विष्णु स्तोत्र
ब्रह्माजी ने समस्त देवताओं के साथ
परावरनाथ श्रीविष्णु भगवान् की अति मंगलमय स्तोत्रों से स्तुति की ।
विष्णु स्तोत्रम्
Vishnu stotra
श्रीविष्णुस्तोत्रम्
विष्णु स्तोत्र
देवकृतं विष्णुस्तोत्रम्
ब्रह्मोवाच
नमामि सर्वं सर्वेशमनन्तमजमव्ययम् ।
लोकधाम धराधारमप्रकाशमभेदिनम् ॥४०॥
नारायणमणीयांसमशेषाणामणीयसाम् ।
समस्तानां गरिष्ठं च भूरादीनां
गरीयसाम् ॥४१॥
ब्रह्माजी कहने लगे - जो समस्त
अणुओं से भी अणु और पृथिवी आदि समस्त गुरुओं (भारी पदार्थों) से भी गुरु (भारी)
हैं उन निखिललोकविश्राम, पृथिवी के
आधारस्वरूप, अप्रकाश्य, अभेद्य,
सर्वरूप, सर्वेश्वर, अनन्त,
अज और अव्यय नारायण को मैं नमस्कार करता हूँ ॥४०-४१॥
यत्र सर्वं यतः सर्वमुत्पन्नं
मत्पुरः सरम् ।
सर्वभूतश्च यो देवः पराणामपि यः परः
॥४२॥
परः
परस्मात्पुरुषात्परमात्मस्वरूपधृक् ।
योगिभिश्चिन्त्यते योऽसौ
मुक्तिहेतोर्मुमक्षुभिः ॥४३॥
सत्त्वादयो न सन्तीशे यत्र च
प्राकृता गुणाः ।
स शुद्धाः सर्वशुद्धेभ्यः
पुमानाद्यः प्रसीदतु ॥४४॥
मेरे सहित सम्पूर्ण जगत् जिसमें
स्थित है,
जिससे उप्तन्न हुआ है और जो देव सर्वभूतमय है तथा जो पर (प्रधानादि)
से भी पर है; जो पर पुरुष से भी पर है, मुक्ति लाभ के लिये मोक्षकामी मुनिजन जिसका ध्यान धरते हैं तथा जिस ईश्वर में
सत्त्वादि प्राकृतिक गुणों का सर्वथा अभाव है वह समस्त शुद्ध पदार्थों से भी परम
शुद्ध परमात्मस्वरूप आदिपुरुष हम पर प्रसन्न हों ॥४२-४४॥
कलाकाष्ठामुहूर्त्तादिकालसूत्रस्य
गोचरे ।
यस्य शक्तिर्न शुद्धस्य स नो
विष्णुः प्रसीदतु ॥४५॥
जिस शुद्धस्वरूप भगवान् के शक्ति (विभूति)
कला काष्ठा और मुहूर्त आदि काल- क्रम का विषय नहीं है,
वे भगवान विष्णु हम पर प्रसन्न हों ॥४५॥
प्रोच्यते परमेशो हि यः
शुद्धोऽप्युपचारतः ।
प्रसीदत्तु स नो विष्णुरात्मा यः
सर्वेदेहिनाम् ॥४६॥
जो शुद्धस्वरूप होकर भी उपचार से
परमेश्वर (परमा=महालक्ष्मी+ईश्वर = पति ) अर्थात् लक्ष्मीपति कहलाते हैं और जो
समस्त देहधारियों के आत्मा हैं वे श्रीविष्णु भगवान् हम पर प्रसन्न हों ॥४६॥
यः करणं च कार्यं च कारणस्यापि
कारणम् ।
कार्यस्यापि च यः कार्यं प्रसीदतु स
नो हरिः ॥४७॥
जो कारण और कार्यरूप हैं तथा कारण के
भी कारण और कार्य के भी कार्य हैं वे श्रीहरि हम पर प्रसन्न हों ॥४७॥
कार्यकार्यस्य यत्कार्य
तत्कार्यस्त्यापि यः स्वयम् ।
तत्कार्यकार्यभूतो यस्ततश्च प्रणताः
स्म तम् ॥४८॥
जो कार्य (महत्तत्त्व) के कार्य (अहंकार)
