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कर्मकाण्ड

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विष्णु स्तोत्र

विष्णु स्तोत्र

बृहन्नारदीयपुराण के पूर्वभाग अध्याय २/२१-५७ में वर्णित नारद शौनककृतविष्णुस्तुतिः श्रीविष्णु स्तोत्र का जो मनुष्य प्रातः- काल उठकर पाठ करता है, वह सब पापों से शुद्धचित्त होकर भगवान् विष्णु के लोक में जाता है।

विष्णु स्तोत्र

विष्णु स्तोत्रम्

Vishnu stotra

श्रीविष्णु स्तोत्रम्

नारदाय शौनककृतविष्णुस्तुतिः

बृहन्नारदीयपुराणांतर्गत विष्णुस्तोत्रं

नमः पराय देवाय परस्मात्परमाय च ।

परावरनिवासाय सगुणायागुणाय च ॥ २१॥

'जो पर से भी परे परम प्रकाशस्वरूप परमात्मा सम्पूर्ण कार्य-कारणरूप जगत्में अन्तर्यामी- रूप से निवास करते हैं तथा जो सगुण और निर्गुणरूप हैं, उनको नमस्कार है।

अमायायाऽऽत्मसंज्ञाय मायिने विश्वरूपिणे ।

योगीश्वराय योगाय योगगम्याय विष्णवे ॥ २२॥

जो माया से रहित हैं, परमात्मा जिनका नाम है, माया जिनकी शक्ति है, यह सम्पूर्ण विश्व जिनका स्वरूप है, जो योगियों के ईश्वर, योगस्वरूप तथा योगगम्य हैं, उन सर्वव्यापी भगवान् विष्णु को नमस्कार है।

ज्ञानाय ज्ञानगम्याय सर्वज्ञानैकहेतवे ।

ज्ञानेश्वराय ज्ञेयाय ज्ञात्रे विज्ञानसम्पदे ॥ २३॥

जो ज्ञानस्वरूप, ज्ञानगम्य तथा सम्पूर्ण ज्ञान के एकमात्र हेतु हैं, ज्ञानेश्वर, ज्ञेय, ज्ञाता तथा विज्ञानसम्पत्तिरूप हैं, उन परमात्मा को नमस्कार है।

ध्यानाय ध्यानगम्याय ध्यातृपापहराय च ।

ध्यानेश्वराय सुधिये ध्येयध्यातृस्वरूपिणे ॥ २४॥

जो ध्यानस्वरूप, ध्यानगम्य तथा ध्यान करनेवाले साधकों के पाप का नाश करनेवाले हैं; जो ध्यान के ईश्वर श्रेष्ठ बुद्धि से युक्त तथा ध्याता, ध्येयस्वरूप हैं; उन परमेश्वर को नमस्कार है।

आदित्यचन्द्राग्निविधातृदेवाः सिद्धाश्च यक्षासुरनागसङ्घाः ।

यच्छक्तियुक्तास्तमजं पुराणं सत्यं स्तुतीशं सततं नतोऽस्मि ॥ २५॥

सूर्य, चन्द्रमा, अग्रि तथा ब्रह्मा आदि देवता, सिद्ध, यक्ष, असुर और नागगण जिनकी शक्ति से संयुक्त होकर ही कुछ करने में समर्थ होते हैं, जो अजन्मा, पुराणपुरुष, सत्यस्वरूप तथा स्तुति के अधीश्वर हैं, उन परमात्मा को मैं सर्वदा नमस्कार करता हूँ।

यो ब्रह्मरूपी जगतां विधाता स एव पाता द्विजविष्णुरूपी ।

कल्पान्तरुद्राख्यतनुः स देवः शेतेंऽघ्रिपानस्तमजं भजामि ॥ २६॥

ब्रह्मन् ! जो ब्रह्माजी का रूप धारण करके संसार की सृष्टि और विष्णुरूप से जगत्का पालन करते हैं तथा कल्प का अन्त होने पर जो रुद्ररूप धारण करके संहार में प्रवृत्त होते हैं और एकार्णव के जल में अक्षयवट के पत्र पर शिशुरूप से अपने चरणारविन्द का रसपान करते हुए शयन करते हैं, उन अजन्मा परमेश्वर का मैं भजन करता हूँ।

