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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
श्रीविष्णु स्तुति
भगवान विष्णु को प्रसन्न करके हम
अपनी समस्याओं से छुटकारा पा सकते हैं। स्तुति व मंत्र के द्वारा हम भगवान विष्णु
को प्रसन्न कर सकते हैं। श्री कृष्ण ने भगवत गीता में बताया गया है कि इस संसार
में जो कुछ भी होता है वह भगवान विष्णु की कृपा से ही होता है भगवान विष्णु अपने
भक्तों को मोक्ष और इस संसार में किस तरह जिया जाए उसका मार्ग भी दिखाते हैं। जहां
विष्णु है वही लक्ष्मी निवास करती हैं इसलिए विष्णु को प्रसन्न करके आप लक्ष्मी को
भी प्रसन्न कर सकते हैं । भगवान विष्णु के स्तुति व मंत्रों द्वारा हम अपने जीवन
में आ रहे विघ्नों को दूर कर सकते हैं। हर शुभ कार्य की शुरुआत करने से पहले, पूजा,
विवाह, आरती के समय इस श्रीविष्णु स्तुति का
जाप करने से सब कार्य शुभ होते हैं।
श्रीविष्णुस्तुतिः
शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं
चतुर्भुजम्।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत् सर्वविघ्नोपशान्तये।।
अर्थ : हम भगवान श्री विष्णु का
ध्यान करते हैं। जो सफ़ेद वस्त्र धारण किये गए हैं। जो सर्वव्यापी है,
चन्द्रमा की भांति जो प्रकाशवान और चमकीला है। जिसके चार हाथ हैं।
जिसका चेहरा सदा करुणा से भरा हुआ और तेजमय है, जो समस्त
बाधाओं से रक्षा करते हैं।
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं
सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं
शुभाङ्गम्।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं
योगिभिर्ध्यानगम्यं
वन्दे विष्णु भवभयहरं
सर्वलोकैकनाथम्।।
अर्थ : जिनकी आकृति अतिशय शांत है,
जो शेषनाग की शैया पर शयन किए हुए हैं, जिनकी
नाभि में कमल है, जो देवताओं के भी ईश्वर और संपूर्ण जगत के
आधार हैं, जो आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं, नीलमेघ के समान जिनका वर्ण है, अतिशय सुंदर जिनके
संपूर्ण अंग हैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किए
जाते हैं, जो संपूर्ण लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरण रूप भय का नाश करने वाले हैं, ऐसे
लक्ष्मीपति, कमलनेत्र भगवान श्रीविष्णु को मैं प्रणाम करता
हूँ।
मङ्गलम् भगवान विष्णुः,
मङ्गलम् गरुणध्वजः।
मङ्गलम् पुण्डरी काक्षः,
मङ्गलाय तनो हरिः॥
अर्थ –
भगवान विष्णु का मंगल हो, जिसके ध्वज में
गरुड़ हैं उसका मंगलमय हो, जिसके कमल जैसे नेत्र हैं उसका
मंगलमय हो, उस प्रभु हरि का मंगलमय हो।
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुत:
स्तुन्वन्ति दिव्यै: स्तवै-
र्वेदै:
साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगा:।
ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति
यं योगिनो-
यस्तानं न विदु: सुरासुरगणा देवाय
तस्मै नम:।।
अर्थ : ब्रह्मा,
वरुण, इन्द्र, रुद्र और
मरुद्गण दिव्य स्तोत्रों द्वारा जिनकी स्तुति करते हैं, सामवेद
के गाने वाले अंग, पद, क्रम और
उपनिषदों के सहित वेदों द्वारा जिनका गान करते हैं, योगीजन
ध्यान में स्थित तद्गत हुए मन से जिनका दर्शन करते हैं, देवता
और असुर गण (कोई भी) जिनके अन्त को नहीं जानते, उन (परमपुरुष
नारायण) देव के लिए मेरा नमस्कार है।
त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव
बन्धुश्च सखा त्वमेव ।
त्वमेव विद्या द्रविणम् त्वमेव
त्वमेव सर्वम् मम देव देव ॥
अर्थ –
हे भगवान आप ही मेरे माता हैं आप ही मेरे पिता हैं आप ही मेरे मित्र
हैं आप ही मेरे भाई हैं आप ही संपत्ति हैं आप ही ज्ञान है मैं आप नहीं अपने मोक्ष
को देखता हूं ।
औषधे चिंतये विष्णुम भोजने च
जनार्धनम
शयने पद्मनाभं च विवाहे च प्रजापतिम
