ब्रह्म स्तुति
श्री मत्स्य पुराण (अध्याय १५४ श्लोक सं० ५ से १५) में वर्णित इन्द्र आदि देवों द्वारा ब्रह्माजी की इस ब्रह्म स्तुति का पाठ करने से हर समस्याओं का हल तुरंत ही होता है।
ब्रह्मा स्तुति
शक्रादि कृत ब्रह्मा की स्तुति
मत्स्यपुराणत:-
शक्रादिकृता ब्रह्मस्तुति:
एवं कृते ततो देवा दूयमानेन चेतसा ।
जग्मुर्जगद्गुरुं द्रष्टुं शरणं
कमलोद्भवम् ॥ १ ॥
ऐसा कर देने पर इन्द्र आदि देवतागण
अति दुःखी चित्त से कमलयोनि ब्रह्मा की शरण में, उन्हें देखने के लिये गये ॥ १ ॥
निवेदितास्ते शक्राद्याः
शिरोभिर्धरणिं गताः ।
तुष्टुवुः स्पष्टवर्णैर्नु वचोभिः
कमलासनम् ॥ २ ॥
और वहाँ जाकर उन इन्द्र आदि देवगणों
ने अपने ऊपर बीती हुई सम्पूर्ण घटनाओं को उनसे निवेदित करने का विचार किया। वहाँ
जाकर वे अपने अपने शिर पृथ्वी पर टेक कर बैठ गये। फिर सबों ने स्पष्ट वर्ण तथा
अर्थ वाले वाक्यों से उन कमलासन भगवान् ब्रह्मा की इस प्रकार स्तुति की ॥ २ ॥
ब्रह्मस्तुति
देवाऊचू
त्वमोऽङ्कारस्याङ्कुराय प्रसूतो
विश्वस्यात्माऽनन्तभेदस्य पूर्वम् ।
सम्भूतस्यानन्तरं सत्त्वमूर्ते
संहारेच्छोस्ते नमो रुद्रमूर्ते ॥ ३ ॥
देवों ने कहा - 'हे विश्वात्मन्! इस अनन्त भेदवाले विश्व के तुम मूल कारण तथा उत्पत्ति के
निमित्त एवं ओंकारस्वरूप हो। तुम्हारा वह पूर्वकालीन ओंकारस्वरूप ही इस जगत् वृक्ष
का अङ्कुर है। हे सत्त्वमूर्ति ! रचना के पीछे तुम्हीं सत्त्वरूप होकर उसका पालन
करते हो, और हे रुद्रमूर्ते! संहार के अवसर पर तुम्ही भयानक
रूप धारण कर सबका संहार करते हो ॥ ३ ॥
व्यक्तिं नीत्वा त्वं वपुः स्वं
महिम्ना तस्मादण्डात् स्वाभिधानादचिन्गः ।
द्यावापृथ्व्योरूर्ध्वखण्डावराभ्यां
ह्यण्डादस्मात् त्वं विभागं करोषि ॥४॥
ऐसे त्रिगुण स्वरूप आपको हम सब लोग
नमस्कार कर रहे हैं। तुम अपनी महिमा से अपने शरीर को अण्ड रूप में परिणत करके उस
अण्ड का ऊपर और नीचे दो विभाग कर पृथ्वी और स्वर्ग की रचना करते हो। तुम अचिन्त्य
हो ॥ ४ ॥
व्यक्तं मेरौ यज्जनायुस्तवाभूद्देवं
विद्यस्त्वत्प्रणीतश्चकास्ति ।
व्यक्तं देवा जन्मतः शाश्वतस्य द्यौस्ते
मृर्धालोचने चन्द्रसूर्यौ ॥ ५ ॥
मेरु पर्वत पर आपने जो देवादि
प्राणियों की आयुःसीमा निर्धारित की थी वही आप द्वारा निर्मित विधान अभी भी
प्रचलित हैं; यह हम स्पष्ट रूप से जानते हैं।
हे देव! तुम अजन्मा एवं सनातन हो, स्वर्ग तुम्हारा मस्तक है,
सूर्य और चन्द्रमा तुम्हारे नेत्र हैं ॥ ५ ॥
व्यालाः केशाः श्रोत्ररन्ध्रा
दिशस्ते पादौ भूमिर्नाभिरन्ध्रे समुद्राः ।
मायाकारः कारणं त्वं प्रसिद्धो
वेदैः शान्तो ज्योतिषा त्वं विमुक्तः ॥ ६ ॥
सर्प तुम्हारे केश हैं,
दिशाएँ कान हैं, पृथ्वी चरण है, समुद्र नाभि है। तुम्हीं माया के रचनेवाले तथा समस्त जगत् के आदि कारण हो