का भी कार्य (तन्मात्रापञ्चक) है उसके कार्य (भूतपञ्चक) का भी कार्य (ब्रह्माण्ड)
जो स्वयं है और जो उसके कार्य (ब्रह्मा दक्षादि) का भी कार्यभूत (प्रजापतियों के
पुत्र पौत्रादि) है उसे हम प्रणाम करते हैं ॥४८॥
कारणं कारणस्यापि तस्य कारणकारणम् ।
तत्कारणानां हेतुम तं प्रणताः स्म
परेश्वरम् ॥४९॥
तथा जो जगत् के कारण ( ब्रह्मादि )
का कारण ( ब्रह्माण्ड ) और उसके कारण ( भूतपञ्चक) के कारण (पञ्चतन्मात्रा ) के कारणों
(अहंकार - महत्तत्वादि ) का भी हेतु ( मूलप्रकृति ) है उस परमेश्वर को हम प्रणाम
करते हैं ॥४९॥
भोक्तारं भोग्यभूतं च स्त्रष्टारं
सृज्यमेव च ।
कार्यकर्तृस्वरूपं तं प्रणताः स्म
परं पदम् ॥५०॥
जो भोक्ता और भोग्य,
स्त्रष्टा और सृज्य तथा कर्त्ता और कार्यरूप स्वयं ही है उस परमपद को
हम प्रणाम करते हैं ॥५०॥
विशुद्धबोधवन्नित्यमजमक्षयमव्ययम् ।
अव्यक्तमविकारं यत्तद्विष्णोः परमं
पदम् ॥५१॥
जो विशुद्ध बोधस्वरूप,
नित्य, अजन्मा, अक्षय,
अव्यय, अव्यक्त और अविकारी है वही विष्णु का
परमपद (परस्वरूप) है ॥५१॥
न स्थूलं न च सूक्ष्मं यन्न
विशेषणगोचरम् ।
तत्पदं परमं विष्णोः प्रणमामः
सदाऽमलम् ॥५२॥
जो न स्थूल है न सूक्ष्म और न किसी
अन्य विशेषण का विषय है वही भगवान विष्णु का नित्य-निर्मल परमपद है,
हम उसको प्रणाम करते हैं ॥५२॥
यस्यायुतायुतांशांशे विश्वशक्तिरियं
स्थिता ।
परब्रह्मास्वरूपं
यत्प्रणमामस्तमव्ययम् ॥५३॥
जिसके अयुतांश (दस हजारवें अंश) के
अयुतांश में यह विश्व रचना की शक्ति स्थित है तथा जो परब्रह्मस्वरूप है उस अव्यय को
हम प्रणाम करते हैं ॥५३॥
यद्योगिनह सदोद्युक्ताः
पुण्यपापक्षयेऽक्षयम् ।
पश्यन्ति प्रणवे चिन्त्यं
तद्विष्णोः परमं पदम् ॥५४॥
नित्य युक्त योगिगण अपने पुण्य पापादि
का क्षय हो जाने पर ॐ कार द्वारा चिन्तनीय जिस अविनाशी पद का साक्षात्कार करते हैं
वहीं भगवान विष्णु का परमपद है ॥५४॥
यन्न देवा न मुनयो न चाहं न च शंकरः
।
जानन्ति परमेशस्य तद्विष्णोः परमं
पदम् ॥५५॥
जिसको देवगण,
मुनिगण, शंकर और मैं कोई भी नहीं जान सकते वही
परमेश्वर श्रीविष्णु का परमपद है ॥५५॥
शक्तयो यस्य देवस्य
ब्रह्माविष्णुशिवात्मिकाः ।
भवन्त्यभूतपूर्वस्य तद्विष्णोः परमं
पदम् ॥५६॥
जिस अभूतपूर्व देव की ब्रह्मा,
विष्णु और शिवरूप शक्तियाँ हैं वही भगवान् विष्णु का परमपद हैं ॥५६॥
सर्वेश सर्वभूतात्मन्सर्व
सर्वाश्रयाच्युत ।
प्रसीद विष्णो भक्तानां व्रज नो
दृष्टिगोचरम् ॥५७॥
हे सर्वेश्वर ! हे सर्वभूतात्मन !
