगन्तुक योद्धा जिस दिशा में जो नक्षत्र है, उसी नक्षत्र में उसी दिशा से कोट में यदि प्रवेश करता है तो उसकी विजय होती है। कोट के बीच में जो नक्षत्र हैं, उन नक्षत्रों में जब शुभ ग्रह आये, तब युद्ध करने से मध्यवाले की विजय तथा चढ़ाई करनेवाले की पराजय होती है। प्रवेश करनेवाले नक्षत्र में प्रवेश करना तथा निर्गमवाले नक्षत्र में निकलना चाहिये। शुक्र, मङ्गल और बुध-ये जब नक्षत्र के अन्त में रहें, तब यदि युद्ध आरम्भ किया जाय तो आक्रमणकारी की पराजय होती है। प्रवेशवाले चार नक्षत्रों में यदि युद्ध छेड़ा जाय तो वह दुर्ग वश में हो जाता हैइसमें कोई आश्वर्य की बात नहीं है ॥ १-१४ ॥

* दिशाओं के स्वामी के लिये रामाचार्य 'मुहूर्त चिन्तामणि' नामक ग्रन्थ के यात्रा प्रकरण में लिखते हैं-

सूर्यः सितो भूमिसुतोऽथ राहुः शनिः शशी जश्च बृहस्पतिश्च प्राच्यादितो दिक्षु विदिक्षु चापि दिशामधीशाः क्रमतः प्रदिष्टाः ॥ (११ । ४७)

'पूर्व के सूर्य, अग्निकोण के शुक्र, दक्षिण के मङ्गल, नैर्ऋत्य के राहु पश्चिम के शनि, वायव्य के चन्द्र, उत्तर के बुध, ईशान के बृहस्पति- इस प्रकार क्रमश: दिशाओं के स्वामी कहे गये हैं।

कोटचक्रम् ऊपर दिया गया है । 

विशेष- भरणी, कृत्तिका, आश्लेषा, मघा, विशाखा, अनुराधा, श्रवण, धनिष्ठा ये आठ नक्षत्र बाह्य (प्रथम नाड़ी) हैं। अश्विनी, रोहिणी, पुण्य, पू० फा०, स्वाती, ज्येष्ठा, अभिः शतभिषा ये मध्यनाड़ी के आठ नक्षत्र हैं। रेवती, मृगशिरा, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, चित्रा, मूल, उत्तराषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपदा ये आठ नक्षत्र अन्तनाड़ी के हैं। मध्य तथा अन्तनाड़ी के नक्षत्र को 'मध्य के नक्षत्र' कहते हैं। दिशा के नक्षत्र को 'प्रवेश' कहते हैं। उसके विरुद्ध दिशा के नक्षत्र को 'निर्गम' कहते हैं जैसे पूर्व प्रवेश तो पश्चिम निर्गम होगा।

(विशेष - प्रथम नाड़ी के आठ नक्षत्र दिशा के नक्षत्र हैंउन्हीं को 'बाह्यभी कहते हैं। मध्य तथा अन्त नाड़ीवाले नक्षत्रों को कोट के मध्य का समझना चाहिये ।)

इत्याग्नेये महापुराणे युद्धजयार्णवे कोटचक्रं नामाष्टाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'कोटचक्र का वर्णननामक एक सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १२८ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 129 

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