। वेद-समूह तुम्हें शान्त और ज्योति से विमुक्त कहते हैं ॥ ६ ॥
वेदार्थेषु त्वां विवृण्वन्ति
बुध्वा हृत्पद्मान्तः सन्निविष्टं पुराणम् ।
त्वामात्मानं लब्धयोगा गृणन्ति
साङ्ख्यैर्यास्ताः सप्त सूक्ष्माः प्रणीताः ॥७ ॥
बुद्धिमान् लोग वेदों के अर्थों से
तुम्हे भलीभाँति जानकर हृदय कमल में विराजित पुराणपुरुष कहकर निश्चित करते हैं।
सांख्य एवं योग के जानने वाले तुम्हें आत्मा कहकर मानते हैं। उनके द्वारा सात
सूक्ष्म पदार्थ कहे गये हैं ॥ ७ ॥
तासां हेतुर्याऽष्टमी चापि गीता
तस्यां तस्यां गीयसे वै त्वमन्तम् ।
दृष्ट्वा मूर्ति स्थूलसूक्ष्मां
चकार देवैर्भावाः कारणैः कैश्चिदुक्ताः ॥८ ॥
एवं उनके कारण स्वरूप आठवाँ पदार्थ
तम है,
इस प्रकार आठ पदार्थ उनके यहाँ जो माने गये हैं, उन सब में तुम विद्यमान माने गये हो। यही नहीं, तुम
उससे भी परे माने गये हो ॥८ ॥
सम्भूतास्ते त्वत्त एवादिसर्गे
भूयस्तां वां वासनां तेऽभ्युपेयुः ।
त्वत्सङ्कल्पानन्तमायाप्तिगूढकालो
मेयो ध्वस्तसङ्ख्याविकल्पः ॥९ ॥
आदिकाल में तुमने किसी अज्ञात
कारणवश अपनी मूर्ति को स्थूल तथा सूक्ष्म रूप में विविध पदार्थों में परिणत किया
था। देवादि जितने शरीरी हैं- वे सभी आपसे उद्धृत हुए हैं और आपके सङ्कल्प के
अनुरूप ही उन लोगों की वैसी वैसी वासनाएँ भी उत्पन्न हुई हैं। हे देव! तुम अनन्त
माया द्वारा निगूढ़ हो, एवं कल्पित
संख्याओं से भी अतीत हो, काल स्वरूप हो ॥ ९ ॥
भावाभावव्यक्तिसंहारहेतुस्त्वं
सोऽनन्तस्तस्य कर्तासि चात्मन् ।
येऽन्ये सूक्ष्माः सन्ति
तेभ्योऽभिगीतः स्थूला भावाश्चावृतारश्च तेषाम् ॥१०॥
आत्म-स्वरूप धारण करने वाले भगवन्!
तुम्ही इस जगत् के सदसत् जितने पदार्थ हैं, सबके
विनाश के कारण हो। अनन्त रूप धारण कर उन सबों के तुम्ही करने वाले भी हो ॥ १० ॥
तेभ्यः स्थूलैस्तैः पुराणैः प्रणीतो
भूतं भव्यं चैवमुद्भूतिभाजाम् ।
भावे भावे भावितं त्वां युनक्ति
युक्तं युक्तं व्यक्तिभावान्निरस्य ॥ ११ ॥
संसार में जो कुछ भी सूक्ष्म तथा
उनकी अपेक्षा स्थूल पदार्थ विद्यमान हैं, तथा
अन्य जो कुछ पदार्थ उन स्थूल पदार्थों को भी आवृत (ढकने वाले) करने वाले हैं,
तुम उन सबों से स्थूल हो । सनातन हो । भूत भव्य- सब कुछ हो। तुम
अपने सङ्कल्प द्वारा प्रत्येक पदार्थों में अनुप्रविष्ट होकर व्यक्त होते हो,
एवं उन उन पदार्थों से निर्गत भी होते हो ॥ ११ ॥
इत्थं देवो भक्तिभाजां
शरण्यस्त्राता गोप्ता नो भवानन्तमूर्तिः ॥ १२ ॥
इस प्रकार सभी व्यक्त भावों का
निरसन करके भी तुम स्थित हो। तुम अनन्त मूर्ति धारण करने वाले हो,
तुम्हारा स्वभाव ही यह है। तुम अपने भक्तजनों को शरण देने वाले,
त्राण करने वाले तथा रक्षक सब कुछ हो " ॥ १२ ॥
श्रीमत्स्यपुराणे शक्रादिकृता ब्रह्मस्तुतिः सम्पूर्णा ॥
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