नारायणसूक्तम्
नारायणसूक्तम् एक पवित्र छंद है जो प्राचीन वेद में प्रशस्ति और प्रशंसा के रूप में भगवान विष्णु को समर्पित है। इस सूक्त में भगवान नारायण की दिव्य गुणों, महिमा का वर्णन किया गया है। इसमें उनकी सर्वव्यापकता, सर्वज्ञता, अमरत्व, विश्व के धारण करने वाले होने की बात कही गई है। यह सूक्त उनकी प्रतिष्ठा और महत्त्व को प्रदर्शित करता है।
नारायणसूक्तम्
Narayan suktam
सहस्र शीर्षं
देवं विश्वाक्षं विश्वशंभुवम् ।
विश्वै
नारायणं देवं अक्षरं परमं पदम् ॥१॥
सहस्त्रों
सिरों एवं नेत्रों वाले (सर्वज्ञ एवं सर्वव्यापी) अविनाशी श्री नारायण स्वयं
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड हैं । वह विश्व में आनंद (शम्भु) एवं प्रकाश (ज्ञान) के श्रोत
एवं (सभी जीवों) के परमात्मा (परम पद) हैं।
विश्वतः
परमन्नित्यं विश्वं नारायणं हरिम् ।
विश्वं एव इदं
पुरुषः तद्विश्वं उपजीवति ॥२॥
वह परमात्मा
(परम पुरुष) (स्वयं) ही ब्रह्माण्ड हैं। अतः (हर प्रकार से) सृष्टि उनसे से ही
उपजी है (उत्पन्न हुई है), और उन पर ही नित्य स्थित है। वह सर्वव्यापी सब के पाप नाश
करने वाले हैं।
पतिं विश्वस्य
आत्मा ईश्वरं शाश्वतं शिवमच्युतम्।
नारायणं
महाज्ञेयं विश्वात्मानं परायणम् ॥३॥
वह श्री
नारायण सम्पूर्ण सृष्टि के (रक्षक या पालनकर्ता), सभी जीवों के परमात्मा, शाश्वत (चिरस्थायी), परम पवित्र, अविनाशी, जानने योग्य परम ज्ञान एवं सभी जीवों (आत्माओं) के परम
लक्ष्य हैं ।
नारायण परो
ज्योतिर्मात्र नारायणः परः।
नारायण परं
ब्रह्म तत्त्वं नारायणः परः।
नारायण परो
ध्याता ध्यानं नारायणः परः ॥४॥
श्री नारायण
परम ब्रह्म एवं (जानने योग्य) परम तत्व एवं (जीवों के) परमात्मा हैं । वह ध्याता
(योगियों द्वारा ध्यान करने योग्य अथवा ध्यान का लक्ष्य) एवं (स्वयं) ध्यान हैं।
यच्च किंचित्
जगत् सर्वं दृश्यते श्रूयतेऽपि वा ।
अंतर्बहिश्च
तत्सर्वं व्याप्य नारायणः स्थितः ॥५॥
इस जगत में जो
कुछ भी देखा जाता है, सुना जाता है, जो कुछ भी (शरीर के) अंदर और (शरीर के बाहर) बाहर व्याप्त
(स्थित) है, वह सब स्वयं नारायण में ही स्थित हैं।
अनन्तं अव्ययं
कविं समुद्रेन्तं विश्वशम्भुवम् ।
पद्म कोष
प्रतीकं हृदयं च अपि अधोमुखम् ॥६॥
वह (श्रीनारायण) अनंत,
अविनाशी एवं सर्वव्यापी (अव्यय) तथा सभी के हृदय में
व्याप्त हैं। वह आनंद के श्रोत एवं जीवों के परम धाम हैं। अधोमुखी कमल (उलटे कमल)
के पुष्प के समान वह सभी जीवों के हृदय के आकाश में स्थित हैं।
अधो कर्तव्यंver निष्ठया वितस्त्यन्ते नाभ्यम् उपरि
तिष्ठति ।
विश्राममालाकुलंver ज्वालामालाकुलं भाति विश्वस्यातनं महत् ॥७॥
