वराह स्तुति
जल में भीगी हुई महावराह जिस समय
अपने वेदमय शरीर को कँपाते हुए पृथिवी को लेकर बाहर निकले उस समय उनकी रोमावली में
स्थित मुनिजन स्तुति करने लगे । उन निश्शंक और उन्नत दृष्टिवाले धराधर भगवान् की
जनलोक में रहनेवाले सनन्दनादि योगीश्वरों ने प्रसन्नचित्त से अति नम्रतापूर्वक सिर
झुकाकर इस प्रकार स्तुति की ।
वाराह स्तुति:
Varah stuti
श्रीवाराह स्तुति
वाराह स्तवन
वराह स्तुति
जयेश्वराणां परमेश केशव प्रभो
गदाशंखधरासिचक्रधृक् ।
प्रसूतिनाशस्थितिहेतुरीश्वरस्त्वमेव
नान्यत्परमं च यत्पदम् ॥३१॥
हे ब्रह्मदि ईश्वरों के भी परम
ईश्वर ! हे केशव ! हे शंख गदाधर ! हे खड्ग चक्रधारी प्रभो ! आपकी जय हो ! आप ही
संसार की उप्तत्ति, स्थिति और नाश के
कारण हैं, तथा आप ही ईश्वर हैं और जिसे परम पद कहते हैं वह
भी आपसे अतिरिक्त और कुछ नहीं है ।
पादेषु वेदास्तव यूपदंष्ट्रा
दन्तेषु जज्ञाश्चितयश्च वक्त्रे ।
हुताशजिह्वोसि तनूरुहाणि दर्भाः
प्रभो यज्ञपुमांस्त्वमेव ॥३२॥
हे यूपरूपी डाढ़ोवाले प्रभो! आप ही
यज्ञपुरुष हैं आपके चरणों में चारों वेद हैं, दाँतों
में यज्ञ हैं, मुख में (श्येन चित आदि) चितियाँ हैं । हुताशन
(यज्ञाग्नि) आपकी जिह्वा है तथा कुशाएँ रोमावलि हैं ।
विलोचने रात्र्! यहनी महात्मन्सर्वाश्रयं
ब्रह्मपरं शिरस्ते ।
सूक्तान्यश्षोआ!णि सटाकलापो घ्राणं
समस्तानि हवींषि देव ॥३३॥
हे महात्मन् ! रात और दिन आपके
नेत्र हैं तथा सबका आधारभूत परब्रह्म आपका सिर है । हे देव ! वैष्णव आदि समस्त
सूक्त आपके सटाकलाप (स्कन्ध के रोम गुच्छ) है और समग्र हवि आपके प्राण हैं ।
स्रुक्तुण्डसामस्वरधीरनादप्राग्वंशकायाखिलसत्रसन्धे
।
पूर्तेष्टधर्मश्रवणोसि देव
सनातनात्मन्भगवन्प्रसीद ॥३४॥
हे प्रभो ! स्त्रुक् आपका तुण्ड
(थूथनी) है, सामस्वर धीर गम्भीर शब्द है,
प्राग्वंश ( यजमानगृह ) शरीर है तथा सत्र शरीर की सन्धियाँ हैं । हे
देव ! इष्ट ( श्रौत ) और पूर्त ( स्मार्त ) धर्म आपके कान हैं । हे नित्यस्वरूप
भगवन ! प्रसन्न होइये ।
पदक्रमाक्रान्तभुवं भवन्तमादिस्थितं
चाक्षरविश्वमूर्ते ।
विश्वस्य विद्मः परमेश्वरोऽसि
प्रसीद नाथोसि परावरस्य ॥३५॥
हे अक्षर ! हे विश्वमूर्ते ! अपने
पाद प्रहार से भूमंडल को व्याप्त करनेवाले आपको हम विश्व के आदिकारण समझते हैं। आप
सम्पूर्ण चराचर जगत् के परमेश्वर और नाथ हैं; अत;
प्रसन्न होइये ।
दंष्ट्राग्रविन्यस्तमश्षोमेतद्भूमण्डलं
नाथ विभाव्यते ते ।
विगाहतः पद्मवनं विलग्नं
सरोजिनीपत्रमिवोढपंकम् ॥३६॥
हे नाथ ! आपकी डाढ़ों पर रखा हुआ यह