यन्नामसङ्कीर्त्तनतो गजेन्द्रो ग्राहोग्रबन्धान्मुमुचे स देवः ।

विराजमानः स्वपदे पराख्ये तं विष्णुमाद्यं शरणं प्रपद्ये ॥ २७॥

जिनके नाम का संकीर्तन करने से गजराज ग्राह के भयानक बन्धन से मुक्त हो गया, जो प्रकाशस्वरूप देवता अपने परम पद में नित्य विराजमान रहते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् विष्णु की मैं शरण लेता हूँ।

शिवस्वरूपी शिवभक्तिभाजां यो विष्णुरूपी हरिभावितानाम् ।

सङ्कल्पपूर्वात्मकदेहहेतुस्तमेव नित्यं शरणं प्रपद्ये ॥ २८॥

जो शिव की भक्ति करनेवाले पुरुषों के लिये शिवस्वरूप और विष्णु का ध्यान करनेवाले भक्तों के लिये विष्णुस्वरूप हैं, जो संकल्पपूर्वक अपने देहधारण में स्वयं ही हेतु हैं, उन नित्य परमात्मा की मैं शरण लेता हूँ।

यः केशिहन्ता नरकान्तकश्च बालो भुजाग्रेण दधार गोत्रम् ।

देवं च भूमारविनोदशीलं तं वासुदेवं सततं नतोऽस्मि ॥ २९॥

जो केशी तथा नरकासुर का नाश करनेवाले हैं, जिन्होंने बाल्यावस्था में अपने हाथ के अग्रभाग से गिरिराज गोवर्धन को धारण किया था, पृथ्वी के भार का अपहरण जिनका स्वाभाविक विनोद है, उन दिव्य शक्तिसम्पन्न भगवान् वासुदेव को मैं सदा प्रणाम करता हूँ।

लेभेऽवतीर्योग्रनृसिंहरूपी यो दैत्यवक्षः कठिनं शिलावत् ।

विदार्य संरक्षितवान्स्वभक्तं प्रह्लादमीशं तमजं नमामि ॥ ३०॥

जिन्होंने खम्भ में भयङ्कर नृसिंहरूप से अवतीर्ण हो पर्वत की चट्टान के समान कठोर दैत्य हिरण्यकशिपु के वक्षःस्थल को विदीर्ण करके अपने भक्त प्रह्लाद की रक्षा की उन अजन्मा परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ।

व्योमादिभिर्मूषितमात्मसंज्ञं निरञ्जनं नित्यममेयतत्त्वम् ।

जगद्विधातारमकर्मकं च परं पुराणं पुरुषं नतोऽस्मि ॥ ३१॥

जो आकाश आदि तत्त्वों से विभूषित, परमात्मा नाम से प्रसिद्ध, निरञ्जन, नित्य, अमेयतत्त्व तथा कर्मरहित हैं, उन विश्वविधाता पुराणपुरुष परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ।

ब्रह्मेन्द्ररुद्रानिलवायुमर्त्यगन्धर्वयक्षासुरदेवसङ्घैः ।

स्वमूर्तिभेदैः स्थित एक ईशस्तमादिमात्मानमहं भजामि ॥ ३२॥

जो ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र, अग्रि, वायु, मनुष्य, यक्ष, गन्धर्व, असुर तथा देवता आदि अपने विभिन्न स्वरूपों के साथ स्थित हैं, जो एक अद्वितीय परमेश्वर हैं, उन आदिपुरुष परमात्मा का मैं भजन करता हूँ।