युद्धे चक्रधरम देवं प्रवासे च
त्रिविक्रमं
नारायणं तनु त्यागे श्रीधरं प्रिय
संगमे
दुःस्वप्ने स्मर गोविन्दम संकटे
मधुसूधनम
कानने नारासिम्हम च पावके जलाशयिनाम
जलमध्ये वराहम च पर्वते रघु नन्दनं
गमने वामनं चैव सर्व कार्येशु माधवं
षोडशैतानी नमानी प्रातरुत्थाय यह
पठेत
सर्वपापा विर्निमुक्तो विष्णुलोके
महीयते
अर्थ : ओषधि ग्रहण करते समय समय उसे
विष्णु समझें, भोजन ग्रहण करने के समय जनार्दन
के रूप में, शयन में पद्मनाभ के रूप में, विवाह के समय प्रजापति के रूप में, युद्ध में लगे
रहने के दौरान चक्रधारी के रूप में, यात्रा के दौरान
त्रिविक्रम के रूप में, मृत्यु शैया पर नारायण के रूप में,
प्रिय के साथ मिलते समय श्रीधर, बुरे सपनों के
साथ गोविंदा की तरह, मुसीबत में होते हुए मधुसूदन की भाँति, जंगल में रहते हुए नरसिंह के रूप
में, आग के दौरान जल शयन के रूप में, पानी
के मध्य में वराह के रूप में, जंगल में खो जाने पर रघु नंदन
के रूप में, विचरण
के दौरान कदम के रूप में, समस्त कार्य करते समय माधव के रूप
में श्री विष्णु जी का चिंतन करो। प्रातः
काल उठने पर जो कोई इन सोलह नामों को पढता है, सुमिरन करता
है। वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है और आखिर में श्री विष्णु जी तक पहुँच जाता
है।
श्रीविष्णुस्तुतिः अथवा श्रीजगन्नाथस्तुतिः
नमो
मत्स्यकूर्मादिनानावतारैर्जगद्रक्षणायोद्यतायात्तिहर्त्रे ।
जगद्बन्धवे बन्धहर्त्रे च भर्त्रे
जगद्विप्लवोपस्थितौ पालयित्रे ॥ १॥
हे भगवन् ! हे मत्स्य एवं कूर्म आदि
नाना प्रकार के अवतारों को धारण करके जगत् की रक्षा के लिए उद्यत रहकर सभी के
दुःखों का नाश करनेवाले ! हे जगत् के बन्धु ! हे कर्म बन्धनों के हर्ता ! हे
भर्त्ता ! हे और दारुण कष्टों के उपस्थित होने पर जगत् का पालन करने वाले ! आपको प्रणाम
है ॥ १ ॥
यदा वेदपन्थास्त्वदीयः पुराणः
प्रभज्येत पाखण्डचण्डोग्रवादैः ।
तदा देवदेवेश सत्त्वेन सत्त्वं
वपुश्चारु निर्माय रक्षां विधत्से ॥ २॥
जब आपका पुरातन वैदिक [ सनातन ]
धर्म उग्र पाखण्डियों के द्वारा छिन्न-भिन्न कर दिया जाता है तब आप,
हे देवदेवेश, सत्त्व गुण से सत्त्वमय सुन्दर
शरीर धारण करके हम सबकी रक्षा करते हैं ॥२ ॥
भूम्यम्बुतेजोनिलखात्मकं यत्
ब्रह्माण्डमेतत्प्रविशन्निव त्वम् ।
चराचरं जीव इति प्रसिद्धिं गतोऽसि
तस्मान्न भवत्परं यत् ॥ ३॥
भूमि, जल, अग्नि, वायु, और आकाश रूप जो ब्रह्माण्ड है वह सब तुम्हारे में मानो प्रविष्ट है।
वस्तुतः समस्त चराचर जगत् और जीव के रूप में आप ही भासित होते हैं। इसलिए आपसे अलग
कोई श्रेष्ठ तत्त्व नहीं है॥३ ॥
रक्षस्व नाथ लोकांस्त्वं तपसोग्रेण
पद्मया।
दह्यमानान् गतानन्दान्
रक्षितासीश्वरो यतः ॥ ४॥
अतः हे नाथ ! आप भगवती रमा के
द्वारा किए गए उग्र तपस्या से जलने वाले इन लोकों की रक्षा करें,
क्योंकि आप ही इनकी रक्षा करने में समर्थ हैं ॥
इति श्रीनारदपङ्चरात्रे
माहेश्वरतन्त्रे उत्तरखण्डे देवगाणाप्रोक्ता श्रीविष्णुस्तुतिः समाप्त ।
भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के कुछ महत्वपूर्ण मंत्र-
भगवान विष्णु मूल मंत्र
ॐ नमोः नारायणाय॥
अर्थ –
मैं सर्वशक्तिमान भगवान को नमन करता हूं।
वासुदेवाय मंत्र
ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय॥
अर्थ –
मैं उस भगवान को नमन करता हूं जो सब के दिलों में निवास करते हैं।
विष्णु गायत्री मंत्र
ॐ श्री विष्णवे च विद्महे वासुदेवाय
धीमहि।
तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्॥
अर्थ –
ओम, मुझे भगवान विष्णु पर ध्यान केंद्रित करने
दे, हे भगवान विष्णु मुझे उच्च विद्या दें, और भगवान विष्णु मेरे मस्तिष्क को प्रकाशित करें।
इति: श्रीविष्णु स्तुति: व मन्त्र: ॥
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