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जनार्दन स्तवन

जनार्दन स्तवन

श्रीनरसिंहपुराण के अध्याय १० श्लोक ३३-४० में वर्णित मार्कण्डेयकृत इस जनार्दन स्तवन का नित्य पाठ सभी पापों का नाश करनेवाला व सभी मनोरथ को सिद्ध करनेवाला है।

जनार्दन स्तवन

जनार्दन स्तवन

Janardan stavan

जनार्दन स्तवन स्तोत्र

जनार्दन स्तव

जनार्दन स्तवन

मार्कण्डेय उवाच

नमोऽस्तु ते देवदेव महाचित्त

महाकाय महाप्राज्ञ महादेव

महाकीर्ते ब्रह्मेन्द्रचन्द्ररुद्रार्चिंत

पादयुगल श्रीपद्महस्त सम्पर्दितदैत्यदेह ॥३३॥

मार्कण्डेयजी बोले - महामना ! महाकाय ! महामते ! महादेव ! महायशस्वी ! देवाधिदेव ! आपको नमस्कार हैं । ब्रह्मा, इन्द्र, चन्द्रमा तथा रुद्र निरन्तर आपके युगलचरणारविन्दों की अर्चना करते हैं । आपके हाथ में शोभाशाली कमल सुशोभित होता है; आपने दैत्यों के शरीरीं को मसल डाला है, आपको नमस्कार है ।

अनन्तभोगशयनार्पितसर्वाङ्ग

सनकसनन्दनसनत्कुमाराद्यैर्योगिभि-

र्नासाग्रन्यस्तलोचनैरनवरतमभिचिन्तितमोक्षतत्त्व ।

गन्धर्वविद्याधरयक्षकिंनरकिम्पुरुषैर-

हरहोगीयमानदिव्ययशः ॥३४॥

आप 'अनन्त' नाम से विख्यात शेषनाग के शरीर की शय्या को अपने सम्पूर्ण अङ्ग समर्पित कर देते हैं- उसी पर शयन करते हैं। सनक, सनन्दन और सनत्कुमार आदि योगीजन अपने नेत्रों की दृष्टि को नासिका के अग्रभाग पर सुस्थिर करके नित्य निरन्तर जिस मोक्षतत्त्व का चिन्तन करते हैं, वह आप ही हैं । गन्धर्व, विद्याधर, यक्ष, किंनर और किम्पुरुष प्रतिदिन आपके ही दिव्य सुयश का गान करते रहते हैं ।

नृसिंह नारायण पद्मनाभ

गोविन्द गोवर्द्धनगुहानिवास

योगीश्वर देवेश्वर जलेश्वर महेश्वर ॥३५॥

नृसिंह ! नारायण ! पद्मनाभ ! गोविन्द ! गिरिराज गोवर्धन की कन्दरा में क्रीड़ा- विश्रामादि के लिये निवास करनेवाले ! योगीश्वर ! देवेश्वर ! जलेश्वर और महेश्वर आपको नमस्कार है।

योगधर महामायाधर विद्याक्षर

यशोधर कीर्तिधर त्रिगुणनिवास

त्रितत्त्वधर त्रेताग्निधर ॥३६॥

योगधर! महामायाधर ! विद्याधर ! यशोधर ! कीर्तिधर ! सत्त्वादि तीनों गुणों के आश्रय ! त्रितत्त्वधारी तथा गार्हपत्यादि तीनों अग्नियों को धारण करनेवाले देव ! आपको प्रणाम है ।

त्रिवेदभाक् त्रिनिकेत

त्रिसुपर्ण त्रिदण्डधर ॥३७॥

आप ऋक्, साम और यजुष्-इन तीनों वेदों के परम प्रतिपाद्य, त्रिनिकेत (तीनों लोकों के आश्रय), त्रिसुपर्ण, मन्त्ररूप और त्रिदण्डधारी हैं ऐसे आपको प्रणाम है।

स्निग्धमेघाभार्चितद्युतिविराजित

पीताम्बरधर किरीटकटककेयूरहार-

मणिरत्नांशुदीप्तिविद्योतितसर्वदिश ॥३८॥

स्निग्ध मेघ की आभा के सदृश सुन्दर श्यामकान्ति से सुशोभित, पीताम्बरधारी, किरीट, वलय, केयूर और हारों में जटित मणिरत्नों की किरणों से समस्त दिशाओं को प्रकाशित करनेवाले नारायणदेव! आपको नमस्कार है।

कनकमणिकुण्डलमण्डितगण्डस्थल

मधुसूदन विश्वमूर्ते ॥३९॥

सुवर्ण और मणियों से बने हुए कुण्डल द्वारा अलंकृत कपोलोंवाले मधुसूदन ! विश्वमूर्ते आपको प्रणाम है।

लोकनाथ यज्ञेश्वर यज्ञप्रिय तेजोमय

भक्तिप्रिय वासुदेव दुरितापहाराराध्य

पुरुषोत्तम नमोऽस्तु ते ॥४०॥

लोकनाथ यज्ञेश्वर यज्ञप्रिय ! तेजोमय! भक्तिप्रिय वासुदेव! पापहारिन् ! आराध्यदेव पुरुषोत्तम! आपको नमस्कार है ॥ ३३४० ॥

इति श्रीनरसिंहपुराणे मार्कण्डेयकृतं जनार्दन स्तवनं दशमोऽध्यायः ॥

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