हे सर्वरूप ! हे सर्वाधार ! हे अच्युत ! हे विष्णो ! हम भक्तों पर प्रसन्न होकर
हमें दर्शन दीजिये ॥५७॥
श्रीपराशर उवाच
इत्युदीरितमाकर्ण्य
ब्रह्माणस्त्रिदशास्ततः ।
प्रणम्योचुः प्रसीदेति व्रज नो
दृष्टिगोचरम् ॥५८॥
श्रीपराशरजी बोले- ब्रह्माजी के इन
उद्गारों को सुनकर देवगण भी प्रणाम करके बोले- 'प्रभो ! हम पर प्रसन्न होकर हमें दर्शन दीजिये ॥५८॥
यन्नायं भगवान् ब्रह्मा जानाति परमं
पदम् ।
तन्नताः स्म जगद्धाम तव
सर्वगताच्युत ॥५९॥
हे जगद्धाम सर्वगत अच्युत ! जिसे ये
भगवान् ब्रह्माजी भी नहीं जानते, आपके उस परमपद
को हम प्रणाम करते हैं ॥५९॥
इत्यन्ते वचसस्तेषां देवानां
ब्रह्माणस्तथा ।
ऊचुर्देवर्षयस्सर्वे
बृहस्पतिपुरोगमाः ॥६०॥
तदनन्तर ब्रह्मा और देवगणों के बोल
चुकने पर बृहस्पति आदि समस्त देवर्षिगण कहने लगे - ॥६०॥
आद्यो यज्ञपुमानीड्यः पूर्वषां यश्च
पूर्वजः ।
तन्नताः स्म जगत्स्त्रष्टुः
स्त्रष्टारमविषेणम् ॥६१॥
'जो परम स्तवनीय आद्य यज्ञ पुरुष
हैं और पूर्वजों के भी पूर्वपुरुष हैं उन जगत् के रचयिता निर्विशेष परमात्मा को
हम नमस्कार करते हैं ॥६१॥
भगवन्भूतभव्येश यज्ञमूर्त्तिधराव्यय
।
प्रसीद प्रणतानां त्वं सर्वेषां
देहि दर्शनम् ॥६२॥
हे भूत-भव्येश यज्ञमूर्तिधर भगवन् !
हे अव्यय ! हम सब शरणागतों पर आप प्रसन्न होइये और दर्शन दीजिये ॥६२॥
एष ब्रह्मा सहास्माभिः सहरुद्रैस्त्रिलोचनः
।
सर्वादित्यैः समं पूषा पावकोऽयं
सहाग्निभिः ॥६३॥
अश्विनौ वसवश्चेमे सर्वे चैते
मरुद्गणाः ।
साध्या विश्वे तथा देव
देवेन्द्रश्चायमीश्वरः ॥६४॥
प्रणामप्रवणा नाथ दैत्यसैन्यैः
पराजिताः ।
शरणं त्वामनुप्राप्ताः समस्ताः
देवतागणाः ॥६५॥
हे नाथ ! हमारे सहित ये ब्रह्माजी,
रुद्रों के सहित भगवान शंकर, बारहों आदित्यों के
सहित भगवान् पूषा, अग्नियों के सहित पावक और ये दोनों
अश्विनीकुमार, आठों वसु, समस्त पावक और
ये दोनों अश्विणीकुमार, आठों वसु, समस्त
मरुद्गण, साध्यगण, विश्वदेव तथा देवराज
इन्द्र ये सभी देवगण दैत्य-सेना से पराजित होकर अति प्रणत हो आपकी शरण में आये हैं
॥६३-६५॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे ब्रह्मादिदेवकृतं श्रीविष्णुस्तोत्रम् नवमोऽध्यायः ॥९॥
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