यतो भिन्नमिदं सर्वं समुद्भूतं स्थितं च वै ।

यस्मिन्नेष्यति पश्चाच्च तमस्मि शरणं गतः ॥ ३३॥

यह भेदयुक्त सम्पूर्ण जगत् जिनसे उत्पन्न हुआ है, जिनमें स्थित है और संहारकाल में जिनमें लीन हो जायगा, उन परमात्मा की मैं शरण लेता हूँ।

यः स्थितो विश्वरूपेण सङ्गीवात्र प्रतीयते ।

असङ्गी परिपूर्णश्च तमस्मि शरणं गतः ॥ ३४॥

जो विश्वरूप में स्थित होकर यहाँ आसक्त से प्रतीत होते हैं, परंतु वास्तव में जो असङ्ग और परिपूर्ण हैं, उन परमेश्वर की मैं शरण लेता हूँ।

हृदि स्थितोऽपि यो देवो मायया मोहितात्मनाम् ।

न ज्ञायते परः शुद्धस्तमस्मि शरणं गतः ॥ ३५॥

जो भगवान् सबके हृदय में स्थिर होकर भी माया से मोहित चित्तवालों के अनुभव में नहीं आते तथा जो परम शुद्धस्वरूप हैं, उनकी मैं शरण लेता हूँ।

सर्वसंगनिवृत्तानां ध्यानयोगरतात्मनाम् ।

सर्वत्र भाति ज्ञानात्मा तमस्मि शरणं गतः ॥ ३६॥

जो लोग सब प्रकार की आसक्तियों से दूर रहकर ध्यानयोग में अपने मन को लगाये हुए हैं, उन्हें जो सर्वत्र ज्ञानस्वरूप प्रतीत होते हैं, उन परमात्मा की मैं शरण लेता हूँ।

दधार मन्दरं पृष्ठे नीरोदेऽमृतमन्थने ।

देवतानां हितार्थाय तं कूर्मं शरणं गतः ॥ ३७॥

क्षीरसागर में अमृतमन्थन के समय जिन्होंने देवताओं के हित के लिये मन्दराचल को अपनी पीठ पर धारण किया था, उन कूर्म रूपधारी भगवान् विष्णु की मैं शरण लेता हूँ।

दंष्ट्राङ्कुरेण योऽनन्तः समुद्धृत्यार्णवाद्धराम् ।

तस्थाविदं जगत्कृत्स्नं वाराहं तं नतोऽस्म्यहम् ॥ ३८॥

जिन अनन्त परमात्मा ने अपनी दाढ़ों के अग्रभाग द्वारा एकार्णव के जल से इस पृथ्वी का उद्धार करके सम्पूर्ण जगत्को स्थापित किया, उन वाराह रूपधारी भगवान् विष्णु को मैं नमस्कार करता हूँ।

प्रह्लादं गोपयन्दैत्यं शिलातिकठिनोरसम् ।

विदार्य हतवान्यो हि तं नृसिंहं नतोऽस्म्यहम् ॥ ३९॥

अपने भक्त प्रह्लाद की रक्षा करते हुए जिन्होंने पर्वत की शिला के समान अत्यन्त कठोर वक्षवाले हिरण्यकशिपु दैत्य को विदीर्ण करके मार डाला था, उन भगवान् नृसिंह को मैं नमस्कार करता हूँ।

लब्ध्वा वैरोचनेर्भूमिं द्वाभ्यां पद्भ्यामतीत्य यः ।

आब्रह्मभुवनं पादात्सुरेभ्यस्तं नतोऽजितम् ॥ ४०॥

विरोचनकुमार बलि से तीन पग भूमि पाकर जिन्होंने दो ही पगों से ब्रह्मलोकपर्यन्त सम्पूर्ण विश्व को माप लिया और उसे पुनः देवताओं को समर्पित कर दिया, उन अपराजित भगवान् वामन को मैं नमस्कार करता हूँ ।