सम्पूर्ण भूमंडल ऐसा प्रतीत होता है मानो कमलवन को रौंदते हुए गजराज के दाँतों से
कोई कीचड़ में सना हुआ कमल का पत्ता लगा हो ।
द्यावापृथिव्योरतुलप्रभाव यदन्तरं
तद्वपुषा तवैव ।
व्याप्तं जगद्व्याप्तिसमर्थदीप्ते
हिताय विश्वस्य विभो भव त्वम् ॥३७॥
हे अनुपम प्रभावशाली प्रभो ! पृथिवी
और आकाश के बीच में जितना अन्तर है वह आपके शरीर से ही व्याप्त है । हे विश्व को
व्याप्त करने में समर्थ तेजयुक्त प्रभो ! आप विश्व का कल्याण कीजिये ।
परमार्थस्त्वमेवैको नान्योस्ति जगतः
पते ।
तवैष महिमा येन व्याप्तमेतच्चराचरम्
॥३८॥
हे जगत्पते ! परमार्थ (सत्य वस्तु )
तो एकमात्र आप ही हैं, आपके अतिरिक्त और
कोई भी नहीं है । यह आपकी ही महिमा ( माया ) है जिससे यह सम्पूर्ण चराचर जगत्
व्याप्त हैं ।
यदेतदृश्यते मूर्त्तमेतज्ज्ञानात्मनस्तव
।
भ्रान्तिज्ञानेन पश्यन्ति जगद्रू
पमयोगिनः ॥३९॥
यह जो कुछ भी मूर्तिमान् जगत दिखायी
देता है ज्ञानस्वरूप आप ही का रूप है । अजितेन्द्रिय लोग भ्रम से इसे जगत् रूप
देखते हैं ।
ज्ञानस्वरूपमखिलं जगदेतदबुद्धयः ।
अर्थस्वरूपं पश्यन्तो भ्राम्यन्ते
मोहसंप्लवे ॥४०॥
इस सम्पूर्ण ज्ञान स्वरूप जगत् को
बुद्धीहीन लोग अर्थरूप देखते हैं, अतः वे
निरन्तर मोहमय संसार सागर में भटका करते हैं ।
ये तु ज्ञानविदः शुद्धचेतसस्तेऽखिलं
जगत् ।
ज्ञानात्मकं प्रपश्यन्ति त्वद्रू पं
परमेश्वर ॥४१॥
हे परमेश्वर ! जो लोग शुद्धचित्त और
विज्ञानवेत्ता हैं वे इस सम्पूर्ण संसार को आपका ज्ञानत्मक स्वरूप ही देखतें हैं ।
प्रसीद सर्व सर्वात्मन्भवाय
जगतामिमाम् ।
उद्धरोर्वीममेयात्मञ्छन्नो
देह्यब्जलोचन ॥४२॥
हे सर्व ! हे सर्वात्मन ! प्रसन्न
होइये । हे अप्रमेयात्मन् ! हे कमलनयन ! संसार के निवास के लिये पृथिवी का उद्धार
करके हमको शान्ति प्रदान कीजिये ।
सत्त्वोद्रि क्तोऽसि भगवन् गोविंद
पृथिवीमिमाम् ।
समुद्धर भवायेश शन्नो देह्यब्जलोचन ॥४३॥
हे भगवन ! हे गोविन्द ! इस समय आप
सत्त्वप्रधान है; अतः हे ईश ! जगत के
उद्भव के लिये आप इस पृथिवी का उद्धार कीजिये और हे कमलनयन ! हमको शान्ति प्रदान
कीजिये ।
सर्गप्रवृत्तिर्भवतो जगतामुपकारिणी
।
भवत्वेषा नमस्तेऽस्तु शन्नो
देह्यब्जलोचन ॥४४॥
आपके द्वारा यह सर्ग की प्रवृत्ति
संसार का उपकार करनेवाली हो ! हे कमलनयन ! आपको नमस्कार है,
आप हमको शान्ति प्रदान कीजिये ।
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमांऽशो वाराह स्तुति: नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥४॥
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