कंठ से एक हाथ
नीचे और नाभि के ऊपर (अर्थात् हृदय) में उस ज्वाला (लौ) जो अग्नि की भांति के समान
प्रज्वलित होती है का वास स्थान है (अर्थात परमात्मा जीव ज्योति रूपी आत्मा के रूप
में हृदय में का निवास करता है) ।
सन्ततं
शिलाभिस्तु लम्बाया कोषसन्निभम्।
तस्यन्ते
सुषिरं सूक्ष्मरं तस्मिन् सर्वं प्रतिष्ठितम् ॥८॥
अधोमुखी कमल
की पंखुड़ी के समान हृदय में जहाँ से नाड़ी रंध्र सभी दिशाओं में विस्तृत होती है
वह सूक्ष्म प्रकोष्ठ (जिसे सुषुम्ना नाड़ी कहते हैं) उसमें सम्पूर्ण तत्व स्थित
होता है (अर्थात परमात्मा का रूप आत्मा स्थित होता है) ।
तस्य मध्ये
महानाग्निः विश्वार्चिः विश्वतो मुखः।
सोऽग्रविभजन्तिष्ठन्
आहारं अजरः कविः ॥९॥
हृदय के उस
स्थान में (अर्थात् सुषुम्ना नाड़ी में) वह महाज्योति स्थित होती है जो अजर है,
सर्वज्ञ है, जिसकी जिह्वा एवं मुख सभी दिशाओं में व्याप्त हैं,
जो उसके सम्मुख आहार ग्रहण करता है और जो स्वयं में उसको
आत्मसात करता है।
तिर्यगुर्ध्वमधश्शयै
रश्मयः तस्य सन्तता ।
सन्तापयति
स्वं देह्मापादतलमस्तकः।
तस्य मध्ये
वह्निशिखा अनियोर्ध्वा व्यवस्थिता: ॥१०॥
उसकी ज्योति
ऊपर,
नीचे, दायें और बाएं, सर्वत्र व्याप्त है, जो पूरे शरीर सिर से पांव तक उष्ण करती हैं (प्राण का संचार
करती है) । उस अग्नि (अर्थात् शरीर में स्थित प्राण) के मध्य में
सूक्ष्म (प्राण) ज्योति की जिह्वा लपलपाती है।
नीलतोयद-मध्यस्थ-द्विद्युल्लाखेव
भास्वरा ।
निवारशुकवत्तनवी
पीता भास्वत्यनुपमा ॥११॥
मेघ में वज्र
के समान देदीप्यमान, तिल के बीज के समान महीन, सोने के समान पीला, परमाणु के समान सूक्ष्म यह ज्योति प्रखर होती है।
तस्याः शिखाया
मध्ये परमात्मा सुरक्षाः।
स ब्रह्म स
शिवः स हरिः स इन्द्रः सोऽक्षरः परमः स्वरात्॥१२॥
उस ज्योति के
मध्य में,
वह परमात्मा निवास करता है ।
वह ही ब्रह्मा, शिव, पालनकर्ता (हरि) और इन्द्र हैं। वह अविनाशी, स्वयम्भू (स्वयं से स्थित होने वाले) एवं परमात्मा हैं।
ऋतं सत्यं परं
ब्रह्म पुरुषं कृष्ण पिङ्गलम्।
ऊर्ध्वरेतं
विरूपाक्षं विश्वरूपाय वै नमो नमः ॥१३॥
वह जो परम
सत्य,परम चरित्र एवं परम ब्रह्म हैं,
श्याम वर्ण पर रेत के समान ज्योतिर्मय छवि वाले,
परम शक्तिमान एवं सर्वदर्शी (श्री नारायण) को बार बार
प्रणाम है ।
ॐ नारायणाय
विद्महे वासुदेवाय धीमहि।
तन्नो विष्णुः
प्रचोदयात् ॥
हम श्री
नारायण की शरण में जाते हैं और उस वासुदेव का ध्यान करते हैं। श्री विष्णु हमारा
कल्याण करें।
ॐ शांति शांति
शांतिः ॥
ॐ. शांति हो, शांति हो, शांति हो।
॥इति:
नारायणसूक्तम् ॥
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