हैहयस्यापराधेन ह्येकविंशतिसङ्ख्यया ।

क्षत्रियान्वयभेत्ता यो जामदग्न्यं नतोऽस्मि तम् ॥ ४१॥

हैहयराज सहस्रबाहु अर्जुन के अपराध से जिन्होंने समस्त क्षत्रियकुल का इक्कीस बार संहार किया, उन जमदग्रिनन्दन भगवान् परशुराम को नमस्कार है।

आविर्भूतश्चतुर्द्धा यः कपिभिः परिवारितः ।

घ्नतवान्राक्षसानीकं रामचन्द्रं नतोऽस्म्यहम् ॥ ४२॥

जिन्होंने राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्नइन चार रूपों में प्रकट हो वानरों की सेना से घिरकर राक्षसदल का संहार किया था, उन भगवान् श्रीरामचन्द्र को मैं नमस्कार करता हूँ।

मूर्तिद्वयं समाश्रित्य भूभारमपहृत्य च ।

सञ्जहार कुलं स्वं यस्तं श्रीकृष्णमहं भजे ॥ ४३॥

जिन्होंने श्रीबलराम और श्रीकृष्ण- इन दो स्वरूपों को धारण करके पृथ्वी का भार उतारा और अपने यादवकुल का संहार कर दिया, उन भगवान् कृष्ण का मैं भजन करता हूँ।

भूम्यादिलोकत्रितयं सन्तृप्तात्मानमात्मनि ।

पश्यन्ति निर्मलं शुद्धं तमीशानं भजाम्यहम् ॥ ४४॥

भूः,भुवः स्वः - तीनों लोकों में व्याप्त अपने हृदय में साक्षात्कार करनेवाले निर्मल बुद्धरूप परमेश्वर का मैं भजन करता हूँ।

युगान्ते पापिनोऽशुद्धान्भित्त्वा तीक्ष्णसुधारया ।

स्थापयामास यो धर्मं कृतादौ तं नमाम्यहम् ॥ ४५॥

कलियुग के अन्त में अशुद्ध चित्तवाले पापियों को तलवार की तीखी धार से मारकर जिन्होंने सत्ययुग के आदि में धर्म की स्थापना की है, उन कल्किस्वरूप भगवान् विष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ।

एवमादीन्यनेकानि यस्य रूपाणि पाण्डवाः ।

न शक्यं तेन सङ्ख्यातुं कोट्यब्दैरपि तं भजे ॥ ४६॥

इस प्रकार जिनके अनेक स्वरूपों की गणना बड़े-बड़े विद्वान् करोड़ों वर्षों में भी नहीं कर सकते, उन भगवान् विष्णु का मैं भजन करता हूँ।

महिमानं तु यन्नाम्नः परं गन्तुं मुनीश्वराः ।

देवासुराश्च मनवः कथं तं क्षुल्लको भजे ॥ ४७॥

जिनके नाम की महिमा का पार पाने में सम्पूर्ण देवता, असुर और मनुष्य भी समर्थ नहीं हैं, उन परमेश्वर की मैं एक क्षुद्र जीव किस प्रकार स्तुति करूँ।

यन्नामश्रवणेनापि महापातकिनो नराः ।

पवित्रतां प्रपद्यन्ते तं कथं स्तौमि चाल्पधीः ॥ ४८॥

महापात की मानव जिनके नाम का श्रवण करनेमात्र से ही पवित्र हो जाते हैं, उन भगवान्की स्तुति मुझ- जैसा अल्प बुद्धिवाला व्यक्ति कैसे कर सकता हैं।

यथाकथञ्चिद्यन्नाम्नि कीर्तिते वा श्रुतेऽपि वा ।

पापिनस्तु विशुद्धाः स्युः शुद्धा मोक्षमवाप्नुयुः ॥ ४९॥

जिनके नाम का जिस किसी प्रकार कीर्तन अथवा श्रवण कर लेने पर भी पापी पुरुष अत्यन्त शुद्ध हो जाते हैं और शुद्धात्मा मनुष्य मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं।

आत्मन्यात्मानमाधाय योगिनो गतकल्मषाः ।

पश्यन्ति यं ज्ञानरूपं तमस्मि शरणं गतः ॥ ५०॥

निष्पाप योगीजन अपने मन को बुद्धि में स्थापित करके जिनका साक्षात्कार करते हैं, उन ज्ञानस्वरूप परमेश्वर की मैं शरण लेता हूँ।

साङ्ख्याः सर्वेषु पश्यन्ति परिपूर्णात्मकं हरिम् ।

तमादिदेवमजरं ज्ञानरूपं भजाम्यहम् ॥ ५१॥

सांख्ययोगी सम्पूर्ण भूतों में आत्मारूप से परिपूर्ण हुए जिन जरारहित आदिदेव श्रीहरि का साक्षात्कार करते हैं, उन ज्ञानस्वरूप भगवान्का मैं भजन करता हूँ।

सर्वसत्त्वमयं शान्तं सर्वद्रष्टारमीश्वरम् ।

सहस्रशीर्षकं देवं वन्दे भावात्मकं हरिम् ॥ ५२॥

सम्पूर्ण जीव जिनके स्वरूप हैं, जो शान्तस्वरूप हैं, सबके साक्षी, ईश्वर, सहस्रों मस्तकों से सुशोभित तथा भावरूप हैं, उन भगवान् श्रीहरि की मैं वन्दना करता हूँ।

यद्भूतं यच्च वै भाव्यं स्थावरं जङ्गमं जगत् ।

दशाङ्गुलं योऽत्यतिष्ठत्तमीशमजरं भजे ॥ ५३॥

भूत और भविष्य चराचर जगत्‌ को व्याप्त करके जो उससे दस अङ्गुल ऊपर स्थित हैं, उन जरा मृत्युरहित परमेश्वर का मैं भजन करता हूँ।

अणोरणीयांसमजं महतश्च महत्तरम् ।

गुह्याद्गुह्यतमं देवं प्रणमामि पुनः पुनः ॥ ५४॥

जो सूक्ष्म से भी अत्यन्त सूक्ष्म, महान्से भी अत्यन्त महान् तथा गुह्य से भी अत्यन्त गुह्य हैं, उन अजन्मा भगवान्‌ को मैं बार-बार प्रणाम करता हूँ।

ध्यातः स्मृतः पूजितो वा श्रितः प्रणमितोऽपि वा ।

स्वपदं यो ददातीशस्तं वन्दे पुरुषोत्तमम् ॥ ५५॥

जो परमेश्वर ध्यान, चिन्तन, पूजन, श्रवण अथवा नमस्कार मात्र कर लेने पर भी जीव को अपना परम पद दे देते हैं, उन भगवान् पुरुषोत्तम की मैं वन्दना करता हूँ।

श्रीविष्णु स्तोत्रम् महात्म्य

इति स्तुवन्तं परमं परेशं हर्षाम्बुसंरुद्धविलोचनास्ते ।

मुनीश्वरा नारदसंयुतास्तु सनन्दनाद्याः प्रमुदं प्रजग्मुः ॥ ५६॥

इस प्रकार परम पुरुष परमेश्वर की नारदजी के स्तुति करने पर नारदसहित वे सनन्दन आदि मुनीश्वर बड़ी प्रसन्नता को प्राप्त हुए । उनके नेत्रों में आनन्द के आँसू भर आये थे।

य इदं प्रातरुत्थाय पठेद्वै पौरुषं स्तवम् ।

सर्वपापविशुद्धात्मा विष्णुलोकं स गच्छति ॥ ५७॥

जो मनुष्य प्रातः- काल उठकर परम पुरुष भगवान् विष्णु के उपर्युक्त स्तोत्र का पाठ करता है, वह सब पापों से शुद्धचित्त होकर भगवान् विष्णु के लोक में जाता है।

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे प्रथमपादे नारदायशौनककृतविष्णुस्तुतिर्नाम द्वितीयोध्यायः ॥ 

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